गुरुवार, 19 जून 2014

जनता के स्वाद का बादशाह हलवाई


       हलवाई के बिना बाजार और जीवन में मजा नहीं है। हलवाई हमारे बाजार की शोभा हुआ करते थे उनसे ही बाजार या इलाके पहचान थी। छोटे शहरों में हलवाई लोकल पहचान का संकेत था। हलवाई को मैं समानान्तर बाजार मानता हूँ। एक तरफ विभिन्न किस्म के दुकानदार और दूसरी ओर हलवाई की दुकान। हलवाई लंबे समय से बाजार के परंपरागत खाद्य उद्योग की धुरी रहा है। हलवाई कब दुकान पर आया ? कब घर तक चला आया और कब हलवाई का सामाजिक कायाकल्प हो गया हमने कभी ध्यान ही नहीं दिया।

भारत में हलवाई परिवार की रसोई और मेहमाननबाजी का भागीदार होकर आया,जब भी पहला हलवाई आया होगा वह निश्चित तौर पर प्रगतिशील रहा होगा। घर के बाहर हलवाई की बनी चीजें खाना या उन चीजों को घर में लाकर खाने की परंपरा तब ही आई होगी जब हमारे समाज के कुछ अतिरिक्त धन बचता होगा। हलवाई की बनी चीजें पुराने वर्णसमाज के तंत्र,मूल्यबोध और तयशुदा आदतों को तोड़ने में मदद करती रही हैं।

हलवाई ने भोजन की निजता में एक नयी कोटि भोजन की सामाजिकता को शामिल किया। हमारे यहां भोजन निजी होता था और निजी व्यक्ति के विस्तारित संबंधों को ही हम दावतों में बुलाकर सामाजिकता निभाते थे। लेकिन हलवाई की बनी चीजों के आने के साथ सामाजिक जीवन और खासकर जीवनशैली में धीमी गति से परिवर्तनों की शुरुआत होती है।

हलवाई कहने को वैश्यजाति का अंग रहा है। लेकिन हलवाई का काम और तंत्र जिस तरह जीवनशैली ,खानपान और पापुलर कल्चर को प्रभावित करता रहा है उसकी कभी हमने विस्तार से मीमांसा ही नहीं की। हलवाई मतलब खाने की वस्तुओं का दुकानदार।

हलवाई का व्यापार सबसे पुख्ता व्यापार रहा है। यह विकेन्द्रित और छोटी पूंजी से आरंभ होने वाला कारोबार है। मसलन् कचौडी की दुकान खोलने के लिए बहुत बड़ी पूंजी की आज भी जरुरत नहीं पड़ती। विकेन्द्रीकृत ढ़ंग से इसने आम जनता के स्वाद को बदला और नवीकृत किया। हलवाई को जनता के स्वाद बादशाह कहना अतिशयोक्ति नहीं है।

एक हलवाई अपने माल के जरिए मुनाफा कमाने के साथ अभिरुचि और स्वाद का भी निर्माण करता है। सबसे अच्छा हलवाई वह माना जाता है जिसके माल के स्वाद को आप बार बार महसूस करें और लौटकर उसकी दुकान पर आएं। हलवाई की रिटर्न अपील बहुत ही महत्वपूर्ण होती है। वह अपने अपभोक्ता को बाँधता है और उसकी रुचि को स्टीरियोटाइप होने से बचाता है।

हलवाई का काम पेसन का काम है। हलवाई के पकवान हमारी खाद्य अभिरुचि को सीधे प्रभावित करते हैं। हलवाई का सबसे बड़ा आनंद यह है कि यह अनौपचारिक खानपान को बढ़ावा देता है। खाने में हम जितना अनौपचारिक होंगे उतने ही बेहतर सामूहिक मनुष्य होगे। खानपान में हम जितने संगठित और औपचारिक रहेंगे उतने ही एकांतवासी होंगे।

हलवाई के खाने में बाजार की ध्वनियों और खुली हवा की गंध रहती है। वहां रेस्तराँ की तरह तयशुदा धुनें और गंध नहीं तैरती ।

हलवाई खुलेपन को लेकर आया। खानपान में खुलेपन को लेकर आया। रेस्तराँ ने खानपान को बंद रेस्तराँ का खाद्य बना दिया। हलवाई ने समाज में खुलेपन और लिबरल माहौल को पैदा किया।वह बाजार में जीवनशैली को प्रभावित करने वाले प्रमुख कर्ता के रुप में दाखिल हुआ।

हलवाई गतिशील है। वह जड़ नहीं है। गतिशील हलवाई हमेशा नए पर नजर रखता है। जड़ हलवाई यथास्थितिवादी होता है। वह दसियों साल एक जैसा सामान बेचता रहता है ।गतिशील हलवाई सामान की लिस्ट बढ़ाता जाता है,अपनी इमेज का नए युग के साथ रुपान्तरण करता जाता है। भारत के हलवाई आज से तीस साल पहले तक लोकल थे लेकिन विगत तीस सालों में इन्होंने अपने को बाजार निर्माण की नयी प्रक्रियाओं से जोड़ा है। अपने को लोकल से ऊपर उठाकर क्षेत्रीय-राष्ट्रीय और ग्लोबल बनाया है।

हलवाई कल तक लघु व्यापार था. लेकिन विगत चार दशकों में इसने उद्योग की शक्ल लेली है। एक-एक हलवाई के यहां सैंकड़ों –हजारों लोग काम कर रहे हैं। हल्दीराम से लेकर भीखाराम तक अनेक देशज हलवाई पूरे देश में मिल जाएंगे और इनकी ग्लोबल शाखाएं भी मिल जाएंगी। हलवाईयों का कारोबार खरबों रुपये का है। हलवाई उद्योग मूलतःराष्ट्रीय उद्योग है जिसका बहुराष्ट्रीय खाद्य कंपनियों से सीधा मुकाबला है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

विशिष्ट पोस्ट

मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...