गुरुवार, 31 दिसंबर 2009

राससुन्दरी दासी की यह आत्मकथा 'आमार जीबोन'


राससुन्दरी  दासी  की यह आत्मकथा 'आमार जीबोन' नाम से सन्1876 में पहली बार छपकर आई। जब वे साठ बरस की थीं तो इसका पहला भाग लिखा था। 88 वर्ष की उम्र में राससुन्दरी देवी ने इसका दूसरा भाग लिखा। जिस समय राससुन्दरी देवी यह कथा लिख रही थी, वह समय 88 वर्ष की बूढ़ी विधवा और नाती-पोतों वाली स्त्री के लिए भगवत् भजन का बतलाया गया है। इससे भी बड़ी चीज कि परंपरित समाजों में स्त्री जैसा जीवन व्यतीत करती है, उसमें केवल दूसरों द्वारा चुनी हुई परिस्थितियों में जीवन का चुनाव होता है। उस पर टिप्पणी करना या उसका मूल्यांकन करना स्त्री के लिए लगभग प्रतिबंधित होता है। स्त्री अभिव्यक्ति के लिए ऐसे दमनात्मक माहौल में राससुन्दरी देवी का अपनी आत्मकथा लिखना कम महत्त्वपूर्ण बात नहीं है। यह आत्मकथा कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। सबसे बड़ा आकर्षण तो यही है कि यह एक स्त्री द्वारा लिखी गई आत्मकथा है। स्त्री का लेखन पुरुषों के लिए न सिर्फ़ जिज्ञासा और कौतूहल का विषय होता है वरन् भय और चुनौती का भी। इसी भाव के साथ वे स्त्री के आत्मकथात्मक लेखन की तरफ प्रवृत्त होते हैं। प्रशंसा और स्वीकार के साथ नहीं; क्योंकि स्त्री का अपने बारे में बोलना केवल अपने बारे में नहीं होता बल्कि वह पूरे समाजिक परिवेश पर भी टिप्पणी होता है। समाज को बदलने की इच्छा स्त्री-लेखन का अण्डरटोन होती है। इस कारण स्त्री की आत्मकथा वह चाहे जितना ही परंपरित कलेवर में परंपरित भाव को अभिव्यक्त करनेवाल क्यों न हो, वह परिस्थितियों का स्वीकार नहीं हो सकता; वह परिस्थितियों की आलोचना ही होगा।

  राससुन्दरी देवी की आत्मकथा में कई ऐसी चीजें हैं जो अत्यंत साधारण लगते हुए भी विशिष्ट हैं। पहले पाठ में यह आत्मकथा एक ऐसी संतुष्ट स्त्री की कहानी लगती है जो अपने घर-परिवार, घर में मिले लाड़-दुलार, सामाजिक हैसियत, बेटे-बेटियों और पोते-पोतियों, नाती-नातिनों के साथ, भरे-पूरे परिवार के बीच एक गृहस्थ स्त्री की साध भरी दुनिया में संतुष्ट है। विश्लेषण-वर्णन का अद्भुत तरीका अपनाया है राससुंदरी देवी ने! स्त्री भाषा का एकदम आदर्श नमूना ठण्डी, निरुद्वेग और किसी भी तरह की चापलूसी से रहित! न शिकायत है न आरोप -प्रत्यारोप! फिर भी स्त्री के पक्ष से सारी बातें कह जाती हैं।

  सबसे पहले मैं स्त्री आत्मकथा लेखन की दिक्कतों के बारे में कुछ कहना चाहती हूँ। यह पहली बार हुआ कि 19वीं सदी के आरंभ में बड़े पैमाने पर स्त्री लेखन और स्त्री आत्मकथात्मक लेखन दोनों सामने आते हैं। चूंकि स्त्री लेखन का संसार उसके अनुभव के संसार से ही शुरु होता है, इसलिए स्त्री के आरंभिक लेखन में स्त्री के अनुभव का संसार अति परिचय की हद तक शामिल है। घर -परिवार, पति-बच्चे, घरुआ वातावरण और इसके भीतर के शक्ति संबंधों की दुनिया सब इतनी ज्यादा पहचानी हुई लगती है कि वह महत्तवहीन हो जाती है। ध्यान रखना चाहिए कि महत्वहीन या महत्वपूर्ण साबित करने का काम स्त्री लेखिका नहीं बल्कि पुंसवादी लेखकीय मानदण्डों के आधार पर पुरुष आलोचक लेखक करता है। ऐसे में स्त्री के अस्तित्व को लेकर उसकी के प्रति जो उपेक्षाभाव घर और समाज में होता है, उसी की झलक विचारों और लेखन की दुनिया में भी दिखाई देती है। हिन्दी आत्मकथात्मक साहित्य का आलम यह है कि साहित्येतिहास की पुस्तकों में पहले भारतेन्दु की रचना 'कुछ आपबीती कुछ जगबीती' को हिन्दी की पहली आत्मकथा लेखन का प्रयास कहा गया और फिर जब तक बनारसीदास के 'अर्ध्दकथानक' को नहीं खोज लिया गया, आत्मकथा लेखन की शुरुआत नहीं मानी गई। जबकि स्त्रियों द्वारा लिखे गए आत्मकथात्मक गद्य के नमूने पहले भी मिलते हैं, लेकिन उन पर आत्मकथा की कोटि के तहत विचार नहीं किया गया।

  मैं विधा के रूप में आत्मकथा के जेनर पर पहले बात करना चाहती हँ। आत्मकथा के विधा की जिस रूप में संरचना तय की गई है, वह अपने आप में बहिष्कारमूलक और समस्यामूलक है। यह महाकाव्य की तरह है जिसके लिए एक महान् नरैटिव और आदि-अंत का बखान जरुरी है। साथ ही विषय से दूरत्व का बोध भी जरुरी है। जितनी दूर का विषय होगा, उतनी शानदार प्रस्तुति होगी,पर मुश्किल यह है कि स्त्री लिखते समय अपने से दूरी नहीं बनाए रख सकती। स्त्री वर्तमान से गहरे संपृक्त होती है। अतीत उसका नहीं है। अतीत पर उसका नियंत्रण भी नहीं है। इस कारण लिखते समय वह वर्तमान की समस्याओं और जटिलताओं का विश्लेषण प्रस्तुत करती है। बिना ऐसा किए वह रह नहीं सकती। कारण कि जिन सामाजिक-राजनीतिक असंगतियों को वह झेलती है लिखते समय उसका विश्लेषण न करे, यह संभव नहीं है। स्त्री के सामने आत्मकथा लिखते समय अजीब द्वन्द्व की स्थिति होती है। जिसके बारे में लिख रही होती है, वह वो स्वयं होती है; जिस औजार के जरिए लिख रही होती है यानि भाषा उसमें उसके अपने अनुभव के शब्द नहीं होते। संसार को नामित करने की प्रक्रिया से वह बाहर होती है। इन सबसे मुश्किल स्थिति यह है कि वह जब तक आत्मकथा लेखन में 'सब्जेक्ट' की भूमिका में नहीं होगी, तब तक वह नहीं लिख सकती। स्त्री को'सब्जेक्ट' की भूमिका में कभी देखा ही नहीं गया है; वह रचना में, भाषा में, समाज में ऑब्जेक्ट ही रही है।

  आत्मकथा 'सेल्फ' के उद्धाटन का क्षेत्र है। स्त्री के स्व को समाज और भाषा में इतनी पाबंदियों के बीच रखा गया है कि उसका ठीक ठीक बाहर आना संभव नहीं है। विखण्डन, बिखराव, टूट-फूट, असंगतियाँ इसकी विशेषता है। तो आत्मकथा का जो महाख्यानमूलक रूप है, स्त्री की आत्मकथा उसके आस-पास भी नहीं ठहरती। पुरुष आत्मकथाओं में परिवेश का चित्रण उसकी महानता और गरिमा के साथ एक महान् कहानी को निर्मित करने के लिए होता है। साधारण परिवेश का गरिमापूर्ण चित्रण पुरुष 'सब्जेक्ट' के साथ द्वन्द्वात्मक और संघर्षपूर्ण रूप में दिखाया जाता है और आत्मकथा के अंत तक जाते-जाते साबित कर दिया जाता है कि पुरुष का अपने परिवेश पर नियंत्रण है। वह परिस्थितियों का दास नहीं, उनका मालिक हैं। वहाँ गरीबी जैसी डरानेवाली चीज भी पुरुष को उसकी महानता और लक्ष्य से भटका नहीं सकती। गरीबी में स्त्रियाँ बिक सकती हैं, उनकी देह और आत्मा सीधे इसका शिकार बनती है, पर पुरुष के लिए वह चुनौतियों का सृजन करती है जिसके पार उसकी महानता का संसार उसकी प्रतीक्षा में है। इसलिए गरीबी वहाँ'गर्बीली' होती है। 'पुरुष क्या श्रृंखला को तोड़ करके,चले आगे नहीं जो जोर करके' ! (दिनकर,रश्मिरथी)

 (लेखिका- सुधा सिंह) 

1 टिप्पणी:

  1. Aapne bilkul sahi likha hai,'Atmakatha' ka itihas padhate hue ham dekhate hain ki iske janmadatao ke rup me purusho ko hi manyata mili hai.Mahilae to bhule-bhatke bhi nahi dikhati.Mana ja raha hai ki mahilae to ab Atmakatha likhane lagi hai.Ek 'Rassundari dasi' thi( jo Atmakatha bhi likh gayi hai)se parichit karwane ke lie dhannyavad.

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