इस परिचर्चा का विषय है नालंदा और विज्ञान की खोज, लेकिन इस बेशक जटिल विषय की पड़ताल के पहले, मैं नालंदा पर ही कुछ बोलना चाहूंगा, क्योंकि दुनिया भर के लोगों में अभी भी इसका अस्तित्व अज्ञात ही है। फिलहाल, जबकि संयुक्त एशियाई पहलकदमी से इस विश्वविद्यालय की पुर्नस्थापना हो रही है, तो यह तथ्य कि नालंदा एक अत्यंत प्राचीन विश्वविद्यालय है, जग-जाहिर हो रहा है। लेकिन विश्व के प्राचीन विश्वविद्यालयों से यह अद्वितीय कैसे है?
अच्छा, दुनिया का प्राचीनतम विश्वविद्यालय कौन-सा है? इस सवाल के जवाब में हमारा दिमाग घूमता है, 1088 में आरंभ बोलोग्ना की ओर, 1091 में स्थापित पैरिस की ओर और अन्य विद्या-गत्रढों, जिसमें 1167 में स्थापित ऑक्सफोर्ड और 1209 में स्थापित कैम्ब्रिज भी शामिल हैं। इस चित्र में नालंदा की मुनासिब जगह कहाँ है? यदि हम सतत अस्तित्वमय विश्वविद्यालय ढूँत्रढ रहे होंगे तो सबसे छोटा जवाब होगा, 'कहीं नहीं।'
इस्वी सन 1193 में नालंदा अफगानियों के आक्रमण में बलपूर्वक नष्ट कर दिया गया था, जिसका नेतृत्व निर्दयी शासक बख्तियार खिलजी ने किया था। यह ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के आरंभ होने के कुछ ही समय बाद की और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय की स्थापना के कुछ ही समय पहले की बात है। नालंदा विश्वविद्यालय, जो भारत में उच्च शिक्षा का विश्वविख्यात केन्द्र था, जिसे पाँचवीं शती के आरंभ में स्थापित किया गया था, सात सौ साल से ज्यादा समय तक अपना वजूद बनाए रखने और यूरोप के प्राचीनतम विश्वविद्यालय बोलोग्ना से तुलना के बावजूद खत्म हो रहा था, ठीक उसी समय, ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज अपना वजूद पा रहे थे।
नालंदा छहः सौ साल का हो गया था, जब बोलोग्ना का जन्म हो रहा था। यदि उसे नष्ट नहीं किया गया होता और वह हमारे समय तक अपना वजूद बनाए रख पाता, तो नालंदा विश्वविद्यालय, एक लंबे अंतराल से, दुनिया का प्राचीनतम विश्वविद्यालय होता। एक और विशिष्ट विश्वविद्यालय, जिसका वजूद भी सतत नहीं टिक पाया, वह था कैरो का अल-अजहर विश्वविद्यालय, जिसकी अक्सर नालंदा से तुलना होती थी और जिसे इस्वी सन 970 में बसाया गया था, उस समय नालंदा विश्वविद्यालय की उम्र पाँच सौ साल से ज्यादा हो चुकी थी।
तो उम्र को लेकर काफी शेखी हो गई (जैसा कि आप जानते हैं, हम भारतीय लोग उम्र को काफी गंभीरता से लेते हैं), और मुझे उम्मीद है कि आप समझ ही गए होंगे कि हम लोग उम्र के लिहाजन, बजाय कि वजूद-ए-मुसस्सल् दुनिया के प्राचीनतम विश्वविद्यालय के बारे में बात कर रहे हैं। फिल वक्त इस विश्वविद्यालय को दोबारा शुरु किया जा रहा है और क्योंकि मैं अंतरिम प्रबंध परिषद के अध्यक्षता का दुष्कर दायित्व निभा रहा हूँ, मैं इस निष्कर्ष पर हूँ कि 800 वर्षों की विवृत्ति के पश्चात विश्वविद्यालय की पुर्नस्थापना कितना कठिन कार्य है। लेकिन हम नतीजों के करीब हैं। आज की यह परिचर्चा मुझे एक मौका उपलब्ध कराती है कि मैं प्राचीन नालंदा के विज्ञान की खोज का स्मरण करूँ, जिससे कि हम सभी को प्रेरणा मिले और नए नालंदा के लिए हमारे सुदीर्घ प्रयासों का पथ प्रदर्शन हो। मैं सुदीर्घ शब्द का इस्तेमाल मुख्यतः लागत की वजह से, बल्कि कहें कि सिर्फ लागत की वजह से कर रहा हूँ। हम विज्ञान संकाय तत्काल शुरु नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि भौतिकी एवं जैविक विज्ञान शाखाओं के लिए मानविकी एवं समाज विज्ञान शाखाओं से कहीं-कहीं ज्यादा धन की जरूरत है। प्राचीन नालंदा की वैज्ञानिक परंपराओं का पुर्नस्मरण या कहें कि मूल्यांकन ज्यादा चुनौतीपूर्ण है, लेकिन इस समय अत्यंत महत्वपूर्ण भी, कुछ इसलिए कि हमें सुदीर्घ प्रयास (हालाँकि स्थापना एवं विस्तार के लिए हम धन इकट्ठा करने की कोशिश कर ही रहे हैं।) के बारे में सोचना शुरु करना है और मुख्यतः इसलिए भी कि नए नालंदा की संपूर्ण अवधारणा, जिसमें मानविकी (जैसे इतिहास, भाषा एवं भाषा संबंधी तथा तुलनात्मक धर्म) के तथा सामाजिक विज्ञान एवं व्यवसाय विश्व (जैसे अंतर्राष्ट्रीय संबंध, प्रबंधन एवं विकास तथा सूचना प्रोद्योगिकी) के अध्यापन-अनुसंधान में वैज्ञानिक अभिवृत्ति एवं अनुशासित विचार महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।
