लोकतंत्र हमारे समाज की प्राणवायु है और इस प्राणवायु को अबाध और स्वच्छ होना चाहिए । लेकिन यह संभव नहीं लग रहा। इलाहाबाद में हाल ही में जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय सम्मेलन से भी लोकतंत्र की स्वच्छ वायु प्रवाहित नहीं हुई है। नयी कमेटी बनी है । हम चाहेंगे कि यह संगठन और भी ज़्यादा बेहतर ढंग से काम करे। कुछ सवाल हैं जिन पर विचार करना बेहद ज़रुरी है।
देश में लोकतांत्रिक होने की पहली शर्त है सम्मान और समानता के नज़रिए से लेखक को देखना ,उसके नागरिक अधिकारों की रक्षा करना । इस मामले में जनवादी लेखकों को अभी कई किलोमीटर की यात्रा करनी होगी । वे अभी भी ' मैं' और 'तुम' में वर्गीकृत करके सोच रहे हैं ।
कल तक जो लेखक जनवादी लेखक संगठन का सदस्य था अपना था ।आज सदस्य नहीं है तो पराया है , वर्गशत्रु है, भ्रष्ट है, बाज़ारू है। इस नज़रिए से जलेसं जब तक लेखकों को देखेगा कभी भी 'मैं' और 'तुम' के पापबोध से निकल नहीं पाएगा।
दुखद है जलेसं में 'हम' का भाव ख़त्म हो गया है। लेखक पर निजी हमले घटिया क़िस्म की गुण्डागर्दी है ,इससे बचा जाना चाहिए। जलेसं कोई लेखकीय प्रमाणपत्र जारी करने वाला संगठन नहीं है।
जनवादी लेखक संगठन के कुछ पदाधिकारियों के व्यवहार को छोड़कर अधिकांश लेखक अभी भी सामंती मनोदशा में सोचते और व्यवहार करते हैं। यह बात उनके आचरण में भी झलकती है। जलेसं सबसे पहले इस दयनीय दशा को दुरुस्त करे।
सांगठनिक अहंकार घटिया क़िस्म की चीज़ है जिसका जलेसं के सदस्यों ने जमकर विकास किया है। सांगठनिक अहंकार के नाम पर साहित्यिक दादागिरी पैदा हुई है । इससे जलेसं में उदार परंपराएँ नष्ट हुई हैं।आंतरिक लोकतंत्र नष्ट हुआ है।
लोकतंत्र में विनम्रता ज़रुरी चीज़ है हेकडीबाज कभी लोकतांत्रिक नहीं हो सकता और न इस तरह के लेखक कभी समाज में वैचारिक नेतृत्व कर सकते हैं। सांगठनिक हेकड़ीबाजों ने मुखर होकर जलेसं में दबाव बना लिया है यह जलेसं के अंदर लोकतंत्र के हेकडीतंत्र में बदलने का संकेत है और यह जलेसं के हाशिए पर चले जाने की सूचना भी है। यह वह माहौल है जिसमें इलाहाबाद सम्मेलन सम्पन्न हुआ। बेहतर होता संगठन आंतरिक मसलों पर विचार करता लेकिन यह सब न करके औपचारिक ढंग से राष्ट्रीय सम्मेलन कर लिया गया।
इलाहाबाद सम्मेलन में कोई नया फ़ैसला नहीं हुआ और नहीं जलेसं के संविधान में मौजूद लोकतंत्रविरोधी चोर दरवाज़े बंद करने के बारे में कोई ठोस क़दम ही उठाए गए ।
यह सच है कि जनवादी लेखक संगठन स्वायत्त संगठन है लेकिन यह स्वायत्तता वहीं तक है जहाँ तक भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने रेडलाइन खींची हुई है। संगठन के आंतरिक गठन पर माकपा का नियंत्रण है। यह नियंत्रण ख़त्म हो तब ही सही मायने में जलेसं लोकतांत्रिक बन पाएगा।
