रविवार, 29 जून 2014

कोलकाताचेतना नया फिनोमिना


       मैंने 1989 में कलकत्ता विश्वविद्यालय में नौकरी ली और वहां पढ़ाने गया तो दो-तीन दिन बाद स्टाफरुम में जेएनयू के दो पुराने मित्रों से मुलाकात हुई,एक राजनीतिविज्ञान में प्रवक्ता थे और दूसरे विज्ञान में। वे दोनों मिलकर बड़े खुश हुए ,लेकिन तत्काल बोले तुम दिल्ली छोड़कर यहां क्यों आए नौकरी करने ? कोलकाता कोई अच्छी जगह नहीं है। मेरे लिए उनका कथन चौंकाने वाला था।

दूसरी घटना यह घटी कि कोलकाता के दो स्वनाम धन्य हिन्दी शिक्षकों ने मेरे खिलाफ परिचय हुए बिना मोर्चा खोल दिया और रोज अखबारों में मेरे खिलाफ लिखाना आरंभ कर दिया । मेरे खिलाफ रोज एक नयी गॉसिप वे तैयार करके सप्लाई करते। उनके गॉसिप अभियान ने रंग दिखाया और आनंद बाजार पत्रिका से लेकर संडे मेल तक,यहां तक कि स्थानीय हिन्दी अखबारों में भी मेरा इन दो स्वनाम धन्य हिन्दी शिक्षकों ने यश फैला दिया। मजेदार बात थी कि ये दोनों शिक्षक मुझसे नियमित मिलते भी थे और सामने प्रशंसा करते पीछे से चुगली और निंदा करते। इस समूचे प्रकरण ने मुझे पश्चिम बंगाल के हिन्दीभाषी और बंगलाभाषी बुद्धिजीवियों को समझने के अनेक सूत्र दिए।

इस राज्य में हिन्दीभाषीचेतना मूलतः व्यक्तित्वहीनचेतना है। जिसकी अभिव्यंजना उन दो शिक्षकों में मिलती है जिनका मैंने जिक्र किया। विलक्षण बात है हिन्दीभाषी यहां व्यक्तित्व निर्माण नहीं कर पाए, अपनी अस्मिता का निर्माण नहीं कर पाए। बंगाली जाति अपनी अस्मिता बचाने के लिए जंग कर रही थी। अस्मिता के ह्रास और अभाव को इस तरह हिन्दीभाषी और बंगाली एक-दूसरे के पूरक की तरह झेल रहे थे।

जिन दो बंगाली शिक्षकों ने मेरे कोलकाता आने पर आश्चर्य व्यक्त किया था वे यह मान चुके थे कि कोलकाता एक चुका हुआ शहर है। इसमें विकास की संभावनाएं खत्म हो चुकी हैं। मैं उस समय वामचिंतन के असर में था लेकिन शहर और विश्वविद्यालय की दशा के साथ माकपा के नेताओं और खासकर शिक्षक नेताओं के रवैय्ये को देखकर अपने नजरिए को बदलने को मजबूर हुआ।

मैं जब कोलकाता आया था तो इस शहर का ह्रासकाल आरंभ हो गया था। शहर के ह्रासकाल में बुद्धिजीवियों .या फिर कहें मध्यवर्ग के लोगों में सबसे पहले भगदड़ मचती है ,वे नए शहरों की ओर भागते हैं। ह्रास के इस दौर में पहले मध्यवर्ग ने भागना आरंभ किया फिर गांवों से पलायन आरंभ हुआ।

वामशासन की विचारधारा आम जनता में स्थानीय मोह पैदा करने की बजाय स्थानीय अलगाव पैदा करने में सफल रही। वाम विचारधारा से स्थानीय अलगाव पैदा होता है यह बात मैंने यहीं पर आकर सीखी। मजेदार बात है कि जो वाम के साथ है वो ही बाहर जाने की कोशिश कर रहा है। जो वाम राजनीति कर रहा है वही कह रहा है चीजें बदल रही हैं,अपना राज्य अच्छा नहीं लग रहा। यहीं पर आकर मैंने कोलकाताचेतना के दर्शन किए इसे मैं पश्चिम बंगाल के लिए सबसे खतरनाक चेतना मानता हूँ।

कोलकाताचेतना के कारण ही जो बंगाली जाति एक जमाने में इस राज्य पर गर्व करती थी वही अब गर्व नहीं करती। वामशासन के बाद पश्चिम बंगाल के स्वाभिमान और आत्मनिर्भर भावबोध का क्षय हुआ और एक विलोम तैयार हुआ वह है कोलकाताचेतना। इस चेतना के लोग अब बाहर जाने के बाद कोलकाता लौटना नहीं चाहते। जो व्यक्ति एकबार यहां से निकल गया वह लौटकर वापस यहां आना नहीं चाहता। अपनी जमीन, अपने शहर, अपने परिवेश,अपनी भाषा,अपनी संस्कृति आदि से अलगाव कोलकाताचेतना की विशेषता है। बंगाली जाति को इस चेतना ने सामाजिक की बजाय व्यक्तिकेन्द्रित बना दिया। अब बंगाली जाति सामूहिक भावबोध की बजाय व्यक्तिगत भावबोध में डूब गयी। उनके लिए पश्चिम बंगाल रहने की नहीं कभी-कभार पर्यटन की जगह होकर रह गया। वामशासन के बाद कोलकाता में ही नहीं समूचे बंगाल में बुनियादी बदलाव आया उसने समूचे राज्य को देश के अन्यान्य क्षेत्रों में जाने के लिए मजबूर कर दिया। विकास की संभावनाएं खत्म होती चली गयीं उसके कारण मध्यवर्ग की आशाएं भी स्थानान्तरित होती चली गयीं।



पश्चिम बंगाल में वामशासन 1977 में आया उसके बाद चीजें तेजी से बदलीं इनमें सबसे बड़ी चीज बदली वह थी पश्चिम बंगाल की आत्मनिर्भरभावना। वाम के पहले यह राज्य आत्मनिर्भर राज्य था,वामशासन में आत्मनिर्भर भावबोध का चौतरफा ह्रास हुआ। आत्मनिर्भरता के अवसर इस शहर में कम होते गए। बाहर से आने वाले लोगों की संख्या कम होती गयी और बाहर जाने वाले लोगों की संख्या बढ़ती गयी।जो यहां रह गए उनमें सकारात्मक भावबोध की बजाय कुंठा-हताशा का विस्तार होता गया,उसका ही दुष्परिणाम है कि आज पश्चिम बंगाल सबसे ज्यादा निराशा में डूबा हुआ राज्य है। वाम आंदोलन,आक्रामक मार्क्सवाद,संगठनबद्ध समाज ने एक खास किस्म की घेरेबंदी आरंभ की जिसके कारण जो घेरे में है वह जीवित है जो घेरे के बाहर है वह परेशान है और भागने की तैयारी में है।

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