फ़्रेडरिक जेम्सन ने कहा 'उत्तर आधुनिकता परवर्ती पूँजीवाद का सांस्कृतिक तर्क है।' यानी यह न बुरा है और न अच्छा है बल्कि यह तो एक अवस्था है जिसमें सबको रहना है और इसे लेकर सबको राय ज़ाहिर करनी है ।
भारत और यूरोप में उत्तर आधुनिक परिस्थितियों में बुनियादी अंतर है । यूरोप में उत्तर आधुनिकता आई है सत्तर के बाद के वर्षों में वहाँ पर द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोप के निर्माण की प्रक्रिया शिखर पर थी जापान के निर्माण का काम ख़त्म हो चुका था । पूँजीवादी विकास शिखर पर था । मुद्रा स्थिर थी ।बाज़ार सामानों से भरे पड़े थे। अमेरिका वियतनाम में करारी हार के कगार पर था । अमेरिकी समाज में ज़बर्दस्त आंदोलन थे । महँगाई थी। विकास एक जगह जाकर ठहर गया था । क़र्ज़ बढ़ रहे थे । डेविडहर्वे के शब्दों में कहें तो पूँजी को डी रेगुलेट किया गया , सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों का निजीकरण किया गया। मुद्रा का अवमूल्यन हुआ। मज़दूरों के हकों पर हमले बढे।
इसके विपरीत भारत की स्थिति थी। यहाँ पर बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ। पाक से १९७१ में हम युद्ध जीते । शानदार रेल हड़ताल हुई। बड़े पैमाने पर १९७४-७५ में आंदोलन हुए। आपातकाल आया।इंदिरा हारी । इंदिरा की वापसी हुई । लेकिन १९९०-९१ तक आते आते देश गहरे संकट में फँस गया और मनमोहन अर्थशास्त्र का जन्म हुआ। बेकारी और महँगाई के साथ सरकारी ख़ज़ाने में बहुत कम मुद्रा थी।
आपातकाल में उपग्रह छोड़ा गया । राजीवयुग में कम्प्यूटर क्रांति हुई । टीवी का विकास हुआ। सन् १९८० के बाद धीरे धीरे कुछ ऐसा घटा जिसको देखकर लगता था कि लोग इतिहास से बदला लेने पर आमादा हैं । मसलन् ओबीसी आरक्षण, राममंदिर आंदोलन, असम और पंजाब के आंदोलन आदि की एक ही धुन थी कि इतिहास में जो ग़लतियाँ की गयी हैं उनको दुरुस्त करना है । दलितसाहित्य और स्त्री साहित्य में भी इसे लेकर बग़ावत दिखाई दी। वे भी साहित्य में इतिहास के ख़िलाफ़ थे। इतिहास को नहीं मानते थे।
पहले रेगुलेशन पर ज़ोर था ,अब डी रेगुलेशन पर ज़ोर था । पहले लाइसेंस राज था अब लाइसेंस राज का खात्मा कर दिया गया। हर क्षेत्र में डीरेगूलेशन को लागू किया गया ।काम के घंटे बढ़ा दिए गए। पूरे सिस्टम का कम्प्यूटरीकरण आरंभ हुआ । प्रिंटयुग से कम्प्यूटर युग में आ गए। बाज़ार से माॅल के दौर में आ गए। महिलाओं ,अल्पसंख्यकों , किसानों ,मज़दूरों और आदिवासियों पर हमले तेज़ हुए। जातीय घृणा में इज़ाफ़ा हुआ। कल्याणकारी राज्य का चरित्र बदलने का प्रयास किया गया।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कारोबार अंधाधुँध गति से बढ़ा। विश्व व्यापार संगठन के ढाँचे और नियमों से हमने अपने को बाँध लिया और देश में सभी क्षेत्रों में डीरेगूलेशन या विनिमयन को लागू कर दिया। सार्वजनिक संपदा और संसाधनों की खुली लूट हुई और उसे औने-पौने दामों पर निजी क्षेत्र को सौंप दिया गया । एक तरह से सार्वजनिक संपदा और कृषिभूमि के ख़िलाफ़ कारपोरेट युद्ध की घोषणा थी।
समूचे देश में नव-धनाढ्यों की आँधी आ गयी। देखते ही देखते हर शहर में करोड़पति पैदा हो गए । मध्यवर्ग के लोग करोड़पति हो गए। यह नए क़िस्म के फ्लेगजिबिल , फ़्री फ्लोटिंक और सामंजस्यवादी नए क़िस्म के यथार्थ का आगमन था।
मसलन पहले कार वाला अमीर था और अमीर से हम नफरत करते थे ,लेकिन नई वास्तविकता यह है कि हर मध्यवर्गीय व्यक्ति के पास कार है और कार अब अमीरी का प्रतीक नहीं रह गयी है। कलर टीवी अमीरों की चीज़ थी लेकिन अब नहीं है। फ़ोन बड़े लोगों के यहाँ हुआ करता था ,आज सबके हाथ में है।
हर स्तर पर सर्जनात्मक क्रांति हुई है। विज्ञापन से लेकर पुस्तक प्रकाशन तक सर्जनात्मक सौंदर्य की वर्षा हो रही है। नए क़िस्म की ग्लोबल अस्मिता ने पैर फैला दिए हैं। पहले पूँजी का सौंदर्य पर प्रभाव सीमित क्षेत्र तक था । लेकिन नई स्थितियों में पूँजी के वैभव ने आम जीवन पर असर डालना आरंभ कर दिया है । सब्सीडी पर हमले हो रहे हैं।
ग्लोबल स्तर पर चीन का पूँजीवादी बाज़ार के रुप में उदय बहुत बड़ी परिघटना है । इसने बहस के समूचे आधार को ही बदल दिया है । मज़ेदार बात यह है कि हमारा हिंदी का लेखक अभी भी नक्सलबाडी आंदोलन में फँसा है या शीतयुद्ध के मानकों में उलझा पड़ा है।
नए युग की ख़ूबी है तकनीक हमारे संचार ,राजनीति, संस्कृति आदि का निर्धारण कर रही है। समाजवाद का विघटन और कम्युनिस्ट पार्टियों के जनाधार में ज़बर्दस्त गिरावट ने मेहनतकश जनता को असहाय अवस्था में छोड़ दिया है।
महाख्यान का अंत हुआ है। बाज़ार में भयानक प्रतिस्पर्धा जन्म ले चुकी है और इससे राजनीति भी प्रभावित हुई है । अमेरिकी वर्चस्व में गिरावट आई है। चीन का महाशक्ति के रुप में उदय हुआ है । नई परिस्थितियों में राज्य के पास पूँजी निवेश को नियंत्रित करने का अधिकार नहीं रहा। राज्य जब निवेश को नियंत्रित नहीं कर सकता तो वह सूचना को भी नियंत्रित नहीं कर सकता ।
किसी एक नरेटिव पर लोगों की नज़र नहीं टिकी है बल्कि लोग अलग अलग क़िस्म के नरेटिव में ध्यान लगाए हैं । यही महाख्यान के अंत का अर्थ है ।
नव्य आर्थिक उदारीकरण के दौर में व्यक्ति के निजी हितों को तरजीह दी गयी। सामाजिक हित के सवालों को पीछे छोड़ दिया गया।
फ़्रेडरिक जेम्सन ने उत्तर आधुनिकता को परवर्ती पूँजीवाद का सांस्कृतिक तर्क कहा । लेकिन इसे नव्य आर्थिक उदारीतरण की विचारधारा भी कह सकते हैं। यह कोई आकाश से टपकी धारणा नहीं है बल्कि ऐतिहासिक तौर पर विकसित हुई अवधारणा है ।
बाज़ार से लेकर व्यक्ति तक मेकओवर का ग्लोबल रुप देखने में आ रहा है । इस पर सोचने की ज़रुरत है।
हिंदी में " उत्तर आधुनिकतावाद "नाम सुनकर ही समीक्षक भड़क जाते हैं । मैं तो स्वयं यह ग़ुस्सा अनेकबार देख चुका हूँ। नाम सुनकर राय बनाना और फिर उलटी सीधी राय बनाना यह हिंदी में आम बात है और दुर्भाग्यजनक बात यह है कि यह काम समीक्षकों ने किया है।
समस्या नामकरण की नहीं है समस्या बदले हुए यथार्थ को समझने और उसकी सही समझ बनाने से जुड़ी है। हिंदी समीक्षा अभी शैशव काल में है। यहाँ किसी भी अवधारणा पर कोई गंभीर लेखन नहीं हो रहा । ठोस धारणाओं के निर्माण और विमर्श का काम नहीं हो रहा। जो काम हुआ है वह हमें अवधारणाओं की सही समझ नहीं देता।
मसलन हमने आलोचना में आधुनिकतावाद , रैनेसां, औद्योगिकीकरण , प्रगतिशील साहित्य ,लोकतंत्र, भारत विभाजन ,भूमंडलीकरण आदि को लेकर कोई गंभीर अवधारणात्मक विवेचन का काम नहीं किया है । हमारे यहाँ तात्कालिक या सांगठनिक या मित्रतावश या उत्सवधर्मी आलोचना है इसमें वस्तुगतता का भयानक अभाव है।
साहित्य समीक्षा के अनेक मार्ग हैं । किसी को रैनेसां का मार्ग पसंद है ।किसी को भक्ति आंदोलन का मार्ग पसंद है ।किसी को १९१७ की अक्टूबर क्रांति से प्रभावित मार्ग पसंद है।किसी को प्रतिवाद का नक्सलबाडी मार्ग पसंद है ।कोई आधुनिकता तो कोई दलितसाहित्य या स्त्री साहित्य के मार्ग से गुज़रना चाहता है। किसी को विवेकवादी परंपरा का मार्ग पसंद है किसी को राष्ट्रवादी परंपरा का मार्ग पसंद है।
यानी साहित्य समीक्षा में हम एक नहीं अनेक मार्गों से यात्रा करते हैं । कोई अस्मिता के मार्ग से समीक्षा की यात्रा कर रहा है तो कोई समुदाय या वर्ग के मार्ग से साहित्य समीक्षा के मार्ग पर चल पडा है । इन सभी मार्गों में अंतर्क्रियाएं हैं जिनकी हमें अनदेखी नहीं करनी चाहिए।
साहित्य की आलोचना के जिस मार्ग से भी यात्रा करें सवाल यह है कि जाना कहाँ है ? किस तरह के साहित्य के ज़रिए जाना चाहते हैं और अंततः क्या करना चाहते हैं ?
साहित्य समीक्षा में रमण करते समय अंतर्क्रियाएं और प्रक्रिया महत्वपूर्ण हैं । यदि अंतर्क्रियाओं और प्रक्रिया की उपेक्षा करेंगे तो यह संभव है कि समीक्षा अविवेकवाद के टीले पर खड़ी मिली ।
मसलन दलित साहित्य या स्त्री साहित्य पर बातें करते समय अन्य साहित्य रुपों और विचारधाराओं के साथ चल रही अंतर्क्रियाओं और प्रक्रिया की अनदेखी न करें। वरना स्त्रीसाहित्य के नाम पर समीक्षा में अविवेकवाद पैदा होगा और इससे स्त्रीसाहित्य का स्वाभाविक विकास और साहित्यबोध बाधित होगा । इससे साहित्यिक अधिनायकवाद पैदा होगा ।
उत्तर आधुनिक नज़रिए से देखें तो पाएँगे कि हम सब असंपूर्ण साहित्य परंपरा में जी रहे हैं। किसी मार्ग विशेष के ज़रिए साहित्य का समग्र नज़रिया बनाना कठिन हो गया है ।
साहित्य में दृष्टियों की अंतर्क्रियाओं को हमें सिद्धांतत: मानना पड़ेगा और अंतर्विषयवर्ती पद्धति से काम लेना होगा।प्रधान और गौण के वर्गीकरण के बाहर निकलकर बहुलतावादी नज़रिए से देखना पड़ेगा ।
उत्तर आधुनिक अवस्था और समाज को जानने के लिए नई संवेदना और नई चेतना की ज़रुरत है। यह ऐसा समाज है जिसमें लोग तमाशा देखते हैं ,हस्तक्षेप नहीं करते।अराजक राजनीतिक आंदोलन पैदा हो जाते हैं ।
समूचे समाज में पूँजीवाद का बोलबाला है। साहित्य में नई प्रवृत्तियाँ जन्म लिया है। आधुनिकतावादी रुपों के प्रति असंतोष व्यापक तौर पर व्यक्त हो रहा है। रुढिबद्धता, बोरियत और नक़ली आशाओं का संचार में वर्चस्व है। स्थानीय स्तर पर पश्चिमी संस्कृति के प्रति ग़ुस्सा कम और प्रेम ज़्यादा है। मीडिया से लेकर स्थापत्य तक और संस्कृति से लेकर प्रफाॅर्मिंग आर्ट तक बड़े मूलगामी परिवर्तन हुए हैं।
लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संरचनाओं के विकास के साथ तीव्रगामी भूमंडलीय कम्युनिकेशन नेटवर्क का विकास हुआ है ।
आधुनिककाल आने के साथ जो कलारुप विकसित होते हैं वे पुराने कलारुपों को रुपान्तरण के लिए मजबूर करते हैं। कम्युनिकेशन की तकनीक की संगति में भाषा ,कला और साहित्य रुपों का तेज़ी से विकास होता है । सामान्यतौर पर हमने कम्युनिकेशन तकनीक एवं कलाओं के अंतस्संबंध की अनदेखी की है। लेकिन उत्तर आधुनिक अवस्था हमें साहित्य और कम्युनिकेशन तकनीक के अंतस्संबंध पर विचार के लिए मजबूर करती है।
