प्रश्न : वर्तमान में अटलांटिक अकादमी में सांस्कृतिक अध्ययन प्रचलन में है। यद्यपि कई शिक्षाविद यह दावा करते हैं कि उनकी सांस्कृतिक आलोचना स्वयं काफी विध्वंसात्मक है, फिर भी वे ऐसे किसी भी सांस्कृतिक लेखन को 'भौंड़ा' समझते हैं जो सिध्दांत को अकादमी से बाहर राजनीतिक प्रतिबध्दता से जोड़ता हो। अत: उदाहरण के लिए, सांस्कृतिक अध्ययन के दो बार-बार उध्दृत किए जाने वाले प्रर्वतकों, अंतोनियो ग्राम्शी और रेमंड विलियम्स को भी महज सांस्कृतिक विचारक बना दिया जाता है यद्यपि दोनों ही राजनीतिक दृष्टि से सक्रिय बुध्दिजीवी हैं। सांस्कृतिक अध्ययन की इस अवधारणा के प्रति आपका क्या विचार है?
अहमद : मेरे अपने लेख और यहां तक कि मेरी गद्यशैली इस बात के प्रमाण हैं कि मार्क्सवाद के स्तालिनवादी किस्म के विरूपण और सरलीकरण की मुझे आवश्यकता नहीं, जिसे प्राय: 'भौंड़ा' कहा जाता है। लेकिन 'भौंड़ेपन' के आज के संस्कृतिवादी आरोपों में जो दांव पर है, वास्तव में वह नहीं है। मुझे लगता है इस तरह के आरोप उन सभी के खिलाफ हैं जो संस्कृति और वर्ग के बीच; सामाजिक उत्पीड़न और आर्थिक शोषण के बीच; शैक्षिक संस्थान में सांस्कृतिक कार्य तथा संस्थान के बाहर राजनीतिक दायित्व के बीच; पूंजीवादी संस्कृति की मीमांसा तथा मेहनतकश वर्ग की क्रांतिकारी राजनीति के अर्थ में समाजवादी परिवर्तन के प्रति प्रतिबध्दता के बीच एक प्रत्यक्ष और सुसंगत संबंध स्थापित करते हैं। इस प्रकार के सभी लेखन को 'भौंड़ा' मानकर अस्वीकार करने वाली अवांगार्दिस्त सर्वसम्मति फ्रांस में 1968 की हार, 'गॉलिस्ट' पार्टी की सत्ता में वापसी, 1970 के दशक में फ्रांसीसी पूंजीवाद के आधुनिकीकरण तथा मितरां के शासन काल में इन सब के जारी रहने के बाद हावी हो गई थी। संयुक्त राज्य अमरीका में सांस्कृतिक अध्ययन की क्रांतिकारी मार्क्सवाद और श्रमिक विचार परंपराओं से यह दूरी गत दो दशकों में हुई। इसके कारण कुछ हद तक साम्यवाद-विरोधी अतिसशक्त परंपराओं का होना, कुछ पेरिस के विचारों का आयात तथा आंशिक रूप से1960 के दशक के वामपंथ का अगले दशक में पतन होना आदि थे। फिर 1989 की जनतांत्रिक क्रांति तथा मुक्ति का वर्ष मनाने की विचित्र स्वीकृति ने सभी को वर्ग संघर्ष की अशिष्ट सच्चाई की बात करने वाली हर चीज को 'भौंड़ा' कहकर खारिज करने का अधिकार प्रदान कर दिया।
इस माहौल में स्वाभाविक है कि ग्राम्शी के विचार को इसके क्रांतिकारी आरोप से मुक्त कर दिया जाएगा और संयुक्त राज्य में उसे मैथ्यू आर्नोल्ड और जूलियन बेंदा के तर्ज पर सांस्कृतिक आलोचक के रूप में प्रस्तुत किया जाएगा। यहां तक कि एडवर्ड सईद तो ग्राम्शी का उद्भव सीधे 'क्रॉस' से बताते हैं जो कि यह कहने के समान है कि मार्क्स कोई मीमांसा प्रस्तुत नहीं करते बल्कि हीगेल के विचारों का अनुकरण करते हैं। और ध्यान रहे यह वही क्रॉस हैं जिन्होंने 1924 के चुनावों में फासीवादियों के पक्ष में सक्रिय अभियान चलाया था। इन्हीं चुनावों ने ग्राम्शी की किस्मत पर हमेशा के लिए ताला जड़ दिया था। यह कोई नहीं कहना चाहता कि 'संस्कृति' के बारे में ग्राम्शी के विचार इस तथ्य से अलग नहीं किए जा सकते कि वह प्रथम विश्वयुध्द के बाद यूरोप में हुए सबसे बड़े सर्वहारा विद्रोह के केंद्र में था या यह संस्कृति की श्रेणी नहीं बल्कि इतालवी साम्यवादी आंदोलन की सामरिक दुविधा है जो 'प्रिजन नोटबुक्स' के रचयिता को अनिवार्य एकता प्रदान करती है। यदि आप कहेंगे कि भड़कीली अग्रगामी पत्रिकाओं में ग्राम्शी की प्रशंसा करने तथा उसके जीवन की केंद्रीय राजनीतिक प्रतिबध्दता के प्रश्न का लोप करने के बीच कोई संबंध है तो आप 'अशिष्ट', नैतिक-'वादी' आदि कहे जाएंगे।
रेमंड विलियम्स के मामले की तुलना ग्राम्शी से पूरी तरह नहीं की जा सकती। लेकिन सांस्कृतिक अध्ययन के बारे में मुझे एक बात आकर्षक लगती है। इंगलैंड में सांस्कृतिक अध्ययनों की शुरुआत मेहनतकश वर्ग की आकांक्षाओं से अलग नहीं हुई थी। सामान्यतया उनका सरोकार इस बात से था कि समाज के वंचित लोग, बूढ़े, निर्धन, घरेलू श्रमिक तथा न्यूनतम वेतन पर काम करने वाली महिलाएं, सर्वहारा पुरुष और बच्चे जो निजी स्कूलों में पढ़ने का स्वप्न भी नहीं देख सकते थे, किस प्रकार उच्चवर्गीय संस्कृति के दबावों तथा अपने जीवन के सांस्कृतिक मूल्यों के बीच फंस जाते हैं। आरंभ में विलियम्स ने जिस प्रकार अपनी परियोजना की कल्पना की, वह काफी हद तक वयस्क शिक्षा के क्षेत्र में उसके कार्य तथा समाजवादी और शांति आंदोलनों में उसकी भागीदारी के कारण था। बर्मिंघम विश्वविद्यालय (समकालीन सांस्कृतिक अध्ययन का केंद्र) के शिक्षाविद आरंभ में इसी प्रकार के विचार लेकर बाहर आए। यह तो बाद में उनमें से कुछ फ्रांसीसी उत्तर-संरचनावाद की आंधी में बह गए क्योंकि यह आंधी ब्रिटिश प्रायद्वीप को अपने साथ उड़ा ले गई। ब्रिटिश सांस्कृतिक अध्ययन के क्षेत्र में अब जो भी कार्य किए जा रहे हैं मुझे लगता है उनमें से अधिकांश उन पहले की प्रतिबध्दताओं तथा बाद की दुर्बोधता के बीच वितरित कर दी जा रही हो।
सांस्कृतिक अध्ययन जिस समय तक संयुक्त राज्य पहुंचा, उन मूल विचारों की छाया मात्र शेष रह गई थी और वह भी गिने-चुने लेखन में ही। उल्लेखनीय बात यह थी कि यह यहां नीचे के स्तर से दबाव के कारण नहीं आया बल्कि अधिकांशतया काफी स्थापित लोगों के कारण आया। उदाहरण के लिए संयुक्त राज्य में अश्वेत साहित्य नागरिक अधिकारों संबंधी आंदोलन तथा अश्वेत सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के कारण हुए विद्रोह के परिणामस्वरूप एक गंभीर शैक्षिक विषय बन गया था। इसके विपरीत सांस्कृतिक अध्ययन का प्रादुर्भाव एक विश्वव्यापी महाद्वीपीय शिक्षाशास्त्र और शैली के रूप में हुआ। इस स्थिति में विलियम्स को प्राय: बहुत गिने-चुने लोग ही याद करते थे। दरअसल हाल में तो विलियम्स हर प्रकार के हास्य व्यंग्य के पात्र बन गए हैं।
प्रश्न : आपके अधिकांश सांस्कृतिक लेखन का सरोकार साहित्य तथा तीसरी दुनिया के अन्य सांस्कृतिक कलाकृतियों से है। फिर भी आपने 'तीसरी दुनिया की संस्कृति' के विचार तथा पाश्चात्य विचारधारा द्वारा समाहित और प्रकृतिस्थ तथाकथित तीसरी दुनिया की सांस्कृतिक कलाकृतियों की विध्वंसात्मक शक्ति के बारे में संदेह व्यक्त किया है। क्यों?
