मध्यपूर्व के अरब देशों में प्रतिवाद की आंधी चल रही है। सारे ज्ञानी और विशेषज्ञ परेशान हैं कि आखिरकार यह आंधी कहां से आई ? मिस्र में लोकतंत्र का जो आंदोलन चल रहा है वह इसी समय क्यों सामने आया ? मिस्र और दूसरे अरब देशों में जनता आज कुर्बानी के लिए आमादा क्यों है ? कुर्बानी और लोकतंत्र का यह जज्बा पहले क्यों नहीं दिखाई दिया ? लोकतंत्र का महानतम लाइव टीवी कवरेज क्यों आया ? इत्यादि सवालों पर हमें गंभीरता के साथ विचार करना चाहिए।
अरब में लोकतंत्र और सर्वसत्तावादी शासकों के खिलाफ जो आंधी चल रही है उसका बुनियादी कारण है इराक में अमेरिका और उसके सहयोगी देशों की सैन्य-राजनीतिक पराजय और उनका वहां से पलायन। आज अमेरिका इस स्थिति में नहीं है कि वह इराक में जीत जाए। इतने व्यापक खून-खराबे और जन-धन की व्यापक हानि के बाबजूद अमेरिकी सेनाएं 2011 के अंत तक इराक से वापस आ जाएंगी ऐसा ओबामा ने कहा है।
ओबामा के द्वारा इराक से सेना वापसी का कार्यक्रम घोषित करने के बाद से अरब जनता में अमेरिकी वर्चस्व का मिथ टूटा है। यह मिथ भी टूटा है कि मध्यपूर्व को सेना के नियंत्रण में रखा जा सकता है। साम्राज्यवाद और उसके गुर्गे तब तक ही शासन करते हैं जब तक सेना संभालने में सक्षम हो। सैन्य नियंत्रण के बिना साम्राज्यवाद अपना शासन स्थापित नहीं कर पाता। अमेरिकी सेना की वापसी इस बात का संकेत है कि अमेरिकी सेनाएं मध्यपूर्व को संभालने में सक्षम नहीं हैं। यह सैन्य आतंक के अंत की सूचना है और मध्यपूर्व और खासकर मिस्र की जनता ने इस इबारत को सही पढ़ा है।
सामयिक अरब प्रतिवाद का पहला संदेश है भूमंडलीकरण के आने के साथ जिस अमेरिकी वर्चस्व की स्थापना हुई थी वह वर्चस्व खत्म हो गया है। जिस तरह पोलैण्ड की जनता के प्रतिवाद ने समाजवाद की सत्ता से विदाई कर दी ,समाजवाद में निहित सर्वसत्तावाद को नष्ट कर दिया था और उससे समूचा समाजवादी जगत प्रभावित हुआ था। ठीक वैसे ही भूमंडलीकरण के अमेरिकी वर्चस्व की कब्रगाह अरब मुल्क बने हैं। उल्लेखनीय है सोवियत सेनाओं की अफगानिस्तान से वापसी के बाद समाजवाद बिखरा था। इराक से सेना वापसी से अमेरिका प्रभावित होगा। उसका विश्वव्यापी सैन्यतंत्र प्रभावित होगा। यानी मुस्लिम देशों ने सोवियत संघ और अमेरिका दोनों को प्रभावित और पराजित किया है। सोवियत संघ की अफगानिस्तान से वापसी के साथ समाजवाद गया और इराक से अमेरिकी सेनाओं की वापसी की घोषणा के साथ भूमंडलीकरण -शीतयुद्ध का अंत हुआ है।
उल्लेखनीय है शीतयुद्ध का प्रधान संघर्ष केन्द्र मध्यपूर्व है। अमेरिकी विश्व राजनीति की यह प्रमुख धुरी है। अरब जनता और अरब देशों की एकता को सबसे पहले मिस्र को साथ मिलाकर अमेरिका-इस्राइल ने तोड़ा था। आज उसी मिस्र के पिट्ठू शासक हुसैनी मुबारक और उनकी चारणमंडली को मिस्र की जनता ने ठुकरा दिया है।
मिस्र का एक और संदेश है कि अमेरिकी वर्चस्व,सर्वसत्तावाद और सैन्यशासन को लोकतांत्रिक फौलादी एकता के आधार पर ही चुनौती दी जा सकती है।लोकतांत्रिक एकता सर्वसत्तावादी विचारधाराओं और शासकों के लिए मौत की सूचना है।
मिस्र में हुसैनी मुबारक ने राष्ट्रपति पद से इस्तीफा देने के बाद अज्ञातवास का निर्णय लिया है। अमेरिका को मालूम है कि मुबारक कहां रह रहे हैं। मिस्र की सेना के बड़े अफसर भी जानते हैं। कायदे से मुबारक के खिलाफ मानवाधिकार हनन के लिए मिस्र की अदालत में मुकदमे चलाए जाने चाहिए। उन्हें गिरफ्तार किया जाना चाहिए। सद्दाम और मिलोशेविच के लिए जो मानक अमेरिका ने लागू किए थे ,न्याय-अन्याय के वे मानक मुबारक पर भी लागू होते हैं। मुबारक के खिलाफ असंख्य अपराधों की शिकायत वहां की जनता ने की है और अमेरिकी प्रशासन ने उन्हें इस तरह अज्ञातस्थान पर क्यों जाने दिया ? ओबामा प्रशासन ने अभी तक मुबारक के मानवाधिकारहनन के कारनामों पर मुँह क्यों नहीं खोला ?
विगत तीन दशकों से मिस्र की जनता ने जिस तरह का दमन,उत्पीडन और आतंक झेला है उसका कायदे से मूल्यांकन होना चाहिए और उत्पीडितों को न्याय मिलना चाहिए । साथ ही मुबारक शासन के जो लोग मिस्र की जनता पर बेइंतिहा जुल्म ढाने के लिए जिम्मेदार हैं उनकी निशानदेही होनी चाहिए। इसके अलावा मुबारक और उनकी कॉकस मंडली के लोगों के बैंक खाते सील किए जाने चाहिए।
आश्चर्य की बात है कि मुबारक के द्वारा किए गए मानवाधिकारों के हनन पर अमेरिकी प्रशासन और बहुराष्ट्रीय अमेरिकी मीडिया एकदम चुप्पी लगाए बैठा है।जबकि यही मीडिया इराक के सद्दाम हुसैन और यूगोस्लाविया के मिलोशेविच के मामले में अतिरंजित और झूठी मानवाधिकार हनन की खबरें तक हैडलाइन बनाता रहा है। आज किसी भी अमेरिकी मीडिया में मुबारक के अत्याचारों का आख्यान नहीं मिलेगा।
उल्लेखनीय है सेना जनांदोलन में फूट पड़ने का इंतजार कर रही थी, बहुराष्ट्रीय मीडिया ने मुस्लिम ब्रदरहुड का फंडामेंटलिस्ट पत्ता चला था जो असफल रहा। जनता के अन्य ग्रुपों में भी दरार पैदा करने की कोशिश की जा रही है। लेकिन आम जनता में लोकतंत्र की मांग पर कुर्बानी का जज्बा देखकर सभी राजनीतिक संगठनों के दिमाग सन्न हैं। मिस्र के आंदोलन में पुलिस के हाथों 300 से ज्यादा लोग मारे गए हैं । सैंकड़ों आंदोलनकारी अभी भी जेलों में बंद हैं। 24 से ज्यादा पत्रकार बंद हैं।विगत 25 सालों में लोकतंत्र के लिए दी गई यह विश्व की सबसे बड़ी कुर्बानी है।
मिस्र के जनांदोलन ने अरब औरतों के बारे में कारपोरेट मीडिया निर्मित मिथ तोड़ा है । अरब औरतों ने जिस बहादुरी और समझबूझ के साथ इस आंदोलन में नेतृत्वकारी भूमिका अदा की है उसने बुर्केवाली,बेबकूफ,जाहिल मुस्लिम औरत की ग्लोबल मीडिया निर्मित इमेज को पूरी तरह तोड़ दिया है। बगैर किसी फेमिनिज्म के इतने बड़े पैमाने पर औरतों का संघर्ष में सामने आना, व्यापक शिरकत करना और नेतृत्व करना अपने आप में इस दौर की महानतम उपलब्धि है। औरतों का प्रतिवाद बगैर फेमिनिज्म के भी हो सकता है यह संदेश अमेरिकी विचारधाराओं के गर्भ से पैदा हुए फेमिनिज्म को संभवतः समझ में नहीं आएगा।
मिस्र के जनांदोलन में युवाओं का जो सैलाब दिखा है,मजदूर संगठनों का जो जुझारू और संगठित रूप दिखा है उसने संदेश दिया है कि लोकतंत्र की अग्रणी चौकी की रक्षा की कल्पना मजदूरों के संगठनों के बिना नहीं की जा सकती।
उल्लेखनीय है पोलैंड में मजदूरवर्ग ने ही समाजवाद को चुनौती दीथी और समाजवादी व्यवस्था के सर्वसत्तावाद को नष्ट किया था। मिस्र में भी मजदूर अग्रणी कतारों में हैं। देश के सभी मजदूर संगठनों ने व्यापक रूप में कामकाज ठप्प कर दिया । समूचे प्रशासन को ठप्प कर दिया। तहरीर एस्क्वेयर पर वे अग्रणी कतारों में थे।
