आज गंगा दशहरा है । दशहरा आते ही तरुणाई के दिन याद आते हैं। तरुणाई इसलिए भी याद आती है क्योंकि सारे दिन पतंगें उडाया करते थे। दशहरा आने के तकरीबन डेढ़ माह पहले से ही पतंगों का दौर शुरु हो जाता था। मथुरा में अपने जीवन के सबसे सुंदर और आनंद भरे दिन वे ही थे जो तरुणाई के दिन थे। 15 साल की उम्र से लेकर 20साल के बीच के पांच साल बहुत ही आनंद के थे।
मथुरा में शायद ही कोई पतंग बेचने वाला हो जिससे पतंग,माजा और सादा डोर की बडी मात्रा में खरीद न की हो। पतंगबाजी के चक्कर में सभी बेहतरीन पतंगबाजों और पतंग का सामान बेचने वाले मुश्लिम दुकानदारों के साथ मित्रता हो गयी। यह उम्र इसलिए भी याद आती है क्योंकि पतंगबाजी का सारा खर्चा माँ और दादी वहन करती थी।
गंगा दशहरे के दिन सुबह पांच बजे से पतंगों के पेच शुरु हो जाते थे और वे सारे दिन चलते थे। कमाल की गर्मी सहन करने की क्षमता थी उन दिनों। सारे दिन छत पर तपती दोपहरी में पतंगों में व्यस्त रहता था। हर छत पर मित्रगण पतंगें उडाते और हंगामा करते थे।
पतंगों का शौक बेहद सर्जनात्मक शौक है। इधर के युवाओं में इस शौक का ह्रास हुआ है। लेकिन हमलोगों के जमाने में तरुणों का यह सबसे बढ़िया पासटाइम शौक हुआ करता था। सारी गर्मी और बरसात का सीजन पतंगों में व्यस्त रहते थे।
पतंगें हमें कल्पनाशील बनाती हैं और मन को निर्विकार भी बनाती हैं। पतंगबाजी में मशगूल तमाम मित्रों को मैंने कुण्ठारहित और आनंद में देखा है। यह ऐसा शौक है जो सदियों से चला आ रहा है। जो लोग युवाओं के लिए क्रिएटिव क्षेत्र खोजते रहते हैं उनके लिए यह बेहतरीन विकल्प हो सकता है।
पतंगें हमारी प्रतिस्पर्धा की क्षमता को शमित करती हैं। वहां पाना महत्वपूर्ण नहीं खोना महत्वपूर्ण है। पतंगबाजी में पेच लडाना महत्वपूर्ण है। पतंग किसी न किसी की तो कटेगी। पतंगबाजी में भी पतंग और डोर लूटने का मजा ही कुछ और है।
मार्च से जुलाई तक पतंगों के लंबे-लंबे पेच देखना और दूसरे की छतों या यमुना पार मैदान में नदी किनारे जाकर डोर लूटना और कटी पतंग को लूटना कौशलपूर्ण मेहनत का काम हुआ करता था। इन दिनों लोग पतंगें तो उडाते हैं लेकिन कटी पतंग और डोर लूटने का काम नहीं करते।
मैं अपने जीवन में 15 से बीस साल के बीच की अवधि में पांच साल तक पतंगों के हर साल टूर्नामेंट करने और उनमें अन्य टीमोॆं को भाग लेने के लिए प्रेरित करने का काम बडे मन से करता था। नंदलाल -बसंतलाल जिनको प्यार से नंदो-बसंतो कहते थे,ये दो हमारी टीम के मेम्बर थे।
उन दिनों हर साल मथुरा के महाविद्या के मैदान में पतंगोॆ का टूर्नामेंट होता था जिसमें बरेली,मुरादाबाद,बरेली मथुरा, अलीगढ़ ,हाथरस मथुरा और लखनऊ के सभी बडे पतंगबाज टीम के साथ शामिल होते थे। कईबार यह टूर्नीामेंट कई दिनों तक चला। सुबह से शाम तक पेच होते थे। प्रत्येक टीम को दस -दस पतंगें लडाने का मौका मिलता था। एक साथ कई टीमों के पेच होते रहते थे और उस टूर्नामेंट को देखने के लिए शहर से बड़ी संख्या में युवाओं की भीड़ मैदान में टीलों पर बैठी आनंद लेती रहती थी।