रेल,दूरसंचार ,प्रेस , रेडियो और फ़िल्म के आने के साथ कला एवं साहित्यरुपों में किस तरह के बदलाव आए हमने कभी गंभीरता से उनका विश्लेषण नहीं किया ।
कम्युनिकेशन तकनीक के नए रुपों ने कला और साहित्य में स्टाइल या शैलियों की बाढ़ पैदा की है । स्टाइल में जितने प्रयोग इस दौर में हुए हैं उतने पहले कभी नहीं हुए।
आधुनिककाल में नए प्रयोगों की आधार स्थली है उपन्यास विधा। कम्युनिकेशन तकनीक और आम संचार के रिश्ते में बुनियादी बदलाव आया है ।
आधुनिकता के साथ आमलोगों में "औचक "भाव से चीज़ों को देखने की प्रवृत्ति बढ़ी है।
हर क्षेत्र में "नए" की माँग बढ़ी है । "नए" के पदबंध का हर क्षेत्र में उपयोग बढ़ा है ।
ल्योतार के अनुसार उत्तर आधुनिकतावाद का मतलब यथार्थवाद का अंत नहीं है। बल्कि इसका मतलब है कि लेखक को समुदाय के रुप में देखें और समुदाय के रुप में स्वीकृति प्रदान की जाय अथवा उसे बीमार मानकर उसका उपचार किया जाय। हमारे बीच ऐसे अनेक लेखक हैं जिनके पास आधुनिकतावाद या प्रगतिवाद की कोई विरासत नहीं बची है। इसके कारण वे आधुनिकतावाद या प्रगतिवाद की परंपरा या दायरों का अतिक्रमण गए हैं। लेखक के वैचारिक अतिक्रमण को कभी गंभीरता से विश्लेषित नहीं किया गया। इसके कारण न तो कभी लेखक की मदद कर पाए और नहीं समझ ही पाए ,उलटे उसके प्रति संदेह बढ़ा । उस पर हमले किए।
विगत चालीस सालों में यथार्थ के नाम पर जो बहसें चलीं उससे सामयिक यथार्थ को समझने में मदद कम मिली। दूसरी ओर बुर्जुआजी की इतिहास में प्रतिष्ठा बढ़ती चली गयी ।यथार्थवाद के बहाने या यथार्थ रुपान्तरण के बहाने सिस्टम के जो चित्र पेश किए गए उनसे यथार्थ कम और कृत्रिम यथार्थ ज़्यादा सामने आया ।
नए तकनीकी जगत ने इतिहास के हरक्षण को मूल्यवान बना दिया है। एक फ़ोटो के हज़ार फ़ोटो ,हर क्षण के फ़ोटो ,आदि की प्रक्रिया ने इतिहास में हर अनुभव और संवेदना को सुरक्षित करने और दर्ज करने की संभावनाएँ पैदा की हैं। अब भाषा के हर रुप और सभी क़िस्म के वाक्यों के संरक्षण की संभावनाएं पैदा हो गयी हैं। इस क्रम में कम्युनिकेशन की नयी संहिता या कोड भी पैदा हुआ है । आप यदि इस कोड को खोलना जानते हैं तो यथार्थ समझ पाएँगे।
इधर के दौर में "यथार्थ" और "अस्मिता"पर केन्द्रित ख़ूब लिखा गया है । लेकिन यह युग इनके लिए पाठकों या दर्शकों की गारंटी नहीं देता । अब साहित्य में " सौंदर्य क्या है ? पर बात नहीं हो रही बल्कि "कला में क्या कहा जा रहा है " इस पर बातें हो रही हैं। फलतः यथार्थ के सवालों की जमकर उपेक्षा हो रही है और अकादमिक माँग-पूर्ति या उपयोगितावादी या नारेबाज़ी का साहित्य ख़ूब लिखा जा रहा है ।
आम जनता में समस्याओं को लेकर बेचैनी है लेकिन वह रेडीमेड समाधान चाहती है। जनता के अनुभवों में अवसाद ने बड़ी जगह घेर ली है। जनता चाहती है कि सरल ढंग से कहा जाए।इस बीच में जनता की जीवनशैली बदली है और उपभोग की डिक्टेटरशिप ने हमारे जीवन में आधिपत्य स्थापित कर लिया है । मनोरंजन की धारणा बदली है और "ख़ाली समय " की धारणा लोकप्रिय हुई है । "यथार्थ की नब्ज़" से लेखक की पकड़ से छूट गयी है जिसे वह संकीर्ण क़िस्म के ऐतिहासिक विवरण और ब्यौरों के ज़रिए भर रहा है । इसका परिणाम यह निकला है कि वह जो लिख रहा है उसमें सामयिक यथार्थ की कहीं से गंध नहीं मिलती फलत: उसका पाठक और समाज से अलगाव भी बढ़ा है । यह नीत्शे के शब्दों में एक तरह का निहिलिज्म है।
उत्तर आधुनिक दशा हो या आधुनिकता हो वहाँ पर दर्द और आनंद का द्वंद्वात्मक संबंध और अंतर्क्रियाएं साफ़ नज़र आती हैं। आनंद के जितने भी विषय हैं वे व्यक्ति के निजीदर्द से ही पैदा हुए हैं।
उत्तर आधुनिक लेखन में ऐसा बहुत सा लेखन आ रहा है जिसमें समीक्षकों के अनुसार सौंदर्य नहीं है। ऐसा भी लेखन आ रहा है जो "रुपरहित रुप" से गढ़ा हुआ है।
नया फिनोमिना है रुपरहित ,संवेदनारहित प्रस्तुतियों पर ज़ोर और वर्तमान के प्रति अंधप्रेम।
उत्तर आधुनिक अवस्था के कारण लेखक नियमरहित लेखन पर ज़ोर दे रहे हैं। यह वह दौर है जब चीज़ें घट जाने के बाद नियम बनते हैं। हमने क्या किया उसके बाद नियम बनते हैं ।
लेखन में शब्द इवेंट की तरह आ रहे हैं ।ये वे इवेंट हैं जो लेखक के ज़ेहन में बहुत देर से आए हैं। या यों कहें जिनको बहुत देर से साहित्य में व्यंजित होने का मौक़ा मिला है ।
उत्तर आधुनिक लेखन हमेशा बिडम्बनाओं के गर्भ से ख़ासकर भविष्य की बिडम्बनाओं के गर्भ से पैदा होता है ।
ल्योतार का मानना है हमारा काम यथार्थ सप्लाई करना नहीं है। बल्कि ऐसी कल्पनाओं की सृष्टि करना है जो पहले कभी लेखक के मन में नहीं आईं। या कभी पेश नहीं की गयीं । इस प्रसंग में हम दलित और स्त्री साहित्य देख सकते हैं।
उत्तर आधुनिक भाषाखेल को समझें ,इस खेल की ख़ूबी है कि यह रुपान्तरणकारी है। नया नारा है "सीमाएँ तोड़ो अंतराल भरो", लोग विभिन्न रुपों में सीमाएँ तोड़ रहे हैं । यह नारा आलोचना से लेकर विधा तक सबकी सीमाएँ तोड़ी जा रही हैं। साहित्य और सामाजिक यथार्थ के जटिल संबंधों की ओर ध्यान गया है। इन दिनों साहित्य के पाठकों पर वैचारिक या राजनीतिक प्रभाव की व्यापक चर्चा हो रही है ।
परंपरागत समीक्षा ने श्रेष्ठ और बाज़ारू साहित्य का अंतर किया था लेकिन उत्तर आधुनिकों ने इस विभाजन को नहीं माना। "डिफरेंस" और " हाइब्रीडिटी" पर ज़ोर दिया गया। विधाओं में मिश्रण से लेकर पापुलरकल्चर तक के प्रयोगों पर ज़ोर दिया ।
ल्योतार ने लिखा उत्तर आधुनिकतावाद का अर्थ है स्थानीय परिस्थितियों को सीमित संदर्भ में देखा जाय। इसमें व्यक्ति के स्तरों को खोजा जाय ।
बौद्रिलार्द के अनुसार यह युग इमेज और सूचना के उत्पादन का युग है । पहले भौतिक वस्तुओं के उत्पादन पर ज़ोर था । उत्तर आधुनिकता में स्थानीयअवस्था पर ज़ोर है और सार्वभौम का निषेध है।
उत्तर आधुनिक अवस्था में अस्मिता की राजनीति केन्द्र में आ गयी है। रीतिवादी ढंग से इसके रुपों की सृष्टि हुई है। अस्मिता पर बहस कम और सृजन पर ज़ोर ज़्यादा है। अस्मिता के लेखक ठहरकर संवाद नहीं करना चाहते , वे उसके मसलों पर बहस करने की बजाय मनवाने पर ज़ोर ज़्यादा दे रहे हैं। यानी अस्मिता है और मानो। जो नहीं मानता उसको अछूतभाव से देखा जा रहा है। इसने अस्मिता की राजनीति का आतंक पैदा किया है । वस्तुगत तौर पर देखें तो अस्मिता की राजनीति का अस्मिता से ही पंगा है। अस्मिता की उपयोगिता के सवाल बड़े सवाल हो गए हैं ।
संवादहीन अस्मिता विमर्श वस्तुत:अस्मिता का रीतिवाद है। यह अस्मिता के प्रति आलोचनात्मक नज़रिए से वाद-विवाद-संवाद का निषेध करता है। इसकी अस्मिता के जड़ इतिहास में दिलचस्पी है । अस्मिता के गतिशील और रुपान्तरित पक्षों में कोई दिलचस्पी नहीं है। दलित और स्त्री आत्मकथाओं पर चल रही बहसों में हम इसे साफ़तौर पर देख सकते हैं।
साहित्य में सार्वभौम भाषा या साहित्यांदोलन की भाषा के प्रयोग की परंपरा रही है। लेकिन उत्तर आधुनिक लेखकों ने सार्वभौम भाषा का निषेध किया है । इसके विकल्प के तौर पर "निजी (प्राइवेट)भाषा", "निजी शैली" या "निजी मैनरिज्म" पर ज़ोर दिया । सामाजिक जीवन के चित्र सार्वभौम भाषा में पेश करने की बजाय निजी भाषा में पेश किए हैं। आज बड़े पैमाने पर दलित साहित्य या स्त्री साहित्य में जिस भाषा का प्रयोग हो रहा है वह "निजी भाषा" है। विलक्षण बात यह है कि पेशेवर लोगों में यह भाषा आ गयी है । आज लेखक इस तरह से लिख रहा है गोया वह किसी अन्य द्वीप का बाशिंदा हो। वह ऐसी भाषा बोल रहा है जो उसे सबसे भिन्न बनाती है। यह वह भाषा है जिसे विविधता के नाम पर पढ़ें और भूलें।
"निजी भाषा" का आर्थिक निजीकरण की प्रक्रिया से गहरा संबंध है । इसके अलावा "मृतभाषा" के जमकर प्रयोग हो रहे हैं। ख़ासकर नेताओं के भाषणों में यह भाषा ख़ूब इस्तेमाल की जा रही है।
"मृतभाषा" की शुरुआत आपातकाल के साथ होती है। सन् 1977 के बाद यह परवान चढ़ती है और राममंदिर आंदोलन, आरक्षण आंदोलन ,पृथकतावादी आंदोलन और आतंकी आंदोलन में यह मांसल बनती है और सोनिया,माया,मुलायम ,अन्ना हज़ारे आदि इसके नायक हैं। यह भाषणकला से बेहतरीन गद्यभाषा की विदाई की सूचना भी है।
उत्तर आधुनिक अवस्था के आने के साथ "व्यक्तिवाद" और "व्यक्ति" का एक विषय के रुप में साहित्य में अंत हो जाता है । ख़ासकर विगत 40 सालों में आई आत्मकथाओं में इसे आसानी से देखा जा सकता है। दलित और स्त्री की आत्मकथाओं में "व्यक्ति" के तौर पर कम और समूह या समुदाय के सदस्य के रुप पर ज़्यादा ज़ोर है।
आधुनिकता के दौर में व्यक्ति और व्यक्तिवाद एक महत्वपूर्ण फिनोमिना के तौर पर पैदा होता है वहीं पर " मैं" और "निजी अस्मिता" की अभिव्यक्ति पर भी ज़ोर था । उत्तर आधुनिकता के आते ही पुराने व्यक्तिवाद और व्यक्ति का अंत हो जाता है ।
भाषा में समय भी होता है। इसमें सामाजिक समय , मानवीय समय, अतीत ,भविष्य और स्मृति भी समाहित होती है। इसमें निजी अस्मिता भी होती है। ये सब समय के साथ बदलते रहते हैं। भाषा में समय की अनुभूतियाँ भी होती हैं । वाक्य स्थिर नहीं होते। वे "समय" के साथ
चलते हैं। इसलिए भाषा और समय को एक साथ रखकर देखना चाहिए ।
नई उत्तर आधुनिक भाषा में एक पहलू उन्मादी भाषिक अनुभव का भी है। यह ऐसी भाषा है जो लेखक के भौतिक आधार से पूरी तरह कटी है। निजी अस्मिता को नहीं जानती। "मैं" को नहीं जानती। वह लेखन को 'अन्य' के लेखन से जोड़कर नहीं देखती। उसके साथ अंतर्क्रिया नहीं करती। यह संवृत्ति दलित और स्त्री लेखन में है।
जबकि पुराने मध्यकालीन स्त्री और दलितलेखन में यह नहीं है। यह उत्तर आधुनिक लेखक समय पर सवारी करने की कोशिश में है जो कि असंभव कार्य है। वह ऐसे यथार्थ को रच रहा है जिसमें आनंद नहीं है। बल्कि आनंद का विलोम ज़्यादा व्यक्त हुआ है ।