उल्लेखनीय है माकपा के हिंदी उर्दू साहित्य शून्य नेताओं के नियंत्रण में इसका लंबे समय से संचालन होता रहा है । लंबे समय से माकपा के ऐसे नेतागण इस संगठन के कामकाज को देखते रहे हैं जो हिंदी -उर्दू साहित्य की साझा परंपरा से एकदम अनभिज्ञ हैं । इससे माकपा की इस संगठन को लेकर गंभीरता का पता चलता है।
जनवादी लेखक संघ यदि देश में अपना स्थान बनाना चाहता है तो उसे माकपा के चंगुल और निर्देशन से मुक्त करना होगा। फ़िलहाल इसके चांस नहीं हैं। माकपा के केन्द्रीय नेतृत्व से लेकर स्थानीय नेतृत्व का इस संगठन पर जिस तरह का नियंत्रण है उससे लेखक संगठन की पहलकदमी नष्ट हुई है, संगठन में लोकतंत्र नष्ट हुआ है।जलेसं में हर काम पार्टी के आदेश पर होता है। पार्टी के आदेश पर ही लेखक से संबंध तय किए जाते हैं। पार्टी के सचिव ने यदि किसी लेखक के बारे में कह दिया कि फ़लाँ लेखक माकपा में नहीं है या माकपा आलोचक है उससे दूर रहो तो संगठन के कर्त्ता ठीक तेजगति से उस दिशा में चल देते हैं। इससे संगठन में साहित्यिक भ्रष्टाचार फैला है । सचिव होने की प्रधान शर्त है माकपा का सदस्य होना। यह विचारणीय समस्या है कि जलेसं के गठन के बाद से महासचिव कोई ग़ैर माकपाई नहीं हुआ। यह फिनोमिना कमोबेश सारे राज्यों में है। यह संगठन के बंधक बनाए रखने की अलोकतांत्रिक समझ है।
जनवादी लेखक संघ की कार्यप्रणाली में माकपा नेतृत्व के हस्तक्षेप को नीचे तक देख सकते हैं। घटिया क़िस्म की गुटबाजियां संगठन में जारी हैं। जिनको कभी ख़त्म करने का केन्द्रीय नेतृत्व ने प्रयास नहीं किया । मूल बात यह कि माकपा के हस्तक्षेप से जलेसं किस तरह स्वायत्त बने यह समस्या अभी भी बनी हुई है। माकपा के मौजूदा नज़रिए को देखते हुए इस स्थिति में सुधार की संभावनाएँ नज़र नहीं आतीं। इसका दुष्परिणाम यह है कि लेखक संघ की स्वायत्त नीतिगत राय कहीं पर भी नज़र नहीं आती। इससे संगठन में राजनीतिक मसलों पर प्रस्तावों में माकपा से न तो भिन्न भाषा मिलती है और न भिन्न नज़रिया ही दिखाई देता है।
जनवादी लेखक संघ की नई चिंताएँ लेखकीय सवालों और समस्याओं पर सक्रिय होती नजर नहीं आ रहीं। यहाँ तक कि इलाहाबाद सम्मेलन में भी कोई नयी चीज़ सामने नहीं आयी है। स्टीरियोटाइप घिसी पिटी भाषा में प्रस्तावों में चीजें रखी गयी हैं।
इलाहाबाद सम्मेलन का एक ही संदेश है कि जलेसं का भारत की वास्तविकता से संबंध टूट चुका है।
साझा संस्कृति संगम के घोषणापत्र में कहा गया है ' भारतीय समाज इस समय फ़ासीवाद के मुहाने पर खड़ा है। सच तो यह है कि देश के अनेक हिस्सों में लोग अघोषित फ़ासीवाद की परिस्थिति में ही सांस ले रहे हैं। '
उपरोक्त भाषा और समझ दर्शाती है कि जलेसं समस्या को ठोस रुप में देखना नहीं चाहता । लेखक जब चीज़ें ठोस वास्तविक उदाहरणों के बिना पेश करने लगें तो इसे लेखकीय चालाकी कहा जाता है। यह ख़तरनाक स्थिति है।
जलेसं को उन इलाक़ों का विवेचन करना चाहिए जहाँ पर अघोषित फासीवाद है ,यह भी देखना चाहिए कि अघोषित फासीवाद में माकपा की भी कोई भूमिका है या नहीं ? मैं पश्चिम बंगाल के अनुभव से कह सकता हूँ कि माकपा ने वामशासन के दौरान अघोषित आतंक का जो तानाबाना बुना था आज वही माकपा के लिए गले की हड्डी बन गया है।
पश्चिम बंगाल में माकपा के शासन में जिस तरह आमलोगों के जीवन में हस्तक्षेप किया गया वह लोकतंत्र को कलंकित करने वाली चीज़ है और उसके कारण वहाँ पर पराजय हुई।
दुखद बात यह है कि जलेसं ने कभी माकपा रचित अलोकतांत्रिक माहौल और संरचनाओं की आलोचना नहीं की। एक वाक्य तक इस महान घोषणापत्र में नहीं लिखा गया।
लेखकों और नागरिकों का अपमान करना लोकतंत्र का अपहरण है और वामशासन में माकपा ने पश्चिम बंगाल में यह काम जमकर किया है। ज़रुरत इस बात की है कि जलेसं इस फिनोमिना पर आलोचनात्मक नज़रिए से विचार करे।
संघ परिवार के फासिज्म से लड़ने के लिए ज़रुरी है कि माकपा के अलोकतांत्रिक कार्यकलापों की भी आलोचना की जाय लेकिन जलेसं तो माकपा के सांस्कृतिक -सामाजिक अपराधों पर एकदम चुप है । वे चुप क्यों हैं? यह सवाल उठना स्वाभाविक है ? यही वह बिंदु है जहाँ पर हमें माकपा से जलेसं की स्वतंत्रता की और भी ज़्यादा ज़रुरत महसूस होती है । मैं जलेसं के केन्द्रीय नेतृत्व की असफलताओं की लिस्ट बताना नहीं चाहता । लेकिन यह माँग तो रहेगी कि लेखक संगठन में पदाधिकारी उसे बनाएँ जो हिंदी-उर्दू का लेखक हो ? हाल ही में पश्चिम बंगाल में जलेसं के अध्यक्ष हासिम अब्दुल हलीम चुने गए हैं। वे लेखक नहीं हैं । यह संकेतमात्र है उस समस्या का जिसमें माकपा प्रवेश करती है। वे बेहतर इंसान हैं माकपा के नेता हैं लेकिन लेखक नहीं हैं।
जलेसं के इलाहाबाद घोषणापत्र में नयी उदार आर्थिक नीतियों की जमकर आलोचना की गयी है। लेकिन मित्रलोग भूल गए कि अबपीछे मुड़कर लौट नहीं सकते और यह एकमात्र अपरिहार्य मार्ग है ।
विश्व व्यापार संगठन में शामिल होने के बाद पीछे हटने या अन्य किसी मार्ग पर चलने का विकल्प नहीं बचा है।
इलाहाबाद घोषणापत्र में सही कहा गया है कि 'इसी दौर में राष्ट्रीय आंदोलन की उदारवादी और जनोन्मुखी प्रेरणाएं और मूल्य तेज़ी से टूटे बिखरे हैं और बांये बाजू़ की वैकल्पिक चुनौती और प्रतिरोध की परंपरा भी कमज़ोर पड़ी है।'