अहमद : मैं आपके प्रश्न के आधार-वाक्य से ही सहमत नहीं हूं। क्योंकि पहली बात तो तीसरी दुनिया की संस्कृति के विचार के बारे में मुझे जितना संदेह है, 'पाश्चात्य विचारधारा' की धारणा के प्रति उससे कम संदेह नहीं है। 'तीसरी दुनिया' की धारणा के समान ही तथाकथित 'पश्चिम' भी स्वाभाविक रूप से एक बहुत ही बेतुकी बात है। यहां तक कि राष्ट्र विशेष की भी एक ही विचारधारा या एक ही संस्कृति हो, ऐसा नहीं हो सकता। मुझे लगता है प्रत्येक देश विचारधारात्मक और सांस्कृतिक प्रतिस्पध्र्दा का एक समूह है। मैंने यह भी कहा है कि तीसरी दुनिया के देशों की एक दूसरे की सांस्कृतिक कलाकृतियों तक शायद बहुत ही कम प्रत्यक्ष पहुंच है। उदाहरण के लिए, भारतीय लातिन अमरीकी उपन्यासों का आयात नहीं करते। हम केवल उन लातिन अमरीकी उपन्यासों को पढ़ते हैं जो लंदन या न्यूयार्क जैसे स्थानों पर अंग्रेजी में अनूदित या प्रकाशित होते हैं। इस प्रकार के उपन्यासों के समीक्षात्मक अध्ययन के लिए एक भारतीय लातिन अमरीका के बारे में प्रतीकात्मक रूप से विद्वतापूर्ण सामग्री का अध्ययन करेगा जिसका प्रकाशन भी इन्हीं अटलांटिक जोन से होता है। मेरा मतलब यह नहीं है कि केवल एक ही विचारधारा यह निर्धारित करती है कि किन लातिन अमरीकी उपन्यासों का अनुवाद किया जाएगा या उन्हें कैसे पढ़ा जाएगा। लेकिन मेरा आशय यह अवश्य है कि इस प्रकार के उपन्यासों के बारे में हमारा ज्ञान अत्यधिक व्यवहृत होगा, जो कि ऐंग्लो-अमरीकन विश्वविद्यालयों तथा प्रकाशनों में एकत्रित ज्ञान संकुलों द्वारा निर्धारित होगा।
जहां तक इस प्रकार की सांस्कृतिक कलाकृतियों की विध्वंसात्मक शक्ति का संबंध है मुझे तनिक भी विश्वास नहीं है कि तीसरी दुनिया में एकत्रित सभी या अधिकांश सांस्कृतिक कलाकृतियां अनिवार्य रूप से विध्वंसात्मक हैं। किसी भी महिला से पूछिए, और उसकाउत्तर यही होगा कि इस प्रकार के अधिकांश पाठ बिलकुल नियामक हैं और उनके अपने इलाकों में काफी रूढ़िवादी तथा समता-विरोधी हैं। उदाहरण के लिए टैगोर का कोई उपन्यास संयुक्त राज्य में तीसरी दुनिया से आए पुस्तक के रूप में पढ़ाया जा सकता है। चूंकि उपन्यास तीसरी दुनिया यानी 'हाशिए' (जैसा कि इसके लिए नया फैशनेबुल शब्द दिया जाएगा) से आया हुआ है अत: यह अंतर्निष्ठ रूप से विध्वंसात्मक होगा। लेकिन भारत में टैगोर एक बहुत बड़े प्रभावशाली शख्सियत हैं इसलिए उनके उपन्यास को शायद ही 'विध्वंसात्मक' माना जा सकता है। दूसरी ओर, 'हां' पश्चिम को जाने वाली तीसरी दुनिया की कुछ सांस्कृतिक कलाकृतियों की विषयवस्तु विध्वंसात्मक होती है जो पश्चिम की प्रबल संस्कृति के अध्यापन सामग्रियों में स्वांगीकरण की प्रक्रिया में समाप्त हो जाती है। लेकिन यह प्रसामान्यीकरण इसलिए नहीं होता है कि पश्चिमी विचारधारा तीसरी दुनिया के पाठ को किसी विशेष रूप में (सामान्य विदेश प्रेम से अलग) सामान्य बनाती है बल्कि इसलिए कि पश्चिमी विद्वतसमाज सभी चीज को पालतू बनाना चाहता है यहां तक कि मार्क्स को भी।
प्रश्न : फ्रेडरिक जेमसन ने उत्तरआधुनिकतावाद और राष्ट्रवाद के बीच विरोध की प्रस्थापना की है : उत्तरआधुनिकतावाद को विकसित दुनिया में हाल के पूंजीवाद के 'सांस्कृतिक तर्क' के रूप में तथा राष्ट्रीय रूपक को तीसरी दुनिया के राष्ट्रवादी प्रतिरोध के सांस्कृतिक तर्क के रूप में। सांस्कृतिक अध्ययन के लिए इस विरोध के निहितार्थ क्या हैं?
अहमद : स्पष्ट शब्दों में कहूं तो मैं नहीं जानता। जेमसन के कुछ हाल के लेखन को मैंने पढ़ा है जिससे लगता है कि अब उनका विचार वे नहीं हैं, कम से कम उस दोतरफा (बाइनरी) रूप में तो नहीं। अब वह वैश्विक स्तर पर उत्तरआधुनिकतावादी सांस्कृतिक तर्क के प्रकटीकरण की 'मैपिंग' में व्यस्त हैं। इसी बीच राष्ट्रवाद को एंग्लो-अमरीकी विद्वतसमाज में अत्यधिक अनादर से देखा जाता है लेकिन इतने सहज रूप में कि मैं अपने आपको बहुत कठिनाई में पाता हूं। राष्ट्रवाद के प्रति मेरा अविश्वास पुराना है क्योंकि कई राष्ट्रवादी मुझे बिलकुल फासीवादी नहीं तो कम से कम अतिराष्ट्रवादी लगते हैं। लेकिन सभी राष्ट्रवाद की सिरे से निंदा करना साम्राज्यवाद के प्रश्न की उपेक्षा करना है। मुझे लगता है कि जो लोग साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ रहे हैं अपने राष्ट्रवाद को बिलकुल ही नहीं छोड़ सकते। उन्हें इससे गुजरना है, अपने राष्ट्र-राज्य को प्रभावी रूप में बदलना है फिर दूसरी ओर पहुंचना है। यहां मैं स्वगत रूप में यह जोड़ना चाहूंगा कि पूर्व यूगोस्लाविया के विभिन्न क्षेत्रों में उत्पन्न सभी राष्ट्रवादों की उल्लेखनीय विशेषता यह है कि उनमें साम्राज्यवाद विरोधी अवयव नहीं है। इस तथ्य को छिपाने के लिए प्रति-साम्यवाद (एंटीकम्युनिज्म) बहुत उपयोगी है।
सांस्कृतिक अध्ययन के लिए इन सब का क्या अर्थ है? मुझे लगता आपने जिस दोतरफा विरोध की बात की, हम लोगों को उससे अलग हटना चाहिए। हमें सौंदर्यपरकउत्तरआधुनिकतावाद को इसके भूमंडलीकरण के क्षण में उत्तरी अमरीकी सांस्कृतिक शैली मानना होगा। अत: यह अप्राप्य रूप से एक निश्चित वर्चस्ववादी प्रयास से जुड़ा है जिसका आधार साम्राज्यवादी है। आप इनमें से कुछ का उपयोग अपने उद्देश्यों के लिए कर सकते हैं या नहीं भी कर सकते; लेकिन पहले आपको इस पशु की प्रकृति के बारे में जानना चाहिए। इस बीच राष्ट्रवाद को उत्तरआधुनिकतावाद का महज एक दूसरा रूप नहीं समझा जा सकता। जैसा कि मैंने कहा कि हमारे इर्द-गिर्द सभी प्रकार के राष्ट्रवाद हैं और उनमें से कई मानव जाति के लिए खतरा है। यह भी सत्य नहीं है कि 'राष्ट्र' ही एकमात्र, वांछनीय तरीका है जिसके जरिए हम अपनी सामूहिकता की कल्पना कर सकते हैं या राष्ट्रवाद ही तथाकथित तीसरी दुनिया में अधिकांश विरोधपरक सांस्कृतिक आचरणों में प्राण फूंकता है। किसी खास राष्ट्रवादी सांस्कृतिक पाठ की पुष्टि करने के पहले हमें यह जान लेना चाहिए कि यह किस प्रकार के राष्ट्रवाद का समर्थन कर रहा है और किन आचरणों को यह प्राधिकृत कर रहा है। इस अर्थ में, सांस्कृतिक ढांचे के रूप में राष्ट्रवाद के साथ कोई विशेषाधिकार जुड़ा नहीं है।
इसके आगे मुझे लगता है कि हमें इस बात की ओर लौटना चाहिए कि सांस्कृतिक आंदोलन इस बारे में है कि साधारण लोगों द्वारा अपनी विशिष्ट परिस्थितियों में संस्कृति को भौतिक रूप में कैसे जीया जाता है। इस विचार की ओर लौटना चाहिए कि संस्कृति हमेशा विशिष्ट होती है और हमेशा विशिष्ट विवाद क्षेत्रों के भीतर बनती है। मैं समझता हूं हमें 'आम लोगों की संस्कृति' के अर्थ में तथा उन विरोधपरक सांस्कृतिक आचरणों, जिन्हें राष्ट्र की सीमाओं से परे सभी उत्पीड़ित लोग वास्तव में मिलजुलकर अपनाते हों, के अर्थ में एक 'सर्वमान्य संस्कृति' के प्रत्यय की ओर लौटना चाहिए। और हमें इस प्रत्यय की ओर भी लौटना चाहिए कि सांस्कृतिक अध्ययन का उद्देश्य महज (ंफूको के पदबंध में) 'सुख की सत्ताओं' के रूप में संस्कृति का अध्ययन नहीं बल्कि उन संचार तंत्रों के रूप में संस्कृति का अध्ययन हो जो निर्धारित और सुस्पष्ट अर्थ उत्पन्न करे तथा वास्तविक जिंदगियों में अच्छा या बुरा परिवर्तन लाए। उस अर्थ में संस्कृति वर्चस्व के आचरणों से गहरी जुड़ी है इसलिए प्रतिरोध के सांस्कृतिक आचरण का निर्माण करना उससे कहीं अधिक कठिन है जितना समझा जाता है।
प्रश्न : आप कहते हैं कि कई राष्ट्रवादों पर आपको संदेह है। किन राजनीतिक परिस्थितियों में राष्ट्रवाद प्रगतिशील हो सकता है और किस बिंदु पर यह फासीवाद में तब्दील हो जाता है?
अहमद : यह पुन: इस बात पर निर्भर करता है कि आप किस प्रकार के राष्ट्रवाद की चर्चा कर रहे हैं और किस परिस्थिति में यह उत्पन्न हुआ है। ऐतिहासिक रूप से राष्ट्रवाद ने औपनिवेशिक जीत के विरोध में हमेशा प्रगतिशील भूमिका अदा की है। इसलिए नहीं कि जिन्हें पराजित किया गया है वे पहले ही राष्ट्र का निर्माण कर चुके होते हैं या राष्ट्रों को विशिष्ट संप्रभुता का कोई पूर्वनिर्धारित अधिकार है बल्कि मुख्य रूप से इसलिए कि विदेशीकब्जे का विरोध जनता को राजनीतिक रूप से जाग्रत करता है जो अब तक आधुनिक राजनीति के क्षेत्र से परे होती हैं। परिणामस्वरूप यह अनिवार्यत: राजनीतिक रंग ले चुकी आवाम के अधिकारों का प्रश्न खड़ा करता है। उस अर्थ में उपनिवेशवाद विरोधी राष्ट्रवाद व्यापक रूप से जनतांत्रिक है। इनमें से कुछ राष्ट्रवाद उस वक्त भी प्रगतिशील भूमिका निभाते हैं जब वे जनजातीय या सामुदायिक या धार्मिक या भाषिक रूप में परिभाषित समुदायों को उनके संकीर्ण दायरों को पाटकर एकजुट करने में मदद करते हैं। इस तरह जब राष्ट्रवाद अलग-अलग कुनबे में बंटे लोगों को संगठित कर एक आधुनिक राष्ट्र का निर्माण करने में मदद करता है।