भारत और यूरोप में उत्तर आधुनिक परिस्थितियों में बुनियादी अंतर है । यूरोप में उत्तर आधुनिकता आई है सत्तर के बाद के वर्षों में वहाँ पर द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोप के निर्माण की प्रक्रिया शिखर पर थी जापान के निर्माण का काम ख़त्म हो चुका था । पूँजीवादी विकास शिखर पर था । मुद्रा स्थिर थी ।बाज़ार सामानों से भरे पड़े थे। अमेरिका वियतनाम में करारी हार के कगार पर था । अमेरिकी समाज में ज़बर्दस्त आंदोलन थे । महँगाई थी। विकास एक जगह जाकर ठहर गया था । क़र्ज़ बढ़ रहे थे । डेविडहर्वे के शब्दों में कहें तो पूँजी को डी रेगुलेट किया गया , सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों का निजीकरण किया गया। मुद्रा का अवमूल्यन हुआ। मज़दूरों के हकों पर हमले बढे।
इसके विपरीत भारत की स्थिति थी। यहाँ पर बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ। पाक से १९७१ में हम युद्ध जीते । शानदार रेल हड़ताल हुई। बड़े पैमाने पर १९७४-७५ में आंदोलन हुए। आपातकाल आया।इंदिरा हारी । इंदिरा की वापसी हुई । लेकिन १९९०-९१ तक आते आते देश गहरे संकट में फँस गया और मनमोहन अर्थशास्त्र का जन्म हुआ। बेकारी और महँगाई के साथ सरकारी ख़ज़ाने में बहुत कम मुद्रा थी।
आपातकाल में उपग्रह छोड़ा गया । राजीवयुग में कम्प्यूटर क्रांति हुई । टीवी का विकास हुआ। सन् १९८० के बाद धीरे धीरे कुछ ऐसा घटा जिसको देखकर लगता था कि लोग इतिहास से बदला लेने पर आमादा हैं । मसलन् ओबीसी आरक्षण, राममंदिर आंदोलन, असम और पंजाब के आंदोलन आदि की एक ही धुन थी कि इतिहास में जो ग़लतियाँ की गयी हैं उनको दुरुस्त करना है । दलितसाहित्य और स्त्री साहित्य में भी इसे लेकर बग़ावत दिखाई दी। वे भी साहित्य में इतिहास के ख़िलाफ़ थे। इतिहास को नहीं मानते थे।
पहले रेगुलेशन पर ज़ोर था ,अब डी रेगुलेशन पर ज़ोर था । पहले लाइसेंस राज था अब लाइसेंस राज का खात्मा कर दिया गया। हर क्षेत्र में डीरेगूलेशन को लागू किया गया ।काम के घंटे बढ़ा दिए गए। पूरे सिस्टम का कम्प्यूटरीकरण आरंभ हुआ । प्रिंटयुग से कम्प्यूटर युग में आ गए। बाज़ार से माॅल के दौर में आ गए। महिलाओं ,अल्पसंख्यकों , किसानों ,मज़दूरों और आदिवासियों पर हमले तेज़ हुए। जातीय घृणा में इज़ाफ़ा हुआ। कल्याणकारी राज्य का चरित्र बदलने का प्रयास किया गया।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कारोबार अंधाधुँध गति से बढ़ा। विश्व व्यापार संगठन के ढाँचे और नियमों से हमने अपने को बाँध लिया और देश में सभी क्षेत्रों में डीरेगूलेशन या विनिमयन को लागू कर दिया। सार्वजनिक संपदा और संसाधनों की खुली लूट हुई और उसे औने-पौने दामों पर निजी क्षेत्र को सौंप दिया गया । एक तरह से सार्वजनिक संपदा और कृषिभूमि के ख़िलाफ़ कारपोरेट युद्ध की घोषणा थी।
समूचे देश में नव-धनाढ्यों की आँधी आ गयी। देखते ही देखते हर शहर में करोड़पति पैदा हो गए । मध्यवर्ग के लोग करोड़पति हो गए। यह नए क़िस्म के फ्लेगजिबिल , फ़्री फ्लोटिंक और सामंजस्यवादी नए क़िस्म के यथार्थ का आगमन था।
मसलन पहले कार वाला अमीर था और अमीर से हम नफरत करते थे ,लेकिन नई वास्तविकता यह है कि हर मध्यवर्गीय व्यक्ति के पास कार है और कार अब अमीरी का प्रतीक नहीं रह गयी है। कलर टीवी अमीरों की चीज़ थी लेकिन अब नहीं है। फ़ोन बड़े लोगों के यहाँ हुआ करता था ,आज सबके हाथ में है।
हर स्तर पर सर्जनात्मक क्रांति हुई है। विज्ञापन से लेकर पुस्तक प्रकाशन तक सर्जनात्मक सौंदर्य की वर्षा हो रही है। नए क़िस्म की ग्लोबल अस्मिता ने पैर फैला दिए हैं। पहले पूँजी का सौंदर्य पर प्रभाव सीमित क्षेत्र तक था । लेकिन नई स्थितियों में पूँजी के वैभव ने आम जीवन पर असर डालना आरंभ कर दिया है । सब्सीडी पर हमले हो रहे हैं।
ग्लोबल स्तर पर चीन का पूँजीवादी बाज़ार के रुप में उदय बहुत बड़ी परिघटना है । इसने बहस के समूचे आधार को ही बदल दिया है । मज़ेदार बात यह है कि हमारा हिंदी का लेखक अभी भी नक्सलबाडी आंदोलन में फँसा है या शीतयुद्ध के मानकों में उलझा पड़ा है।
नए युग की ख़ूबी है तकनीक हमारे संचार ,राजनीति, संस्कृति आदि का निर्धारण कर रही है। समाजवाद का विघटन और कम्युनिस्ट पार्टियों के जनाधार में ज़बर्दस्त गिरावट ने मेहनतकश जनता को असहाय अवस्था में छोड़ दिया है।
महाख्यान का अंत हुआ है। बाज़ार में भयानक प्रतिस्पर्धा जन्म ले चुकी है और इससे राजनीति भी प्रभावित हुई है । अमेरिकी वर्चस्व में गिरावट आई है। चीन का महाशक्ति के रुप में उदय हुआ है । नई परिस्थितियों में राज्य के पास पूँजी निवेश को नियंत्रित करने का अधिकार नहीं रहा। राज्य जब निवेश को नियंत्रित नहीं कर सकता तो वह सूचना को भी नियंत्रित नहीं कर सकता ।
किसी एक नरेटिव पर लोगों की नज़र नहीं टिकी है बल्कि लोग अलग अलग क़िस्म के नरेटिव में ध्यान लगाए हैं । यही महाख्यान के अंत का अर्थ है ।
नव्य आर्थिक उदारीकरण के दौर में व्यक्ति के निजी हितों को तरजीह दी गयी। सामाजिक हित के सवालों को पीछे छोड़ दिया गया।
फ़्रेडरिक जेम्सन ने उत्तर आधुनिकता को परवर्ती पूँजीवाद का सांस्कृतिक तर्क कहा । लेकिन इसे नव्य आर्थिक उदारीतरण की विचारधारा भी कह सकते हैं। यह कोई आकाश से टपकी धारणा नहीं है बल्कि ऐतिहासिक तौर पर विकसित हुई अवधारणा है ।
बाज़ार से लेकर व्यक्ति तक मेकओवर का ग्लोबल रुप देखने में आ रहा है । इस पर सोचने की ज़रुरत है।
हिंदी में " उत्तर आधुनिकतावाद "नाम सुनकर ही समीक्षक भड़क जाते हैं । मैं तो स्वयं यह ग़ुस्सा अनेकबार देख चुका हूँ। नाम सुनकर राय बनाना और फिर उलटी सीधी राय बनाना यह हिंदी में आम बात है और दुर्भाग्यजनक बात यह है कि यह काम समीक्षकों ने किया है।
समस्या नामकरण की नहीं है समस्या बदले हुए यथार्थ को समझने और उसकी सही समझ बनाने से जुड़ी है। हिंदी समीक्षा अभी शैशव काल में है। यहाँ किसी भी अवधारणा पर कोई गंभीर लेखन नहीं हो रहा । ठोस धारणाओं के निर्माण और विमर्श का काम नहीं हो रहा। जो काम हुआ है वह हमें अवधारणाओं की सही समझ नहीं देता।
मसलन हमने आलोचना में आधुनिकतावाद , रैनेसां, औद्योगिकीकरण , प्रगतिशील साहित्य ,लोकतंत्र, भारत विभाजन ,भूमंडलीकरण आदि को लेकर कोई गंभीर अवधारणात्मक विवेचन का काम नहीं किया है । हमारे यहाँ तात्कालिक या सांगठनिक या मित्रतावश या उत्सवधर्मी आलोचना है इसमें वस्तुगतता का भयानक अभाव है।
साहित्य समीक्षा के अनेक मार्ग हैं । किसी को रैनेसां का मार्ग पसंद है ।किसी को भक्ति आंदोलन का मार्ग पसंद है ।किसी को १९१७ की अक्टूबर क्रांति से प्रभावित मार्ग पसंद है।किसी को प्रतिवाद का नक्सलबाडी मार्ग पसंद है ।कोई आधुनिकता तो कोई दलितसाहित्य या स्त्री साहित्य के मार्ग से गुज़रना चाहता है। किसी को विवेकवादी परंपरा का मार्ग पसंद है किसी को राष्ट्रवादी परंपरा का मार्ग पसंद है।
यानी साहित्य समीक्षा में हम एक नहीं अनेक मार्गों से यात्रा करते हैं । कोई अस्मिता के मार्ग से समीक्षा की यात्रा कर रहा है तो कोई समुदाय या वर्ग के मार्ग से साहित्य समीक्षा के मार्ग पर चल पडा है । इन सभी मार्गों में अंतर्क्रियाएं हैं जिनकी हमें अनदेखी नहीं करनी चाहिए।
साहित्य की आलोचना के जिस मार्ग से भी यात्रा करें सवाल यह है कि जाना कहाँ है ? किस तरह के साहित्य के ज़रिए जाना चाहते हैं और अंततः क्या करना चाहते हैं ?
साहित्य समीक्षा में रमण करते समय अंतर्क्रियाएं और प्रक्रिया महत्वपूर्ण हैं । यदि अंतर्क्रियाओं और प्रक्रिया की उपेक्षा करेंगे तो यह संभव है कि समीक्षा अविवेकवाद के टीले पर खड़ी मिली ।
मसलन दलित साहित्य या स्त्री साहित्य पर बातें करते समय अन्य साहित्य रुपों और विचारधाराओं के साथ चल रही अंतर्क्रियाओं और प्रक्रिया की अनदेखी न करें। वरना स्त्रीसाहित्य के नाम पर समीक्षा में अविवेकवाद पैदा होगा और इससे स्त्रीसाहित्य का स्वाभाविक विकास और साहित्यबोध बाधित होगा । इससे साहित्यिक अधिनायकवाद पैदा होगा ।
उत्तर आधुनिक नज़रिए से देखें तो पाएँगे कि हम सब असंपूर्ण साहित्य परंपरा में जी रहे हैं। किसी मार्ग विशेष के ज़रिए साहित्य का समग्र नज़रिया बनाना कठिन हो गया है ।
साहित्य में दृष्टियों की अंतर्क्रियाओं को हमें सिद्धांतत: मानना पड़ेगा और अंतर्विषयवर्ती पद्धति से काम लेना होगा।प्रधान और गौण के वर्गीकरण के बाहर निकलकर बहुलतावादी नज़रिए से देखना पड़ेगा ।
उत्तर आधुनिक अवस्था और समाज को जानने के लिए नई संवेदना और नई चेतना की ज़रुरत है। यह ऐसा समाज है जिसमें लोग तमाशा देखते हैं ,हस्तक्षेप नहीं करते।अराजक राजनीतिक आंदोलन पैदा हो जाते हैं ।
समूचे समाज में पूँजीवाद का बोलबाला है। साहित्य में नई प्रवृत्तियाँ जन्म लिया है। आधुनिकतावादी रुपों के प्रति असंतोष व्यापक तौर पर व्यक्त हो रहा है। रुढिबद्धता, बोरियत और नक़ली आशाओं का संचार में वर्चस्व है। स्थानीय स्तर पर पश्चिमी संस्कृति के प्रति ग़ुस्सा कम और प्रेम ज़्यादा है। मीडिया से लेकर स्थापत्य तक और संस्कृति से लेकर प्रफाॅर्मिंग आर्ट तक बड़े मूलगामी परिवर्तन हुए हैं।
लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संरचनाओं के विकास के साथ तीव्रगामी भूमंडलीय कम्युनिकेशन नेटवर्क का विकास हुआ है ।
आधुनिककाल आने के साथ जो कलारुप विकसित होते हैं वे पुराने कलारुपों को रुपान्तरण के लिए मजबूर करते हैं। कम्युनिकेशन की तकनीक की संगति में भाषा ,कला और साहित्य रुपों का तेज़ी से विकास होता है । सामान्यतौर पर हमने कम्युनिकेशन तकनीक एवं कलाओं के अंतस्संबंध की अनदेखी की है। लेकिन उत्तर आधुनिक अवस्था हमें साहित्य और कम्युनिकेशन तकनीक के अंतस्संबंध पर विचार के लिए मजबूर करती है।
रेल,दूरसंचार ,प्रेस , रेडियो और फ़िल्म के आने के साथ कला एवं साहित्यरुपों में किस तरह के बदलाव आए हमने कभी गंभीरता से उनका विश्लेषण नहीं किया ।
