बुधवार, 18 जून 2014

नए मतवाले

        एक जमाना था नारा लगता था 'जीना है तो मरना सीखो ,कदम-कदम पर लडना सीखो। 'लेकिन अब यह नारा कहीं गुम हो गया है। अब तो एक ही नारा है 'जीना है तो तिकड़म सीखो।'

तिकड़म की कला में जो लोग पलकर बड़े हुए हैं वे इन दिनों मतवालों की तरह घूम रहे हैं। वे सारी दुनिया से बेखबर हैं। उनकी चिंता में फेसबुक है ,चैटिंग है,फिल्मों की गॉसिप है,लुभावने रसीले किस्से हैं। वे मोदी के दीवाने हैं,कारपोरेट कल्चर के फेन हैं।उनको अन्ना अच्छा लगता है क्योंकि वो हर आंदोलन को टीवी इवेंट बनाता है।

वे संघर्ष को टीवी इवेंट के रुप में देखना पसंद करते हैं। लेकिन आश्चर्यजनक बात है कि इन दीवानों को अफगानिस्तान,श्रीलंका,इराक आदि के कत्लेआम प्रभावित नहीं करते। वह तो यही मानकर चल रहे हैं कि इस्लामिक देशों में तो हिंसाचार आम बात है। मुसलमानों को तो लड़ लड़कर मर जाना चाहिए। उसे इससे भी कोई लेना देना नहीं है कि आर्थिकमंदी से कौन कितना प्रभावित हो रहा है। वह तो अपने कैरियर और कम्पटीशन की तैयारी के अंग के रुप में मंदी और अन्य सामयिक खबरों पर नजर रखे हुए है। क्योंकि उसे अपडेट रखना है, कहीं पेपर खराब न हो जाय। यानी सामाजिक-राजनीतिक सचेतनता अब उसके संघर्ष का नहीं कैरियर का हिस्सा है।

नए मतवालों के लिए स्वाधीनता संग्राम का किस्सागोई से ज्यादा कोई महत्व नहीं है। वे उस दौर के स्कैंडल में रस लेते हैं।इन मतवालों को स्वाधीनता संग्राम के मूल्य प्रभावित नहीं करते बल्कि इनकी रुचि तो स्वाधीनता आंदोलन के इतर प्रसंगों में है। वह स्वाधीनता संग्राम का मतलब नेहरु-गांधी के किस्से मानता है और भगतसिंह आदि उसे भटके हुए युवक नजर आते हैं।

यह ऐसा मतवाला है जिसे मूल्य नहीं, सड़कें,चमकदार भवन,मीडिया की सुर्खियां,सत्ता की कुर्सियां, कंपनी के टर्नओवर और नए नए गजट अपील करते हैं। वह नई फैशन पर फिदा है। उनकी चाल निराली है। वह पढ़ता है लेकिन किताबें कम और कम्पटीशन मास्टर टाइप चीजें ज्यादा पढ़ता है।बेस्टसेलर उसकी पहली पसंद है।

वह शिक्षित है लेकिन अन्य केलिए अपनी शिक्षा का कोई इस्तेमाल नहीं करना चाहता। उसको नौकरी चाहिए लेकिन गांवों में नहीं। इनमें से अनेक को टीचिंग में नौकरी चाहिए लेकिन शहरों में।यह ऐसा दीवाना है जो शहरों के अलावा अन्यत्र नहीं रहना चाहता। फैशन और स्टायल का यह वर्ग दीवाना है। इसमें से कुछ लोग हिन्दी साहित्य में भी आ रहे हैं। जमकर कविता-कहानी-उपन्यास भी लिख रहे हैं। लेकिन छोटे छोटे दायरों में मित्रमंडली बनाकर जीना इसकी नई प्रथा है। वह साहित्यिक हो या मतवाला हो, सब अपने छोटे समूहों में मगन होकर रह रहे हैं। बड़े मित्र समूहों और संघर्षशील संगठनों की चौपालें और हरकतें म्यूजियम की चीजें हो गयी हैं।



नए मतवाले धर्म से मुक्त हैं लेकिन साम्प्रदायिकचेतना से लैस हैं। ये साम्प्रदायिक प्रचार की कॉमनसेंस बातों को सच्चे विचार मानकर विश्वास करते हैं। साम्प्रदायिक कॉमनसेंस में आस्थावान होने के कारण वह अब हर चीज को इस कॉमनसेंस के आधार पर छानने-फटकने लगे हैं। शादी करने से लेकर वोट देने तक साम्प्रदायिकचेतना उसके स्वभाव को निर्धारित करती है। यह ऐसा व्यक्ति है जो स्वभाव से सरल है और विचार से साम्प्रदायिक है।

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