इस बार के लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी और भाजपा की जीत हुई है।उसे भारत की जनता ने वोट देकर सत्ता सौंपी है। भाजपा कई राज्यों में पहले भी चुनाव जीतती रही है। इसके पहले एनडीए के नेतृत्व में भाजपा को पहले भी केन्द्र में शासन करने का मौका मिला है। समस्या भाजपा की जीत की नहीं है ,फिलहाल मूल समस्या यह है जनता को कैसे देखें ?
जनता कोई बुद्धिहीन और विचारधाराहीन आधारों पर न तो जीती है और नहीं वोट देती है। जनता की भी अपनी विचारधारा है। यह कहना सही नहीं है कि जनता की कोई विचारधारा नहीं होती। जनता मात्र वोटबैंक नहीं है कि परेशान हुई और वोट दे आयी। जनता को अमूर्त और विचारधाराहीन मानना सही नहीं है। जो लोग जनता की चेतना में व्याप्त विचारधाराओं को नहीं देखते वे यथार्थ देखने का विभ्रम खड़ा करते हैं।
सच यह है कि जनता में आधुनिक वैज्ञानिक विचारधाराओं के प्रचार-प्रसार की हमने कोशिश ही नहीं की। हमने यह मान लिया कि जनता महान है और उसके वोट से जीतने वाले नेता उससे भी महान हैं। जनता और चुने हुए प्रतिनिधियों की विचारधारा को देखने का यह तरीका सबसे खतरनाक और सब्जेक्टिव है।
लंबे समय तक जनता इस तरह के नेताओं को चुनती रही जिनके अंदर लोकतांत्रिक मूल्यों और वैज्ञानिक नजरिए को लेकर गहरी आस्थाएं थीं लेकिन इससे जनता स्वतःही लोकतांत्रिक नहीं हो गयी। हमें देखना चाहिए आम जनता की चेतना में आज भी सभी रंगत की पूर्व-आधुनिक मान्यताएं और मूल्य घर किए हुए हैं। नेता वोट पाते रहे और हम जनता की भूरि-भूरि प्रशंसा करते रहे। जनता के बुरे और घटिया मूल्यों को लेकर न तो नेहरु ने कोई बड़ी मुहिम चलायी और न जयप्रकाश नारायण ने मुहिम चलायी,न भाजपा ने सोचा और न कांग्रेस ने सोचा। इन सबके लिए जनता महान थी,उसमें कोई दोष नहीं था। निर्दोष और मूल्यवान जनता का इन दलों और राजनेताओं का राजनीतिक भावबोध हम सभी के मन में स्टीरियोटाइप की तरह जड़ें जमाए बैठा है।
भारत को जनतांत्रिक देश बनाने के लिए नेता,राजनीतिकदलों और संगठनों की विचारधारा के मूल्यांकन के साथ साथ जनता में व्याप्त विचारधाराओं की भी समय समय पर समीक्षा की जानी चाहिए।
सच यह है आम जनता के एक हिस्से में साम्प्रदायिक विचारधारा का गहरा असर है और इस साम्प्रदायिक चेतना का साम्प्रदायिक राजनीतिक दल समय समय पर लाभ उठाते रहे हैं और जनता उनको नियमित वोट भी देती रही है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आम जनता का एक ठोस अंश है जो भाजपा और इसी तरह के दलों को नियमित वोट देता रहा है।ये वे वोटर हैं जो विचारधारात्मक प्रतिबद्धता के आधार पर वोट देते रहे हैं। ये चंचल वोटर नहीं हैं जो आज भाजपा के साथ तो कल किसी और के साथ चले जाएं।चंचल वोटरों का क श है जो समय-समय पर विभिन्न दलों के साथ जुड़ता और टूटता है। ऐसा समूह भाजपा के साथ भी है।लेकिन भाजपा के अधिकांश वोटर वैचारिकतौर पर भाजपा से जुड़े हैं।
चंचल वोटर की सामयिक समस्याओं को लेकर प्राथमिकताएं बदलती रहती हैं और उसी आधार पर वह अपने वोट की प्राथमिकता भी बदल देता है। लेकिन वोटरों में एक वोटर है जो स्थिरभाव से जुड़ा रहता है यह प्रतिबद्ध वोटर है। भाजपा के पास प्रतिबद्ध वोटर की संख्या निरंतर बढ रही है। इससे यह पता चलता है कि भाजपा अपने साम्प्रदायिक प्रचार के जरिए जनता के एक अंश को वैचारिकतौर पर निरंतर जोड़े रखने में सफल रही है। ऐसी अवस्था में इस जनता को साम्प्रदायिक कहने से हमारे लेखक-बुद्धिजीवी परहेज क्यों कर रहे हैं ? जब जनता में जातिवादी को रेखांकित कर सकते हैं तो साम्प्रदायिक या आतंकी मनोभाव को रेखांकित क्यों नहीं कर सकते।
जनता शुद्ध नहीं होती। जनता महज जनता नहीं होती। जनता महान भी नहीं होती। जनता के पास दिलोदिमाग है। उसके जीवन के व्यापक अनुभव हैं,परंपराएं हैं और मूल्य भी हैं,जिनके आधार भी जनता के मूल्यबोध और वैचारिकतंत्र का निर्माण होता है।इसलिए जनता को हमें विचारधाराहीन नहीं समझना चाहिए।
हमने एक सुविधा का शास्त्र बनाया है हम साम्प्रदायिकता की आलोचना करेंगे, यानी प्रवृत्ति की आलोचना करेंगे लेकिन इस प्रवृत्ति की वाहक जनता की आलोचना नहीं करेंगे। हम जातिवाद की आलोचना करेंगे लेकिन इस जातिवाद के वाहक व्यक्ति या समूहों की आलोचना नहीं करेंगे। हमें दोनों ही स्तरों पर यह आलोचना विकसित करनी होगी। हमें प्रवृत्ति और व्यक्ति,प्रवृत्ति और समूह या समुदाय आदि के अन्तस्संबंधों को भी देखना होगा और उसे रेखांकित करके आलोचना करने का जोखिम उठाना होगा। वरना तो यही होगा जनता सही और नेता गलत। हमें यह कहने की आदत विकसित करनी होगी,नेता गलत है तो उसको वोट देने वाले भी गलत हैं।
आलोचना के केन्द्र में जनता के न रहने का दुष्परिणाम यह निकला है कि जनता के प्रति अनालोचनात्मक भावबोध पैदा हुआ है। इसने जनता में तमाम किस्म की अप्रासंगिक विचारधाराओं को बनाए रखने में मदद की है। जनता को हमें अनालोचनात्मक और पूजाभाव से देखना बंद करना चाहिए और जनता के विभिन्न स्तरों और समूहों में व्याप्त वैचारिक रुपों की बार-बार समीक्षा करनी चाहिए।
हम जानते हैं जनता अच्छी भी होती है और बुरी भी होती है।यह कैसे हो सकता है कि जनता सिर्फ अच्छी होती है। यदि जनता अच्छी होती है तो फिर समाज में इतनी अप्रासंगिक विचारधाराएं और जीवन मूल्य वर्चस्व क्यों जमाए हुए हैं ?लोकतंत्र की बेहतरी के लिए हम जनता को पूजना बंद करें। जनता का विवेक पूजन से नहीं आलोचनात्मक विवेक और मूल्यांकन के प्रचार-प्रसार से आगे बढ़ता है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें