फेसबुक आदि सोशल मीडिया में अभिव्यक्ति की आजादी का जब से विस्तार हुआ है,तब से अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले भी तेज हुए हैं,बोलने वाले जितने चतुर और तेज दिख रहे हैं,उन पर नियंत्रण लगाने वाले और भी चतुर हो गए हैं, सोशलमीडिया के दुरूपयोग की घटनाएं बढ़ी हैं, दूसरी ओर राज्य की साइबर निगरानी बढ़ी है।नागरिक की निजता खत्म हो चुकी है।आज यूरोप और उत्तर अमेरिका पूरी तरह साइबर निगरानी में चले गए हैं।इस तरह की निगरानी पहले कभी नहीं थी।राज्य के खिलाफ बोलना अपराध घोषित हो गया है। ईमेल से लेकर सोशलमीडिया तक मोबाइल से लेकर एसएमएस तक निगरानी हो रही है।यह सीधे अभिव्यक्ति की आजादी के क्षय की सूचना है।दिलचस्प बात यह है कि हम सब इस पर एकदम चुप हैं।आखिर हम अभिव्यक्ति की आजादी पर हो रहे हमलों और साइबर निगरानी के सवालों पर फेसबुक आदि में बहस क्यों नहीं करते ॽअभिव्यक्ति की आजादी के सवाल पर मार्क्स ने जो बातें कही थीं उनमें से अनेक बातें आज भी साइबरयुग में भी मूल्यवान हैं।
कार्ल मार्क्स ने कहा की प्रेस की स्वतंत्रता के लिए जरूरी है पत्रकार स्वयं जाने, ज्ञान अर्जित करे।स्व-ज्ञान, बिना आत्म-स्वीकृति के संभव नहीं है।हम जो बात नहीं जानते उस पर न लिखें,पहले जानें फिर लिखें।लेखन में यदि कोई गलती हो जाए तो उसे सीधे स्वीकार करें।लिखते समय भारी-भरकम शब्दों का प्रयोग करने से बचें,जिन भारी-भरकम शब्दों का इस्तेमाल करते हैं,कभी यह भी सोच लें कि उनका असली अर्थ क्या है। लिखने के नाम पर भारी-भरकम शब्दों में लिखने की आदत से बचें।जिस समय मार्क्स ने यह लेख लिखा उनकी उम्र मात्र 24साल थी,उन्होंने अपने जन्मदिन पर यह लेख Rheinische Zeitung´(No. 125, Supplement ,May 5 1842)प्रूशिया के समाचारपत्रों के प्रसंग में सेंसरशिप के सवालों पर विचार करते हुए "By a Rhinelander." नाम से लिखा था। यह लेख बहुत सराहा गया।जिस समय यह लेख लिखा गया उस समय भी प्रेस में वे तमाम प्रवृत्तियां थीं जो इन दिनों नजर आती है,धंधेखोरी,चालबाजियां,सनसनी आदि।
मार्क्स ने सवाल उठाया कि प्रेस की क्या जनता में दिलचस्पी है ॽ हम इसी सवाल को इस तरह उठाना चाहते हैं कि साइबर लेखकों यूजरों की क्या भारत की जनता में दिलचस्पी है ॽयदि साइबर लेखकों -यूजरों की भारत की जनता में दिलचस्पी है तो भारत सरकार निश्चित तौर पर उनके लिखे पर ध्यान देगी,लेकिन यदि साइबर लेखकों की भारत की जनता में दिलचस्पी नहीं है तो भारत सरकार उन पर ध्यान नहीं देगी,उनकी स्वतंत्रता की रक्षा पर ध्यान नहीं देगी।हम तो यही कहना चाहेंगे कि भारत की जनता,सरकार आदि से जुड़े सवालों पर जमकर लिखो,गंभीर से गंभीर विषयों पर बहस चलाओ लेकिन तैयारी करके,सतही ढ़ंग से नहीं।सतही,सनसनीखेज,गाली-गलौज,अपमान,ब्लैकमेलिंग की भाषा में साइबर लेखन,मीडिया प्रस्तुतियां बंद होनी चाहिए।