संभवतया आप समझ सकते हैं कि युगोस्लाविया या सोवियत संघ में चाहे जो भी हुआ हो, मैं बहुभाषी, बहुसांप्रदायिक, बहुजातीय राजनीतिक एकात्मकता के सिध्दांत का बहुत बड़ा पक्षधर हूं। और मैं परिशुध्द और एकरूप राष्ट्रों के निर्माण के प्रयास का विरोधी हूं। निश्चित रूप से मैं इस निर्णय पर राष्ट्रवाद के बारे में काफी सोच-विचार के बाद पहुंचा हूं, लेकिन मेरे इस विचार निर्माण में भारत में मेरा रहना भी काफी अहम है। भारत के प्रगतिशील विचार के लोग इस बात पर गर्व करते हैं कि हमारी एक राजनीतिक राष्ट्रीयता के भीतर कई भाषाएं, कई धार्मिक समुदाय, विविध साहित्य, संगीत और नृत्य की नानाविध परंपराएं तथा बहुत सारी अलग-अलग सांस्कृतिक परंपराएं हैं। स्लोवेनिया जैसे स्थान में जहां आपने अभी-अभी काफी सुदृढ़ राष्ट्रीयता हासिल की है, आपके लिए यह कल्पना करना भी कठिन होगा कि मेरे जैसे लोग इस तथ्य के बारे में बहुत परवाह नहीं करते कि इस देश में बहुत सारी भाषाएं बोली जाती हैं और हममें से कोई भी सैध्दांतिक रूप से भी इस संभावना पर विचार नहीं कर सकता कि हम शेष सभी भारतीय साथियों से सीधे तौर पर बात करने में सक्षम होंगे। इतनी अधिक विषमता वाले देश के बारे में कुछ ऐसा है जो काफी तसल्ली देने वाला तथा मानवीय है।
स्वाभाविक रूप से कठिनाई यह है कि अधिकांश राष्ट्रवादों का तर्क सांस्कृतिक विविधता, समाविष्टता और विषमता के पक्ष में नहीं जाता बल्कि व्यक्ति या समूह विशिष्टता, शुध्दता या कमतर से कमतर बहुलवाद के पक्ष में जाता है। इसी दृष्टिकोण से राष्ट्रवाद नस्लवाद के करीब पहुंच जाता है। समाजवाद का स्वप्न, जिसे आप समाजवाद के मनोराज्य विषयक अतिरेक कह सकते हैं, यह था कि हम एक ऐसी मानव सभ्यता की ओर अग्रसर होंगे जो समतावादी भी होगी सार्वभौम भी; जो राष्ट्रों के आत्मनिर्धारण के अधिकार का समर्थन करेगी लेकिन भौतिक रूप से उन बहुराष्ट्रीय समाजों का सृजन भी करेगी जिनमें किसी को भी विशेषाधिकार प्राप्त नहीं होगा। बेशक हम उन समाजों में हुए अपकर्षों से वाकिफ हैं, जिनका अभ्युदय आरंभ में उस संभावना से हुआ। लेकिन मुझे लगता है कि दो बातें ध्यान में रखने की आवश्यकता है। पहली तो यह कि चाहे हम यूरोप में फासीवाद के इतिहास या संयुक्त राज्य में नस्लवाद की चर्चा करें, पूंजीवादी समाजों का रिकार्ड बदतर रहा है। लेकिन तब कम से कम समाजवाद सार्वभौम तथाबहुराष्ट्रीय समानता की सभ्यताओं की कामना करता है जबकि बाजार सैध्दांतिक रूप में भी इस तरह की सभ्यताओं का सृजन करना नहीं चाहता। मेरे कहने का मतलब है कि हमारे समय का कई राष्ट्रवाद इतना प्रतिशोधात्मक और आक्रामक और इस सीमा तक फासीवादी हो गया है कि एक समतावादी, बहुसांस्कृतिक, सार्वभौम सभ्यता का स्वप्न छोड़ दिया गया है।
जहां तक राष्ट्रवाद और फासीवाद के बीच के संबंध का प्रश्न है मुझे लगता है कि सभी फासीवाद अतिराष्ट्रवाद की विचाराधारा के इर्द-गिर्द जन्म लेता है लेकिन आवश्यक नहीं है कि सभी राष्ट्रवाद फासीवाद की ओर उन्मुख हो। यहां मैं इस विचार पर बल देना चाहूंगा कि राष्ट्रवाद का अपना कोई सत्व नहीं जो इसकी दिशा निर्धारित करे बल्कि विशेष स्थितियों में इस पर नियंत्रण रखने वाले शासक वर्ग द्वारा इसे सत्व प्रदान किया जाता है। इसका अर्थ यह भी है कि जिस सीमा तक समाजवादी जनतंत्र की प्रगतिशील शक्तियां पराजित होती हैं या अन्यथा उनकी अवनति होती है उसी सीमा तक राष्ट्रवाद के पश्चगामी और फासीवादी होने की संभावना होती है। वर्तमान समय में मैं फासीवाद की इसी समस्या के बारे में काफी कुछ लिखता रहा हूं और उसका विस्तृत उल्लेख यहां नहीं कर सकता। मैं यहां केवल यह कहना चाहता हूं कि आज विश्व में कई स्थानों पर फासीवाद अपना सिर उठा रहे हैं लेकिन पुनरुत्थानशील फासीवाद के उन देशों में बहुत खतरे हैं जहां द्वितीय विश्व युध्द के दौरान फासीवाद विरोधी संघर्ष अत्यधिक हुए थे। ऐसा प्रतीत होता है कि
पूर्व युगोस्लाविया के कई भागों में फासीवाद पचास वर्ष पूर्व के निर्णय को उलटने पर आमादा हैं।
पूर्व युगोस्लाविया के कई भागों में फासीवाद पचास वर्ष पूर्व के निर्णय को उलटने पर आमादा हैं।
प्रश्न : फिर राष्ट्रीय संस्कृति और 'विश्व संस्कृति' के बीच संबंध के बारे में आपके क्या विचार हैं? उदाहरण के लिए, यदि कोई 'विश्व साहित्य' है जैसा कि गेटे और मार्क्सवाद समझते थे तो क्या यह पाश्चात्य सांस्कृतिक वर्चस्व का उत्पाद होने के अलावा और कुछ हो सकता है? क्या इस (छद्म) विश्व साहित्य का, जिससे उत्पन्न होने वाले राष्ट्रीय साहित्य तथा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के अलावा कोई विकल्प है?
अहमद : मौजूदा प्रवृत्तियों के विपरीत मैं सार्वभौमिकता के विचार का बेशर्म समर्थक हूं। ऐसा इस तथ्य के बावजूद है कि अभी तक जिस प्रकार की सार्वभौमिकता हमारे पास थी, उपनिवेशवाद उसमें अंतर्निष्ट रहा है और आज जो एक मात्र सार्वभौम सभ्यता मौजूद है वह पूंजीवादी सभ्यता है। मैं समझता हूं इस सभ्यता की बर्बरताओं के खिलाफ उठ खड़े होने में तथा एक बेहतर सार्वभौमिकता (सर्वमुक्तिदाता) का निर्माण करने में मनुष्य पूर्ण रूपेण सक्षम है। इस बेहतर सार्वभौमिकता के लिए अभी भी हमारा शब्द 'समाजवाद' है लेकिन आपका अभिप्राय अगर यही है तो इसके स्थान पर किसी दूसरे शब्द का उपयोग करने के लिए भी आपका स्वागत है। एक प्रत्यय के रूप में सार्वभौमिकता को नहीं छोड़ा जा सकता क्योंकि विशेष अधिकारों का अस्तित्व तभी होता है जब सार्वभौम अधिकार उपस्थित हो। सार्वभौमिकता की किसी अवधारणा के बिना नस्लवाद या किसी अन्य प्रकारके सामूहिक दमन के खिलाफ कोई भी संघर्ष संभव नहीं है। मेरे हिसाब से संयुक्त राज्य का अश्वेत एक सार्वभौम सभ्यता चाहता है जो चमड़ी के रंग को न देखे तथा अतीत की गलतियों को सही करे। यह तथ्य कि ऐतिहासिक दृष्टि से पुरुषों को महिलाओं की तुलना में अनंत रूप से अधिक अधिकार प्राप्त थे, हमें अधिकारों की अवधारणा के विरुध्द नहीं उकसाता। महिलाओं के वे संघर्ष जो राष्ट्रीय, धार्मिक तथा सांप्रदायिक सीमाओं से परे महिलाओं के संरचित उत्पीड़न के खिलाफ हैं; जो महिलाओं और पुरुषों के लिए समान अधिकारों की मांग करते हैं, अपनी आकांक्षा में ये संघर्ष गहरे सार्वभौमिकतावादी (सर्वमुक्तिवादी) हैं। सार्वभौमिकता के प्रत्यय से अलग होकर साम्राज्यवाद विरोधी धारणा भी स्वयं महज विदेशी द्वेष बनकर रह जाएगी।
