आधुनिककाल में धर्म का उपभोक्तावाद और
पूंजीप्रेम सबसे बड़ा ईंधन है। इन दोनों के बिना धर्म जी नहीं सकता। धर्म वैचारिक और
भौतिक दोनों ही स्तरों पर उपभोक्तावाद और पूंजी की मदद करता है यही वजह है धर्म की
जड़ें उन वर्गों में ज्यादा गहरी हैं जहां उपभोक्तावाद और पूंजीप्रेम खूब फल-फूल
रहा है।जिस तरह धर्म जनता के लिए ´आत्मिक शराब है´ठीक उसी तरह उपभोक्तावाद और
पूंजीप्रेम लत है। दोनों में मातहत बनाने की प्रवृत्ति है।
धर्म कोई विचार मात्र नहीं है,उसकी सामाजिक
जड़ें हैं,धर्म की समाजिक जड़ों को सामाजिक संघर्षों में जनता की शिरकत बढ़ाकर ही
काट सकते हैं।धर्म के खिलाफ संघर्ष यदि मात्र वैचारिक होगा तो वह भाववादी संघर्ष
होगा,धर्म भाववाद नहीं है,वह तो भौतिक शक्ति है।उसे अमूर्त्त विचारधारात्मक
उपदेशों के जरिए नष्ट नहीं किया जा सकता। एक मार्क्सवादी को यह पता होना चाहिए कि
धर्म का मुकाबला कैसे करें ॽ इस मामले में उनको बुर्जुआ
भौतिकवादियों से अलगाना चाहिए।बुर्जुआ भौतिकवादियों के लिए ´धर्म का नाश हो´,´अनीश्वरवाद
चिरंजीवी हो´´नास्तिकता अमर रहे´ का नारा प्रमुख है,वे आमतौर पर अनीश्वरवाद का ही
जमकर प्रचार करते हैं,इस तरह के नजरिए की लेनिन ने तीखी आलोचना की है और उसे ´छिछला दृष्टिकोण´ कहा
है।
लेनिन के शब्दों में यह बुर्जुआ जागृति का ´संकीर्ण
नजरिया है। इससे धर्म की जड़ों के बारे में पूरी जानकारी नहीं मिलती।इस तरह की
धर्म की व्याख्याएं भाववादी हैं,इनका भौतिकवाद से कोई लेना-देना नहीं है।लेनिन ने
धर्म के बारे में लिखा है ´आधुनिक पूंजीवादी देशों में इसकी जड़ें मुख्यतःसामाजिक
हैं। पूंजी की अंधी ताकत का भय-अंधी इसलिए क्योंकि व्यापक जनसमुदाय इसका
पूर्वानुमान नहीं कर सकता-एक ऐसी शक्ति जो सर्वहारा और छोटे मालिकों के जीवन के हर
चरण में प्रहार का खतरा पैदा करती तथा ´औचक´,´अनपेक्षित´,´आकस्मिक´,तबाही
,बर्बादी,गरीबी,वेश्यावृत्ति,भुखमरी का हमला करती है.आधुनिक धर्म की जड़ यहां
है।इसे भौतिकवादियों को सर्वप्रथम अपने दिमाग में रखना चाहिए.
जनता के दिमाग से धर्म को मिटाने के लिए
जरूरी है उसे जनसंघर्षों के लिए तैयार किया जाए,जनता खुद धर्म की जड़ें खोदना
सीखे,संगठित हो,सचेत रूप में पूंजी के शासन के तमाम रूपों से लड़ना सीखे।जबतक वह ऐसा
नहीं करती तबतक जनता के मन से धर्म को मिटाना संभव नहीं है।
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