मीडिया में मीडियावालों ,दलीय प्रवक्ताओं और 'ओपिनियन मेकरों' की राय व्यक्त होती है। वहाँ जनता की वही राय व्यक्त होती है जो 'समाचार फ्लो' या ' प्रायोजित कार्यक्रम की संगति' में हो। मीडिया के लोग या उनके भक्त मीडिया समीक्षक यही कहते हैं कि मीडिया वही पेश करता है जो जनता कहती है। सच यह नहीं है।
मीडिया का काम जनता की राय पेश करना नहीं है बल्कि प्रायोजक के लिए माहौल बनाना मुख्य लक्ष्य है। वह प्रायोजक के पक्ष में दर्शकों ,श्रोताओं में संस्कार , स्वीकृति और विनिमय भावना पैदा करता है। यह विनिमय का कार्य व्यापार जहाँ एक ओर वैचारिक समर्थक बनाने में भूमिका अदा करता है वहीं दूसरी ओर धन के रुप में मुनाफ़ा भी पैदा करता है।
मोदी की आक्रामक प्रचारनीति और संघ की भूमिका के अधिकांश नीतिगत फ़ैसले संघ की नीति से संचालित हैं, संघ सक्रिय संगठन है। इसका क़तई अर्थ नहीं है कि देश में फासीवाद आ गया है। भारत में लोकतंत्र है और लोकतंत्र के पैराडाइम पर काम करने के लिए भाजपा भी मजबूर है। भाजपा की कार्यशैली के कई रुप हैं। वे प्रत्यक्ष रुप से नग्न पूँजीवादी दल के रुप में काम कर रहे हैं ।
देश में सामाजिक शक्ति संतुलन अभी फासीवाद के पक्ष में नहीं है। आज भी देश में लोकतंत्र के पक्ष में सामाजिक -राजनीतिक संतुलन है और हर स्तर पर लोकतांत्रिक शक्तियों के पक्ष में शक्ति संतुलन बना हुआ है। संसद, विधानसभा और न्यायपालिका संविधान के नियमों के तहत काम कर रहे हैं। इसके अलावा विभिन्न वर्गों के बीच में लोकतांत्रिक संगठनों की पकड़ आज भी मज़बूत है। ऐसे में फासीवाद के मुहाने पर देश को खड़ा कहना सही नहीं है।
लोकतंत्र में फासीवादी संगठन भी सक्रिय रह सकते हैं। लेकिन जब वे हर क्षेत्र में निर्णायक हो जाएँ तब ही फासीवाद की दस्तक कह सकते हैं।
मोदी की आक्रामक प्रचारनीति और संघ की भूमिका के अधिकांश नीतिगत फ़ैसले संघ की नीति से संचालित हैं, संघ सक्रिय संगठन है। इसका क़तई अर्थ नहीं है कि देश में फासीवाद आ गया है। भारत में लोकतंत्र है और लोकतंत्र के पैराडाइम पर काम करने के लिए भाजपा भी मजबूर है। भाजपा की कार्यशैली के कई रुप हैं। वे प्रत्यक्ष रुप से नग्न पूँजीवादी दल के रुप में काम कर रहे हैं ।
देश में सामाजिक शक्ति संतुलन अभी फासीवाद के पक्ष में नहीं है। आज भी देश में लोकतंत्र के पक्ष में सामाजिक -राजनीतिक संतुलन है और हर स्तर पर लोकतांत्रिक शक्तियों के पक्ष में शक्ति संतुलन बना हुआ है। संसद, विधानसभा और न्यायपालिका संविधान के नियमों के तहत काम कर रहे हैं। इसके अलावा विभिन्न वर्गों के बीच में लोकतांत्रिक संगठनों की पकड़ आज भी मज़बूत है। ऐसे में फासीवाद के मुहाने पर देश को खड़ा कहना सही नहीं है।
लोकतंत्र में फासीवादी संगठन भी सक्रिय रह सकते हैं। लेकिन जब वे हर क्षेत्र में निर्णायक हो जाएँ तब ही फासीवाद की दस्तक कह सकते हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें