शुक्रवार, 2 मई 2014

माकपा का संकट और नई चुनौतियां

 इसबार के लोकसभा चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टियां जितनी दिशाहीन रही हैं वैसी वे पहले कभी नहीं थीं। दिशाहीनता पर किसी भी नेता को अफसोस नहीं है बल्कि उलटे वे दिशाहीनता की हिमायत कर रहे हैं। यह दिशाहीनता दो कारणों से पैदा हुई है इसका पहला कारण है नेतृत्व की साख नहीं है। दूसरा कारण है कि मौजूदा दौर को लेकर कम्युनिस्ट पार्टियों के पास कोई स्पष्ट नीतिगत समझ नहीं है।खासकर माकपा में ये दोनों कारण साफ तौर पर देखे जा सकते हैं।

       यह सच है माकपा ने लोकतांत्रिक राजनीति में वैकल्पिक नीति और आचार-व्यवहार के बेहतरीन मानकों का निर्माण किया है। ईमानदारी,सादगी,जनता के प्रति वचनबद्धता में यह दल अन्य दलों से बेहतर भूमिका निभाता रहा है। लेकिन फिलहाल जो लीडरशिप है उसकी कोई साख न तो नेताओं में है और न जनता में है।
    लोकसभा चुनाव को लेकर माकपा का नजरिया एकदम कूपमंडूकों जैसा है। इस चुनाव में माकपा अपने लिए न तो नए मित्र खोज पायी और न नए चुनावी समझौते ही कर पायी और यह नेतृत्व की सबसे बड़ी असफलता है।
  मसलन, इसबार बिहार में वामदल आपस में लड़ रहे हैं। उनका कोई मित्र नहीं है। उनका किसी से समझौता नहीं हो पाया, उनको किसी ने मित्र नहीं बनाया, यही हाल यूपी का है।
   मसलन् माकपा के महासचिव प्रकाश कारात कह रहे हैं कि भविष्य में तीसरे मोर्चे की सरकार बन सकती है और कांग्रेस को उसे समर्थन करना चाहिए और प्रधानमंत्री मुलायम सिंह यादव होंगे। कारात से पूछा जाना चाहिए कि सपा से माकपा को यूपी में चुनावी समझौता करने में सफलता क्यों नहीं मिली ? यदि सपा गंभीर है और माकपा के साथ उसके रिश्ते बेहद भरोसेमंद हैं तो माकपा और सपा में यूपी और पश्चिम बंगाल में कम से कम सीटों का समझौता तो हो ही सकता था। यही बात जद(यू) पर बिहार और कर्नाटक में लागू होती है।
    प्रकाश कारात को इस सवाल का जबाव देना होगा कि इसबार माकपा का अन्य दलों के साथ चुनावी समझौता क्यों नहीं हो पाया ? स्थिति यहां तक खराब है कि जयललिता के साथ समझौता होते होते टूट गया।
   पहलीबार माकपा का पूरे देश में केरल,पश्चिम बंगाल के बाहर किसी भी दल से कोई चुनावी समझौता नहीं हो पाया। इस तरह की स्थिति विगत 50सालों में पहलीबार देखने में आई है। यह लीडरशिप की सबसे बड़ी असफलता है।यह साधारण असफलता नहीं है।
    दूसरी बड़ी असफलता यह है कि माकपा के केन्द्रीय नेतृत्व ने इस चुनाव में किसी भी किस्म का राजनीतिक आक्रमण न तो कांग्रेस के खिलाफ किया है और न भाजपा के खिलाफ किया है। प्रचार अभियान में इस तरह की असफलता इस बात का प्रतीक है कि केन्द्रीय नेतृत्व लोकतंत्र में अनमने ढ़ंग से या तदर्थ भाव से भाग ले रहा है।
    माकपा नेतृत्व के अनमनेपन का एक और उदाहरण लें तो बात समझ में आएगी। हाल ही में पश्चिम बंगाल में माकपा नेता गौतम देव ने प्रेस कॉँफ्रेस करके ममता सरकार पर गंभीर आरोप लगाए और ये आरोप माकपा के राज्य कार्यालय में बैठकर लगाए। सवाल यह है यदि ये आरोप गंभीर हैं तो इनको दिल्ली में प्रकाश कारात ने प्रेस कॉफेंस करके प्रेस को क्यों नहीं बताया ?
    ममता बनर्जी से जंग क्या लोकल नेताओं के बल पर लड़ सकते हैं ?यह त्रासद है कि मीडिया कवरेज की महत्ता जानते हुए भी केन्द्रीय नेतृत्व हमलावर नहीं हो पा रहा है और छुटभैय्ये नेताओं के जरिए फायरिंग कर रहा है। इससे शत्रु को मारना संभव नहीं है। यह दुर्भाग्य जनक है कि पूरे चुनाव में पश्चिम बंगाल को लेकर केन्द्रीय नेतृत्व को जिस तरह की पहलकदमी करनी चाहिए थी वह नहीं हुई। क्यों नहीं हुई यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण है। लोकतंत्र में माकपा नेताओं में पहलकदमी का अभाव एकदम अस्वाभाविक बात है और इसकी किसी भी तर्क से हिमायत नहीं की जा सकती।
     माकपा नेतृत्व इसबार के लोकसभा चुनाव में कई स्तरों पर फेल हुआ है। लोकसभा चुनाव के परिणाम कुछ भी आएं। माकपा की सीटें बढ़ें या घटें, लेकिन ये खामियां रहेंगी।माकपा को कायदे से नेतृत्व की अक्षमता और प्रभावशाली प्रचार नीति की असफलता के कारणों की गहराई में जाकर जाँच करनी चाहिए।   

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