मथुरा में शायद ही कोई पतंग बेचने वाला हो जिससे पतंग,माजा और सादा डोर की बडी मात्रा में खरीद न की हो। पतंगबाजी के चक्कर में सभी बेहतरीन पतंगबाजों और पतंग का सामान बेचने वाले मुश्लिम दुकानदारों के साथ मित्रता हो गयी। यह उम्र इसलिए भी याद आती है क्योंकि पतंगबाजी का सारा खर्चा माँ और दादी वहन करती थी।
गंगा दशहरे के दिन सुबह पांच बजे से पतंगों के पेच शुरु हो जाते थे और वे सारे दिन चलते थे। कमाल की गर्मी सहन करने की क्षमता थी उन दिनों। सारे दिन छत पर तपती दोपहरी में पतंगों में व्यस्त रहता था। हर छत पर मित्रगण पतंगें उडाते और हंगामा करते थे।
पतंगों का शौक बेहद सर्जनात्मक शौक है। इधर के युवाओं में इस शौक का ह्रास हुआ है। लेकिन हमलोगों के जमाने में तरुणों का यह सबसे बढ़िया पासटाइम शौक हुआ करता था। सारी गर्मी और बरसात का सीजन पतंगों में व्यस्त रहते थे।
पतंगें हमें कल्पनाशील बनाती हैं और मन को निर्विकार भी बनाती हैं। पतंगबाजी में मशगूल तमाम मित्रों को मैंने कुण्ठारहित और आनंद में देखा है। यह ऐसा शौक है जो सदियों से चला आ रहा है। जो लोग युवाओं के लिए क्रिएटिव क्षेत्र खोजते रहते हैं उनके लिए यह बेहतरीन विकल्प हो सकता है।
पतंगें हमारी प्रतिस्पर्धा की क्षमता को शमित करती हैं। वहां पाना महत्वपूर्ण नहीं खोना महत्वपूर्ण है। पतंगबाजी में पेच लडाना महत्वपूर्ण है। पतंग किसी न किसी की तो कटेगी। पतंगबाजी में भी पतंग और डोर लूटने का मजा ही कुछ और है।
मार्च से जुलाई तक पतंगों के लंबे-लंबे पेच देखना और दूसरे की छतों या यमुना पार मैदान में नदी किनारे जाकर डोर लूटना और कटी पतंग को लूटना कौशलपूर्ण मेहनत का काम हुआ करता था। इन दिनों लोग पतंगें तो उडाते हैं लेकिन कटी पतंग और डोर लूटने का काम नहीं करते।
मैं अपने जीवन में 15 से बीस साल के बीच की अवधि में पांच साल तक पतंगों के हर साल टूर्नामेंट करने और उनमें अन्य टीमोॆं को भाग लेने के लिए प्रेरित करने का काम बडे मन से करता था। नंदलाल -बसंतलाल जिनको प्यार से नंदो-बसंतो कहते थे,ये दो हमारी टीम के मेम्बर थे।
उन दिनों हर साल मथुरा के महाविद्या के मैदान में पतंगोॆ का टूर्नामेंट होता था जिसमें बरेली,मुरादाबाद,बरेली मथुरा, अलीगढ़ ,हाथरस मथुरा और लखनऊ के सभी बडे पतंगबाज टीम के साथ शामिल होते थे। कईबार यह टूर्नीामेंट कई दिनों तक चला। सुबह से शाम तक पेच होते थे। प्रत्येक टीम को दस -दस पतंगें लडाने का मौका मिलता था। एक साथ कई टीमों के पेच होते रहते थे और उस टूर्नामेंट को देखने के लिए शहर से बड़ी संख्या में युवाओं की भीड़ मैदान में टीलों पर बैठी आनंद लेती रहती थी।
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