कम्युनिकेशन तकनीक के नए रुपों ने कला और साहित्य में स्टाइल या शैलियों की बाढ़ पैदा की है । स्टाइल में जितने प्रयोग इस दौर में हुए हैं उतने पहले कभी नहीं हुए।
आधुनिककाल में नए प्रयोगों की आधार स्थली है उपन्यास विधा। कम्युनिकेशन तकनीक और आम संचार के रिश्ते में बुनियादी बदलाव आया है ।
आधुनिकता के साथ आमलोगों में "औचक "भाव से चीज़ों को देखने की प्रवृत्ति बढ़ी है।
हर क्षेत्र में "नए" की माँग बढ़ी है । "नए" के पदबंध का हर क्षेत्र में उपयोग बढ़ा है ।
ल्योतार के अनुसार उत्तर आधुनिकतावाद का मतलब यथार्थवाद का अंत नहीं है। बल्कि इसका मतलब है कि लेखक को समुदाय के रुप में देखें और समुदाय के रुप में स्वीकृति प्रदान की जाय अथवा उसे बीमार मानकर उसका उपचार किया जाय। हमारे बीच ऐसे अनेक लेखक हैं जिनके पास आधुनिकतावाद या प्रगतिवाद की कोई विरासत नहीं बची है। इसके कारण वे आधुनिकतावाद या प्रगतिवाद की परंपरा या दायरों का अतिक्रमण गए हैं। लेखक के वैचारिक अतिक्रमण को कभी गंभीरता से विश्लेषित नहीं किया गया। इसके कारण न तो कभी लेखक की मदद कर पाए और नहीं समझ ही पाए ,उलटे उसके प्रति संदेह बढ़ा । उस पर हमले किए।
विगत चालीस सालों में यथार्थ के नाम पर जो बहसें चलीं उससे सामयिक यथार्थ को समझने में मदद कम मिली। दूसरी ओर बुर्जुआजी की इतिहास में प्रतिष्ठा बढ़ती चली गयी ।यथार्थवाद के बहाने या यथार्थ रुपान्तरण के बहाने सिस्टम के जो चित्र पेश किए गए उनसे यथार्थ कम और कृत्रिम यथार्थ ज़्यादा सामने आया ।
नए तकनीकी जगत ने इतिहास के हरक्षण को मूल्यवान बना दिया है। एक फ़ोटो के हज़ार फ़ोटो ,हर क्षण के फ़ोटो ,आदि की प्रक्रिया ने इतिहास में हर अनुभव और संवेदना को सुरक्षित करने और दर्ज करने की संभावनाएँ पैदा की हैं। अब भाषा के हर रुप और सभी क़िस्म के वाक्यों के संरक्षण की संभावनाएं पैदा हो गयी हैं। इस क्रम में कम्युनिकेशन की नयी संहिता या कोड भी पैदा हुआ है । आप यदि इस कोड को खोलना जानते हैं तो यथार्थ समझ पाएँगे।
इधर के दौर में "यथार्थ" और "अस्मिता"पर केन्द्रित ख़ूब लिखा गया है । लेकिन यह युग इनके लिए पाठकों या दर्शकों की गारंटी नहीं देता । अब साहित्य में " सौंदर्य क्या है ? पर बात नहीं हो रही बल्कि "कला में क्या कहा जा रहा है " इस पर बातें हो रही हैं। फलतः यथार्थ के सवालों की जमकर उपेक्षा हो रही है और अकादमिक माँग-पूर्ति या उपयोगितावादी या नारेबाज़ी का साहित्य ख़ूब लिखा जा रहा है ।
आम जनता में समस्याओं को लेकर बेचैनी है लेकिन वह रेडीमेड समाधान चाहती है। जनता के अनुभवों में अवसाद ने बड़ी जगह घेर ली है। जनता चाहती है कि सरल ढंग से कहा जाए।इस बीच में जनता की जीवनशैली बदली है और उपभोग की डिक्टेटरशिप ने हमारे जीवन में आधिपत्य स्थापित कर लिया है । मनोरंजन की धारणा बदली है और "ख़ाली समय " की धारणा लोकप्रिय हुई है । "यथार्थ की नब्ज़" से लेखक की पकड़ से छूट गयी है जिसे वह संकीर्ण क़िस्म के ऐतिहासिक विवरण और ब्यौरों के ज़रिए भर रहा है । इसका परिणाम यह निकला है कि वह जो लिख रहा है उसमें सामयिक यथार्थ की कहीं से गंध नहीं मिलती फलत: उसका पाठक और समाज से अलगाव भी बढ़ा है । यह नीत्शे के शब्दों में एक तरह का निहिलिज्म है।
उत्तर आधुनिक दशा हो या आधुनिकता हो वहाँ पर दर्द और आनंद का द्वंद्वात्मक संबंध और अंतर्क्रियाएं साफ़ नज़र आती हैं। आनंद के जितने भी विषय हैं वे व्यक्ति के निजीदर्द से ही पैदा हुए हैं।
उत्तर आधुनिक लेखन में ऐसा बहुत सा लेखन आ रहा है जिसमें समीक्षकों के अनुसार सौंदर्य नहीं है। ऐसा भी लेखन आ रहा है जो "रुपरहित रुप" से गढ़ा हुआ है।
नया फिनोमिना है रुपरहित ,संवेदनारहित प्रस्तुतियों पर ज़ोर और वर्तमान के प्रति अंधप्रेम।
उत्तर आधुनिक अवस्था के कारण लेखक नियमरहित लेखन पर ज़ोर दे रहे हैं। यह वह दौर है जब चीज़ें घट जाने के बाद नियम बनते हैं। हमने क्या किया उसके बाद नियम बनते हैं ।
लेखन में शब्द इवेंट की तरह आ रहे हैं ।ये वे इवेंट हैं जो लेखक के ज़ेहन में बहुत देर से आए हैं। या यों कहें जिनको बहुत देर से साहित्य में व्यंजित होने का मौक़ा मिला है ।
उत्तर आधुनिक लेखन हमेशा बिडम्बनाओं के गर्भ से ख़ासकर भविष्य की बिडम्बनाओं के गर्भ से पैदा होता है ।
ल्योतार का मानना है हमारा काम यथार्थ सप्लाई करना नहीं है। बल्कि ऐसी कल्पनाओं की सृष्टि करना है जो पहले कभी लेखक के मन में नहीं आईं। या कभी पेश नहीं की गयीं । इस प्रसंग में हम दलित और स्त्री साहित्य देख सकते हैं।
उत्तर आधुनिक भाषाखेल को समझें ,इस खेल की ख़ूबी है कि यह रुपान्तरणकारी है। नया नारा है "सीमाएँ तोड़ो अंतराल भरो", लोग विभिन्न रुपों में सीमाएँ तोड़ रहे हैं । यह नारा आलोचना से लेकर विधा तक सबकी सीमाएँ तोड़ी जा रही हैं। साहित्य और सामाजिक यथार्थ के जटिल संबंधों की ओर ध्यान गया है। इन दिनों साहित्य के पाठकों पर वैचारिक या राजनीतिक प्रभाव की व्यापक चर्चा हो रही है ।
