कोलकाता आएं और फुचका न खाएं यह हो नहीं सकता। कोलकाता में रहें और फुचका न खाएं यह भी हो नहीं सकता। फुचका के खोमचे पर जाएं और औरतें नजर न आएं यह भी हो नहीं सकता। फुचका वाला किसी कच्ची बस्ती में न रहता हो यह भी हो नहीं सकता। दिल्ली में इसे गोलगप्पे कहते हैं और मैं जब मथुरा रहता था तो वहां टिकिया कहते थे। शाम को अमूमन टिकिया खाने की आदत सी पड़ गयी थी। मैं आज भी गोलगप्पे को टिकिया कहता हूँ।
कोलकाता की पहचान में जहां एक ओर लालझंडा है,छाना की मिठाई और रसगुल्ला है। वहीं दूसरी ओर फुचका भी है। फुचका बनाने और बेचने वाले अधिकांश लोग हिन्दीभाषी हैं। जिह्वा सुख के लिए,स्वाद को चटपटा बनाने या मोनोटोनस स्वाद से छुट्टी पाने के लिए जब भी कुछ चटपटा-खट्टा खाने की इच्छा होती है फुचका मददगार साबित होता है।
फुचका औरतों का प्रिय खाद्य है,इसलिए इसके साथ जेण्डर पहचान भी है। फुचका शौकीनों में औरतों की संख्या ज्यादा है। मैं नहीं जानता कि बाजार में बिकने वाले अन्य किसी खाद्य के साथ जेण्डर पहचान इस तरह जुडी हो। औरतों के साथ फुचका का जुड़ना कई मजेदार पहलुओं की ओर ध्यान खींचता है , आमतौर पर औरतें घरेलू काम करते और घरेलू भोजन खाते हुए बोर हो जाती है और स्वाद बदलने के लिए पुचका खाती हैं। फुचका भोजन नहीं है। यह दोपहर के खाने और शाम के नाश्ते के बीच का लघु नाश्ता है,यह अंतराल में भूख या स्वाद को जगाने के लिए लिया जाने वाला खाद्य है।
फुचका पूरी तरह लघुव्यापार है और लंबे समय तक इसी अवस्था में इसके बने रहने की संभावनाएं हैं। यदि आप अपने शहर को देखें तो पाएंगे कि वहां क्रमशःफुचका की खपत बढ़ी है।
यह छोटी पूंजी का व्यापार है और ऐसे लोगों का व्यापार है जो कच्ची बस्ती या झुग्गी-झोंपडियों में रहते हैं। फुचका की बढ़ती खपत ने बड़े हलवाईयों को भी गोलगप्पे बेचने के लिए मजबूर किया है।
फुचका इस बात का भी संदेश देता है कि हमारे समाज में चटपटे और खट्टे भोजन की मांग लगातार बढ़ रही है। अनेक लोग इसके अस्वास्थ्यकर होने की बातें भी कर रहे हैं। इसके बावजूद फुचका खाने वालों की संख्या में लगातार इजाफा हुआ है।
फुचकावाला जानता है उसका कितना माल आमतौर पर रोज खप सकता है। पुचका के व्यापार में रिस्क कम है बशर्ते फुचका बढ़िया खिलाएं। फुचका पर्यावरण फ्रेंडली खाद्य है। इसके बनाने और बेचने में घर के लोग ही मदद करते हैं इस अर्थ में फुचका गरीब की रसोई का विस्तार है।
फुचका खाते हुए हम सब जाने- अनजाने गरीब के स्वाद में शिरकत करते हैं। गरीब के स्वाद में खूब लाल और हरी मिर्च और तीखापन होता है।
फुचकावाले की खूबी है कि वह स्वाद को नियंत्रण में रखता है ,आप जैसा और जितना तीखा-चटपटा खाना चाहते हैं वह खिलाएगा। हर खाने वाले के स्वाद के वैविध्य की वह कदर करता है और स्वाद को मांग के अनुरुप ढाल देता है। इस अर्थ में फुचकावाला मुझे ज्यादा खुला,लोकतांत्रिक लगता है। वह हलवाई से भिन्न है। हलवाई इकसार स्वाद का मास्टर होता है।जबकि फुचकावाला स्वाद का नियंत्रक और लोकतांत्रिक होता है। फुचका का सिस्टम रिस्क मुक्त और पर्यावरण फ्रेंडली होता है।
फुचका की सामान्य विशेषता है कि यह स्वाद के मानकीकरण का निषेध करता है। यह निषेध इसमें अन्तर्निहित है। यही वजह है कि फुचका हर इलाके में और अलग-अलग फुचकावाले के यहां भिन्न स्वाद में मिलेगा। यह स्वाद की भिन्नता फुचका से इतर सामग्रियों की प्रकृति पर निर्भर करती है। इसके कारण ही फुचका के स्वाद का खाने के पहले अनुमान नहीं कर सकते। फुचका वाला आमतौर पर पब्लिक स्पेस में खड़ा रहता है। पब्लिक स्पेस में अनौपचारिक ढ़ंग से खाने की आदत के विकास में फुचका की बड़ी भूमिका है। भोजन की अनौपचारिकता हमें ज्यादा मानवीय बनाती है। इस अर्थ में फुचकावाला इंसानियत के कम्युनिकेशन और लिंक का काम भी करता है।
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