रविवार, 18 मई 2014

आम आदमी पार्टी और लोकसभा चुनाव के सबक

    लोकतंत्र में लोक गौण है, तंत्र महान है। आमतौर पर यही कहते हैं कि लोक प्रमुख है। लेकिन वस्तुगत सच्चाई यह है कि लोकतंत्र में तंत्र और उसके दांव-पेंच ही प्रमुख हैं। जो दल जितने अच्छे दांव-पेंच जानता है वह उतना ही बेहतर भूमिका अदा करता है। दांव-पेंच का एक भरा पूरा शास्त्र है जिसने लोकतंत्र में लोक को कमजोर और तंत्र को समृद्ध बनाया है।
     दांव-पेंच में जरा सी चूक होते ही बाजी हाथ से निकल जाती है। इसलिए कहा जाता है लोकतंत्र में चूक नहीं होनी चाहिए। लोकतंत्र में जिससे चूक हुई वो चुक जाता है अथवा हाशिए पर चला जाता है। लोकतंत्र में एकबार हाशिए पर जाने के बाद फिर केन्द्र में आना मुश्किल होता है।इस नजरिए से आम आदमी पार्टी की इसबार के लोकसभा चुनाव में भूमिका को देखें तो कुछ नए पक्ष सामने आएंगे।

       आम आदमी पार्टी ने खुलकर अपने नजरिए का इजहार किया और यह भी बताया कि उसका आर्थिक मॉडल क्या है ? वह किस तरह की आर्थिक नीतियों को मानती है। दिल्ली में चुनाव जीतने के पहले आम आदमी पार्टी की आर्थिक नीति को लोग नहीं जानते थे। लेकिन लोकसभा चुनाव के साथ वे जान गए। आम आदमी पार्टी की समग्रता में भूमिका संतोषजनक रही है और उसे आशा के विपरीत बेशुमार वोट मिले हैं।उसके 4सांसद चुने गए हैं। इससे भी बड़ी बात यह कि राजनीति में नैतिक मूल्यों को लेकर जो मुहिम उसने छेड़ी थी वह भी रंग लाई। लेकिन लोकतंत्र में नैतिक मूल्यों पर उतना जोर नहीं रहता जितना राजनीतिक जोर आजमाइश पर रहता है।

आम आदमी पार्टी राजनीतिक जोर आजमाइश में संसाधनों की कमी और सांगठनिक दुर्बलता के कारण मैनस्ट्रीम से खिसक गयी। यह सच है कि केजरीवाल की कम्युनिकेटिव क्षमता बेजोड़ है,यहां तक कि आम आदमी पार्टी के मीडिया प्रवक्ताओं की भूमिका भी विभिन्न टीवी प्रस्तुतियों में शानदार रही।

आम आदमी पार्टी को कायदे से सारे देश में चुनाव लड़ने की बजाय क्षेत्र विशेष-राज्य विशेष में केन्द्रित होकर लड़ना था ,इससे आर्थिक संसाधनों और सांगठऩिक क्षमता का बेहतर ढ़ंग से इस्तेमाल हो पाता। लोकतंत्र में केन्द्रित होकर सोचने,काम करने, चुनाव लड़ने की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

आम आदमी पार्टी की लोकसभा चुनाव में समग्रता में भूमिका बेहतरीन रही है लेकिन मुश्किल यह है कि वह चुनाव की प्रक्रिया के तेजगति पकड़ने के साथ ही फोकस से गायब हो गयी। फोकस में सिर्फ केजरीवाल रह गए,दल गायब हो गया। केजरीवाल का फोकस में रह जाना और दल का फोकस से हट जाना स्वयं में समस्या मूलक है।

दूसरी समस्या यह भी है कि आम आदमी पार्टी अपने साखदार कम्युनिकेशन के लिए केजरीवाल पर अत्यधिक निर्भर है। वहीं दूसरी ओर केजरीवाल अपनी साख को तब ही भुना पाए जब वे मीडिया इवेंट करें। इस तरह मीडिया इवेंट केन्द्रित कम्युनिकेशन ने उनकी राजनीतिक क्षमता को संकुचित किया।

राजनीतिक दल को राजनीतिकेन्द्रित दबाव पैदा करना चाहिए न कि इवेंटकेन्द्रित। इवेंट केन्द्रित कम्युनिकेशन तात्कालिक तौर पर अपील करता है लेकिन उसकी दीर्घकालिक अपील नहीं होती। इसके विपरीत प्रो.आनंदकुमार या योगेन्द्र यादव की इवेंटकेन्द्रित अपील कभी नहीं रही। वे गंभीर दीर्घकालिक अपील बनाकर काम करते रहे हैं। कायदे से इन दोनों को मुख्य संचालक के रुप में सामने रखा जाता तो संभवतः और भी बेहतर परिणाम आ सकते थे।

आम आदमी पार्टी को जितनी बड़ी संख्या में देशभर में वोट मिले हैं उससे यह साफ नजर आ रहा है कि इस दल में लंबे समय तक काम करने की संभावनाएं जनता देख रही है। तकरीबन डेढ़ करोड वोट पाना बहुत बड़ी उपलब्धि है। खासकर युवाओं के वोट इसमें सबसे ज्यादा हैं।




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