हिन्दी में फेसबुक पर बड़े पैमाने पर युवालोग लिख रहे हैं। इनमें सुंदर साहित्य,अनुवाद,विमर्श आदि आ रहा है। इसमें आक्रामक और पैना लेखन भी आ रहा है। साथ ही फेसबुक पर बड़े पैमाने पर बेबकूफियां भी हो रही हैं।
फेसबुक एक गंभीर मीडियम है इसका समाज की बेहतरी के लिए,ज्ञान के आदान-प्रदान और सांस्कृतिक-राजनीतिकचेतना के निर्माण के लिए इस्तेमाल करना चाहिए। अभी हिन्दी का एक हिस्सा फेसबुक पर अपने सांस्कृतिक पिछड़ेपन की अभिव्यक्ति में लगा है। वे निजी भावों की अभिव्यक्ति से ज्यादा इस मीडियम की भूमिका को नहीं देख पा रहे हैं। एक पंक्ति के लेखन को वे गद्यलेखन के विकास की धुरी मानने के मुगालते में हैं।
फेसबुक में कुछ भी लिखने की आजादी है ,इसका कुछ बतखोर लाभ ले रहे हैं,यह वैसे ही है जैसे अखबार और पत्रिकाओं का गॉसिप लिखने वाले आनंद लेते हैं। इससे अभिव्यक्ति की शक्ति का विकास नहीं होता। बतखोरी और गॉसिप से मीडियम ताकतवर नहीं बनता। मीडियम ताकतवर तब बनता है जब उस पर आधुनिक विचारों का प्रचार-प्रसार हो।खबरें लिखी जाएं। सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों और समस्याओं के साथ मीडियम जुड़े। हिन्दी में फेसबुक अभी हल्के-फुल्के विचारों और भावों की अभिव्यक्ति के साथ जुड़ा है। कुछ लोगों का मानना है कि यह पासटाइम मीडियम है। वे इसी रूप में उसका इस्तेमाल भी करते हैं। फेसबुक एक सीमा तक ही पासटाइम मीडियम है । लेकिन यह सामाजिक परिवर्तन का भी वाहक बन सकता है।
फेसबुक बेहद शक्तिशाली मीडियम है इसकी समग्र शक्ति का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। किसी भी मीडिया की शक्ति का आधुनिकयुग में तब ही विकास हुआ है जब उसका राजनीतिक क्षेत्र में इस्तेमाल हुआ है। हिन्दी में ब्लॉगिंग से लेकर फेसबुक तक राजनीतिक विषयों पर कम लिखा जा रहा है। ध्यान रहे प्रेस ने जब राजनीति की ओर रूख किया था तब ही उसे पहचान मिली थी। यही बात ब्लॉगिंग और फेसबुक पर भी लागू होती है। जो लोग सिर्फ साहित्य,संस्कृति के सवालों पर लिख रहे हैं या सिर्फ कविता,कहानी आदि सर्जनात्मक साहित्य लिख रहे हैं उनकी सुंदर भूमिका है। लेकिन इस माध्यम को अपनी पहचान तब ही मिलेगी जब हिन्दी के श्रेष्ठ ब्लॉगर और फेसबुक लेखक गंभीरता के साथ देश के आर्थिक-राजनीतिक सवालों पर लिखें, किसी न किसी जनांदोलन के साथ जोड़कर लिखें ।खोजी खबरें दें। हिन्दी में अभी जितने भी बड़े ब्लॉगर हैं उनमें से अधिकांश देश ,राज्य और अपने शहर के राजनीतिक हालात पर लिखने से कन्नी काट रहे हैं या उनको राजनीति पर लिखना पसंद नहीं है।
