हमारे देश में लोग बदमाश से नहीं डरते ।बल्कि बदमाशों के साथ रहते हैं। दंगाई से नफरत नहीं करते बल्कि उसको वोट देते हैं और पूजा करते हैं। हमारे देश में पत्थर की मूर्तियों से दूर नहीं रहते बल्कि उनकी रोज पूजा करते हैं। उनको घर में रखते हैं।सम्मान करते हैं। हमारे देश में लोग जिस चीज से डरते हैं वह है सभ्यता।
सभ्यता और सभ्य आदमी से लोग डरते हैं। सभ्य को मित्र नहीं बनाते असभ्य को मित्र बनाते हैं। ईमानदार से दूर रहते हैं,धूर्त-चालाक और बेईमान के साथ गलबहियां देकर रहते हैं। औरत के साथ विवाह करते हैं,बेटी की तरह पैदा करते हैं,माँ की तरह मानते हैं, लेकिन औरतों के साथ सबसे ज्यादा हिंसाचार करते हैं। हिंसा और असभ्यता के माहौल को हमारे देखकर यही महसूस होता है कि हमारे देश में सभ्य होना गाली है !
सवाल यह है सभ्य से हम क्यों दामन छुडाना चाहते हैं ? सभ्य होना क्या बुरी बात है ? सभ्य क्या सक्षम नहीं होते ? फेसबुक और सामाजिक जीवन में असभ्यता का जो वैभव दिखाई देता है वह बार बार यही संदेश देता है कि सभ्य होना सही नहीं है! असभ्य रहो,मजे में रहो!
सभ्यता की मांग है कि विवेकवाद अर्जित करें। हमारे यहां उल्टी हवा चल रही है। इरेशनल या विवेकहीन बातों को तवज्जह दी जाती है। नॉनशेंस की पूजा की जाती है। इरेशनल से बड़ा असभ्यता का कोई रुप नहीं है। हम भारतवासी जितनी ऊर्जा नॉनसेंस चीजों पर खर्च करते हैं उसका आधा वक्त भी विवेकवादी और सभ्य चीजों पर खर्च करें तो भारत सोने की चिडिया हो जाय।
फिलहाल स्थिति यह है किभारत में चिडियाएं भी रहना पसंद नहीं करतीं, वे भी कम हो रही हैं। मौसम बिगडा हुआ है। हम हैं कि विवेक से काम लेने की बजायभगवान की कृपा का इंतजार कर रहे हैं। प्रकृति और पर्यावरण के साथ विवेकपूर्ण संबंध बनाएं तो चीजें सुधर सकती हैं। हमने प्रकृति और पर्यावरण के साथ विवेकपूर्ण संबंध नहीं बनाया है बल्कि केजुअल संबंध बनाया है। उपभोग का संबंध बनाया है।
हम कितने सभ्य हैं और कितने असभ्य हैं ? इसका कोई सटीक मानक बनाना तो संभव नहीं है लेकिन यह तय है कि सभ्यता वंशानुगत नहीं होती,उसे अर्जित करना पड़ताहै। हमारी मानसिकता यह है कि हम अर्जित करने के लिए श्रम नहीं करना चाहते। हम चाहते हैं कि कोई ऐसा फार्मूला हो जो हमें घर बैठे सभ्य बना दे। हमें यह भी सिखाया गया है कि फलां-फलां वस्तुएं घर में हों तो सभ्यता घर में दाखिल हो जाती है। वस्तुएं के जरिए सभ्य कहलाने की आशा मृगतृष्णा है।
वस्तुएं सभ्य नहीं बनातीं। सभ्य बनने के लिए पहली शर्त है कि हम यह मानें कि निज को बदलेंगे और सचेत रुप से बदलेंगे। सभ्य वह है जो निज को और अन्य को प्यार करना जानता है।जिसके मन में अन्य के लिए जगह नहीं है वह सभ्य नहीं हो सकता। जब तक आप निजी जंजालों में फंसे रहेंगे सभ्य नहीं बन सकते। निजी जंजालों के बाहर निकलकर सामाजिक होने, अन्य के प्रति निजी सरोकारों को व्यक्त करने से सभ्यता का विकास होता है।अपने लिए न पढ़कर,देश के लिए पढ़ना, अपने लिए न लिखकर अन्य के मसलों और जीवन की समस्याओं पर लिखना, हर क्षण अन्य की चिन्ताओं को अपनी चिन्ताएं बनाने से सभ्यता का विकास होता है।
सभ्य बनने के लिए अपने से बाहर निकलकर झांकने की कला विकसित करनी चाहिए। निहित-स्वार्थों में डूबे रहना और अनालोचनात्मक ढ़ंग से चीजों, वस्तुओं,व्यक्तियों और विचारों को देखने से सभ्यता का विकास बाधित होता है।
सभ्यता के विकास के लिए जरुरी है कि हम चीजों को व्यापक फलक पर रखकर देखने का नजरिया विकसित करें। सभ्य वह है जिसके पास व्यापक फलक में रखकर देखने का नजरिया है। आप जितना व्यापक फलक रखकर देखेंगे वस्तुएं,घटनाएं आदि उतनी ही साफ नजर आएंगी। हम बौने क्यों हो गए क्योंकि हमने दुनिया को देखने का फलक छोटा कर लिया। हम अनुदार क्यों हुए क्यों कि हमारी समझ निजी दृष्टि से आगे बढ़ नहीं पायी। हमें निजी दृष्टिकोण की नहीं विश्वदृष्टिकोण की जरुरत है।सभ्यता हमें विश्व दृष्टिकोण से देखने के लिए प्रेरित करती है। विश्व दृष्टिकोण के आधार पर देखने के कारण हम अनेक किस्म की सीमाओं और कट्टरताओं से सहज ही मुक्त हो सकते हैं।
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