तब इस परिप्रेक्ष्य में मैं अंतर्राष्ट्रीय कला और एक विश्व साहित्य के विचार, आज जिसे 'पाश्चात्य सांस्कृतिक वर्चस्व' कहते हैं, को नहीं छोड़ सकता, वह चाहे जो कुछ भी हो। दरअसल मुझे नहीं लगता कि वर्चस्व पाश्चात्य है और व्यक्तिगत रूप से मुझे किसी फ्रांसीसी, या ब्रिटिश या उत्तरी अमरीकी से कुछ सीखने में कोई कठिनाई है। समस्या साम्राज्यवाद है। आप जिसे पाश्चात्य वर्चस्व कहते हैं दरअसल वह पूंजीवादी सार्वभौमिकता है जिसमें प्रमुख देशों में प्रबल विचारधाराएं और सांस्कृतिक कलाकृतियां बनती हैं और दुनिया के शेष देशों में या तो इनका निर्यात या अनुकरण किया जाता है। सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रवाद भी अकेले इसका उत्तर नहीं हो सकता क्योंकि पूंजी, विशेष रूप से अपने सांस्कृतिक रूपों में, राष्ट्रीय सीमाओं की हर दीवार गिरा सकती है। साथ ही हर किस्म का राष्ट्रवाद इस पूंजीवादी साार्वभौमिकता में अपने आपको समायोजित कर सकता है। दूरसंचार की इस आधुनिकतम अवस्था में उत्तर अमरीकी सांस्कृतिक सामग्रियां पूरे विश्व के घर-घर में सैटेलाइट या टेलीविजन एंटीना और सूचना महामार्ग के जरिए पहुंच रही है। इसे तो अब राष्ट्र-राज्यों के शैक्षिक और सांस्कृतिक ग्रिड की भी आवश्यकता नहीं। इस पूंजीवादी सार्वभौमिकता, जिसे दुनिया का हर बुर्जुआ स्वीकार करता है, के सामने किसी को भी अपने कुछ परिशुध्द राष्ट्रीय संस्कृति के दायरे में रहने की इजाजत नहीं है। आप या तो पूंजीवाद विरोधी यानी समाजवादी सार्वभौमिकता का निर्माण करें या पूंजीवाद सार्वभौमिकता को स्वीकार करें। स्वाभाविक है कि धैर्यवान व्यक्तियों के लिए कई औपचारिक आचरण संभव है लकिन आज सामूहिक रूप में लोगों के लिए कोई तीसरा विकल्प नहीं है।
यही बात विश्व साहित्य और राष्ट्रीय सहित्य के बारे में लागू होती है। ऐतिहासिक रूप से यूरोप में राष्ट्रीय साहित्यों के प्रत्यय की उत्पत्ति राष्ट्र-राज्य (नेशन-स्टेट) के उदय के साथ हुई। तीसरी दुनिया में भी सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के प्रत्युत्तर में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की उत्पत्ति के दौरान इसी प्रत्यय को सामान्य बना दिया गया है। और तत्पश्चात यह उन सांस्कृतिक रीतियों में से एक के रूप में सामान्यीकृत कर दिया गया है जिनके जरिए एक राष्ट्रीय बुर्जुआ राज्य अपने आपको प्रकृतिस्थ करता है। इस विचार से सहमत होने की आवश्यकता नहीं और गिरजे से धर्मव्यवस्था (कैननाइजेशन) की प्रतिक्रियाओं से तोबिलकु्रल नहीं। गिरजे से धर्मव्यवस्था का सर्वप्रथम अन्वेषण यूरोप में किया गया और इसके माध्यम से ही आम तौर राष्ट्रीय साहित्य पर समेकित किए जाते हैं। लेकिन यह प्रक्रिया वास्तविक है। बुर्जुआ परियोजना के रूप में और साम्राज्यवादी वर्चस्वों के विरुध्द राष्ट्रीय दावे के रूप में भी। मैं स्वयं राष्ट्रवाद के बारे में जो पहले कह रहा था उसे यहां दोहराना चाहूंगा कि आप इसे दरकिनार नहीं कर सकते, इससे आपको गुजरना होगा, इसके दूसरे किनारे पर जाने का रास्ता ढूंढ़ना होगा। इस परिस्थिति में विश्व साहित्य और राष्ट्रीय साहित्य दोनों की अपनी-अपनी उपयोगिताएं हैं। तीसरी दुनिया के देशों को अपने इतिहास के एक भाग के रूप में अपने क्षेत्रीय साहित्यों और राष्ट्रीय साहित्यों को जानने की आवश्यकता है। वहीं उन्नत पूंजीवादी देशों के अपने विदेशी-द्वेष के विरुध्द एक रोगनाशक दवा के रूप में अपने पाठयक्रमों के लिए विश्व साहित्य विशेष रूप से उपयोगी है। अधिक सामान्य तरीके से कहा जाए तो अपने राष्ट्रीय साहित्य और संस्कृति से आगे औरों के बारे में भी जानना हमेशा अच्छा होता है। बहरहाल, प्रकाशन और प्रसार का स्थान कोई भी हो, जब तक साम्राज्यवादी व्यवस्था है, विश्व साहित्य हमेशा इसकी असमानताओं को दरशाता रहेगा।
समस्या यह है कि इस विश्व साहित्य को दरअसल पढ़ा और पढ़ाया कैसे जाए। पारंपरिक अर्थ में विश्व साहित्य का विचार गेटे के अनुसार काफी धर्मविधानिक, यहां तक कि आनाल्डियन है। सर्वोत्तम जो सोचा और लिखा गया है अब इस या उस देश से नहीं बल्कि विश्व से प्राप्त किया जाना है। यदि आप इसके बारे में विचार करें तो विश्व के विभिन्न महादेशों में प्रकाशित और धर्मविधानिक रूप में समेकित 'महान पुस्तकों' के अध्ययन का यह तरीका विश्व बुर्जुआ से मिलते-जुलते किसी चीज में दुनिया के उच्च वर्गों के एकीकरण के साथ पूरी तरह सामंजस्य स्थापित करने योग्य है। विश्व साहित्य के लिए इस विश्विक एकीकरण को दरशाना तथा एक आसान और चमकदार पूंजीवादी सार्वभौमिकता के नतीजे पर पहुंचना बहुत आसान है। इस संदर्भ में हमें साहित्य के प्रत्यय पर ही प्रश्न खड़ा करना चाहिए और निश्चित तौर पर तीसरी दुनिया से आने वाली पुस्तकों सहित, सभी पाठों पर संदेह करना चाहिए चूंकि वे धर्मविधानिकता की न्यूनतम क्षमता दरशाती है। दरअसल हमें इस तथ्य पर ही सबसे अधिक संदेह करना चाहिए कि प्रमुख पूंजीवादी देशों में अध्यापन सामग्री के रूप में विश्व साहित्य की श्रेणी बढ़ रही है जबकि अपेक्षाकृत निर्धन देशों के पास इस प्रकार की अपनी सामग्रियों के सृजन के लिए साधन नहीं है।