मार्क्स ने लिखा आप पत्रकार लोग जो लिखते हैं वह जनता में भूमिका अदा करे,जनता को सचेत करे।उसमें विवेक बोले,अनसुनी आवाजें सुनाई दें। मार्क्स ने लिखा कि पत्रकार में बच्चों जैसा संवेदनात्मक-व्यवहारिक गुण होना चाहिए।जिस तरह बच्चा अपनी सहज संवेदनात्मक भाषा के जरिए जगत से जुड़ता है उसी तरह की भाषा का उन्हें प्रयोग करना चाहिए।पत्रकार की संवेदनात्मक क्षमता बच्चों जैसी होनी चाहिए।बच्चों का पहला गुण है कि वे हर चीज को संवेदना के धरातल पर परखते हैं।नाक और मुँह के जरिए परखते हैं।अखबार का भी यही गुण होना चाहिए कि उसे भी हम बच्चों जैसी संवेदनात्मक अनुभूति की तरह महसूस करें।यानी जब सामान्य आदमी सहज ही अपनी संवेदनाएं अखबार के साथ जोड़ सके तो समझो अखबार सार्थक है।अखबार अपने मूल्य स्वयं बनाए,यानी अपनी साख स्वयं बनाए।
इस लेख में ही मार्क्स ने राजसत्ता के राजनीतिक मर्म का सवाल उठाया है,उन्होंने लिखा है राज्य को राजनीतिक मर्म से रहित नहीं होना चाहिए।राज्य की राजनीतिक स्प्रिट होनी चाहिए।मार्क्स जिस समय लिख रहे थे उस समय प्रूशिया राज्य की कोई राजनीतिक स्प्रिट नहीं थी,जिसकी उन्होंने आलोचना की। राज्य के यदि राजनीतिक हित होगे तो वो उस दिशा में सोचेगा।
भारत में राज्य के राजनीतिक हित हैं,राजनीतिक स्प्रिट है।धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक स्प्रिट इसका मूलाधार है।लेकिन मुश्किल यह है कि दलीय नेतृत्व की प्रकृति के कारण इस स्प्रिट के साथ घालमेल होता रहता है।मसलन् इन दिनों मोदी जी की सरकार है तो अखबारवालों की नजर हिन्दुत्व पर केन्द्रित है,जो कि गलत है।मोदीजी पीएम हैं,भाजपा सत्ता में है,लेकिन राज्य की राजनीतिक स्प्रिट का मूल स्रोत संविधान है,दल नहीं। शासकदल को तो संविधान की संगति में ही राजनीति करनी है,जहां वह संगति विकसित कर लेता है सहज काम करता है,जहां संगति विकसित नहीं कर पाता असहज काम करता है। मुश्किल यह है कि मीडियावाले संविधानजनित राजनीतिक स्प्रिट को भूल जाते हैं और शासकदल जनित स्प्रिट को प्रमुखता देने लगते हैं और यही से सारी मुसीबतें खड़ी हो रही हैं।
दलीयबोध से प्रेरित होकर जब खबरें लिखी जाएंगी तो असुविधा होगी।टकराव होगा।दलीयबोध अलगाव पैदा करता है।इन दिनों खबरें दर्शक भाव से लिखी जा रही हैं।दर्शक भाव सबसे खराब भाव है। मार्क्स ने प्रूशिया के सदन की कार्यवाही की रिपोर्टिंग के प्रसंग में जो सवाल उठाए हैं वे सवाल हमारी संसद के दोनों सदनों की मीडिया में आने वाली रिपोर्टिंग के संदर्भ में भी महत्वपूर्ण हैं।संसद में होने वाली समस्त गतिविधि सार्वजनिक तथ्य है।इसे दर्शक की नजर से पेश करें या ऐतिहासिक दृष्टि से पेश करें ॽ मार्क्स ऐतिहासिक दर्शक के नजरिए से प्रस्तुत करने पर जोर देते हैं।
