कार्ल मार्क्स का प्रसिद्ध निबंध है "अफ़ीम का व्यापार" ,यह न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून में 25सितम्बर 1858 को छपा था।इस निबंध में मार्क्स ने भारत-चीन में अफीम के व्यापार के साथ ब्रिटिश शासन के अन्तस्संबंध पर प्रकाश डाला है।
मार्क्स ने लिखा है-" विषय के इस पहलू पर विचार करते हुए हम ईसाई मत तथा सभ्यता की दुहाई देने वाली ब्रिटिश सरकार के एक निन्दनीय आत्मविरोधी स्वरूप का उल्लेख किये बिना नहीं रह सकते।एक साम्राज्य की सरकार होने के नाते वह दिखावा तो यह करती है कि उसे अवैध अफ़ीम व्यापार से कोई सरोकार नहीं,और उसका निषेध करने वाली सन्धियों पर हस्ताक्षर भी कर देती है।परन्तु भारत की सरकार के नाते वह बंगाल में जबरदस्ती अफ़ीम की काश्त करवाती है,जिससे उस देश की उत्पादक शक्तियों को बहुत बड़ा नुकसान पहुँचता है.पोस्त की काश्त करने के लिए वह भारतीय रैयतों के एक भाग को बाध्य करती है,तो दूसरे भाग को पेशगी पैसे देकर उसमें फंसाती है।वह इस विनाशकारी द्रव्य को बड़े पैमाने पर तैयार करने का एकाधिकार अपने हाथ में रखे हुए है।उसने सरकारी गुप्तचरों की फ़ौज इस काम पर लगा रखी है कि वे पोस्त की काश्त करने,उसे निश्चित स्थानों पर पहुँचाने,उसे चीनी उपभोक्ताओं की रूचि के अनुसार गाढ़ा और तैयार करने,उसे पेटियों में बन्द करने,जो लुक-छिपकर आसानी से एक जगह से दूसरी जगह ले जायी जा सके,और अन्त में उसे कलकत्ते में पहुंचाने की निगरानी करें जहां सरकारी माल के तौर पर अफीम की नीलामी की जाती है और सरकारी अफ़सर उसे सट्टेबाजों के सुपुर्द कर देते हैं,उनसे यह अवैध व्यापारियों के हाथों पहुँचती है जो उसे चीन ले जाते हैं।"
मार्क्स ने अंत में लिखा" वास्तव में,ब्रिटिश सरकार के भारतीय वित्त न केवल चीन के साथ अफ़ीम व्यापार पर ,बल्कि उस व्यापार के अवैध स्वरूप पर आश्रित बना दिये गये हैं। "
"अफ़ीम का व्यापार "( न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून ,20सितम्बर,1858)नामक एक अन्य निबंध में मार्क्स ने मान्टगोमरी मर्टिन का उद्धरण दिया है,यह बहुत ही महत्व का है।मोन्टगोमरी ने लिखा , "अफ़ीम व्यापार की तुलना में दास व्यापार अधिक दयालु था।हम अफ्रीकियों के शरीर का नाश नहीं करते थे,क्योंकि उन्हें जीवित रखने में हमारा हित था।हम उनके आचार को भ्रष्ट नहीं करते थे,उनके मनों को कलुषित नहीं करते थे।परन्तु अफीम बेचनेवाला उन अभागे पापियों की नैतिकता को भ्रष्ट,दूषित तथा मटियामेट करने के बाद उनके शरीर का भी हनन करता है।हर घड़ी एक ऐसे दैत्य के सामने नये नये लोगो की बलि चढ़ाई जा रही है,जो कभी भी तृप्त नहीं होता,और उसके मन्दिर में भेंट चढ़ाने के लिए हत्यारे अंग्रेज और आत्म-हत्या करनेवाले चीनी एक दूसरे से होड़ कर रहे हैं।"
मार्क्स ने लिखा है-" विषय के इस पहलू पर विचार करते हुए हम ईसाई मत तथा सभ्यता की दुहाई देने वाली ब्रिटिश सरकार के एक निन्दनीय आत्मविरोधी स्वरूप का उल्लेख किये बिना नहीं रह सकते।एक साम्राज्य की सरकार होने के नाते वह दिखावा तो यह करती है कि उसे अवैध अफ़ीम व्यापार से कोई सरोकार नहीं,और उसका निषेध करने वाली सन्धियों पर हस्ताक्षर भी कर देती है।परन्तु भारत की सरकार के नाते वह बंगाल में जबरदस्ती अफ़ीम की काश्त करवाती है,जिससे उस देश की उत्पादक शक्तियों को बहुत बड़ा नुकसान पहुँचता है.पोस्त की काश्त करने के लिए वह भारतीय रैयतों के एक भाग को बाध्य करती है,तो दूसरे भाग को पेशगी पैसे देकर उसमें फंसाती है।वह इस विनाशकारी द्रव्य को बड़े पैमाने पर तैयार करने का एकाधिकार अपने हाथ में रखे हुए है।उसने सरकारी गुप्तचरों की फ़ौज इस काम पर लगा रखी है कि वे पोस्त की काश्त करने,उसे निश्चित स्थानों पर पहुँचाने,उसे चीनी उपभोक्ताओं की रूचि के अनुसार गाढ़ा और तैयार करने,उसे पेटियों में बन्द करने,जो लुक-छिपकर आसानी से एक जगह से दूसरी जगह ले जायी जा सके,और अन्त में उसे कलकत्ते में पहुंचाने की निगरानी करें जहां सरकारी माल के तौर पर अफीम की नीलामी की जाती है और सरकारी अफ़सर उसे सट्टेबाजों के सुपुर्द कर देते हैं,उनसे यह अवैध व्यापारियों के हाथों पहुँचती है जो उसे चीन ले जाते हैं।"
मार्क्स ने अंत में लिखा" वास्तव में,ब्रिटिश सरकार के भारतीय वित्त न केवल चीन के साथ अफ़ीम व्यापार पर ,बल्कि उस व्यापार के अवैध स्वरूप पर आश्रित बना दिये गये हैं। "
"अफ़ीम का व्यापार "( न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून ,20सितम्बर,1858)नामक एक अन्य निबंध में मार्क्स ने मान्टगोमरी मर्टिन का उद्धरण दिया है,यह बहुत ही महत्व का है।मोन्टगोमरी ने लिखा , "अफ़ीम व्यापार की तुलना में दास व्यापार अधिक दयालु था।हम अफ्रीकियों के शरीर का नाश नहीं करते थे,क्योंकि उन्हें जीवित रखने में हमारा हित था।हम उनके आचार को भ्रष्ट नहीं करते थे,उनके मनों को कलुषित नहीं करते थे।परन्तु अफीम बेचनेवाला उन अभागे पापियों की नैतिकता को भ्रष्ट,दूषित तथा मटियामेट करने के बाद उनके शरीर का भी हनन करता है।हर घड़ी एक ऐसे दैत्य के सामने नये नये लोगो की बलि चढ़ाई जा रही है,जो कभी भी तृप्त नहीं होता,और उसके मन्दिर में भेंट चढ़ाने के लिए हत्यारे अंग्रेज और आत्म-हत्या करनेवाले चीनी एक दूसरे से होड़ कर रहे हैं।"
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें