शनिवार, 28 जून 2014

भाषा की गुलेल

         बेहद संवेदनशील और गंभीर शहर है। इसमें महानगर ,गांव और छोटे शहर की मनोदशाएं एक ही साथ तैरती रहती हैं। इन तीनों मनोदशाओं को बाजार से लेकर ऑफिस तक,कॉलेज से लेकर विश्वविद्यालय तक अंतर्क्रियाएं करते देख सकते हैं। यहां इन तीनों मनोदशाओं के साक्षात चित्र भी मिल जाएंगे। इच्छाओं का ऐसा संगम अन्यत्र कम ही देखने को मिलता है। यह तय करना मुश्किल है कि इस शहर का ड्राइवर कौन है ? महानगरीय भावबोध या ग्रामीण भावबोध ?

यह ऐसा शहर है जिसके सामान्य बहस मुबाहिसे में गरीब-मेहनतकश के स्वर-दुख,भाषा,भाषिक मुहावरे और जरुरतों को आप चलते फिरते सुन सकते हैं,महसूस कर सकते हैं। विभिन्न समस्याओं पर लोग बातें करते,भाषण देते मिल जाएंगे,और एक ही नारा सब जगह मिलेगा,'गरीब की कौरे वांचबे',या गरीब कैसे जिंदा रहेगा ?

महंगाई पर बात करो यही टेक सुनने को मिलेगी, वाम और दक्षिण राजनीति पर बात करो तो यह टेक सुनने को मिलेगी। मेहनतकशों और ग्रामीणों की भाषा और उससे जुड़े मुहावरे ,टेक और संस्कृति को आप यहांके बाजारों में तैरते हुए महसूस कर सकते हैं। जिंदादिली और व्यंग्य में वाद-विवाद का तो खैर कोलकाता में जो आनंद है वह शायद और कहीं पर देखने को न मिले।

एक वाकया देखा।एक दिन मिनीबस में दमदम पार्क से मेडीकल कॉलेज जा रहा था। मिनीबस में अच्छी खासी भीड़ थी, लोगों के हाथ और शरीर एक-दूसरे से टकरा रहे थे। अचानक देखा कि दो यात्री आपस में विवाद करने लगे। एक का दूसरे से शरीर रगड़ा खा रहा था,पहले ने दूसरे से कहा सीधे खड़े हो और अपने शरीर का वजन ठीक रखो। दूसरे व्यक्ति ने कहा मैं ठीक ही खड़ा हूँ,आप सही ढ़ंग से खड़े हों।इसी पर बातचीत थोड़ा तेजभाषा में शिफ्ट कर गयी।

कुछ देर बाद पहले व्यक्ति ने दूसरे से कहा 'बोकार मतो दांडिए आछो', पहले ने ध्यान नहीं दिया,बात फिर आगे बढ़ गयी ,पहले ने फिर कहा ' इडियटेर मतो दांडिए आछो', यह शब्द सुनते ही दूसरा व्यक्ति भड़क गया और बोला 'इडियट ' क्यों कहा ? यह मेरा अपमान है ? पहले ने कहा मैंने तो तुमको पहले 'बोका' कहा था तब तुमको गुस्सा क्यों नहीं आया ? अब इडियट कहने पर क्यों भड़क रहे हो,इस पर पहला बोला 'इडियट' मत बोलो,यह गाली है,दूसरे ने कहा 'बोका' भी तो कहा तब गुस्सा क्यों नहीं आया ? यह संवाद सुनकर सारी मिनीबस हँस रही थी और वे दोनों 'बोका' और 'इडियट' की बहस में उलझे हुए इन दोनों शब्दों की सांस्कृतिक मीमांसा करते हुए अपने गुस्से का इजहार कर रहे थे। भाषा में आनंद लेना,सहज ग्रामीण और शिक्षित भाषा में तकरार करना और भाषिक प्रयोगों पर गर्व करना कोलकाता की जान है। यह भाषिक रंग अन्यत्र कम ही देखने को मिलता है।













































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