तहरीर चौक पर स्त्रियों, मजदूरों और युवाओं की धुरी के कारण मुस्लिम ब्रदरहुड जैसे फंडामेंटलिस्ट संगठन को अपने फंडामेंटलिस्ट एजेण्डे को वैसे ही स्थगित करना पड़ा जैसे एनडीए में भाजपा को अपने हिन्दुत्व के एजेंडे को त्यागना पड़ा। इसी तरह अमेरिकी फंडिंग से चलने वाले किफाया संगठन को भी अपने एजेण्डे को स्थगित रखने पर मजबूर किया।
औरतों,मजदूरों और युवाओं की व्यापक लोकतांत्रिक फौलादी एकता ने मिस्र और अरब देशों में लोकतंत्र की अकल्पनीय विकल्पों की संभावनाओं के द्वार खोले हैं। किफाया और मुस्लिम ब्रदरहुड अपने एजेण्डे में सफल नहीं हो पाए हैं इसका बड़ा श्रेय औरतों, मजदूरों और युवाओं के संगठनों के बीच पैदा हुई लोकतांत्रिक एकता को जाता है।
सारी दुनिया में भूमंडलीकरण और नव्य उदार आर्थिक नीतियों के शिकार मजदूर,औरतें और युवा रहे हैं अतः मिस्र में ये वर्ग और समुदाय संघर्ष और कुर्बानी की अग्रणी कतारों में हैं।
मिस्र के जनांदोलन के कारण मध्यपूर्व में नए सिरे से युवाओं की लोकतांत्रिक जुझारू राजनीति में दिलचस्पी बढ़ेगी। अरब युवाओं के बागी तेवर नए सिरे से देखने को मिलेंगे। मिस्र के जनांदोलन ने युवाओं को नए सिरे से पहचान दी है और आज उनके पास टेलीविजन और इंटरनेट जैसा सशक्त माध्यम भी है।
मिस्र के जनांदोलन ने कारपोरेट मीडिया के जन-उपेक्षा और नियंत्रण का मिथ तोड़ा है। यह संदेश दिया है जनता का यदि कोई तबका आंदोलन करेगा तो टीवी वाले वहां सहयोगी होंगे। टीवी का सिर्फ कारपोरेट -मनोरंजन एजेण्डा नहीं होता बल्कि लोकतांत्रिक राजनीति के प्रचार-प्रसार का भी एजेण्डा हो सकता है।
अलजजीरा-अलअरबिया-बीबीसी लंदन आदि के कवरेज में कोई भी नजरिया व्यक्त हुआ हो,लेकिन आंदोलन के फ्लो का अहर्निश कवरेज हैडलाइन बना रहा है। कई दिनों तक लाइव कवरेज चलता रहा है। अभी तक मध्यपूर्व से सैन्य ऑपरेशन का लाइव कवरेज आया था जो 1992-93 में सीएनएन ने दिखाया था ।वह अमेरिकी वर्चस्व के चरमोत्कर्ष का कवरेज था। इस कवरेज को मिस्र की जनता के आंदोलन के कवरेज ने धो दिया है। मिस्र में मुबारक के खिलाफ जो गुस्सा था उस गुस्से में अमेरिकी नीतियों,नव्य उदार भूमंडलीकरण, सैन्यशासन और सर्वसत्तावाद के खिलाफ जन प्रतिवाद शामिल है। टीवी के लोकतांत्रिक लाइव कवरेज के मामले में मिस्र ने बाजी मार ली है। कहने का अर्थ यह है कि मीडिया के नए एजेण्डे की प्रयोगस्थली मध्यपूर्व है। विकसित पूंजीवादी देश नहीं।
बेहतरीन समीक्षा| दरअसल मेरा मानना है कि अब अमेरिका सहित तमाम तानाशाही देशों को यह समझ लेना चाहिए कि लोगों को बेवकूफ बना कर शासन करने का उनका दौर खत्म हो गया| आम जनता अपने अधिकारोंं के प्रति सजग हो चुकी है मिस्र इसका उदहारण है और बाकी मध्य पूर्व के देशों में विरोध की आवाजें इसकी गवाही दे रही है|
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