सन् 1989 से पहले कोलकाता दो बार आया था।एकबार एसएफआई के राष्ट्रीय अधिवेशन के समय और दूसरीबार अपनी शादी के समय।लेकिन कोलकता को समझने का मौका तब ही मिला जब 1989 में कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रवक्ता पद पर नौकरी मिली। उसके बाद ही कोलकाता के हिन्दीभाषी बुद्धिजीवियों और बंगाली बुद्धिजीवियों को करीब से देखने और जानने का मौका मिला।
पहले दो अनुभव बड़े ही शानदार रहे। मैंने एकदिन एक कार्यक्रम के सिलसिले में अभिनेता उत्पल दत्त को फोन किया, मैंने फोन पर उनसे लंबी बातचीत की।मैं बेहद खुश हुआ कि फोन उन्होंने ही उठाया था। मैं चाहता था कि कोलकाता के 300साल होने पर वे बोलें। मेरा प्रस्ताव सुनकर वे बेहद खुश हुए काफी बातें भी कीं,बोले, मैं इनदिनों अस्वस्थ चल रहा हूँ वरना मैं जरुर जाता। उसके बाद मैंने रंगमंच के बड़े अभिनेता अरुण मुखर्जी को फोन किया उनसे मिलने घर गया,लंबी बातचीत हुई,वे कार्यक्रम में आए भी। उनसे बातचीत में पता चला कि उत्पल दत्त और सत्यजित राय दोनों अपना फोन स्वयं उठाते हैं और घर पर आने वाले को दरवाजे तक छोड़ने भी जाते हैं। यह शिष्टाचार बहुत ही अच्छा लगा।
मजा तब आया जब कोलकाता के 300 के कार्यक्रम में विष्णुकांत शास्त्री को अभिनेता अरुण मुखर्जी की तीखी आलोचना का मंच से सामना करना पड़ा। मुझे याद पड़ रहा है शास्त्रीजी के पास अपनी कोई डिफेंस नहीं थी। हिन्दीभाषी और बंगलाभाषी बुद्धिजीवी भिडंत का यह मेरा पहला अनुभव था। अरुण मुखर्जी ने साफ कहा कि हिन्दीभाषी लोग कोलकाता की मुख्यधारा में रहकर भी बंगला संस्कृति और सभ्यता को न तो समझे हैं और और नहीं उनमें आत्मसात्करण की प्रक्रिया नजर आती है। इस क्रम में उन्होंने कहा मैंने बंगला नाटकों के दर्शकों में कभी हिन्दीभाषी नहीं देखे। कभी-कभार इक्का-दुक्का हिन्दीभाषी दर्शक नजर आते हैं।
पहली भिडंत में यह तथ्य सामने आया कि एक साथ रहते हुए भी बंगला रैनेसां का हिन्दीभाषियों पर कोई खास असर नहीं पड़ा है। हिन्दीभाषी लोग यहां कमाने,खाने,मनीआर्डर करने से आगे चेतना विकसित नहीं कर पाए हैं। यह कार्यक्रम कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दीविभाग ने आयोजित किया था।
पहले दो अनुभव बड़े ही शानदार रहे। मैंने एकदिन एक कार्यक्रम के सिलसिले में अभिनेता उत्पल दत्त को फोन किया, मैंने फोन पर उनसे लंबी बातचीत की।मैं बेहद खुश हुआ कि फोन उन्होंने ही उठाया था। मैं चाहता था कि कोलकाता के 300साल होने पर वे बोलें। मेरा प्रस्ताव सुनकर वे बेहद खुश हुए काफी बातें भी कीं,बोले, मैं इनदिनों अस्वस्थ चल रहा हूँ वरना मैं जरुर जाता। उसके बाद मैंने रंगमंच के बड़े अभिनेता अरुण मुखर्जी को फोन किया उनसे मिलने घर गया,लंबी बातचीत हुई,वे कार्यक्रम में आए भी। उनसे बातचीत में पता चला कि उत्पल दत्त और सत्यजित राय दोनों अपना फोन स्वयं उठाते हैं और घर पर आने वाले को दरवाजे तक छोड़ने भी जाते हैं। यह शिष्टाचार बहुत ही अच्छा लगा।
मजा तब आया जब कोलकाता के 300 के कार्यक्रम में विष्णुकांत शास्त्री को अभिनेता अरुण मुखर्जी की तीखी आलोचना का मंच से सामना करना पड़ा। मुझे याद पड़ रहा है शास्त्रीजी के पास अपनी कोई डिफेंस नहीं थी। हिन्दीभाषी और बंगलाभाषी बुद्धिजीवी भिडंत का यह मेरा पहला अनुभव था। अरुण मुखर्जी ने साफ कहा कि हिन्दीभाषी लोग कोलकाता की मुख्यधारा में रहकर भी बंगला संस्कृति और सभ्यता को न तो समझे हैं और और नहीं उनमें आत्मसात्करण की प्रक्रिया नजर आती है। इस क्रम में उन्होंने कहा मैंने बंगला नाटकों के दर्शकों में कभी हिन्दीभाषी नहीं देखे। कभी-कभार इक्का-दुक्का हिन्दीभाषी दर्शक नजर आते हैं।
पहली भिडंत में यह तथ्य सामने आया कि एक साथ रहते हुए भी बंगला रैनेसां का हिन्दीभाषियों पर कोई खास असर नहीं पड़ा है। हिन्दीभाषी लोग यहां कमाने,खाने,मनीआर्डर करने से आगे चेतना विकसित नहीं कर पाए हैं। यह कार्यक्रम कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दीविभाग ने आयोजित किया था।
आपकी इस पोस्ट को ब्लॉग बुलेटिन की आज कि बुलेटिन ब्लॉग बुलेटिन - 75वाँ जन्मदिवस दिवंगत राहुल देव बर्मन ( पंचम दा ) में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंकृपया अपने इस महत्वपूर्ण हिन्दी ब्लॉग को ब्लॉगसेतु http://www.blogsetu.com/ ब्लॉग एग्रीगेटर से जोड़कर हमें कृतार्थ करें …. धन्यवाद सहित
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