शुक्रवार, 2 मई 2014

कॉमरेड ! लोकतंत्र बिना बलिदान के नहीं बचेगा !



पश्चिम बंगाल गंभीर संकट में है। लोकसभा के तीसरे चरण के मतदान के समय वामदलों का चुनाव को लेकर जो रवैय्या रहा है वह चिंता की बात है। यह सच है कि तीसरे चरण में 9लोकसभा सीटों पर बड़े पैमाने पर जाली वोट डाले गए,मतदान केन्द्रों पर चुनाव एजेंट बिठाने में वामदलों की असुविधा हुई।मतदाताओं को घरों से नहीं निकलने दिया गया। बड़े पैमाने पर हिंसा हुई,कई लोग मारे गए। इसके बावजूद यह सच है कि वामदलों और खासकर माकपा का इसबार के लोकसभा चुनाव को लेकर जो रुख सामने आया है वह किसी भी तरह से स्वागतयोग्य नहीं है।
            ममता सरकार आने के पहले से ही माकपा में राजनीतिक निष्क्रियता आ गयी थी, जिसको केन्द्रीय नेतृत्व ने कभी गंभीरता से नहीं लिया। ममता सरकार आने के बाद माकपा के सदस्यों और हमदर्दों पर तृणमूल के गुण्डों के हमले बढ़े हैं। ये हमले वामशासन में भी हो रहे थे जिनको रोकने की कभी कोशिश नहीं की गयी और ईंट का जबाव पत्थर से देने के चक्कर में सारे राज्य को एक ऐसी अंधी प्रतिस्पर्धा में झोंक दिया गया जिसमें से यह राज्य अभी तक निकल ही नहीं पाया है।
        ममता सरकार आने के बाद माकपा ने व्यवहार में एक नीति अख्तियार की है कि ममतावाहिनी जहां हिंसा करे वहां से हट जाओ, यदि वह पोलिंग बूथ पर हिंसा करे तो वहाँ से हट जाओ, यदि वह गली-मुहल्ले , बस्ती इलाके या गांव में हिंसा करे तो वहां से हट जाओ। यानी हिंसा देखो और हट जाओ। यह नीति बुनियादी तौर पर माकपा के अंदर पैदा हुए पराजयबोध की देन है।
     इसका पहला साइड इफेक्ट यह है कि कई सौ माकपा सदस्य मारे गए हैं और हजारों लोगों को घर छोड़कर अन्यत्र रहना पड़ रहा है।माकपा सदस्यों में खास किस्म का पलायनबोध पैदा हुआ है।
     हिंसा का प्रतिकार भागकर नहीं किया जा सकता। लोकतंत्र में माकपा ने जो जगह बनायी है वह पलायन करके नहीं बनायी है। माकपा को भागने की बजाय सामना करने और लोकतंत्र की रक्षा के लिए जान देने की भावना से काम लेना होगा।
      लोकतंत्र को बचाना है तो हिंसा का दृढ़ता के साथ सामना करना होगा। विगत दिनों हुए छात्रसंघ चुनावों में एसएफआई ने जिस तरह पलायनवादी रुख अख्तियार किया उससे छात्र आंदोलन की अपूरणीय क्षति हुई है। हिंसा से अपने सदस्यों को बचाने के नाम पर छात्रसंघों को ममतावाहिनी के हवाले कर दिया गया, अधिकांश स्थानों पर वे बिना चुनाव के ही जीत गए।
    यह दुर्भाग्यजनक है कि जिस संगठन के लाखों सदस्य हों वो छात्रसंघ के चुनावों में मैदान से इसलिए हट जाय क्योंकि हिंसा हो रही है।यही हाल ग्राम पंचायतों के चुनावों में हुआ है।
 कॉमरेड, हिंसा को आप पलायन करके नहीं रोक सकते। हिंसा को रोकने के लिए जरुरी है कि उसका डटकर सामना किया जाय। दुखद बात यह है कि पलायन करके भी एसएफआई अपने सदस्यों पर हमले रोक नहीं पायी और अनेक सदस्य मारे गए।
   लोकतंत्र में पीठ पर गोली मत खाओ,सीने पर गोली खाओ। घर में या गली में हिंसकों के हाथों मत मरो, पोलिंग बूथ की रक्षा करते हुए मरो।
   पश्चिम बंगाल की यह नियति है कि यहां यदि वामदलों को लौटना है तो उनको पोलिंग बूथों की रक्षा करते हुए ,यूनियन का चुनाव लड़ते हुए,लोकतंत्र के मुहानों पर जान देनी होगी।
    पश्चिम बंगाल में लोकतंत्र महज विमर्श का विषय नहीं है बल्कि यह अपराधी गिरोहों की शरणस्थली बन चुका है। लोकतंत्र को बचाना है तो अपराधी गिरोहों से सीधे मुठभेड़ करनी होगी। छिप छिपकर लड़ना और पिटनाबंद करना होगा।
     पश्चिम बंगाल में लोकतंत्र कॉमरेडों की कुर्बानी मांग रहा है। कुर्बानी के बिना पश्चिम बंगाल को अपराधीकरण से बचाना संभव नहीं है। पश्चिम बंगाल में असाधारण परिस्थितियां हैं। यहां पर सामान्य लोकतांत्रिक गतिविधियों के लिए वैध रास्तों पर अपराधी गिरोहों ने कब्जा जमा लिया है।अपराधी गिरोहों को हमेशा के लिए नेस्तनाबूद करने के लिहाज से कमर कसनी होगी वरना पश्चिम बंगाल में लोकतंत्र को बचाना संभव ही नहीं होगा।
    अभी भी समय है अगले दो चरणों के मतदान में मतदान केन्द्रों पर जाकर मोर्चा लेने की जरुरत है। कायरों की तरह जीने से बेहतर है कि मतदान केन्द्रों पर जाओ और वोट दो, वोट डलवाओ,काम करो और कोई रोके या डराए तो मतदान केन्द्र पर ही जान दो, मरो,पिटो लेकिन मतदान केन्द्र मत छोड़ो। मतदान केन्द्र आज वोट के साथ कॉमरेडों का बलिदान भी चाहता है। कॉमरेड , लोकतंत्र बिना बलिदान के नहीं बचेगा।   

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