नालंदा में विज्ञान की खोज से तादातम्य रखते कुछ सवाल उठाने की इजाजत चाहता हूँ। पहला, क्या नालंदा जिस भी तरह के अनुसंधान का हिमायतगार था, उसके उपादान में उसे यथेष्ट विशालता हासिल थी? क्या वह अंधविश्वास एवं अज्ञान के सागर की महज एक बूँद की तरह तो नहीं था; जिसे कि कुछ लोग प्राचीन भारत की विशेषता के तौर पर देखते थे; यह समझने के लिए कि आधुना भारत को नियंत्रण में रखने के लिए यह अवधारणा कितनी सुदृढ़ और राजनीतिक तौर महत्वपूर्ण थी, आपको सिर्फ जेम्स मिल्स की 'हिस्ट्री ऑफ इंडिया' पढ़ने की जरूरत है, जिसे कि राज चलाने के लिए भेजे जाने वाले ब्रिटिश प्रशासनिक सेवा के नौकरशाहों के लिए पढना अनिवार्य था।
बहरहाल, नालंदा ज्ञान का प्राचीन केन्द्र था, जिसका दुनिया के कई देशों, विशेषतः चीन और तिब्बत, कोरिया और जापान तथा शेष एशिया के साथ सुदूर पश्चिम के तुर्की जैसे देश के विद्यार्थियों में भी आकर्षण था। नालंदा एक आवासीय विश्वविद्यालय था, जहाँ 10,000 की चरम सीमा तक विद्यार्थी थे, जो विविध विषयों का अध्ययन कर रहे थे। चीनी विद्यार्थियों ने खास तौर पर नालंदा में जो देखा अथवा जो भी शैक्षिक मानक उन्हें पसंद आए, उस पर विस्तार से लिखा, इनमें सातवीं शताब्दी के चीनी विद्यार्थी जुआनज़ैंग और याइ जिंग के नाम उल्लेखनीय हैं। प्राचीन चीन के इतिहास में संयोगन् नालंदा ही एकमात्र गैर-चीनी संस्थान है, जहाँ चीनी विद्वानों ने ज्ञानार्जन किया था।
यह समझना भी जरूरी है कि नालंदा अतिविशिष्ट था, बावजूद इसके वह उस काल में भारत के विशेषकर बिहार में सुव्यवस्थित उच्च शिक्षा की वृहद परंपरा का एक अंग मात्र था। नालंदा के अलावा समीप ही दूसरे संस्थान भी थे, जैसे विक्रमशिला एवं ओदांतपुरी। वास्तव में जुआंगज़ैंग ने इनके विषय में भी लिखा, हालाँकि वह नालंदा में अध्ययन कर रहा था। नालंदा उस समय की सामाजिक संस्कृति से सम्बद्ध था और नालंदा की परंपरा के बारे में विचार करते समय यह याद रखना जरूरी है।
दूसरा प्रश्न जरा जटिल है क्योंकि यह एक धार्मिक संस्थान में विज्ञान की गुंजाइश के बारे में है। विक्रमशिला एवं ओदांतपुरी की ही तरह नालंदा भी एक बौद्ध संस्थापन था, तो तय है कि इन संस्थानों में बौद्ध दर्शन एवं अभ्यास की ही पढ़ाई होती थी। यहाँ याद रखने की बात यह है कि बुद्ध दर्शन के तत्वों के अनुरूप प्रबोधनात्मक (गौतम को बुद्ध नाम दिया गया था, जिसका अर्थ था जो प्रबुद्ध है।) उपदेश ही केन्द्र-बिंदू थे, फिर भी बौद्धवादी बुद्धिजीवी ज्ञान-मीमांसा एवं नीति-विषयक जिज्ञासा की परंपरा के चलते विविध विषयों में ज्ञानार्जन करते थे। कुछ विषय बौद्ध प्रतिबद्धताओं से सीधे जुड़े हुए थे, जैसे चिकित्सा-शास्त्र एवं स्वास्थ्य रक्षा, दूसरे विषय बौद्ध संस्कृति के विकास एवं प्रसार से जुड़े थे, जैसे वास्तुशिल्प एवं मूर्तिकला; और कुछ, विश्लेषणात्मक विद्याभिमुख बौद्ध बुद्धिजीवियों के प्रश्नों से।
इस अंतिम बात को और स्पष्ट करता हूँ, सिर्फ नालंदा के संदर्भ में ही नहीं, वरन् बौद्ध बुद्धिजीवियों के प्रभाव को समझने के एक प्रयास के तौर पर। भारतीय एवं चीनी बुद्धिजीवियों के परस्पर जुड़ाव और उन पर सामान्यतः बौद्ध प्रभावों के साक्ष्यों की भरमार है, विशेषतः तांत्रिक बौद्धवाद के अनुषंग में, जिसका सातवीं और आठवीं शताब्दी के तांग काल के चीनी गणित एवं खगोल विज्ञान पर खासा प्रभाव था। याइ जिंग, जो नालंदा का विद्यार्थी था और जिसका उल्लेख मैं पहले कर चुका हूँ, तांत्रिक पाठों का संस्कृत से चीनी भाषा के अनुवादकों में से एक था। सातवीं और आठवीं शताब्दी तंत्रवाद चीन की एक मुख्य शक्ति थी और कई विद्वान चीनी बुद्धिजीवी इसके अनुयायी थे। क्योंकि कई तांत्रिक विद्वानों की गणित में गहन रुचि थी (अथवा कहें कि शुरु में अंकों के तांत्रिक आकर्षण में बँधे थे), इसलिए तांत्रिक गणितज्ञों का चीनी गणित पर विशेष प्रभाव था।
जैसा कि जोसेफ नीधम लिखते हैं, 'सबसे महत्वपूर्ण तांत्रिक आइ-हिसिंग (+ 672 से + 717) था, अपने समय का महानतम गणितज्ञ एवं खगोल विज्ञानी।' नीधम टिप्पणी करते हैं, 'यह तथ्य ही हमें विचार का प्रस्ताव देता है, क्योंकि इसी में वह संभावित संकेत है, जो बौद्धवाद के इस स्वरूप के महत्व को सभी प्रकार के अवलोकनीय एवं प्रयोगात्मक विज्ञानों के लिए रेखांकित करता है।' याइ सिंग (अथवा नीधम के शब्दों में कहें तो आइ-हिसिंग), असल में कभी भी नालंदा का विद्यार्थी नहीं था, लेकिन उसी परंपरा से जुड़ा था, जिसके परिणामों में से एक नालंदा थी, वह धाराप्रवाह संस्कृत बोलता था (इस फर्क पर ध्यान देना जरूरी है कि याइ सिंग गणितज्ञ था, जब कि याइ जिंग नालंदा से ज्ञानार्जित बुद्धिजीवी और उसकी अन्य विधाओं के अलावा चिकित्सा शास्त्र में भी रुचि थी।)। एक बौद्ध भिक्षु के रूप में याइ सिंग भारतीय धार्मिक साहित्य से भिज्ञ था ही, उसने गणित और खगोल विज्ञान पर किए गए समस्त भारतीय लेखन में महारत हासिल कर ली थी। उसके तमाम धार्मिक जुत्रडावों के बावजूद यह मानना भूल होगी कि याइ सिंग के गणितीय अथवा वैज्ञानिक कार्य की कोई धार्मिक प्रेरणा थी। एक सामान्य गणितज्ञ जो तांत्रिक भी था, याइ सिंग विविध विश्लेषकीय एवं संगणनकीय समस्याओं से जूझता रहा, जिसमें से कइयों के तंत्रवाद अथवा बौध्दवाद से दूर-दूर तक लेना-देना नहीं था। जिन कुछ संयोजकीय गणना के शास्त्रीय सवालों से याइ सिंग दो-चार होता रहा उनमें से एक था, 'शतरंज में संभावित स्थितियों के कुल अंकों की गणना।' याइ सिंग पंचांगीय गणनाओं में विशेष दिलचस्पी रखता था, उसने चीन के लिए शाही व्यवस्था पर आधारित पंचांग की रचना की थी।
चीन में आठवीं शताब्दी में याइ सिंग के साथ पंचांगीय अध्ययनों में जो भारतीय खगोल विज्ञानी जुटे हुए थे, उन्होंने उस त्रिकोणमितिय प्रगति का बेहतर उपयोग किया था, जो उस समय तक भारत में हो चुकी थी (हालाँकि भारतीय त्रिकोणमितिय की मूल जत्रडें यूनानी हैं।) भारतीय त्रिकोणमितिय का पूर्वी संचलन विचारों के वैश्विक आदान-प्रदान का हिस्सा था, जो कालांतर में पश्चिम की ओर गया। वास्तव में, यही वह समय था, जब भारतीय त्रिकोणमितिय का अरब विश्व पर भी खासा प्रभाव हो रहा था (आर्यभट्ट, वाराहमिहिर, ब्रम्हगुप्त एवं अन्य के लेखनकार्यों के अरबी अनुवाद के जरिए), और बाद में अरबों के जरिए यूरोपीय गणित को भी प्रभावित कर पाया (1150 में भारतीय लेखन पर आधारित अरब गणितीय पाठों का प्रथम लातिनी अनुवाद हो रहा था, यह नालंदा के आकस्मिक समापन के थोड़े ही समय पहले की बात है।)
यही वह सामान्य बौद्धिक सजीवता है, इस सजीवता में विश्लेषकीय एवं वैज्ञानिक सवालात भी है, जिनकी, प्राचीन नालंदा की गतिविधियों को समझते समय हमें तारीफ करनी है। मैं संपूर्ण स्वाधीनता से यहाँ उल्लेख करना चाहूँगा कि नालंदा हालाँकि धार्मिक संस्थापन था, लेकिन संस्थापन के धर्म को साझा करने की बजाय जन कल्याण के सामान्य बौद्धिक एवं वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसरण की परंपरा वहाँ विद्यमान थी। आइसैक न्यूटन धार्मिक थे, वास्तव में रहस्ययभिमुखी थे और फिर भी भौतिक विज्ञान, गणित और प्रकाश विज्ञान के स्वाभाव में उन्होंने क्रांति की और उन्हें अपने महाविद्यालय (जो कि मेरा और वेंकी रामाकृष्णन का भी महाविद्यालय है) की (यानी त्रिनिटी की) अतिधर्मिता से किसी तरह की कोई समस्या नहीं थी, न ही उन्होंने उसकी संगतता को लेकर किसी तरह के सवाल, ताकतवर तर्कों के जरिए उठाए जो कुछ साल बाद हेनरी सिड्गविक जैसे त्रिनिटी के लोगों ने उठाए थे। नालंदा में धर्म और विज्ञान का मेल किसी भी तरह से अनूठा नहीं था और इसे और एक उदाहरण के जरिए समझा जाए; वर्तमान में विश्व के प्राचीन विश्वविद्यालयों में से एक, पैडूआ क्रिश्चियन विश्वविद्यालय, गैलिलियो गैलिली जहाँ की देन हैं। (संयोगन, पैडूआ विश्वविद्यालय से मानद डॉक्टरेट की उपाधि स्वीकारते समय मैं हँस रहा था, क्योंकि मैंने सुना कि पॉल रिकोएर, जिन्हें भी यह उपाधि दी जानी थी, पैडूआ विश्वविद्यालय को खूब कोस रहे थे कि यह विश्वविद्यालय गैलिलियो के पक्ष में ठीक तरह से खड़ा नहीं था। रिकोएर के तर्क निर्दोष थे, लेकिन पैडूआ के वर्तमान अधिष्ठाता को गैलिलियो के समर्थन में पैडूआ के न खड़े होने के लिए दोष देना जरा अन्यायकारी प्रतीत होता है।) मैं नहीं जानता कि नालंदा में इस तरह के विवाद किस हद तक उभरे, लेकिन जैसे-जैसे दस्तावेज प्रकाश में आ रहे हैं, हम जान पाएंगे कि क्या नालंदा में धर्म और विज्ञान के संबंध में किसी तरह का तनाव था या नहीं। लेकिन जो बात स्पष्ट है वह यह कि बौद्ध संस्थापन ने विश्लेषकीय एवं वैज्ञानिक विषयों की खोज के लिए नालंदा विश्वविद्यालय परिसर में ही जगह उपलब्ध कराई थी।
तीसरा प्रश्न नालंदा में पढ़ाए जाने वाले विषयों से संबंधित है। यहीं पर समस्या हो रही है, क्योंकि नालंदा के दस्तावेज बख्तियार और उसकी विजेता सेना ने अधाधुंध तरीके से जला दिए थे। इसलिए हमें नालंदा के विद्यार्थियों द्वारा लिखे गए ऑंखों देखे नोट्स पर निर्भर करना होगा और क्योंकि भारतीय इतिहास लेखन के प्रति मौन साधे रखते हैं (यही अपने आप में रोचक विषय है) और बाहरी लोग भारतीयों के इस मौन से इत्तेफाक नहीं रखते, जैसे, जुआंगज़ैंग और याइ जिंग। हम वहाँ पढ़ाए जाने वाले विषयों के बारे में और जिन विषयों पर अनुसंधान हुए उनके बारे में जानते हैं, जो कि चिकित्सा शास्त्र, जन स्वास्थ्य, वास्तुशिल्प और खगोल विज्ञान हैं, धर्म, इतिहास, कानून और भाषा संबंधी विषयों के साथ।
लेकिन गणित के बारे में क्या? नालंदा के चीनी इतिहास लेखक जैसे याइ जिंग और जुआंगज़ैंग गणितीय अध्ययनों में शामिल नहीं थे। भारतीय गणित में गहन रुचि रखने वाले चीन के लोग, जैसे कि याइ सिंग नालंदा के विद्यार्थी नहीं थे। हो सकता है कि कुछ लोग हों जो कि भारत में रहते हों या कि चीन में या फिर दुनिया में और कही, जिन्होंने नालंदा से गणित (उस कालखंड में यह विषय खूब फल-फूल रहा था) की पढ़ाई की हो और उनके दस्तावेज गुम हो गए हों। बहरहाल, भारतीय संदर्भों से हम जानते हैं कि नालंदा में तर्कशास्त्र एक विषय के तौर पर पढ़ाया जाता था और मुझे उम्मीद है कि गणित के नालंदा के पाठयक्रम में होने के बारे में साक्ष्य भविष्य में हमें कभी न कभी जरूर मिलेंगे।
नालंदा के पाठयक्रम में गणित की उपस्थिति की दिशा में अपरोक्ष साक्ष्य यह है कि खगोल विज्ञान नालंदा के पाठयक्रम का हिस्सा था। जुआंगज़ैंग ने इस पर टिप्पणी लिखी है और अवलोकनार्थ बनाए गए मीनार के संदर्भ में लिखा है मानो यह बादलों के बीच ऊपर अवस्थित हो, और जिससे नालंदा के परिसर का विहंगम दृश्य दिखाई देता था। उस कालखंड में भारतीय और चीनी खगोल विज्ञान की प्रगति, गणित के, खासकर त्रिकोणमितिय विकास, से अत्यंत करीब से जुड़ी हुई थी। असल में, चीनी जिन भी भारतीय विद्वानों को खगोल विज्ञान के कार्यों के लिए चीन लेकर गए थे, वे सभी गणितज्ञ थे (उनमें से एक आठवीं शताब्दी के चीन में खगोल विज्ञान के लिए बनी आधिकारिक परिषद के निदेशक भी बने।)। जो भारतीय गणितज्ञ चीन गए उनके वंशक्रम के बारे में हम ज्यादा नहीं जानते कि जिससे उनका नालंदा से संबंध निर्धारित हो सके, लेकिन हम यह तो जानते हैं कि पाँचवीं शताब्दी के आरंभ से ही पाटिलपुत्र (पटना) के समीप कुसुमपुर नामक स्थान पर इस विषय के प्रवर्तक अग्रणी गणितज्ञगण एकत्रित होते थे।
मैं दो अंतिम टिप्पणियों के साथ अपनी बात समाप्त करता हूँ। पहला नालंदा के बौद्धिक आयाम से संबंधित है, जो नालंदा के विषय में चीनी और भारतीय विद्वानों के वृतांतों में पूरी ताकत से उभरता है। नालंदा के गुरु-शिष्य तर्क-प्रेमी थे और कई बार शास्त्रार्थ का आयोजन करते थे। मैंने कहीं और तर्कशास्त्र के गहन स्वरूप के भारतीय बौद्धिक इतिहास पर चर्चा की है, यहाँ मैं यह जोड़ना चाहता हूँ कि यह वैज्ञानिक परंपरा का भी हिस्सा है, तर्कों की प्रस्तुति और रक्षा, स्थितियों और दावों को अस्वीकारना सिर्फ विश्वास के भरोसे। नालंदा में तर्क-शास्त्रार्थ के खूब मुकाबले आयोजित होते थे और कहा जा सकता है कि अत्यंत सामान्य तरीके से यह नालंदा के वैज्ञानिक संबंधों में फिट भी होते थे।
अंतिम टिप्पणी नालंदा के ज्ञान और विवेक के अनुरागी प्रचारक रूप से संबंधित है। यह भी एक कारण है कि हमेशा वहाँ विदेश के विद्यार्थियों के लिए एक आतुरता होती थी। जुआंगज़ैग आर याइ जिंग ने चीन से नालंदा पहुँचने पर हुए गर्मजोशी भरे स्वागत का जिक्र किया है। जुआंगज़ैंग ने तो वास्तव में नालंदा में शिक्षा पूर्ण करने के बाद एक शिक्षक द्वारा वहीं रुककर शिक्षा देने की पेशकश और दबाव पर तर्क देते हुए वही प्रतिबद्धता जाहिर की। उसने अपनी प्रतिबद्धता का उल्लेख करते हुए बुद्ध के ही वचन का सहारा लिया, जिसमें उन्होंने कहा था कि सारी दुनिया को प्रबुद्ध बनाओ। उसने भाषणगत सवाल किया, 'कौन यह रहकर अकेले ही आनंदित होना चाहेगा और उन्हें भूल जाएगा जो प्रबुद्ध नहीं हैं?' यदि साक्ष्यों की तलाश एवं आलोच्य तर्कों से उनका रक्षण विज्ञान की परंपरा का एक भाग है, तो ज्ञान और विवेक को स्थानीयता से मुक्त करने की प्रतिबद्धता भी उसी परंपरा का हिस्सा है। विज्ञान को संकीर्णता से जूझना पड़ता है और नालंदा इसके प्रति दृढ़ता से प्रतिबद्ध था।
(चेन्नई में 4 जनवरी को संपन्न 98वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस में डॉ. अमर्त्य सेन का मुख्य भाषण, डॉ. अमर्त्य सेन को 1998 में अर्थशास्त्र के लिए नोबल पुरस्कार मिला और 1999 में भारत रत्न। वह अमेरिका के हावर्ड विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र एवं दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर हैं और नालंदा विश्वविद्यालय के अंतरिम प्रशासकीय परिषद के अध्यक्ष हैं।मूल अंग्रेजी से अनुवादः पुष्पेन्द्र फाल्गुन,पुष्पेन्द्र जी के फेसबुक से साभार)
अच्छा, दुनिया का प्राचीनतम विश्वविद्यालय कौन-सा है? इस सवाल के जवाब में हमारा दिमाग घूमता है, 1088 में आरंभ बोलोग्ना की ओर, 1091 में स्थापित पैरिस की ओर और अन्य विद्या-गत्रढों, जिसमें 1167 में स्थापित ऑक्सफोर्ड और 1209 में स्थापित कैम्ब्रिज भी शामिल हैं। इस चित्र में नालंदा की मुनासिब जगह कहाँ है? यदि हम सतत अस्तित्वमय विश्वविद्यालय ढूँत्रढ रहे होंगे तो सबसे छोटा जवाब होगा, 'कहीं नहीं।'
इस्वी सन 1193 में नालंदा अफगानियों के आक्रमण में बलपूर्वक नष्ट कर दिया गया था, जिसका नेतृत्व निर्दयी शासक बख्तियार खिलजी ने किया था। यह ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के आरंभ होने के कुछ ही समय बाद की और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय की स्थापना के कुछ ही समय पहले की बात है। नालंदा विश्वविद्यालय, जो भारत में उच्च शिक्षा का विश्वविख्यात केन्द्र था, जिसे पाँचवीं शती के आरंभ में स्थापित किया गया था, सात सौ साल से ज्यादा समय तक अपना वजूद बनाए रखने और यूरोप के प्राचीनतम विश्वविद्यालय बोलोग्ना से तुलना के बावजूद खत्म हो रहा था, ठीक उसी समय, ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज अपना वजूद पा रहे थे।
नालंदा छहः सौ साल का हो गया था, जब बोलोग्ना का जन्म हो रहा था। यदि उसे नष्ट नहीं किया गया होता और वह हमारे समय तक अपना वजूद बनाए रख पाता, तो नालंदा विश्वविद्यालय, एक लंबे अंतराल से, दुनिया का प्राचीनतम विश्वविद्यालय होता। एक और विशिष्ट विश्वविद्यालय, जिसका वजूद भी सतत नहीं टिक पाया, वह था कैरो का अल-अजहर विश्वविद्यालय, जिसकी अक्सर नालंदा से तुलना होती थी और जिसे इस्वी सन 970 में बसाया गया था, उस समय नालंदा विश्वविद्यालय की उम्र पाँच सौ साल से ज्यादा हो चुकी थी।
तो उम्र को लेकर काफी शेखी हो गई (जैसा कि आप जानते हैं, हम भारतीय लोग उम्र को काफी गंभीरता से लेते हैं), और मुझे उम्मीद है कि आप समझ ही गए होंगे कि हम लोग उम्र के लिहाजन, बजाय कि वजूद-ए-मुसस्सल् दुनिया के प्राचीनतम विश्वविद्यालय के बारे में बात कर रहे हैं। फिल वक्त इस विश्वविद्यालय को दोबारा शुरु किया जा रहा है और क्योंकि मैं अंतरिम प्रबंध परिषद के अध्यक्षता का दुष्कर दायित्व निभा रहा हूँ, मैं इस निष्कर्ष पर हूँ कि 800 वर्षों की विवृत्ति के पश्चात विश्वविद्यालय की पुर्नस्थापना कितना कठिन कार्य है। लेकिन हम नतीजों के करीब हैं। आज की यह परिचर्चा मुझे एक मौका उपलब्ध कराती है कि मैं प्राचीन नालंदा के विज्ञान की खोज का स्मरण करूँ, जिससे कि हम सभी को प्रेरणा मिले और नए नालंदा के लिए हमारे सुदीर्घ प्रयासों का पथ प्रदर्शन हो। मैं सुदीर्घ शब्द का इस्तेमाल मुख्यतः लागत की वजह से, बल्कि कहें कि सिर्फ लागत की वजह से कर रहा हूँ। हम विज्ञान संकाय तत्काल शुरु नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि भौतिकी एवं जैविक विज्ञान शाखाओं के लिए मानविकी एवं समाज विज्ञान शाखाओं से कहीं-कहीं ज्यादा धन की जरूरत है। प्राचीन नालंदा की वैज्ञानिक परंपराओं का पुर्नस्मरण या कहें कि मूल्यांकन ज्यादा चुनौतीपूर्ण है, लेकिन इस समय अत्यंत महत्वपूर्ण भी, कुछ इसलिए कि हमें सुदीर्घ प्रयास (हालाँकि स्थापना एवं विस्तार के लिए हम धन इकट्ठा करने की कोशिश कर ही रहे हैं।) के बारे में सोचना शुरु करना है और मुख्यतः इसलिए भी कि नए नालंदा की संपूर्ण अवधारणा, जिसमें मानविकी (जैसे इतिहास, भाषा एवं भाषा संबंधी तथा तुलनात्मक धर्म) के तथा सामाजिक विज्ञान एवं व्यवसाय विश्व (जैसे अंतर्राष्ट्रीय संबंध, प्रबंधन एवं विकास तथा सूचना प्रोद्योगिकी) के अध्यापन-अनुसंधान में वैज्ञानिक अभिवृत्ति एवं अनुशासित विचार महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।
नालंदा में विज्ञान की खोज से तादातम्य रखते कुछ सवाल उठाने की इजाजत चाहता हूँ। पहला, क्या नालंदा जिस भी तरह के अनुसंधान का हिमायतगार था, उसके उपादान में उसे यथेष्ट विशालता हासिल थी? क्या वह अंधविश्वास एवं अज्ञान के सागर की महज एक बूँद की तरह तो नहीं था; जिसे कि कुछ लोग प्राचीन भारत की विशेषता के तौर पर देखते थे; यह समझने के लिए कि आधुना भारत को नियंत्रण में रखने के लिए यह अवधारणा कितनी सुदृढ़ और राजनीतिक तौर महत्वपूर्ण थी, आपको सिर्फ जेम्स मिल्स की 'हिस्ट्री ऑफ इंडिया' पढ़ने की जरूरत है, जिसे कि राज चलाने के लिए भेजे जाने वाले ब्रिटिश प्रशासनिक सेवा के नौकरशाहों के लिए पढना अनिवार्य था।
