शनिवार, 17 मई 2014

कांग्रेस की पराजय के प्रमुख कारण

इस बार के लोकसभा चुनाव में विकास के मुद्दे ने सभी मुद्दे अपहृत कर लिए इन अपहृत मुद्दों में बड़ा मुद्दा स्त्री के अधिकारों और सुरक्षा संबंधी मसलों से जुड़ा था। यह दुर्भाग्यजनक है कि स्त्री के सवाल जो विगत दो साल से मीडिया में सबसे ज्यादा स्थान घेरे रहे वे सवाल मीडिया में से ठेलकर बाहर कर दिए गए। यह प्रक्रिया क्यों और कैसे संपन्न हुई यह विचारणीय समस्या है। दूसरी बड़ी समस्या यह है कि नव्य उदार आर्थिक नीतियों के जनविरोधी पहलू की तो चर्चा हुई लेकिन विकल्प की नीतियों पर कोई बात नहीं हुई।

कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व ने इसबार के लोकसभा चुनाव में सबसे बड़ी चूक यह की कि उसने मनमोहन सिंह को सामने रखकर चुनाव नहीं लड़ा। भारतीय समाज में बूढ़ा नेता साखदार होता है। मनमोहन सिंह को सामने रखकर चुनाव लड़ा जाता तो परिणाम भिन्न होते और राजनीतिक जबावदेही के नाते उन्हें जनता में भेजना चाहिए था लेकिन अफसोस यह कि जनता में मनमोहन कम से कम गए। मनमोहन सिंह देश की नीतियों के प्रतीक हैं वे चुनाव के समय चुप रहेंगे तो यह बात देश की जनता हजम नहीं कर सकती।

कांग्रेस के दोनों नेताओं सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने  कांग्रेस की पराजय तो मानी  लेकिन इस पराजय में कांग्रेस की जनविरोधी नीतियों और कांग्रेसी नेता और जनता के बीच में पैदा हुए अलगाव को नहीं देखा।
   कांग्रेस को रेखांकित करना चाहिए कि वे कौन सी नीतियां है जिनके कारण जनता से कांग्रेस का अलगाव बढ़ा। कांग्रेस यदि अपनी नीतियों के जनविरोधी चरित्र को नहीं देखेगी तो वह पराजय के सही कारणों को नहीं खोज पाएगी। वह यह भी नहीं देख पाएगी कि कांग्रेस का क्षय क्यों हो रहा है।
कांग्रेस को बताना होगा कि उसकी नीतियों के गर्भ से भाजपा जैसा अनुदार दल शक्तिशाली कैसे बना। भाजपा की शक्ति में इजाफा मनमोहन युग में हुआ है। कांग्रेस ने जिस ग़रीब विरोधी एजेण्डे को राजनीतिक बुलंदियाँ पर पहुँचाया है उसे चुनौती देना फ़िलहाल किसी भी दल का लक्ष्य नहीं है फलत:विकल्पहीनता पैदा हुई है और इस विकल्पहीनता को मोदी ने आक्रामक नव्य उदार एजेण्डे से भरा है और इस काम में जनता ने मोदी के हाथों सत्ता सौंपकर अपने लोकतांत्रिक दायित्व का पालन किया है।
अब देखना है कि मोदी अपने कार्यकाल में कांग्रेस की जनविरोधी नीतियों को ख़त्म करते हैं या उन पर ही चलते हैं ? यहाँ नेता बदला है, दल बदला है। नव्य उदार आर्थिक नीतियाँ नहीं बदली हैं। देखना होगा मोदी नव्य उदार नीतियों के प्रति संघ के स्वदेशी एजेण्डे के साथ आते हैं या मनमोहन नीतियों को जारी रखते हैं।






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