फेसबुक रीयलटाइम मीडियम होने के कारण विकासमूलक और आंदोलनकारी या वैचारिक क्रांति में बड़ी भूमिका निभा सकता है। समस्या है फेसबुक का पेट भरने की। देखना होगा फेसबुक के मित्र- यूजर किन चीजों से पेट भर रहे हैं। खासकर हिन्दी के फेसबुक मित्र किस तरह की चीजों और विषयों के संचार के लिए इस माध्यम का इस्तेमाल कर रहे हैं ? अभी एक बड़ा हिस्सा गली-चौराहों की पुरानी बातचीत की शैली और अनौपचारिकता को यहां ले आया है। इससे जहां एक ओर पुरानी निजता या प्राइवेसी खत्म हुई है। वहीं दूसरी ओर वर्चुअल संचार में इजाफा हुआ है।
हमें फेसबुक को शक्तिशाली मीडियम बनाना है तो देश की राजनीति से जोडना होगा। राजनीति से जुडने के बाद ही फेसबुक को हिन्दी में अपनी निजी पहचान मिलेगी और फेसबुक की बतखोरी,गॉसिप और बाजाऱू संस्कृति से आगे जाकर क्या भूमिकाएं हो सकती हैं उनका भी रास्ता खुलेगा।
ब्लॉगिंग,फेसबुक आदि को प्रभावी बनाने के लिए इन माध्यमों का राजनीति से जुड़ना बेहद जरूरी है। कोई भी मीडिया टिप्पणियों, प्रशंसा,निजी मन की बातें,निजी जीवन की दैनंदिन डायरी, पत्रलेखन से बड़ा नहीं बना, इनसे मीडिया को पहचान नहीं मिलती।
आधुनिककाल की धुरी है राजनीति । आधुनिक साहित्य तब आया जब उसने राजनीति से संबंध जोड़ा। प्रेस को पहचान तब मिली जब उसने राजनीति से संबंध जोड़ा। कोई भी माध्यम हो या जनमाध्यम हो,संचार हो या जनसंचार हो, साहित्य हो या कलाएं हों वे अपनी आधुनिक पहचान राजनीति से जुड़ने के बाद ही बना पाई हैं। फेसबुक आदि के यूजरों को राजनीति से जुड़ना होगा। इसके बिना यह सामाजिक परिवर्तन का मीडियम नहीं बन सकता।
फेसबुक एक गंभीर मीडियम है इसका समाज की बेहतरी के लिए,ज्ञान के आदान-प्रदान और सांस्कृतिक-राजनीतिकचेतना के निर्माण के लिए इस्तेमाल करना चाहिए। अभी हिन्दी का एक हिस्सा फेसबुक पर अपने सांस्कृतिक पिछड़ेपन की अभिव्यक्ति में लगा है। वे निजी भावों की अभिव्यक्ति से ज्यादा इस मीडियम की भूमिका को नहीं देख पा रहे हैं। एक पंक्ति के लेखन को वे गद्यलेखन के विकास की धुरी मानने के मुगालते में हैं।
फेसबुक में कुछ भी लिखने की आजादी है ,इसका कुछ बतखोर लाभ ले रहे हैं,यह वैसे ही है जैसे अखबार और पत्रिकाओं का गॉसिप लिखने वाले आनंद लेते हैं। इससे अभिव्यक्ति की शक्ति का विकास नहीं होता। बतखोरी और गॉसिप से मीडियम ताकतवर नहीं बनता। मीडियम ताकतवर तब बनता है जब उस पर आधुनिक विचारों का प्रचार-प्रसार हो।खबरें लिखी जाएं। सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों और समस्याओं के साथ मीडियम जुड़े। हिन्दी में फेसबुक अभी हल्के-फुल्के विचारों और भावों की अभिव्यक्ति के साथ जुड़ा है। कुछ लोगों का मानना है कि यह पासटाइम मीडियम है। वे इसी रूप में उसका इस्तेमाल भी करते हैं। फेसबुक एक सीमा तक ही पासटाइम मीडियम है । लेकिन यह सामाजिक परिवर्तन का भी वाहक बन सकता है।
फेसबुक बेहद शक्तिशाली मीडियम है इसकी समग्र शक्ति का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। किसी भी मीडिया की शक्ति का आधुनिकयुग में तब ही विकास हुआ है जब उसका राजनीतिक क्षेत्र में इस्तेमाल हुआ है। हिन्दी में ब्लॉगिंग से लेकर फेसबुक तक राजनीतिक विषयों पर कम लिखा जा रहा है। ध्यान रहे प्रेस ने जब राजनीति की ओर रूख किया था तब ही उसे पहचान मिली थी। यही बात ब्लॉगिंग और फेसबुक पर भी लागू होती है। जो लोग सिर्फ साहित्य,संस्कृति के सवालों पर लिख रहे हैं या सिर्फ कविता,कहानी आदि सर्जनात्मक साहित्य लिख रहे हैं उनकी सुंदर भूमिका है। लेकिन इस माध्यम को अपनी पहचान तब ही मिलेगी जब हिन्दी के श्रेष्ठ ब्लॉगर और फेसबुक लेखक गंभीरता के साथ देश के आर्थिक-राजनीतिक सवालों पर लिखें, किसी न किसी जनांदोलन के साथ जोड़कर लिखें ।खोजी खबरें दें। हिन्दी में अभी जितने भी बड़े ब्लॉगर हैं उनमें से अधिकांश देश ,राज्य और अपने शहर के राजनीतिक हालात पर लिखने से कन्नी काट रहे हैं या उनको राजनीति पर लिखना पसंद नहीं है।
फेसबुक रीयलटाइम मीडियम होने के कारण विकासमूलक और आंदोलनकारी या वैचारिक क्रांति में बड़ी भूमिका निभा सकता है। समस्या है फेसबुक का पेट भरने की। देखना होगा फेसबुक के मित्र- यूजर किन चीजों से पेट भर रहे हैं। खासकर हिन्दी के फेसबुक मित्र किस तरह की चीजों और विषयों के संचार के लिए इस माध्यम का इस्तेमाल कर रहे हैं ? अभी एक बड़ा हिस्सा गली-चौराहों की पुरानी बातचीत की शैली और अनौपचारिकता को यहां ले आया है। इससे जहां एक ओर पुरानी निजता या प्राइवेसी खत्म हुई है। वहीं दूसरी ओर वर्चुअल संचार में इजाफा हुआ है।
हमें फेसबुक को शक्तिशाली मीडियम बनाना है तो देश की राजनीति से जोडना होगा। राजनीति से जुडने के बाद ही फेसबुक को हिन्दी में अपनी निजी पहचान मिलेगी और फेसबुक की बतखोरी,गॉसिप और बाजाऱू संस्कृति से आगे जाकर क्या भूमिकाएं हो सकती हैं उनका भी रास्ता खुलेगा।
ब्लॉगिंग,फेसबुक आदि को प्रभावी बनाने के लिए इन माध्यमों का राजनीति से जुड़ना बेहद जरूरी है। कोई भी मीडिया टिप्पणियों, प्रशंसा,निजी मन की बातें,निजी जीवन की दैनंदिन डायरी, पत्रलेखन से बड़ा नहीं बना, इनसे मीडिया को पहचान नहीं मिलती।
आधुनिककाल की धुरी है राजनीति । आधुनिक साहित्य तब आया जब उसने राजनीति से संबंध जोड़ा। प्रेस को पहचान तब मिली जब उसने राजनीति से संबंध जोड़ा। कोई भी माध्यम हो या जनमाध्यम हो,संचार हो या जनसंचार हो, साहित्य हो या कलाएं हों वे अपनी आधुनिक पहचान राजनीति से जुड़ने के बाद ही बना पाई हैं। फेसबुक आदि के यूजरों को राजनीति से जुड़ना होगा। इसके बिना यह सामाजिक परिवर्तन का मीडियम नहीं बन सकता।
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