शनिवार, 14 जून 2014

आँसू क्यों निकलते हैं ?


      कुछ लोगों के लिए आँसू नाटक हैं तो कुछ लोगों के लिए परम सत्य हैं। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि आंसू पीड़ा की अभिव्यक्ति हैं। असल में आंसू बहुअर्थी होते हैं। वे अन्य चीजों के साथ स्नायविक कमजोरी की अभिव्यक्ति होते हैं। जो लोग स्नायविक तौर पर मजबूत होते हैं वे जल्दी नहीं रोते लेकिन जो स्नायविक दुर्बलता के लक्षणों से ग्रस्त होते हैं उनके जल्द ही किसी भी बात पर आंसू निकल पड़ते हैं। आम धारणा है पुरुष कम आंसू बहाते हैं लेकिन जो स्नायविक दुर्बलता के शिकार हैं वे खूब रोते हैं। लेकिन जिस औरत में स्नायविक नियंत्रण की क्षमता होती है उसका अपने आंसुओं पर भी नियंत्रण होता है। औरत जब आंसुओं से प्रतिवाद नहीं कर पाती तब वह असंगत हिंसा और उन्माद का सहारा लेती है।

औरत या मर्द के आंसू नकली हैं या असली हैं। यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण सवाल यह है कि आंसुओं का सागर सदियों से बहता चला आ रहा है,इस सागर में आत्मगतता कम हुई है या बढ़ी है ? औरत पहले की तुलना में आज ज्यादा आंसू बहाती है या पहले ज्यादा बहाती थी ? क्या आंसू सर्जनात्मक क्षमता का अपव्यय हैं ? आंसू जब निकलते हैं तो वे शीतलता देते हैं या और ज्यादा अशांत कर देते हैं ? आंसू औरत को विनम्र बनाते हैं या उग्र बनाते हैं ? आंसू उसके भावों को सीधे सम्प्रेषित करते हैं या उसके विषाद को गहरा बनाते हैं ? आंसुओं में डूब जाने के बाद औरत शिथिल हो जाती है लेकिन कुछसमय बाद फिर से ऊर्जस्वित होकर सहजभाव से सक्रिय हो उठती है। यह भी सोचें कि आंसू उसके सामाजिक अलगाव को कम करते हैं या बढ़ाते हैं ?

आंसुओं पर दयाभाव से नहीं वस्तुगत मानवीय भाव से विवेकवादी नजरिए से सोचना चाहिए। आंसुओं की खूबी है कि वे विवेक को धुंधला बनाते हैं। आत्मगत अनुभूतियों को सघन बनाते हैं। आंसुओं पर अविश्वास नहीं करना चाहिए और नहीं उनको नकारात्मक नजरिए से देखना चाहिए। बल्कि रेशनल या विवेकवादी नजरिए से देखना चाहिए।

कोई व्यक्ति जब विवेकवादी नजरिए से बोल नहीं पाता या सोच नहीं पाता तो आंसू निकलते हैं। आंसू गम ,खुशी,आनंद,अवसाद सबमें निकल पड़ते हैं, वे रोकने पर भी नहीं रुकते। मुश्किल यह भी है कि हमने आंसुओं को दुख का पर्याय़ बना दिया है।अमूमन आंसुओं का दुख से कम संबंध होता है।अधिकतर मामलों में अभिव्यक्ति की असमर्थता के कारण आंसू निकल पड़ते हैं। मैं निजी तौर पर यह परिस्थिति अनेकबार झेल चुका हूँ। आंसू कोई औरत की खास विशेषता नहीं है। वे पुरुषों के भी निकलते हैं और खूब निकलते हैं।

आंसुओं का नैतिकता,पाप-पुण्य आदि से कोई संबंध नहीं है। आंसू असल में मानवीय अभिव्यक्ति का एक आदिम प्रकार है। मनुष्य जिस तरह अपनी अभिव्यक्ति के लिए भाषा का इस्तेमाल करता है, भाव-भंगिमाओं का इस्तेमाल करता है। वैसे ही वह आंसुओं का भी इस्तेमाल करता है। आंसू वस्तुतः अभिव्यक्ति का एक रुप है। इसका लिंगविशेष से कोई संबंध नहीं है। यह प्राणीमात्र की विशेषता है। मैंने पशुओं को भी आंसू बहाते देखा है।



कहने का तात्पर्य यह है कि आंसू को स्त्री से जोड़कर नहीं देखना चाहिए यह तो सभी प्राणियों की अभिव्यक्ति का एक रुप है। आंसू के पीछे कौन सा भाव काम कर रहा है यह संदर्भ पर निर्भर करता है। अतः आंसुओं का अर्थ आंसू बहाने वाले के जीवन के बाहर सामाजिक संदर्भ पर निर्भर करता है। आंसू बाह्य सामाजिक आचरण या अन्य के आचरण के प्रति मानवीय भाव की अभिव्यक्ति है। इसी अर्थ में आंसू में निजी नहीं सामाजिक सत्य की भूमिका होती है, अन्य के सत्य की भूमिका होती है। आंसुओं में प्राणी की मनोदशा की द्वयर्थकता छिपी रहती है। अन्तर्विरोध छिपे रहते हैं। आंसू मन का ठंडा नमकीन पानी नहीं है बल्कि वह मानसिक द्वंद्व की अभिव्यंजना हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

विशिष्ट पोस्ट

मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...