वे नशे की दुनिया में ले जा रहे हैं। वे हमें मनोरंजन-ज्ञान-राजनीति आदि कुछ इस तरह खिला-पिला रहे हैं कि हम चटखोर हो गए हैं ,उनके दिए को पाने को तरसते हैं। वे हमें जालिम बना रहे हैं, और हमें समझा रहे हैं कि वे आदमी बना रहे हैं। जबकि वे हमें निठल्ला बना रहे हैं, उपभोक्ता बना रहे हैं।कह रहे हैं हुनरमंद ,कौशलपूर्ण,तकनीकी गुरों में मास्टर बना रहे हैं।
हम खुश हैं कि हम हुनरमंद बन रहे हैं,कंज्यूमर बन रहे हैं, हम खुश हैं कि हम किसी संगठन में नहीं हैं, हम खुश हैं कि हमने मार्क्सवाद से पल्ला झाड़ लिया है, मजदूरों के संगठनों और नेताओं से दूरी बना लीहै, हम खुश हैं कि हमारे देश में कम्युनिस्ट खत्म होते जा रहे हैं, हम खुश हैं कि परिवर्तन की लडाई अब बेमानी और बेअसर हो गयी है। हम खुश हैं कि हमने विकासदर के लक्ष्य हासिल करने शुरु कर दिए हैं, हम खुश हैं सेंसेक्स उछल रहा है लुढ़क रहा है।हम खुश हैं कि हमारा पीएम लिखा भाषण नहीं पढ़ता, हिन्दी में बोलता है,दहाड़ता है, हम खुश हैं कि उसका सीना 56 इंच का है।
लेकिन हम भूलते जा रहे हैं कि वे हमें कातिलों का बाराती बना रहे हैं। वे हमें कातिल बनने की कला सिखा रहे हैं। जी हां, सच मानिए हम-आप सब कातिल बनने की कला सीख रहे हैं और कातिलों के कातिबों के चेले बन गए हैं। मेरी बात को आप हँसकर मत उडाइए। वे बहुत सुनियोजित ढ़ंग से हमें संगठन मात्र से घृणा करना सिखा रहे हैं, वे हमें संगठित होकर प्रतिवाद करने की मनोदशा से दूर ले जा रहे हैं, मेरा मानना है संगठन बनाने की प्रक्रिया से दूर ले जाने के सारे प्रयास अंततःकातिल बनाने की साजिश का हिस्सा हैं।
हममें से अधिकांश लोग बहुत ही सहज भाव से लोकतांत्रिक संगठनों के प्रति अपनी घृणा और बेरुखी का इजहार कर रहे हैं। मजदूरों,किसानों ,दलितों,आदिवासियों के संगठनों और उनके संघर्षों के खिलाफ कही गयी बातों को बड़ी आसानी से मान लेते हैं, उन बातों पर यकीन करने लगते हैं, इस सबका परिणाम यह निकला है कि हम कातिलों के बाराती बनकर रह गए हैं। कातिलों के बाराती कभी कल्याण नहीं कर सकते। कातिलों के बाराती तो कत्ल ही करेंगे और कत्ल करने का ही हुनर सिखाएंगे। कत्ल होने पर ताली बजाएंगे या फिर दर्शक की तरह आनंद लेंगे। हमें कोई बैचैनी नहीं हुई कि नर्मदा बाँध की ऊँचाई बढ़ाने से लाखों लोग उजड़ जाएंगे, हमें कहीं कोई टीवी बाइटस नजर नहीं आई इसके खिलाफ,असल में हमें अच्छा कातिल बनाया जा रहा है, पहले से बेहतर कातिल बनाया जा रहा है।
दुख इस बात का है हमने कातिल को ही अपना संरक्षक बना लिया है। हम पर कोई विपत्ति आती है तो हम अपने लोकतांत्रिक संगठनों के पास नहीं जाते प्रतिवाद संगठित नहीं करते अपितु कातिलों के दरवाजों पर गुहार लगाने जाते हैं।
कातिलों से दया की गुहार लगाकर आप देश नहीं बदल सकते। कातिलों से खैरात लेकर अपना सामाजिक दर्जा ऊँचा नहीं बना सकते। कातिलों की सिफारिश से आप न्याय के मानक नहीं बना सकते। कातिल के पास जाने का अर्थ सिर्फ स्वार्थ सिद्धि ही नहीं है बल्कि कातिल बनना भी है। आप ही सोचें कि आपने अपने जीवन में कातिलों से मेल-मोहब्बत-मुलाकात कितनी की है और जनता के संगठनकर्ताओं के साथ कितनीबार मिले हैं। तकलीफ तब होती है जब ईमानदार को भी आप कातिलों का बाराती बनाने का काम करने लगते हैं।
यह सच है आपको वर्गसंघर्ष से नफरत है, मार्क्सवाद से नफरत है और आपके पास इनलोगों से नफरत के हजारों किस्से-कहानियां हैं। यह भी सच है इनमें से अनेक किस्से सच भी हैं लेकिन इससे भी बड़ा सच है कि हमें इस समाज को कातिलों से बचाना है और यह काम कातिलों का बाराती बनकर संभव नहीं है। यह काम संगठन करने वालों से नफरत करके संभव नहीं है।
जो लोग समाज में संगठन बनाने का काम कर रहे हैं और खासकर लोकतांत्रिक संगठन बनाने का काम कर रहे हैं वे ही असल में देश निर्माण का काम कर रहे हैं। देश का मतलब है जनता को संगठित करो, लोकतांत्रिक चेतना से लैस करो।अधिकारों के प्रति उसे सचेत करो। देश का मतलब सड़कें-भवन,ताकतवर नेता नहीं है। देश का मतलब है जनता की उन्नतचेतना।जनता की एकता और सामाजिक-राजनीतिक उसूलों की रक्षा करने की त्याग भावना। हमने ऐसा समाज बनाया है जिसमें त्याग करके जीने वाले को बेबकूफ और तिकड़मी-धूर्त-जालसाज को अक्लमंद माना जाता है। हमारे समाज में ईमानदार आदर्श नहीं हैबल्कि येन-केन-प्रकारण अपना काम साधने वाला अक्लमंद माना जाता है उसे ही हम सफल व्यक्ति मानते हैं। जो सफल है वही महान है। असल में यह धारणा बुनियादी तौर पर गलत है। यह धारणा मानवता विरोधी है।
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