मोदीजी के सत्ता में आने के बाद से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करने पर जोर है,इसके लिए ´जिम्मेदारी´ और ´सीमा´पदबंध का बार बार वित्तमंत्री अरूण जेटली और अन्य मंत्री इस्तेमाल कर चुके हैं।वे ´जिम्मेदारी´और ´सीमा´के दायरे में बांधकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को देख रहे हैं और इस आधार पर कानूनी प्रावधानों की रोशनी में रिपोर्टिंग करने पर जोर दे रहे हैं।दिलचस्प बात यह है कि उनके साथ कारपोरेट मीडिया का बहुत बड़ा अंश साथ में खड़ा है। ये लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को व्यापक परिप्रेक्ष्य में,संविधान के परिप्रेक्ष्य में रखकर नहीं देख रहे।
कार्ल मार्क्स ने कहा की प्रेस की स्वतंत्रता के लिए जरूरी है पत्रकार स्वयं जाने, ज्ञान अर्जित करे।स्व-ज्ञान, बिना आत्म-स्वीकृति के संभव नहीं है।हम जो बात नहीं जानते उस पर न लिखें,पहले जानें फिर लिखें।लेखन में यदि कोई गलती हो जाए तो उसे सीधे स्वीकार करें।लिखते समय भारी-भरकम शब्दों का प्रयोग करने से बचें,जिन भारी-भरकम शब्दों का इस्तेमाल करते हैं,कभी यह भी सोच लें कि उनका असली अर्थ क्या है। लिखने के नाम पर भारी-भरकम शब्दों में लिखने की आदत से बचें।जिस समय मार्क्स ने यह लेख लिखा उनकी उम्र मात्र 24साल थी,उन्होंने अपने जन्मदिन पर यह लेख Rheinische Zeitung´(No. 125, Supplement ,May 5 1842)प्रूशिया के समाचारपत्रों के प्रसंग में सेंसरशिप के सवालों पर विचार करते हुए "By a Rhinelander." नाम से लिखा था। यह लेख बहुत सराहा गया।जिस समय यह लेख लिखा गया उस समय भी प्रेस में वे तमाम प्रवृत्तियां थीं जो इन दिनों नजर आती है,धंधेखोरी,चालबाजियां,सनसनी आदि।
मार्क्स ने सवाल उठाया कि प्रेस की क्या जनता में दिलचस्पी है ॽ हम इसी सवाल को इस तरह उठाना चाहते हैं कि साइबर लेखकों यूजरों की क्या भारत की जनता में दिलचस्पी है ॽयदि साइबर लेखकों -यूजरों की भारत की जनता में दिलचस्पी है तो भारत सरकार निश्चित तौर पर उनके लिखे पर ध्यान देगी,लेकिन यदि साइबर लेखकों की भारत की जनता में दिलचस्पी नहीं है तो भारत सरकार उन पर ध्यान नहीं देगी,उनकी स्वतंत्रता की रक्षा पर ध्यान नहीं देगी।हम तो यही कहना चाहेंगे कि भारत की जनता,सरकार आदि से जुड़े सवालों पर जमकर लिखो,गंभीर से गंभीर विषयों पर बहस चलाओ लेकिन तैयारी करके,सतही ढ़ंग से नहीं।सतही,सनसनीखेज,गाली-गलौज,अपमान,ब्लैकमेलिंग की भाषा में साइबर लेखन,मीडिया प्रस्तुतियां बंद होनी चाहिए।
मार्क्स ने लिखा आप पत्रकार लोग जो लिखते हैं वह जनता में भूमिका अदा करे,जनता को सचेत करे।उसमें विवेक बोले,अनसुनी आवाजें सुनाई दें। मार्क्स ने लिखा कि पत्रकार में बच्चों जैसा संवेदनात्मक-व्यवहारिक गुण होना चाहिए।जिस तरह बच्चा अपनी सहज संवेदनात्मक भाषा के जरिए जगत से जुड़ता है उसी तरह की भाषा का उन्हें प्रयोग करना चाहिए।पत्रकार की संवेदनात्मक क्षमता बच्चों जैसी होनी चाहिए।बच्चों का पहला गुण है कि वे हर चीज को संवेदना के धरातल पर परखते हैं।नाक और मुँह के जरिए परखते हैं।अखबार का भी यही गुण होना चाहिए कि उसे भी हम बच्चों जैसी संवेदनात्मक अनुभूति की तरह महसूस करें।यानी जब सामान्य आदमी सहज ही अपनी संवेदनाएं अखबार के साथ जोड़ सके तो समझो अखबार सार्थक है।अखबार अपने मूल्य स्वयं बनाए,यानी अपनी साख स्वयं बनाए।
इस लेख में ही मार्क्स ने राजसत्ता के राजनीतिक मर्म का सवाल उठाया है,उन्होंने लिखा है राज्य को राजनीतिक मर्म से रहित नहीं होना चाहिए।राज्य की राजनीतिक स्प्रिट होनी चाहिए।मार्क्स जिस समय लिख रहे थे उस समय प्रूशिया राज्य की कोई राजनीतिक स्प्रिट नहीं थी,जिसकी उन्होंने आलोचना की। राज्य के यदि राजनीतिक हित होगे तो वो उस दिशा में सोचेगा।
भारत में राज्य के राजनीतिक हित हैं,राजनीतिक स्प्रिट है।धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक स्प्रिट इसका मूलाधार है।लेकिन मुश्किल यह है कि दलीय नेतृत्व की प्रकृति के कारण इस स्प्रिट के साथ घालमेल होता रहता है।मसलन् इन दिनों मोदी जी की सरकार है तो अखबारवालों की नजर हिन्दुत्व पर केन्द्रित है,जो कि गलत है।मोदीजी पीएम हैं,भाजपा सत्ता में है,लेकिन राज्य की राजनीतिक स्प्रिट का मूल स्रोत संविधान है,दल नहीं। शासकदल को तो संविधान की संगति में ही राजनीति करनी है,जहां वह संगति विकसित कर लेता है सहज काम करता है,जहां संगति विकसित नहीं कर पाता असहज काम करता है। मुश्किल यह है कि मीडियावाले संविधानजनित राजनीतिक स्प्रिट को भूल जाते हैं और शासकदल जनित स्प्रिट को प्रमुखता देने लगते हैं और यही से सारी मुसीबतें खड़ी हो रही हैं।
दलीयबोध से प्रेरित होकर जब खबरें लिखी जाएंगी तो असुविधा होगी।टकराव होगा।दलीयबोध अलगाव पैदा करता है।इन दिनों खबरें दर्शक भाव से लिखी जा रही हैं।दर्शक भाव सबसे खराब भाव है। मार्क्स ने प्रूशिया के सदन की कार्यवाही की रिपोर्टिंग के प्रसंग में जो सवाल उठाए हैं वे सवाल हमारी संसद के दोनों सदनों की मीडिया में आने वाली रिपोर्टिंग के संदर्भ में भी महत्वपूर्ण हैं।संसद में होने वाली समस्त गतिविधि सार्वजनिक तथ्य है।इसे दर्शक की नजर से पेश करें या ऐतिहासिक दृष्टि से पेश करें ॽ मार्क्स ऐतिहासिक दर्शक के नजरिए से प्रस्तुत करने पर जोर देते हैं।
मोदीजी के सत्ता में आने के बाद से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करने पर जोर है,इसके लिए ´जिम्मेदारी´ और ´सीमा´पदबंध का बार बार वित्तमंत्री अरूण जेटली और अन्य मंत्री इस्तेमाल कर चुके हैं।वे ´जिम्मेदारी´और ´सीमा´के दायरे में बांधकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को देख रहे हैं और इस आधार पर कानूनी प्रावधानों की रोशनी में रिपोर्टिंग करने पर जोर दे रहे हैं।दिलचस्प बात यह है कि उनके साथ कारपोरेट मीडिया का बहुत बड़ा अंश साथ में खड़ा है। ये लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को व्यापक परिप्रेक्ष्य में,संविधान के परिप्रेक्ष्य में रखकर नहीं देख रहे।
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