इसके कारणों का जलेसं आदि संगठन अभी तक मूल्याँकन क्यों नहीं कर पाए ? यदि कहीं किया है तो उसका ज़िक्र होना चाहिए।जनोन्मुखी प्रेरणाएँ और मूल्य क्यों टूटे ? अपने दायित्व से बचने का यह उपाय है कि दूसरों पर ज़िम्मेदारी डालो । देश में उदारवादी परंपराएँ कमज़ोर क्यों हुईं, सांगठनिक तौर पर इस पर सुसंगठित बहस के बिना राय देना सही नहीं है।सवाल यह है कि फंडामेटलिस्टों के दबाव के सामने पश्चिम बंगाल का वामशासन क्यों झुका ? तसलीमा नसरीन की किताब पर पाबंदी क्यों लगायी गयी ? और तसलीमा नसरीन को वोटबैंक राजनीति और फंडामेंटलिज्म के दबाव में वामशासन ने क्यों राज्य से बाहर निकाल दिया? आदि सवालों के उत्तर खोजने होंगे, यह नमूना मात्र है।
उदार परंपराओं के क्षय में वामपंथ की भूमिका को आलोचनात्मक नज़रिए से देखे बिना उस पतन की जड़ें नजर नहीं आएंगी जहाँ हम सब आजकल पहुँच गए हैं। बुर्जुआजी को गरियाना आसान है लेकिन माकपा की अनुदारदृष्टि पर बातें करना मुश्किल काम है । यह दायित्व तो जलेसं को लेना होगा कि वह मीमांसा करे और बताए कि उदार परंपराओं और मूल्यों का ह्रास क्यों हुआ और माकपा की इस प्रसंग में क्या भूमिका रही है?
माकपा के लोग जिस तरह की घृणा का प्रचार अपने से अलग हुए लेखकों और बुद्धिजीवियों के ख़िलाफ़ करते हैं वह निंदनीय है । अफ़सोस की बात है जलेसं के नेतृत्व में भी घृणा की यह बीमारी घर कर गयी है। इस प्रसंग में एकाधिक उदाहरण दिए जा सकते हैं । बेहतर यही है कि उदार मूल्यों के पतन के कारणों को समग्रता में विश्लेषित किया जाय और लेखकों के बीच में खुली बहस चलायी जाय। इलाहाबाद घोषणापत्र के बहाने बहस हो सकती है लेकिन जलेसं का रवैय्या बहस का कम नज़र आता है और मसलों को फ़र्श के नीचे छिपाने का ज़्यादा नज़र आता है। मसलों को फ़र्श के नीचे खिसकाना लोकतंत्र का अंत है।
कल तक जो लेखक जनवादी लेखक संगठन का सदस्य था अपना था ।आज सदस्य नहीं है तो पराया है , वर्गशत्रु है, भ्रष्ट है, बाज़ारू है। इस नज़रिए से जलेसं जब तक लेखकों को देखेगा कभी भी 'मैं' और 'तुम' के पापबोध से निकल नहीं पाएगा।
दुखद है जलेसं में 'हम' का भाव ख़त्म हो गया है। लेखक पर निजी हमले घटिया क़िस्म की गुण्डागर्दी है ,इससे बचा जाना चाहिए। जलेसं कोई लेखकीय प्रमाणपत्र जारी करने वाला संगठन नहीं है।
जनवादी लेखक संगठन के कुछ पदाधिकारियों के व्यवहार को छोड़कर अधिकांश लेखक अभी भी सामंती मनोदशा में सोचते और व्यवहार करते हैं। यह बात उनके आचरण में भी झलकती है। जलेसं सबसे पहले इस दयनीय दशा को दुरुस्त करे।
सांगठनिक अहंकार घटिया क़िस्म की चीज़ है जिसका जलेसं के सदस्यों ने जमकर विकास किया है। सांगठनिक अहंकार के नाम पर साहित्यिक दादागिरी पैदा हुई है । इससे जलेसं में उदार परंपराएँ नष्ट हुई हैं।आंतरिक लोकतंत्र नष्ट हुआ है।
लोकतंत्र में विनम्रता ज़रुरी चीज़ है हेकडीबाज कभी लोकतांत्रिक नहीं हो सकता और न इस तरह के लेखक कभी समाज में वैचारिक नेतृत्व कर सकते हैं। सांगठनिक हेकड़ीबाजों ने मुखर होकर जलेसं में दबाव बना लिया है यह जलेसं के अंदर लोकतंत्र के हेकडीतंत्र में बदलने का संकेत है और यह जलेसं के हाशिए पर चले जाने की सूचना भी है। यह वह माहौल है जिसमें इलाहाबाद सम्मेलन सम्पन्न हुआ। बेहतर होता संगठन आंतरिक मसलों पर विचार करता लेकिन यह सब न करके औपचारिक ढंग से राष्ट्रीय सम्मेलन कर लिया गया।
इलाहाबाद सम्मेलन में कोई नया फ़ैसला नहीं हुआ और नहीं जलेसं के संविधान में मौजूद लोकतंत्रविरोधी चोर दरवाज़े बंद करने के बारे में कोई ठोस क़दम ही उठाए गए ।
यह सच है कि जनवादी लेखक संगठन स्वायत्त संगठन है लेकिन यह स्वायत्तता वहीं तक है जहाँ तक भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने रेडलाइन खींची हुई है। संगठन के आंतरिक गठन पर माकपा का नियंत्रण है। यह नियंत्रण ख़त्म हो तब ही सही मायने में जलेसं लोकतांत्रिक बन पाएगा।
उल्लेखनीय है माकपा के हिंदी उर्दू साहित्य शून्य नेताओं के नियंत्रण में इसका लंबे समय से संचालन होता रहा है । लंबे समय से माकपा के ऐसे नेतागण इस संगठन के कामकाज को देखते रहे हैं जो हिंदी -उर्दू साहित्य की साझा परंपरा से एकदम अनभिज्ञ हैं । इससे माकपा की इस संगठन को लेकर गंभीरता का पता चलता है।
जनवादी लेखक संघ यदि देश में अपना स्थान बनाना चाहता है तो उसे माकपा के चंगुल और निर्देशन से मुक्त करना होगा। फ़िलहाल इसके चांस नहीं हैं। माकपा के केन्द्रीय नेतृत्व से लेकर स्थानीय नेतृत्व का इस संगठन पर जिस तरह का नियंत्रण है उससे लेखक संगठन की पहलकदमी नष्ट हुई है, संगठन में लोकतंत्र नष्ट हुआ है।जलेसं में हर काम पार्टी के आदेश पर होता है। पार्टी के आदेश पर ही लेखक से संबंध तय किए जाते हैं। पार्टी के सचिव ने यदि किसी लेखक के बारे में कह दिया कि फ़लाँ लेखक माकपा में नहीं है या माकपा आलोचक है उससे दूर रहो तो संगठन के कर्त्ता ठीक तेजगति से उस दिशा में चल देते हैं। इससे संगठन में साहित्यिक भ्रष्टाचार फैला है । सचिव होने की प्रधान शर्त है माकपा का सदस्य होना। यह विचारणीय समस्या है कि जलेसं के गठन के बाद से महासचिव कोई ग़ैर माकपाई नहीं हुआ। यह फिनोमिना कमोबेश सारे राज्यों में है। यह संगठन के बंधक बनाए रखने की अलोकतांत्रिक समझ है।
जनवादी लेखक संघ की कार्यप्रणाली में माकपा नेतृत्व के हस्तक्षेप को नीचे तक देख सकते हैं। घटिया क़िस्म की गुटबाजियां संगठन में जारी हैं। जिनको कभी ख़त्म करने का केन्द्रीय नेतृत्व ने प्रयास नहीं किया । मूल बात यह कि माकपा के हस्तक्षेप से जलेसं किस तरह स्वायत्त बने यह समस्या अभी भी बनी हुई है। माकपा के मौजूदा नज़रिए को देखते हुए इस स्थिति में सुधार की संभावनाएँ नज़र नहीं आतीं। इसका दुष्परिणाम यह है कि लेखक संघ की स्वायत्त नीतिगत राय कहीं पर भी नज़र नहीं आती। इससे संगठन में राजनीतिक मसलों पर प्रस्तावों में माकपा से न तो भिन्न भाषा मिलती है और न भिन्न नज़रिया ही दिखाई देता है।
जनवादी लेखक संघ की नई चिंताएँ लेखकीय सवालों और समस्याओं पर सक्रिय होती नजर नहीं आ रहीं। यहाँ तक कि इलाहाबाद सम्मेलन में भी कोई नयी चीज़ सामने नहीं आयी है। स्टीरियोटाइप घिसी पिटी भाषा में प्रस्तावों में चीजें रखी गयी हैं।
इलाहाबाद सम्मेलन का एक ही संदेश है कि जलेसं का भारत की वास्तविकता से संबंध टूट चुका है।
साझा संस्कृति संगम के घोषणापत्र में कहा गया है ' भारतीय समाज इस समय फ़ासीवाद के मुहाने पर खड़ा है। सच तो यह है कि देश के अनेक हिस्सों में लोग अघोषित फ़ासीवाद की परिस्थिति में ही सांस ले रहे हैं। '
उपरोक्त भाषा और समझ दर्शाती है कि जलेसं समस्या को ठोस रुप में देखना नहीं चाहता । लेखक जब चीज़ें ठोस वास्तविक उदाहरणों के बिना पेश करने लगें तो इसे लेखकीय चालाकी कहा जाता है। यह ख़तरनाक स्थिति है।
जलेसं को उन इलाक़ों का विवेचन करना चाहिए जहाँ पर अघोषित फासीवाद है ,यह भी देखना चाहिए कि अघोषित फासीवाद में माकपा की भी कोई भूमिका है या नहीं ? मैं पश्चिम बंगाल के अनुभव से कह सकता हूँ कि माकपा ने वामशासन के दौरान अघोषित आतंक का जो तानाबाना बुना था आज वही माकपा के लिए गले की हड्डी बन गया है।
पश्चिम बंगाल में माकपा के शासन में जिस तरह आमलोगों के जीवन में हस्तक्षेप किया गया वह लोकतंत्र को कलंकित करने वाली चीज़ है और उसके कारण वहाँ पर पराजय हुई।
दुखद बात यह है कि जलेसं ने कभी माकपा रचित अलोकतांत्रिक माहौल और संरचनाओं की आलोचना नहीं की। एक वाक्य तक इस महान घोषणापत्र में नहीं लिखा गया।
लेखकों और नागरिकों का अपमान करना लोकतंत्र का अपहरण है और वामशासन में माकपा ने पश्चिम बंगाल में यह काम जमकर किया है। ज़रुरत इस बात की है कि जलेसं इस फिनोमिना पर आलोचनात्मक नज़रिए से विचार करे।
संघ परिवार के फासिज्म से लड़ने के लिए ज़रुरी है कि माकपा के अलोकतांत्रिक कार्यकलापों की भी आलोचना की जाय लेकिन जलेसं तो माकपा के सांस्कृतिक -सामाजिक अपराधों पर एकदम चुप है । वे चुप क्यों हैं? यह सवाल उठना स्वाभाविक है ? यही वह बिंदु है जहाँ पर हमें माकपा से जलेसं की स्वतंत्रता की और भी ज़्यादा ज़रुरत महसूस होती है । मैं जलेसं के केन्द्रीय नेतृत्व की असफलताओं की लिस्ट बताना नहीं चाहता । लेकिन यह माँग तो रहेगी कि लेखक संगठन में पदाधिकारी उसे बनाएँ जो हिंदी-उर्दू का लेखक हो ? हाल ही में पश्चिम बंगाल में जलेसं के अध्यक्ष हासिम अब्दुल हलीम चुने गए हैं। वे लेखक नहीं हैं । यह संकेतमात्र है उस समस्या का जिसमें माकपा प्रवेश करती है। वे बेहतर इंसान हैं माकपा के नेता हैं लेकिन लेखक नहीं हैं।
जलेसं के इलाहाबाद घोषणापत्र में नयी उदार आर्थिक नीतियों की जमकर आलोचना की गयी है। लेकिन मित्रलोग भूल गए कि अबपीछे मुड़कर लौट नहीं सकते और यह एकमात्र अपरिहार्य मार्ग है ।
विश्व व्यापार संगठन में शामिल होने के बाद पीछे हटने या अन्य किसी मार्ग पर चलने का विकल्प नहीं बचा है।
इलाहाबाद घोषणापत्र में सही कहा गया है कि 'इसी दौर में राष्ट्रीय आंदोलन की उदारवादी और जनोन्मुखी प्रेरणाएं और मूल्य तेज़ी से टूटे बिखरे हैं और बांये बाजू़ की वैकल्पिक चुनौती और प्रतिरोध की परंपरा भी कमज़ोर पड़ी है।'
इसके कारणों का जलेसं आदि संगठन अभी तक मूल्याँकन क्यों नहीं कर पाए ? यदि कहीं किया है तो उसका ज़िक्र होना चाहिए।जनोन्मुखी प्रेरणाएँ और मूल्य क्यों टूटे ? अपने दायित्व से बचने का यह उपाय है कि दूसरों पर ज़िम्मेदारी डालो । देश में उदारवादी परंपराएँ कमज़ोर क्यों हुईं, सांगठनिक तौर पर इस पर सुसंगठित बहस के बिना राय देना सही नहीं है।सवाल यह है कि फंडामेटलिस्टों के दबाव के सामने पश्चिम बंगाल का वामशासन क्यों झुका ? तसलीमा नसरीन की किताब पर पाबंदी क्यों लगायी गयी ? और तसलीमा नसरीन को वोटबैंक राजनीति और फंडामेंटलिज्म के दबाव में वामशासन ने क्यों राज्य से बाहर निकाल दिया? आदि सवालों के उत्तर खोजने होंगे, यह नमूना मात्र है।
उदार परंपराओं के क्षय में वामपंथ की भूमिका को आलोचनात्मक नज़रिए से देखे बिना उस पतन की जड़ें नजर नहीं आएंगी जहाँ हम सब आजकल पहुँच गए हैं। बुर्जुआजी को गरियाना आसान है लेकिन माकपा की अनुदारदृष्टि पर बातें करना मुश्किल काम है । यह दायित्व तो जलेसं को लेना होगा कि वह मीमांसा करे और बताए कि उदार परंपराओं और मूल्यों का ह्रास क्यों हुआ और माकपा की इस प्रसंग में क्या भूमिका रही है?
माकपा के लोग जिस तरह की घृणा का प्रचार अपने से अलग हुए लेखकों और बुद्धिजीवियों के ख़िलाफ़ करते हैं वह निंदनीय है । अफ़सोस की बात है जलेसं के नेतृत्व में भी घृणा की यह बीमारी घर कर गयी है। इस प्रसंग में एकाधिक उदाहरण दिए जा सकते हैं । बेहतर यही है कि उदार मूल्यों के पतन के कारणों को समग्रता में विश्लेषित किया जाय और लेखकों के बीच में खुली बहस चलायी जाय। इलाहाबाद घोषणापत्र के बहाने बहस हो सकती है लेकिन जलेसं का रवैय्या बहस का कम नज़र आता है और मसलों को फ़र्श के नीचे छिपाने का ज़्यादा नज़र आता है। मसलों को फ़र्श के नीचे खिसकाना लोकतंत्र का अंत है।
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