परंपरागत समीक्षा ने श्रेष्ठ और बाज़ारू साहित्य का अंतर किया था लेकिन उत्तर आधुनिकों ने इस विभाजन को नहीं माना। "डिफरेंस" और " हाइब्रीडिटी" पर ज़ोर दिया गया। विधाओं में मिश्रण से लेकर पापुलरकल्चर तक के प्रयोगों पर ज़ोर दिया ।
ल्योतार ने लिखा उत्तर आधुनिकतावाद का अर्थ है स्थानीय परिस्थितियों को सीमित संदर्भ में देखा जाय। इसमें व्यक्ति के स्तरों को खोजा जाय ।
बौद्रिलार्द के अनुसार यह युग इमेज और सूचना के उत्पादन का युग है । पहले भौतिक वस्तुओं के उत्पादन पर ज़ोर था । उत्तर आधुनिकता में स्थानीयअवस्था पर ज़ोर है और सार्वभौम का निषेध है।
उत्तर आधुनिक अवस्था में अस्मिता की राजनीति केन्द्र में आ गयी है। रीतिवादी ढंग से इसके रुपों की सृष्टि हुई है। अस्मिता पर बहस कम और सृजन पर ज़ोर ज़्यादा है। अस्मिता के लेखक ठहरकर संवाद नहीं करना चाहते , वे उसके मसलों पर बहस करने की बजाय मनवाने पर ज़ोर ज़्यादा दे रहे हैं। यानी अस्मिता है और मानो। जो नहीं मानता उसको अछूतभाव से देखा जा रहा है। इसने अस्मिता की राजनीति का आतंक पैदा किया है । वस्तुगत तौर पर देखें तो अस्मिता की राजनीति का अस्मिता से ही पंगा है। अस्मिता की उपयोगिता के सवाल बड़े सवाल हो गए हैं ।
संवादहीन अस्मिता विमर्श वस्तुत:अस्मिता का रीतिवाद है। यह अस्मिता के प्रति आलोचनात्मक नज़रिए से वाद-विवाद-संवाद का निषेध करता है। इसकी अस्मिता के जड़ इतिहास में दिलचस्पी है । अस्मिता के गतिशील और रुपान्तरित पक्षों में कोई दिलचस्पी नहीं है। दलित और स्त्री आत्मकथाओं पर चल रही बहसों में हम इसे साफ़तौर पर देख सकते हैं।
साहित्य में सार्वभौम भाषा या साहित्यांदोलन की भाषा के प्रयोग की परंपरा रही है। लेकिन उत्तर आधुनिक लेखकों ने सार्वभौम भाषा का निषेध किया है । इसके विकल्प के तौर पर "निजी (प्राइवेट)भाषा", "निजी शैली" या "निजी मैनरिज्म" पर ज़ोर दिया । सामाजिक जीवन के चित्र सार्वभौम भाषा में पेश करने की बजाय निजी भाषा में पेश किए हैं। आज बड़े पैमाने पर दलित साहित्य या स्त्री साहित्य में जिस भाषा का प्रयोग हो रहा है वह "निजी भाषा" है। विलक्षण बात यह है कि पेशेवर लोगों में यह भाषा आ गयी है । आज लेखक इस तरह से लिख रहा है गोया वह किसी अन्य द्वीप का बाशिंदा हो। वह ऐसी भाषा बोल रहा है जो उसे सबसे भिन्न बनाती है। यह वह भाषा है जिसे विविधता के नाम पर पढ़ें और भूलें।
"निजी भाषा" का आर्थिक निजीकरण की प्रक्रिया से गहरा संबंध है । इसके अलावा "मृतभाषा" के जमकर प्रयोग हो रहे हैं। ख़ासकर नेताओं के भाषणों में यह भाषा ख़ूब इस्तेमाल की जा रही है।
"मृतभाषा" की शुरुआत आपातकाल के साथ होती है। सन् 1977 के बाद यह परवान चढ़ती है और राममंदिर आंदोलन, आरक्षण आंदोलन ,पृथकतावादी आंदोलन और आतंकी आंदोलन में यह मांसल बनती है और सोनिया,माया,मुलायम ,अन्ना हज़ारे आदि इसके नायक हैं। यह भाषणकला से बेहतरीन गद्यभाषा की विदाई की सूचना भी है।
उत्तर आधुनिक अवस्था के आने के साथ "व्यक्तिवाद" और "व्यक्ति" का एक विषय के रुप में साहित्य में अंत हो जाता है । ख़ासकर विगत 40 सालों में आई आत्मकथाओं में इसे आसानी से देखा जा सकता है। दलित और स्त्री की आत्मकथाओं में "व्यक्ति" के तौर पर कम और समूह या समुदाय के सदस्य के रुप पर ज़्यादा ज़ोर है।
आधुनिकता के दौर में व्यक्ति और व्यक्तिवाद एक महत्वपूर्ण फिनोमिना के तौर पर पैदा होता है वहीं पर " मैं" और "निजी अस्मिता" की अभिव्यक्ति पर भी ज़ोर था । उत्तर आधुनिकता के आते ही पुराने व्यक्तिवाद और व्यक्ति का अंत हो जाता है ।
भाषा में समय भी होता है। इसमें सामाजिक समय , मानवीय समय, अतीत ,भविष्य और स्मृति भी समाहित होती है। इसमें निजी अस्मिता भी होती है। ये सब समय के साथ बदलते रहते हैं। भाषा में समय की अनुभूतियाँ भी होती हैं । वाक्य स्थिर नहीं होते। वे "समय" के साथ
चलते हैं। इसलिए भाषा और समय को एक साथ रखकर देखना चाहिए ।
नई उत्तर आधुनिक भाषा में एक पहलू उन्मादी भाषिक अनुभव का भी है। यह ऐसी भाषा है जो लेखक के भौतिक आधार से पूरी तरह कटी है। निजी अस्मिता को नहीं जानती। "मैं" को नहीं जानती। वह लेखन को 'अन्य' के लेखन से जोड़कर नहीं देखती। उसके साथ अंतर्क्रिया नहीं करती। यह संवृत्ति दलित और स्त्री लेखन में है।
जबकि पुराने मध्यकालीन स्त्री और दलितलेखन में यह नहीं है। यह उत्तर आधुनिक लेखक समय पर सवारी करने की कोशिश में है जो कि असंभव कार्य है। वह ऐसे यथार्थ को रच रहा है जिसमें आनंद नहीं है। बल्कि आनंद का विलोम ज़्यादा व्यक्त हुआ है ।
बेहतरीन विश्लेषण । उदाहरण भी जोड़ देते तो और अधिक बेहतर ढंग से याद रखा जा सकता है, अधिक बेहतर ढंग से समझा जा सकता है, माने अपने बौद्धिक स्तर के हिसाब से बात कर रहा हूँ ।
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