बहरहाल, नालंदा ज्ञान का प्राचीन केन्द्र था, जिसका दुनिया के कई देशों, विशेषतः चीन और तिब्बत, कोरिया और जापान तथा शेष एशिया के साथ सुदूर पश्चिम के तुर्की जैसे देश के विद्यार्थियों में भी आकर्षण था। नालंदा एक आवासीय विश्वविद्यालय था, जहाँ 10,000 की चरम सीमा तक विद्यार्थी थे, जो विविध विषयों का अध्ययन कर रहे थे। चीनी विद्यार्थियों ने खास तौर पर नालंदा में जो देखा अथवा जो भी शैक्षिक मानक उन्हें पसंद आए, उस पर विस्तार से लिखा, इनमें सातवीं शताब्दी के चीनी विद्यार्थी जुआनज़ैंग और याइ जिंग के नाम उल्लेखनीय हैं। प्राचीन चीन के इतिहास में संयोगन् नालंदा ही एकमात्र गैर-चीनी संस्थान है, जहाँ चीनी विद्वानों ने ज्ञानार्जन किया था।
यह समझना भी जरूरी है कि नालंदा अतिविशिष्ट था, बावजूद इसके वह उस काल में भारत के विशेषकर बिहार में सुव्यवस्थित उच्च शिक्षा की वृहद परंपरा का एक अंग मात्र था। नालंदा के अलावा समीप ही दूसरे संस्थान भी थे, जैसे विक्रमशिला एवं ओदांतपुरी। वास्तव में जुआंगज़ैंग ने इनके विषय में भी लिखा, हालाँकि वह नालंदा में अध्ययन कर रहा था। नालंदा उस समय की सामाजिक संस्कृति से सम्बद्ध था और नालंदा की परंपरा के बारे में विचार करते समय यह याद रखना जरूरी है।
दूसरा प्रश्न जरा जटिल है क्योंकि यह एक धार्मिक संस्थान में विज्ञान की गुंजाइश के बारे में है। विक्रमशिला एवं ओदांतपुरी की ही तरह नालंदा भी एक बौद्ध संस्थापन था, तो तय है कि इन संस्थानों में बौद्ध दर्शन एवं अभ्यास की ही पढ़ाई होती थी। यहाँ याद रखने की बात यह है कि बुद्ध दर्शन के तत्वों के अनुरूप प्रबोधनात्मक (गौतम को बुद्ध नाम दिया गया था, जिसका अर्थ था जो प्रबुद्ध है।) उपदेश ही केन्द्र-बिंदू थे, फिर भी बौद्धवादी बुद्धिजीवी ज्ञान-मीमांसा एवं नीति-विषयक जिज्ञासा की परंपरा के चलते विविध विषयों में ज्ञानार्जन करते थे। कुछ विषय बौद्ध प्रतिबद्धताओं से सीधे जुड़े हुए थे, जैसे चिकित्सा-शास्त्र एवं स्वास्थ्य रक्षा, दूसरे विषय बौद्ध संस्कृति के विकास एवं प्रसार से जुड़े थे, जैसे वास्तुशिल्प एवं मूर्तिकला; और कुछ, विश्लेषणात्मक विद्याभिमुख बौद्ध बुद्धिजीवियों के प्रश्नों से।
इस अंतिम बात को और स्पष्ट करता हूँ, सिर्फ नालंदा के संदर्भ में ही नहीं, वरन् बौद्ध बुद्धिजीवियों के प्रभाव को समझने के एक प्रयास के तौर पर। भारतीय एवं चीनी बुद्धिजीवियों के परस्पर जुड़ाव और उन पर सामान्यतः बौद्ध प्रभावों के साक्ष्यों की भरमार है, विशेषतः तांत्रिक बौद्धवाद के अनुषंग में, जिसका सातवीं और आठवीं शताब्दी के तांग काल के चीनी गणित एवं खगोल विज्ञान पर खासा प्रभाव था। याइ जिंग, जो नालंदा का विद्यार्थी था और जिसका उल्लेख मैं पहले कर चुका हूँ, तांत्रिक पाठों का संस्कृत से चीनी भाषा के अनुवादकों में से एक था। सातवीं और आठवीं शताब्दी तंत्रवाद चीन की एक मुख्य शक्ति थी और कई विद्वान चीनी बुद्धिजीवी इसके अनुयायी थे। क्योंकि कई तांत्रिक विद्वानों की गणित में गहन रुचि थी (अथवा कहें कि शुरु में अंकों के तांत्रिक आकर्षण में बँधे थे), इसलिए तांत्रिक गणितज्ञों का चीनी गणित पर विशेष प्रभाव था।
जैसा कि जोसेफ नीधम लिखते हैं, 'सबसे महत्वपूर्ण तांत्रिक आइ-हिसिंग (+ 672 से + 717) था, अपने समय का महानतम गणितज्ञ एवं खगोल विज्ञानी।' नीधम टिप्पणी करते हैं, 'यह तथ्य ही हमें विचार का प्रस्ताव देता है, क्योंकि इसी में वह संभावित संकेत है, जो बौद्धवाद के इस स्वरूप के महत्व को सभी प्रकार के अवलोकनीय एवं प्रयोगात्मक विज्ञानों के लिए रेखांकित करता है।' याइ सिंग (अथवा नीधम के शब्दों में कहें तो आइ-हिसिंग), असल में कभी भी नालंदा का विद्यार्थी नहीं था, लेकिन उसी परंपरा से जुड़ा था, जिसके परिणामों में से एक नालंदा थी, वह धाराप्रवाह संस्कृत बोलता था (इस फर्क पर ध्यान देना जरूरी है कि याइ सिंग गणितज्ञ था, जब कि याइ जिंग नालंदा से ज्ञानार्जित बुद्धिजीवी और उसकी अन्य विधाओं के अलावा चिकित्सा शास्त्र में भी रुचि थी।)। एक बौद्ध भिक्षु के रूप में याइ सिंग भारतीय धार्मिक साहित्य से भिज्ञ था ही, उसने गणित और खगोल विज्ञान पर किए गए समस्त भारतीय लेखन में महारत हासिल कर ली थी। उसके तमाम धार्मिक जुत्रडावों के बावजूद यह मानना भूल होगी कि याइ सिंग के गणितीय अथवा वैज्ञानिक कार्य की कोई धार्मिक प्रेरणा थी। एक सामान्य गणितज्ञ जो तांत्रिक भी था, याइ सिंग विविध विश्लेषकीय एवं संगणनकीय समस्याओं से जूझता रहा, जिसमें से कइयों के तंत्रवाद अथवा बौध्दवाद से दूर-दूर तक लेना-देना नहीं था। जिन कुछ संयोजकीय गणना के शास्त्रीय सवालों से याइ सिंग दो-चार होता रहा उनमें से एक था, 'शतरंज में संभावित स्थितियों के कुल अंकों की गणना।' याइ सिंग पंचांगीय गणनाओं में विशेष दिलचस्पी रखता था, उसने चीन के लिए शाही व्यवस्था पर आधारित पंचांग की रचना की थी।