लेकिन तब सुयोग्यता के स्तर की भी समस्या है। उदाहरण के लिए उत्तरी अमरीका के कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में मैंने विश्व साहित्य के अध्यापन में भिन्नता देखी है जिससे एक सौद्देश्य नीमहकीमीकरण जन्म लेता है। मैं व्यक्तिगत रूप से कई ऐसे लोगों को जानता हूं जिनकी दक्षिण एशिया के बारे में जानकारी दयनीय थी लेकिन वे उन विश्वविद्यालयों में स्नातक के छात्रों को दक्षिण एशिया संबंधी उपन्यास पढ़ा रहे थे, जहां उत्तरी अमरीकी सामाजिक इतिहास के बारे में समान स्तर की अज्ञानता वाले शिक्षकों को मेल्विले या हेनरीजेम्स की पुस्तकों को पढ़ाने की भी अनुमति नहीं दी जाती। यहां एक अविचारित पूर्वकल्पना है कि आप अपेक्षाकृत कम सघन सांस्कृतिक कलाकृतियों का अध्यापन कर रहे हैं इसलिए उनकी व्याख्या करने के लिए बहुत अधिक ज्ञान की आवश्यकता नहीं या आपके नेक इरादे ही आपकी अज्ञानता की भरपाई के लिए पर्याप्त हैं। दूसरे शब्दों में मेरी आशंका यह है कि इस संदर्भ में विश्व साहित्य के प्रत्यय का अनुसरण एक नैतिक अनिवार्यता के रूप में किया जा रहा है और उस अनिवार्यता को प्राय: बड़े ही सरल तरीके से जीया जाता है। मेरा मतलब यह नहीं है कि राष्ट्रीय साहित्यों को पढ़ाने वाले, मेल्विले या जेम्स को पढ़ाने वाले सभी शिक्षक विद्वान और प्रबुध्द होते हैं। लेकिन सामान्यतया सुविज्ञ अध्ययन के लिए कुछ मानक निर्धारित किए गए हैं। अब तक विश्व साहित्य के मामलों में ऐसे मानकों की कमी है।
संक्षेप में, विश्व साहित्य सार्वभौमिकतावादी आकांक्षा का क्षितिज है। लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि वास्तव में छोटे टुकड़े बीनने, उन्हें संवारने का कोई विकल्प नहीं, चाहे उन टुकड़ों को कुछ भी कहा जाए। उत्तरी अमरीकी साहित्यिक जगत में जिसे 'थ्योरी' कहा जाता है इसने इन मामलों में कठोर नियम को बढ़ावा देने के बजाए नीमहकीमीकरण को बढ़ावा दिया है, जिसके बारे में मैं पहले चर्चा कर रहा था।
प्रश्न : ऐसा प्रतीत होता है कि संयुक्त राज्य और ब्रिटेन के शिक्षाविद सामाजिक तथा राजनीतिक रूप से अलग-थलग हैं। उदाहरण के लिए संयुक्त राज्य में राजनीतिक संबंधों की परंपरा नहीं है (जैसा कि फ्रांस में है जहां पूरी की पूरी पीढ़ियां फ्रांसीसी कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ी थी)। ब्रिटेन में जो संबंध रहे हैं (कम्युनिस्ट पार्टी आफ ग्रेट ब्रिटेन के भीतर क्रिस्टोफर हिल या ई.पी. थामसन जैसे इतिहासकारों का समूह) वे अपने शैक्षिक कार्य के व्यापक प्रभाव के बावजूद बड़ा राजनीतिक समर्थन नहीं जुटा पाए हैं। क्या आप ऐसा समझते हैं कि यह सामाजिक एकाकीपन अटलांटिक शैक्षिक जीवन का स्थायी चरित्र बन जाएगा? क्या अश्वेतों और समलैंगिकों जैसे 'पहचान' समूहों या किसी खास हित में ही सिध्दांत और आचरण के बीच किसी प्रकार का उपयोगी संबंध होगा या इन समूहों को भी अलगाव का सामना करना पड़ेगा। जैसा कि नारीवाद के साथ पहले ही हो चुका है?
अहमद : एक देश से दूसरे देश में, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में बुध्दिजीवियों की जो भूमिका होती है, वह बहुत ही जटिल मसला है। इसमें निश्चित तौर पर खास व्यक्तियों की एजेंसी तथा दायित्व के प्रश्न होते हैं, विशेष रूप से चूंकि विद्वान परिषद में उनका स्थान बुध्दिजीवियों को अपनी एजेंसी का पूरे समाज के लिए उपयोग करने का उल्लेखनीय अवसर देता है। लेकिन यह एक दिए हुए समय में किसी खास स्थान पर किसी खास राजनीतिक क्षेत्र का गठन किस प्रकार हुआ है, इसका भी विषय है। 1930 के दशक के बाद संयुक्त राज्य में कोई सशक्त श्रमिक आंदोलन नहीं हुआ। इस स्थिति में क्रांतिकारी विचार वाले शिक्षाविदों के लिए यह मानना अपेक्षाकृत बहुत आसान हो जाता है कि अकादमी के बाहर वे किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं हैं। वे अब मेहनतकश वर्ग को अपनी असफलताओं के लिए दोषी ठहरा सकते हैं और इन असफलताओं में अपने योगदान केबारे में उन्हें सोचने की आवश्यकता नहीं। लेकिन आखिर मेहनतकश वर्ग का आंदोलन हमेशा बुध्दिजीवियों के महत्वपूर्ण सहयोग पर निर्भर रहा है और मुझे लगभग लगता है कि बुध्दिजीवियों पर जो आश्रित हैं और जिनके पास उनके समान बौध्दिक संस्कृति के संसाधन नहीं हैं, उनके समर्थन में उन्होंने क्या किया और क्या नहीं किया, इसका बुध्दिजीवियों को पूरा भान होना चाहिए। क्या आप 1953 में पूर्वी जर्मनी में किए गए दमन पर ब्रेख्त द्वारा रचित उस विध्वंसकारी कविता के बारे में जानते हैं जिसमें उन्होंने व्यंग्य के साथ लिखा कि जब कोई जनसमूह अपने नेताओं का विश्वास खो देता है तो उन नेताओं को दूसरी जनता चुनने का अख्तियार है? कई बार मुझे लगता है कि संयुक्त राज्य के कई क्रांतिकारी उस दूसरी जनता की तलाश में हैं जिन्हें वे इस प्रकार चुन सकें। जनाधार पर आश्रित राजनीति से जिस अलगाव की आप बात कर रहे हैं वह दरअसल केवल वर्तमान में सही है और विशेष रूप से साहित्यिकसांस्कृतिक आलोचकों के बीच ही। संयुक्त राज्य में वर्ष 1968 को सदैव इस बात का श्रेय दिया जाएगा कि इसने इतिहास के बसे बड़े शांति आंदोलन का आयोजन किया। अपनी ही सरकार द्वारा चलाए जा रहे युध्द के खिलाफ शायद ही किसी देश ने इतना बड़ा शांति आंदोलन देखा हो। संयुक्त राज्य के वामपंथी विचार के व्यापक क्षेत्रों के लोगों ने इस आंदोलन के आयोजन में अहम भूमिका निभाई और यह आंदोलन एक पिशाच है जो उत्तरी अमरीकी को अभी भी परेशान करता है। आज संयुक्त राज्य के क्रांतिकारी विचार वाले लोग राजनीतिक दृष्टि से अलग-थलग पड़ गए हैं और उनमें आजीविकावाद जोरों पर है। लेकिन कई जो इस कार्य में ईमानदारी से लगे हैं वे वाकई अच्छा कार्य कर रहे हैं क्योंकि वे उस विरासत को सम्मानित करना चाहते हैं। उनमें से नोम चॉम्स्की सबसे अधिक प्रेरणादायक हैं। चॉम्स्की की सक्रियता 1960 के दशक के मध्य से लेकर अब तक की पूरी अवधि के दौरान रही है। लेकिन उनके अलावा और भी कई हैं जो उतने प्रसिध्द नहीं हैं। वे भी हमारे साधुवाद के पात्र हैं क्योंकि जैसा कि चे ने एक बार कहा था कि वे हिंस्र पशु के पेट में रह रहे हैं, जो कि आप जानते हैं कि सर्वोत्तम निवास स्थान नहीं है।
ब्रिटेन में प्रत्यक्ष रूप से सक्रिय बुध्दिजीवियों की परंपरा अपेक्षाकृत व्यापक और निरंतर है लेकिन यह भी इसलिए है कि ब्रिटेन में मेहनतकश वर्ग की राजनीति की अपेक्षाकृत अधिक सशक्त परंपरा रही है। इसने ब्रिटिश बुध्दिजीवियों को अधिक ठोस आधार दिया है। हालांकि मेहनतकश वर्ग पर लेबर पार्टी का जबरदस्त दबदबा रहा है और कई बुध्दिजीवियों को बहुत कठिन सार्वजनिक जीवन जीना पड़ा। वे एक ओर स्तालिनवाद और दूसरी ओर लेबरवाद के बीच में बुरी तरह पीस गए थे। उनमें से कई को काफी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी और इनमें 'सी पी जी बी' को छोड़ने और साथ रहने वाले दोनों शामिल हैं। मैं दरअसल विलियम्स को उन बुध्दिजीवियों में शामिल करूंगा जिन्हें बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी थी। यह उनके गद्य में भी परिलक्षित होता है।
आपने तुलना के लिए फ्रांस का उदाहरण दिया है। मैं इसके समीपवर्ती इटली का भीउदाहरण देना चाहूंगा। दोनों मामलों में कम्युनिस्ट पार्टियां फासीवाद विरोधी संघर्षों से एक विशाल जनसंगठन के रूप में उत्पन्न हुईं जिनके पास संप्रभुता की अपार संपदा थी। अब यह स्मरण करना कठिन है कि 1946 में पी सी एफ फ्रांस की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी थी। 1930 के दशक में इसने फासीवाद के विरुध्द पहले ही बहुत बड़ी भूमिका अदा की थी। उसके पश्चात इसने युध्द के दौरान प्रतिरोध में अहम भूमिका निभाई। इन सब के बीच महिला अधिकारों का मामला था। फ्रांसीसी महिलाओं ने 1944 में मत देने का अधिकार प्राप्त किया। इसकी अगली सुबह से कई पितृसत्तात्मक कानून ध्वस्त होने लगे। इन सबके विरुध्द दक्षिणपंथ था, जिसने 1789 के मुक्ति आंदोलन को कभी भी स्वीकार नहीं किया, जिसने गणतंत्र में कभी भी विश्वास नहीं किया; जिसने 'मार्शल प्लान' और शीतयुध्द के साथ आए अमरीकी वर्चस्व का स्वागत किया और जिसने 1949 में प्रकाशित 'सिमॉन डि वीवर' की 'सेकेंड सेक्स' जैसी पुस्तकों से नफरत की। फ्रांसीसी बुध्दिजीवियों की दो पीढ़ियां, 'पी सी एफ' के बाहर या भीतर रहकर इन सच्चाइयों का मुकाबला कर रही थीं। लेकिन 1968 की पराजय के बाद सार्वजनिक बुध्दिजीवियों और जन सामान्य मेहनतकश वर्ग की राजनीति के बीच का यह विशिष्ट संबंध फ्रांस में भी तेजी से ढलान की ओर अग्रसर है।
मेरा अभिप्राय यह है कि बुध्दिजीवियों द्वारा अदा की गई भूमिका का संबंध उनके अपने लिए चुने गए व्यावहारिक विकल्पों से होता है लेकिन हमें यह भी समरण रखना चाहिए कि बुध्दिजीवी भी व्यक्तिगत रूप से तथा सामूहिक रूप से इतिहास के उन आंदोलनों में फंस जाते हैं जो उनसे बड़े होते हैं।
लेकिन तब आपने मुझसे संयुक्त राज्य में क्रांतिकारी बुध्दिजीवियों के भविष्य के बारे में पूछा है और अश्वेतों तथा समलैंगिकों और एक तरह से नारीवाद का उदाहरण देते हुए 'हित एवं पहचान' समूहों के बारे में कुछ उत्तेजक बातें कही है। पहले मैं इन उदाहरणों पर अपनी राय देना चाहूंगा। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि सभी को समान अधिकार मिलना चाहिए। लेकिन राजनीतिक क्षेत्र के संबंध में कई अनिश्चितताएं हैं। उदाहरण के लिए समलैंगिक अधिकार आंदोलन नागरिक समाज तथा राज्य या कथित रूप से निजी और सार्वजनिक का विभेद नहीं मानता। कुछ ऐसे संशोधन हैं जो केवल राज्य ही कर सकता है और संयुक्त राज्य की संरचना में ऐसा कुछ नहीं जो इन संशोधनों को करने से रोकता हो। जब मैं यह कहता हूं कि राजनीतिक क्षेत्र में ऐसा कुछ नहीं जो संयुक्त राज्य की सरकार को समलैंगिक अधिकार आंदोलनों के दबावों को व्यवहारवाद तथा बहुलवाद की प्राधिकृत विचारधाराओं के भीतर समाहित करने से रोकता हो तो इसके पीछे मेरी बिलकुल यह मंशा नहीं होती कि समलैंगिकता के विरुध्द पूर्वग्रह की सीमा कम हो।
एक अर्थ में महिलाओं तथा अश्वेतों की स्थिति बिलकुल भिन्न है। उनके विरुध्द व्यापक पूर्वग्रह हैं और ये सामाजिक पूर्वग्रह उनके प्रति राज्य के व्यवहार में परिलक्षित होते हैं। लेकिन मेरे दिमाग में कुछ और है। अधिकांश अश्वेत संयुक्त राज्य की अर्थव्यवस्था के एक सुस्पष्ट निम्न वर्ग का निर्माण करते हैं और दासत्व काल से ही इसकी पुनरावृत्ति होती रही है। संयुक्त राज्य तथा अन्य स्थानों पर अधिकांश महिलाएं न्यूनतम वेतन वाले कार्य करती हैं। प्रमुख पूंजीवादी देशों में शारीरिक श्रम का नारीकरण, पूंजीवाद का मजदूरों पर राजनीतिक हमले का हिस्सा है और महिलाओं का अवैतनिक गृहकार्य सकल वेतन बिल को न्यूनतम रखने में मौलिक घटक है ताकि लाभ की कुछ निश्चित दर सुनिश्चित की जा सके। संयुक्त राज्य के शैक्षणिक और सांस्कृतिक जीवन के कुछ क्षेत्रों में नारीवाद की उल्लेखनीय सफलताओं के बावजूद निर्धन महिलाओं की आय में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई है। अश्वेत युवाओं की एक बड़ी आबादी के साथ न्याय का मामला अमरीकी जीवन की समग्रता के केंद्र में है और क्रांतिकारी परिवर्तनों के बिना इसका पूरी तरह हल नहीं किया जा सकता। कुछ श्वेत, उच्च वर्गीय नारीवादी उस अलगाव को बढ़ावा दे सकती हैं, जिसकी आपने चर्चा की, लेकिन अधिकांश महिलाएं ऐसा नहीं कर सकतीं।
यह भी कहने की आवश्यकता नहीं कि हर समूह को अपने सदस्यों के लिए लड़ने का अधिकार है। लेकिन मैं जनतंत्र के बारे में इससे कहीं अधिक कठिन प्रश्न उठाना चाहता हूं। आज समाजवादी सिध्दांत तथा व्यवहार की एक बड़ी समस्या है, विभेद और सार्वभौमिकता के बीच, सामूहिक अधिकारों और अविभाज्य सार्वभौम अधिकारों के बीच, महिला के रूप में अधिकार और नागरिक के रूप में अधिकार के बीच तथा श्रमिक के रूप में अधिकार। यह समस्या चाहे नागरिक हो या आप्रवासी के बीच का संबंध। इसका उत्तरआधुनिकतावादी उत्तर सरल है : सार्वभौमिकता कपोल कल्पना है; स्थायी अस्मिता या पहचान स्थानीय, आपातिक, स्वतंत्र रूप से चुने हुए हैं; पहचान के अधिकार निरपेक्ष हैं और आत्म-प्रतिनिधित्व ही प्रतिनिधित्व का प्रामाणिक रूप है। स्थायी अस्मिता को इतना सर्वोपरि बनाना और सार्वभौमिकता को इतना शीघ्र समाप्त करना मुझे राजनीतिक दृष्टि से खतरनाक लगता है। उदाहरण के लिए यदि आपकी स्थायी अस्मिता (आइडेंटिटी) के निर्माण में मुझे संज्ञान, भागीदारी, आलोचना का कोई अधिकार नहीं है तो आप किस आधार पर मेरे सहयोग की अपेक्षा कर सकते हैं। इसका आधार तो केवल मेरी कुछ धर्मपरायणता या स्वैच्छिक स्नेहशीलता ही हो सकती है जिन्हें मैं किसी भी क्षण वापस ले सकता हूं।
