मंगलवार, 3 जून 2014

बलात्कार के प्रतिवाद और नागरिक औरत की तलाश में

    
 
  मीडिया में बलात्कार की ख़बरों का सुर्खियों में आना और नेताओं का बलात्कार को लेकर हाय हाय करना रोज़मर्रा का नाटक है। 
   बलात्कार कोई मीडिया इवेंट नहीं है। बलात्कार के यथार्थ चित्र मीडिया के क़िस्सों और बाइट्स से भी ज़्यादा भयानक हैं। बलात्कार हमारे समाज और लोकतंत्र की प्रकृति को समझने का प्रस्थान बिंदु है। यह हमारे लोकतंत्र के समस्त दावों को खोखला साबित करता है ।
    लेनिन कहा करते थे यदि किसी समाज की हक़ीक़त जानना है तो पता करो औरत की दशा क्या है ? हमलोग जब भी लोकतंत्र की बातें करते हैं तो सतही मसलों को केन्द्र में रखकर बातें करते हैं। औरत को केन्द्र में रखकर बातें नहीं करते। औरत हमारी सृष्टि की धुरी है।
   अभी लोकसभा चुनावों के परिणामों की स्याही सूखी नहीं है । हम अपने अंदर झाँकने के लिए तैयार नहीं हैं। लोकसभा चुनाव में हमने औरतों के सवालों पर बातें तक नहीं कीं।
    मोदी से लेकर शोहदों तक सभी ने जितने भाषण दिए उनमें  औरत का मसला ठीक से उठाया ही नहीं गया। जब भी औरत का मसला उठा तो अपने को श्रेष्ठ और दूसरे को हेयऔर निकम्मा सिद्ध करने के लिहाज़ से उठाया गया। औरत को भी क़ानून -व्यवस्था का मसला बना दिया गया। सरकार को  निकम्मा घोषित करने का औज़ार बना दिया गया और वोट जुगाड़ करने की मशीन में तब्दील कर दिया गया। कभी किसी भी दल ने औरतों के सवालों पर बुनियादी ढंग से बातें नहीं कीं।
   स्थिति इतनी बदतर है कि आज भी हम बदायूँ की घटना को यूपी सरकार को गिराने या बदनाम करने के लक्ष्य से आगे देखने को तैयार नहीं हैं। हम यह जानने और समझने को तैयार नहीं हैं कि हमारा देश 'बलात्कारियों का देश 'कैसे हो गया? क्यों हमारे देश में औरत को ही पग-पग पर लांछन, उत्पीड़न और बलात्कार का सामना करना पड़ता है? वे कौन सी ताक़तें और जीवन मूल्य हैं जो औरत पर हो रहे अत्याचारों की तह तक हमें जाने नहीं देते ? 
          बलात्कार की जड़ें हमारे समाज में हैं। समाज की मूल्य संरचना में हैं। औरत को मातहत मानने या दोयमदर्जे का नागरिक मानने की मानसिकता में हैं। वास्तविकता यह है कि हमने अपने देश में लोकतंत्र का कम और वोटतंत्र का ज़्यादा विकास किया है। हमने नागरिकचेतना और आधुनिकभावबोध पैदा करने की बजाय उपभोक्ताबोध पैदा करने पर ज़ोर दिया है। औरत को समाज में नागरिक नहीं माना यहाँ तक कि पुरुष को भी नागरिक नहीं माना। हमारा समाज अभी तक नागरिक समाज बना ही नहीं है। 