चीन में आठवीं शताब्दी में याइ सिंग के साथ पंचांगीय अध्ययनों में जो भारतीय खगोल विज्ञानी जुटे हुए थे, उन्होंने उस त्रिकोणमितिय प्रगति का बेहतर उपयोग किया था, जो उस समय तक भारत में हो चुकी थी (हालाँकि भारतीय त्रिकोणमितिय की मूल जत्रडें यूनानी हैं।) भारतीय त्रिकोणमितिय का पूर्वी संचलन विचारों के वैश्विक आदान-प्रदान का हिस्सा था, जो कालांतर में पश्चिम की ओर गया। वास्तव में, यही वह समय था, जब भारतीय त्रिकोणमितिय का अरब विश्व पर भी खासा प्रभाव हो रहा था (आर्यभट्ट, वाराहमिहिर, ब्रम्हगुप्त एवं अन्य के लेखनकार्यों के अरबी अनुवाद के जरिए), और बाद में अरबों के जरिए यूरोपीय गणित को भी प्रभावित कर पाया (1150 में भारतीय लेखन पर आधारित अरब गणितीय पाठों का प्रथम लातिनी अनुवाद हो रहा था, यह नालंदा के आकस्मिक समापन के थोड़े ही समय पहले की बात है।)
यही वह सामान्य बौद्धिक सजीवता है, इस सजीवता में विश्लेषकीय एवं वैज्ञानिक सवालात भी है, जिनकी, प्राचीन नालंदा की गतिविधियों को समझते समय हमें तारीफ करनी है। मैं संपूर्ण स्वाधीनता से यहाँ उल्लेख करना चाहूँगा कि नालंदा हालाँकि धार्मिक संस्थापन था, लेकिन संस्थापन के धर्म को साझा करने की बजाय जन कल्याण के सामान्य बौद्धिक एवं वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसरण की परंपरा वहाँ विद्यमान थी। आइसैक न्यूटन धार्मिक थे, वास्तव में रहस्ययभिमुखी थे और फिर भी भौतिक विज्ञान, गणित और प्रकाश विज्ञान के स्वाभाव में उन्होंने क्रांति की और उन्हें अपने महाविद्यालय (जो कि मेरा और वेंकी रामाकृष्णन का भी महाविद्यालय है) की (यानी त्रिनिटी की) अतिधर्मिता से किसी तरह की कोई समस्या नहीं थी, न ही उन्होंने उसकी संगतता को लेकर किसी तरह के सवाल, ताकतवर तर्कों के जरिए उठाए जो कुछ साल बाद हेनरी सिड्गविक जैसे त्रिनिटी के लोगों ने उठाए थे। नालंदा में धर्म और विज्ञान का मेल किसी भी तरह से अनूठा नहीं था और इसे और एक उदाहरण के जरिए समझा जाए; वर्तमान में विश्व के प्राचीन विश्वविद्यालयों में से एक, पैडूआ क्रिश्चियन विश्वविद्यालय, गैलिलियो गैलिली जहाँ की देन हैं। (संयोगन, पैडूआ विश्वविद्यालय से मानद डॉक्टरेट की उपाधि स्वीकारते समय मैं हँस रहा था, क्योंकि मैंने सुना कि पॉल रिकोएर, जिन्हें भी यह उपाधि दी जानी थी, पैडूआ विश्वविद्यालय को खूब कोस रहे थे कि यह विश्वविद्यालय गैलिलियो के पक्ष में ठीक तरह से खड़ा नहीं था। रिकोएर के तर्क निर्दोष थे, लेकिन पैडूआ के वर्तमान अधिष्ठाता को गैलिलियो के समर्थन में पैडूआ के न खड़े होने के लिए दोष देना जरा अन्यायकारी प्रतीत होता है।) मैं नहीं जानता कि नालंदा में इस तरह के विवाद किस हद तक उभरे, लेकिन जैसे-जैसे दस्तावेज प्रकाश में आ रहे हैं, हम जान पाएंगे कि क्या नालंदा में धर्म और विज्ञान के संबंध में किसी तरह का तनाव था या नहीं। लेकिन जो बात स्पष्ट है वह यह कि बौद्ध संस्थापन ने विश्लेषकीय एवं वैज्ञानिक विषयों की खोज के लिए नालंदा विश्वविद्यालय परिसर में ही जगह उपलब्ध कराई थी।
तीसरा प्रश्न नालंदा में पढ़ाए जाने वाले विषयों से संबंधित है। यहीं पर समस्या हो रही है, क्योंकि नालंदा के दस्तावेज बख्तियार और उसकी विजेता सेना ने अधाधुंध तरीके से जला दिए थे। इसलिए हमें नालंदा के विद्यार्थियों द्वारा लिखे गए ऑंखों देखे नोट्स पर निर्भर करना होगा और क्योंकि भारतीय इतिहास लेखन के प्रति मौन साधे रखते हैं (यही अपने आप में रोचक विषय है) और बाहरी लोग भारतीयों के इस मौन से इत्तेफाक नहीं रखते, जैसे, जुआंगज़ैंग और याइ जिंग। हम वहाँ पढ़ाए जाने वाले विषयों के बारे में और जिन विषयों पर अनुसंधान हुए उनके बारे में जानते हैं, जो कि चिकित्सा शास्त्र, जन स्वास्थ्य, वास्तुशिल्प और खगोल विज्ञान हैं, धर्म, इतिहास, कानून और भाषा संबंधी विषयों के साथ।
लेकिन गणित के बारे में क्या? नालंदा के चीनी इतिहास लेखक जैसे याइ जिंग और जुआंगज़ैंग गणितीय अध्ययनों में शामिल नहीं थे। भारतीय गणित में गहन रुचि रखने वाले चीन के लोग, जैसे कि याइ सिंग नालंदा के विद्यार्थी नहीं थे। हो सकता है कि कुछ लोग हों जो कि भारत में रहते हों या कि चीन में या फिर दुनिया में और कही, जिन्होंने नालंदा से गणित (उस कालखंड में यह विषय खूब फल-फूल रहा था) की पढ़ाई की हो और उनके दस्तावेज गुम हो गए हों। बहरहाल, भारतीय संदर्भों से हम जानते हैं कि नालंदा में तर्कशास्त्र एक विषय के तौर पर पढ़ाया जाता था और मुझे उम्मीद है कि गणित के नालंदा के पाठयक्रम में होने के बारे में साक्ष्य भविष्य में हमें कभी न कभी जरूर मिलेंगे।
नालंदा के पाठयक्रम में गणित की उपस्थिति की दिशा में अपरोक्ष साक्ष्य यह है कि खगोल विज्ञान नालंदा के पाठयक्रम का हिस्सा था। जुआंगज़ैंग ने इस पर टिप्पणी लिखी है और अवलोकनार्थ बनाए गए मीनार के संदर्भ में लिखा है मानो यह बादलों के बीच ऊपर अवस्थित हो, और जिससे नालंदा के परिसर का विहंगम दृश्य दिखाई देता था। उस कालखंड में भारतीय और चीनी खगोल विज्ञान की प्रगति, गणित के, खासकर त्रिकोणमितिय विकास, से अत्यंत करीब से जुड़ी हुई थी। असल में, चीनी जिन भी भारतीय विद्वानों को खगोल विज्ञान के कार्यों के लिए चीन लेकर गए थे, वे सभी गणितज्ञ थे (उनमें से एक आठवीं शताब्दी के चीन में खगोल विज्ञान के लिए बनी आधिकारिक परिषद के निदेशक भी बने।)। जो भारतीय गणितज्ञ चीन गए उनके वंशक्रम के बारे में हम ज्यादा नहीं जानते कि जिससे उनका नालंदा से संबंध निर्धारित हो सके, लेकिन हम यह तो जानते हैं कि पाँचवीं शताब्दी के आरंभ से ही पाटिलपुत्र (पटना) के समीप कुसुमपुर नामक स्थान पर इस विषय के प्रवर्तक अग्रणी गणितज्ञगण एकत्रित होते थे।
मैं दो अंतिम टिप्पणियों के साथ अपनी बात समाप्त करता हूँ। पहला नालंदा के बौद्धिक आयाम से संबंधित है, जो नालंदा के विषय में चीनी और भारतीय विद्वानों के वृतांतों में पूरी ताकत से उभरता है। नालंदा के गुरु-शिष्य तर्क-प्रेमी थे और कई बार शास्त्रार्थ का आयोजन करते थे। मैंने कहीं और तर्कशास्त्र के गहन स्वरूप के भारतीय बौद्धिक इतिहास पर चर्चा की है, यहाँ मैं यह जोड़ना चाहता हूँ कि यह वैज्ञानिक परंपरा का भी हिस्सा है, तर्कों की प्रस्तुति और रक्षा, स्थितियों और दावों को अस्वीकारना सिर्फ विश्वास के भरोसे। नालंदा में तर्क-शास्त्रार्थ के खूब मुकाबले आयोजित होते थे और कहा जा सकता है कि अत्यंत सामान्य तरीके से यह नालंदा के वैज्ञानिक संबंधों में फिट भी होते थे।
अंतिम टिप्पणी नालंदा के ज्ञान और विवेक के अनुरागी प्रचारक रूप से संबंधित है। यह भी एक कारण है कि हमेशा वहाँ विदेश के विद्यार्थियों के लिए एक आतुरता होती थी। जुआंगज़ैग आर याइ जिंग ने चीन से नालंदा पहुँचने पर हुए गर्मजोशी भरे स्वागत का जिक्र किया है। जुआंगज़ैंग ने तो वास्तव में नालंदा में शिक्षा पूर्ण करने के बाद एक शिक्षक द्वारा वहीं रुककर शिक्षा देने की पेशकश और दबाव पर तर्क देते हुए वही प्रतिबद्धता जाहिर की। उसने अपनी प्रतिबद्धता का उल्लेख करते हुए बुद्ध के ही वचन का सहारा लिया, जिसमें उन्होंने कहा था कि सारी दुनिया को प्रबुद्ध बनाओ। उसने भाषणगत सवाल किया, 'कौन यह रहकर अकेले ही आनंदित होना चाहेगा और उन्हें भूल जाएगा जो प्रबुद्ध नहीं हैं?' यदि साक्ष्यों की तलाश एवं आलोच्य तर्कों से उनका रक्षण विज्ञान की परंपरा का एक भाग है, तो ज्ञान और विवेक को स्थानीयता से मुक्त करने की प्रतिबद्धता भी उसी परंपरा का हिस्सा है। विज्ञान को संकीर्णता से जूझना पड़ता है और नालंदा इसके प्रति दृढ़ता से प्रतिबद्ध था।
(चेन्नई में 4 जनवरी को संपन्न 98वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस में डॉ. अमर्त्य सेन का मुख्य भाषण, डॉ. अमर्त्य सेन को 1998 में अर्थशास्त्र के लिए नोबल पुरस्कार मिला और 1999 में भारत रत्न। वह अमेरिका के हावर्ड विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र एवं दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर हैं और नालंदा विश्वविद्यालय के अंतरिम प्रशासकीय परिषद के अध्यक्ष हैं।मूल अंग्रेजी से अनुवादः पुष्पेन्द्र फाल्गुन,पुष्पेन्द्र जी के फेसबुक से साभार)
अच्छी जानकारी मिली. आपके ब्लॉग पर आ कर काफी जानकारी मिली . आपका ब्लॉगजगत पर होना हम सब के लिए गर्व की बात है
जवाब देंहटाएंनालंदा विश्वविद्यालय सम्बंधित अनमोल जानकारी के लिए आभार।
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