यहां मैं इस समस्या की विवेचना नहीं कर सकता। इसलिए मैं अपनी बात को छोटी कर रहा हूं। आप समझ सकते हैं कि इस ऐतिहासिक मोड़ पर जब भौतिक वस्तुओं तक लोगों की समान रूप से पहुंच होने का मुद्दा एक विचारधारा बन गया है जिसे मैं अभी भी समाजवाद कहता हूं, तो पूंजीवादी राज्य शायद उन लोगों से बात करना चाहता है जो इसका सामना एकजुट होकर नहीं करते बल्कि अलग-अलग बिखरे हुए समुदायों या हित समूहों में करते हैं। समुदाय और हित समूह प्रतीकात्मक रूप से सामाजिक पूर्वग्रहों तथा सामाजिक अधिशेष के वितरण का मुद्दा उठाते हैं। संपत्ति के स्वामित्व का मुद्दा या तो केवल सार्वभौम अधिकारों के विमर्श में ही उठाया जा सकता है। एक बार अलग-अलग समूहों मेंबंट जाने के बाद हमारा सार्वजनिक भाषण तो इस बात पर बल देता रहता है कि हम एक दूसरे के समान अधिकारों में कितना विश्वास करते हैं लेकिन राज्य से वास्तविक सौदेबाजी में हर समुदाय और हर हित समूह सामाजिक अधिशेष के अपने हिस्से के लिए अन्य सभी से प्रतिस्पध्र्दा करने वाला याचक बन जा सकता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो जिस सामाजिक अधिशेष पर पूंजीवादी राज्य शासन करता है उस अधिशेष के अनेक तथा प्रतिस्पर्ध्दी दावेदारों के साथ यह अपेक्षाकृत अधिक सहज महसूस करता है; जहां तक संभव हो, यह सुनिश्चित करना चाहता है कि वे आपस में लड़कर एक दूसरे को निष्क्रिय कर दें। जबकि यह सार्वभौम अधिकारों की क्रांतिकारी राजनीति के साथ असहज अनुभव करता है क्योंकि यहां न केवल न्यायिक दृष्टि से बल्कि हर संभव आयाम में, विशेष रूप से आर्थिक वस्तुओं के आयाम में, सभी एक दूसरे के बराबर माने जाते हैं। मैं यहां जो कहना चाह रहा हूं वह यह है कि पृथक समुदायों का समूह अहंवाद बुर्जुआ पुरुष के ऐतिहासिक अहंवाद से कोई खास अलग और बेहतर नहीं है और हमें राजनीति के उन रूपों की आवश्यकता है जो इसकी विषमता तथा सार्वभौमिकता दोनों रूपों में मानव विषयों द्वारा निर्मित हो।
जहां तक इस बारे में भविष्यवाणी का प्रश्न है कि क्या पृथक समूहों का समूह-अहंवाद उत्तर अमरीकी राजनीतिक जीवन का स्थायी चरित्र बन जाएगा, मैं इस बारे में तीन बातें संक्षेप में कहना चाहूंगा। पहली, अन्य बहुत सी उत्तर अमरीकी चीजों के समान ही उत्तर अमरीकी किस्म की राजनीति भी विश्विक होती जा रही है। सचमुच कुछ इतालावी साम्यवादी और समाजवादी नारीवादी यूरोपीय राजनीति के इस अमरीकीकरण के खतरे के बारे में 1970 के दशक में ही सावधान कर रहे थे। दूसरी बात जो पहली से काफी जुड़ी हुई है, यह है कि पिछली आधी सदी का अनुभव यह बतलाता है कि अमरीकी क्रांतिकारी बुध्दिजीवी अपने देश की स्थिति की तुलना में विश्विक स्थिति के प्रति अधिक तीव्र प्रतिक्रिया करते हैं। दूसरे शब्दों में उस बुध्दिजीवी वर्ग का ऊपरी सतह राष्ट्रीय कार्य के बनिस्बत विश्वनगरीय प्रकार्य का निष्पादन अधिक तत्परता से करता है। स्वाभाविक है कि यह इस तथ्य से मेल खाता है कि संयुक्त राज्य अपनी बहुत बड़ी राष्ट्रीय सामान्य योग्यता के बावजूद उतनी ही बड़ी विश्विक शक्ति है और यह उस वास्तविक किंकर्तव्यता को भी दरशाता है जो इस तथ्य से उत्पन्न होती है कि वे दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्यवादी देश के नागरिक हैं; अपने देश की सीमाओं के भीतर अपने सह-नागरिकों के प्रति नहीं बल्कि इस अमरीकी सदी में इस भूमंडल के सह-निवासियों के प्रति समर्थन दिखाने में उन्हें बहुत बड़ी ऊर्जा लगती है। आपके प्रश्न के संदर्भ में इन सब बातों का अभिप्राय यह है कि यदि इस भूमंडल के अन्य किसी स्थान पर जन आंदोलन हो तो संभव है कि इस उत्तर अमरीकी बुध्दिजीवी अंश की प्रतिक्रिया सकारात्मक होगी। आप चाहें तो इसे परजीवितावाद कह सकते हैं लेकिन विश्विक राजनीति में इस प्रकार के परजीवितावाद के भी सकारात्मक कार्य हैं और हमेंउन सब के प्रति सम्मान प्रकट करना चाहिए जिन्होंने अंतर्राष्ट्रीय एकजुटताओं के लिए अपने जीवन का बहुत कुछ न्यौछावर किया है।
लेकिन जो अन्य बात मैं कहना चाहता हूं वह थोड़ा अधिक अस्पष्ट है। भविष्य के बारे में बातें करने में कठिनाई यह है कि ऐतिहासिक परिवर्तन की अति धीमी गति की तुलना में सबसे दीर्घायु व्यक्ति का जीवनकाल भी दुर्भाग्यवश बहुत छोटा होता है। मेरे अपने जीवनकाल में ही इतिहास ने तीन बहुत छोटी-छोटी करवटें ली हैं : जब मैं बचपन से जवानी की ओर बढ़ रहा था तो अधिकांश औपनिवेशिक शासन का अंत हुआ; जब मैं जवान था तो 1968 के छद्म क्रांतिकारी आंदोलन हुए। जब मैं अधेड़ उम्र का हुआ तो '1989' की 'पुनर्स्थापनाएं' हुईं। मुझे संदेह है कि मेरे जीवनकाल में समान तीव्रता का कोई और ऐतिहासिक परिवर्तन होगा। ऐतिहासिक परिवर्तन की इस धीमी रफ्तार को देखते हुए अल्पकाल में भविष्य के बारे में पुर्वानुमान करना मेरे लिए बेवकूफी होगी। अन्य शब्दों में कहें तो चूंकि इतिहास की गति इतनी धीमी है कि अनिवार्यत: यह बच्चे ही हैं जो इतिहास का निर्माण करते हैं न कि माता-पिता।
(स्लोवेनियाई पत्रकार इरीक रिपोज और निकोलाई जेफ्स द्वारा प्रसिद्ध मार्क्सवादी एजाज अहमद का लिया साक्षात्कार)
बहुत अच्छा विमर्श है - सुमन
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