    हम लिंग समाज में जी रहे हैं। ' ये औरत है वो मर्द है' की मानसिकता में जी रहे हैं। औरत-मर्द के संबंधों के आधार पर ही एक- दूसरे के बारे में सोचते हैं।हमने अपने संबंधों को नागरिक संबंधों में रुपान्तरित नहीं किया है। आज भी औरतें सबसे ज़्यादा शारीरिक हिंसा की शिकार क्यों हैं? क्योंकि औरत को शरीर या योनि से ज़्यादा हमारा समाज सोचने को तैयार नहीं है। 
    औरत  या योनि देह नहीं नागरिक है। जीवंत मनुष्य है। औरत का समूचा विमर्श अभी भी माँ , बेटी, बहन के सम्बोधनों से बन रहा है। हम औरत को इन सम्बोधनों और इनसे जुड़े सामाजिक संबंधों से परे जाकर देखने को तैयार नहीं हैं। औरत को जब तक हम इन संबंधों में देखेंगे तब तक औरत पर हमले जारी रहेंगे। औरत की अवस्था और भी बदतर होगी। 
     भारत में नया भारत तब बनेगा जब हम नागरिक के रुप में औरत- मर्द को देखेंगे । लिंगाधारित असमान संबंधों को हमने कभी बुनियादी तौर पर बदलने की मुहिम नहीं चलायी। औरत को लिंगाधारित संबंधों के परिप्रेक्ष्य में रखकर देखने से औरत की मातहत की सामाजिक दशा में बदलाव नहीं आएगा। औरत इस परिप्रेक्ष्य में हमेशा पुरुष संदर्भ से ही परिभाषित होती रही है। 
    औरत को माँ,बहन, बेटी के रुप में देखने का अर्थ है उसे पुरुष संदर्भ में देखना। नागरिक के रुप में औरत को देखा जाय इसकी पहली सीढ़ी है कि हम औरत को 'व्यक्ति' के रुप में देना आरंभ करें और क्रमश : 'व्यक्ति'रुप में उसकी सत्ता,महत्ता और अधिकारों को परिभाषित करें। 
        औरत को व्यक्ति के रुप में न देख पाने के कारण ही हम उसे मनुष्य के रुप में भी नहीं देख पाते। वह हमारी चेतना में लिंग होती है या माँ -बहन-बेटी होती है ,इसके अलावा उसकी कोई अवस्था नहीं होती।
      औरतों पर बढ़ रहे शारीरिक हमलों और बलात्कार की घटनाओं का एक अन्य कारण है मर्दानगी का नग्न प्रदर्शन और उसके श्रेष्ठत्व पर ज़ोर। मर्दानगी को हमारे मीडिया से लेकर राजनीति, संस्कृति से लेकर शिक्षा तक, धर्म से लेकर न्याय तक सबने महिमामंडित किया है।मर्दानगी को अपरिहार्य मान लिया गया है। मर्दानगी का हमारे यहाँ जो विकल्प औरतों की महिमा के नाम पर सुझाया जाता है वह भी मर्दानगी के ही लक्षणों को पुष्ट करता है। मर्दानगी का अहर्निश प्रचार- प्रसार हमारे मनोजगत को संचालित करता रहता है। यह हमें स्वाभाविक लगने लगा है।
    सामाजिक विकास के लिए मर्दानगी का महिमामंडन या फिर परंपरागत भावबोध का महिमामंडन इस तरह किया जाता है कि हम स्वतंत्र रुप में औरत की व्यक्ति और नागरिक के रुप में स्थिति को परिभाषित ही नहीं कर पाते। औरत को नागरिक के रुप में हम अभी तक अपने मन में बिठा नहीं पाए हैं। यह हमारे लोकतंत्र की अब तक की सबसे बड़ी त्रासदी है।
     हमने लोकतंत्र में नागरिक की पहचान को अर्जित नहीं किया और न उसके लिए कोई आंतरिक और सामाजिक संघर्ष ही चलाया। हमने मान लिया कि हम नागरिक हैं और हमारा समाज लोकतांत्रिक है। 
     लोकतंत्र या नागरिकबोध प्रदत्त नहीं होता, वह संवैधानिक घोषणाओं के साथ ही हमें नहीं मिल जाता बल्कि उसके लिए सचेत रुप में सामाजिकस्तर पर संघर्ष चलाने की ज़रुरत है। इस काम को हमारे यहाँ अभी तक किसी ने नहीं किया। 
      हमने औरत को शिक्षित बनाया, नया उत्पादक बनाया लेकिन औरत और समाज में नागरिकबोध पैदा नहीं किया। औरत के ऊपरी उपकरण बदले लेकिन उसकी आंतरिक संरचनाएँ पुरानी बनी रहीं। हमें कमाऊ औरत चाहिए लेकिन नए मूल्यबोधवाली नागरिकबोध से युक्त औरत नहीं चाहिए । यही वह बिंदु है जहाँ से औरत के हकों और उसके शरीर पर बराबर हमले हो रहे हैं। 
       औरत को हम क़ानून -व्यवस्था का मसला न मानें। औरतें क़ानून भंजक नहीं हैं।लेकिन औरतें हमारे क़ानूनी मशीनरी की शिकार जरुर हैं। हमारी सारी क़ानूनी मशीनरी और समाज पूरी तरह से औरत को शक की नज़र से देखता है।
    औरतें सुरक्षित रहें इसके लिए ज़रुरी है कि हम उन पर विश्वास करना सीखें । औरत पर शक करना उसका अपमान है। औरत पर शक के कारण ही यह मानसिकता बनी है कि औरत तो पापिन होती है। नागिन होती है। औरत को हमने न तो समाज में सम्मान से देखा और नहीं घर में सम्मान और विश्वास की नज़र से देखा। इसके अलावा औरत के अंदर पुंसवादी मूल्यों और विश्वासों को भी बिठाया गया है। आज वास्तविकता यह है कि औरत का साथ देने को औरत ही तैयार नहीं होती। 
     औरत आज जितनी अकेली और असहाय है उतनी असहाय और कमज़ोर वह पहले कभी नहीं थी। हम औरत को पूँजीवादी उत्पादन संबंधों के परिप्रेक्ष्य में नए सिरे से परिभाषित करें तो चीज़ें ज़्यादा साफ़ नज़र आएँगी। 
    औरत के दो शत्रु हैं । पहला शत्रु है पूँजीवाद और दूसरा शत्रु हैं पितृसत्ता। औरत को मुक्ति हासिल करने के लिए पुंसवाद के ख़िलाफ़ समझौताहीन संघर्ष चलाना होगा। औरत इस संघर्ष में सफलता हासिल करें इसके लिए ज़रुरी है पुरुष भी उसका साथ दें। 
   औरत को संरक्षण के लिए क़ानून चाहिए लेकिन पुंसवादी नज़रिए से रहित। भाई ,पिता,बेटा चाहिए लेकिन पुंसवाद के बिना। औरत को हम औरत रहने दें उसे पुंसवादी साँचे में न ढालें। औरत को पुंसवादी साँचे में ढालने और पुंसवादी नज़रिए से देखने के कारण ही औरत आज सबसे ज़्यादा असहाय और हिंसा की शिकार है।
    हम सब एकजुट होकर पुंसवादी विचारधारा और पुंसवादी मूल्यों का हर स्तर पर विरोध करें। पुंसवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष घर के अंदर और हमारे दिलोदिमाग़ के अंदर चलाने की ज़रुरत है। 
      

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