बुधवार, 25 जून 2014

डीयू शिक्षक आंदोलन के अछूते प्रश्न


         डीयू के शिक्षक आंदोलन कर रहे हैं, वे बड़े आंदोलन कर चुके हैं और अनेक आंदोलन जीत भी चुके हैं,यह भी सच है उनके अंदर अपने शिक्षकों के हितों की रक्षा का भाव बड़ा प्रबल है। शिक्षकों में इस तरह का जागरुक संगठन सभी कॉलेज-विश्वविद्यालयों में होता तो बहुत अच्छा होता। मैंने निजी तौर पर उनके अनेक संघर्षों में समर्थक के नाते हिस्सा भी लिया है। वहां संगठन करने वाले नेताओं में एक अच्छा-खासा अंश बेहद संवेदनशील और जागरुक है। लंबे संघर्षों को लड़ने का जो तजुर्बा डीयू के शिक्षकसंघ के पास है वैसा अनुभव अन्यत्र किसी भी विश्वविद्यालय के शिक्षक संगठन को नहीं है।

शिक्षकों के अनेक मूल्यवान हकों को दिलाने में डीयू शिक्षकसंघ की महत्वपूर्ण और नेतृत्वकारी भूमिका रही है। लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि डीयू के शिक्षकसंघ का इस विश्वविद्यालय के अकादमिक स्तर को ऊँचा उठाने में बहुत कम योगदान है। मसलन् शिक्षकों के द्वारा अकादमिक जिम्मेदारियों का ठीक से पालन हो इस ओर शिक्षकसंघ ने ध्यान ही नहीं दिया। इस विश्वविद्यालय के शिक्षकों के पास भारत में सबसे अधिक गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुविधाएं हैं, संसाधन हैं,पगार भी बेहतरीन है।लेकिन शैक्षणिक वातावरण में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ है । उलटे अकादमिक वातावरण में गिरावट आई है।

शिक्षकों में भाई-भतीजावाद चरम पर है. शिक्षकों की कक्षाओं में अनुपस्थिति खूब रहती है। प्रिफार्मेंस जरुरत के अनुरुप नहीं है। शिक्षकसंघ को इन चीजों को देखना चाहिए।

शिक्षक संघ में इसके विपरीत एक बीमारी घुस आई है कि वे शिक्षकों को गैर-पेशेवर बनाने में लगे रहते हैं। वे गैर-अकादमिक कार्यों में मशगूल रखते हैं। शिक्षक संघ का काम सिर्फ आंदोलनकारी निर्मित करना नहीं है बल्कि उसका काम पेशेवर शिक्षण को बढ़ावा देना भी है।

दिल्ली विश्वविद्यालय में तीन साला कोर्स रहे या चारसाला कोर्स रहे, यह महत्वपूर्ण नहीं है। पढ़ाने वाले कैसे हैं ? क्या पढ़ाने वाले शिक्षकों के स्तर में सुधार आएगा ? विश्वविद्यालय और कॉलेजों में समस्या कोर्स के साथ साथ शिक्षक की भूमिका की भी है। शिक्षकों में एक बड़ा वर्ग ऐसा पैदा हुआ है जो शिक्षा के दायित्वों को मांग-पूर्ति के फ्रेमवर्क में निभाता रहा है। इसमें भी अनुपस्थित शिक्षकों की तादाद बहुत बड़ी है। ये लोग कभी कक्षा में नहीं जाते।

शिक्षकसंघ की यह भूमिका भी है कि शिक्षकों को मजबूर करे कि वे समय पर कक्षा में जाएं और अपनी टीचिंग के स्तर को गुणवत्तापूर्ण बनाएं। मुझे नहीं मालूम कि शिक्षक संघ ने कभी इससे जुडे मसलों पर आंदोलन किया हो या शिक्षकों में जनजागरण अभियान चलाया हो।

शिक्षकों की सामान्य मानसिकता है कि वे हर चीज को रूटिन या रूढि में बदल देते हैं। शिक्षक की मानसिकता रुढिबद्धता से मुक्त होकर कक्षा और अनुसंधान मेंभूमिका निभाए इस ओर कभी ध्यान ही नहीं दिया गया।

जो शिक्षक समाज का प्रेरक है उसके हकों के लिए लड़ना जितना महत्वपूर्ण है उतना ही महत्वपूर्ण है शिक्षक को पेशेवर शिक्षक में रुपान्तरित करना। शिक्षक को पेशेवर शिक्षक में रुपान्तरित किए बिना शिक्षा को नहीं बचा सकते।इस समाज को मरने से नहीं बचा सकते।

शिक्षकों में राजनीति हो, लेकिन पेशेवर शिक्षा की चेतना भी हो। हमारे शिक्षकों और शिक्षक संगठनों ने दुनिया से बहुत कुछ सीखा है लेकिन पेशेवर शिक्षण की कला बहुत कम शिक्षकों ने सीखी है। हम लोगों के बीच पेशेवर शिक्षक दुर्लभ होते जा रहे हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय में स्थिति तो और भी भयावह है। शिक्षक संगठनों ने शिक्षक को पेशवर शिक्षक बनाने की जिम्मेदारी निभायी होती तो जो चीजें डंडे से चलायी जा रही हैं वे बातों से हल हो सकती थीं।

शिक्षकों में पेशेवराना नजरिए को विकसित न कर पाने के कारण हम दुनिया में पिछड़ते जा रहे हैं। चारसाला कोर्स के प्रसंग में टीवी पर आए कवरेज में यह बात सामने आई कि इस कोर्स का स्तर बड़ा घटिया है या इसमें प्राथमिक स्तर की चीजें पढाई जा रही हैं। सवाल यह है कि यह प्राथमिक स्तर का कोर्स भी डीयू के शिक्षकों ने बनाया है। हमें इस सवाल पर सोचना चाहिए कि शिक्षको में ज्ञान का ऊँचा स्तर क्यों नहीं है ? डीयू के प्रशासक भी शिक्षक हैं,इसके बावजूद शिक्षा में निम्नस्तर के साल जब उठ रहे हैं तो यह इस बात का संकेत है कि डीयू का समग्रता में अकादमिक स्तर जितना ऊँचा होना चाहिए वैसा नहीं बन पाया है।

शिक्षा के स्तर को ऊँचा उठाने में प्रशासन के अलावा शिक्षक संगठन की बड़ी भूमिका हो सकती है लेकिन इस भूमिका की ओर शिक्षकसंघ ने कभी ध्यान नहीं दिया। मूल सवाल यह है कि शिक्षकसंघ ने पेशेवर शिक्षक के निर्माण में भूमिका अदा क्यों नहीं की ? क्या शिक्षकसंघ इस जिम्मेदारी से बच सकते हैं ?

शिक्षकसंघ यदि हकों की जंग लड़ना जानता है तो उसे यह भी जानना चाहिए कि पेशेवर शिक्षा का माहौल कैसे बनाया जाता है ? शिक्षकों के हकों की लडाई तात्कालिक होती है लेकिन पेशेवर शिक्षा का माहौल बनाए रखने की लडाई अहर्निश लड़नी पड़ती है। हमारे शिक्षक संघ शिक्षा की पेशेवर जंग के एकदम विपरीत खड़े रहते हैं, शिक्षकहकों की रक्षा के नाम पर कामचोर और नियमविरुद्ध काम करने वाले शिक्षकों के साथ ही हमेशा नजर क्यों आते हैं ?

शिक्षकों के लोकतांत्रिक हकों में पेशेवर गुणवत्ता विकसित करने की कला का भी स्थान है। पेशेवर कौशल हासिल करना मानवाधिकार का अंग है। मानवाधिकारों में सिर्फ सुविधाएं ही नहीं आतीं।राजनीतिक हक ही नहीं आते अपितु पेशवराना कौशल निर्मित करना भी आता है। डीयू के शिक्षकसंघ ने आंदोलन किए और जीते लेकिन पेशेवर शिक्षक तैयार करने की ओर ध्यान नहीं दिया।



जो शिक्षकसंघ को ट्रेड यूनियन की तरह चला रहे हैं वे क्या बताएंगे कि यदि किसी फैक्ट्री में मजदूर काम में गैर पेशेवर हो,अकुशल ढ़ंग से काम करे तो क्या कोई मालिक उसे सहन करेगा ? क्या कारखाने का स्तर बचा रहेगा ? फिर शिक्षा में ही अकुशल शिक्षक की हिमायत क्यों की जाती है ? अकुशल शिक्षकों को नौकरी से क्यों नहीं निकाला जाता ? क्या शिक्षा का काम फैक्ट्री मजदूर के काम से कम महत्व का है ? जिस तरह अकुशल मजदूर कारखाने के लिए मुसीबत होता है वैसे ही अकुशल शिक्षक भी। हमें अपना नजरिया बदलना होगा। हम अकुशल वकील पसंद नहीं करते अकुशल डाक्टर पसंद नहीं करते हम अकुशल शिक्षक क्यों बनाए रखते हैं और पसंद करते हैं ?

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