कबीर से लेकर अष्टछाप के कई दलित लेखकों तक कहीं पर भी कविता में गाली नहीं मिलेगी।लेकिन अफसोस है इन दिनों कविता में गाली को महिमामंडित किया जा रहा है।कविता में सभ्यता रहती है, कविता सभ्यता निर्माण का काम करती है।सवाल यह है कवि अपने लिए कच्चा माल गाली को बनाता है या सभ्यता को।यदि वह गाली को कच्चे माल की तरह इस्तेमाल करता है तो इस तरह की कविता सभ्यता निर्माण का अंग नहीं होगी,वह कहीं और काम में आएगी।
कबीर ने गालियां लिखी होतीं तो उनकी कविता महान कविता नहीं बन पाती।प्रेमचंद को पढ़ें कहीं पर भी गाली नहीं मिलेगी।लेकिन अफसोस है हिन्दी के अनेक नामी गिरामी लोग गाली को साहित्य का अविभाज्य अंग बनाकर पेश कर रहे हैं।नाथ-सिद्ध निचली जातियों से ही आते थे,उन्होंने बड़े पैमाने पर साहित्य को प्रभावित किया और बदला,लेकिन गालियां लिखकर कविता नहीं रची,उनके यहां गालियां कविता का कच्चा माल नहीं है। सवाल यह है हम लेखकों को क्या सिखा रहे हैं या लेखकों क्या ग्रहण करना चाहिए ?
प्रेमचंद का एक अप्रसिद्ध निबंध है ´गालियाँ´ वह जरूर पढें, लिखा है-
"हर एक जाति का बोल-चाल का ढंग उसकी नैतिक स्थिति का पता देता है।अगर इस दृष्टि से देखा जाये तो हिन्दुस्तान सारी दुनिया की तमाम जातियों में सबसे नीचे नजर आयेगा।बोलचाल की गम्भीरता और सुथरापन जाति की महानता और उसकी नैतिक पवित्रता को व्यक्त करती है और बदज़बानी नैतिक अन्धकार और जाति के पतन का पक्का प्रमाण है।"
-" गुस्से की हालत में ज़बान की यह रवानी औरतों में ज्यादा रंग दिखाती है।दो हिन्दुस्तानी औरतों की तू-तू मैं-मैं देखिए और फिर सोचिए कि जो लोग हमको अर्ध-बर्बर कहते हैं वे किस हद तक ठीक कहते हैं।"
प्रेमचंद ने यह भी लिखा बेगैरत और बेशर्म बना देती है गाली। स्वाभिमान और इज्जत नष्ट करती है। गाली तो बासी कढी का उबाल है। गालियां जातीय पतन की देन हैं।
कविता में दी गई गालियां हों या अ-कविता में दी गयी गालियां हों ,वे प्रेमचंद के मुताबिक पाक रिश्तों को नापाक करती हैं।वल्गरसेंस का वही स्थान है जो समाज में कीचड़ का ।दुख कबीर के पास भी थे , अनंत दुख थे,लेकिन कविता थी उनके पास,कीचड़ नहीं थी।कबीर ने गाली सुनी थीं,योनि आदि के बारे में भी जानते थे लेकिन कभी कविता में उसे घुसने नहीं दिया। यह सामान्य सी बात यदि फेसबुक लेखक समझ नहीं पा रहे हैं तो निश्चय ही बहुत खतरनाक समय में जी रहे हैं।रंडी,बलात्कार,रेप,योनि,पेटीकोट, कुतिया,साला पदबंधों के अलावा संसार में बहुत कुछ है लिखने के लिए। कमाल है कविता अचानक सामुद्रिकशास्त्र की ओर मुड़ गयी। फूहड़ता,पोर्न भाषा,गाली से कविता कब महान हुई है भाई!
कबीर ने गालियां लिखी होतीं तो उनकी कविता महान कविता नहीं बन पाती।प्रेमचंद को पढ़ें कहीं पर भी गाली नहीं मिलेगी।लेकिन अफसोस है हिन्दी के अनेक नामी गिरामी लोग गाली को साहित्य का अविभाज्य अंग बनाकर पेश कर रहे हैं।नाथ-सिद्ध निचली जातियों से ही आते थे,उन्होंने बड़े पैमाने पर साहित्य को प्रभावित किया और बदला,लेकिन गालियां लिखकर कविता नहीं रची,उनके यहां गालियां कविता का कच्चा माल नहीं है। सवाल यह है हम लेखकों को क्या सिखा रहे हैं या लेखकों क्या ग्रहण करना चाहिए ?
प्रेमचंद का एक अप्रसिद्ध निबंध है ´गालियाँ´ वह जरूर पढें, लिखा है-
"हर एक जाति का बोल-चाल का ढंग उसकी नैतिक स्थिति का पता देता है।अगर इस दृष्टि से देखा जाये तो हिन्दुस्तान सारी दुनिया की तमाम जातियों में सबसे नीचे नजर आयेगा।बोलचाल की गम्भीरता और सुथरापन जाति की महानता और उसकी नैतिक पवित्रता को व्यक्त करती है और बदज़बानी नैतिक अन्धकार और जाति के पतन का पक्का प्रमाण है।"
-" गुस्से की हालत में ज़बान की यह रवानी औरतों में ज्यादा रंग दिखाती है।दो हिन्दुस्तानी औरतों की तू-तू मैं-मैं देखिए और फिर सोचिए कि जो लोग हमको अर्ध-बर्बर कहते हैं वे किस हद तक ठीक कहते हैं।"
प्रेमचंद ने यह भी लिखा बेगैरत और बेशर्म बना देती है गाली। स्वाभिमान और इज्जत नष्ट करती है। गाली तो बासी कढी का उबाल है। गालियां जातीय पतन की देन हैं।
कविता में दी गई गालियां हों या अ-कविता में दी गयी गालियां हों ,वे प्रेमचंद के मुताबिक पाक रिश्तों को नापाक करती हैं।वल्गरसेंस का वही स्थान है जो समाज में कीचड़ का ।दुख कबीर के पास भी थे , अनंत दुख थे,लेकिन कविता थी उनके पास,कीचड़ नहीं थी।कबीर ने गाली सुनी थीं,योनि आदि के बारे में भी जानते थे लेकिन कभी कविता में उसे घुसने नहीं दिया। यह सामान्य सी बात यदि फेसबुक लेखक समझ नहीं पा रहे हैं तो निश्चय ही बहुत खतरनाक समय में जी रहे हैं।रंडी,बलात्कार,रेप,योनि,पेटीकोट, कुतिया,साला पदबंधों के अलावा संसार में बहुत कुछ है लिखने के लिए। कमाल है कविता अचानक सामुद्रिकशास्त्र की ओर मुड़ गयी। फूहड़ता,पोर्न भाषा,गाली से कविता कब महान हुई है भाई!
आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति डेंगू निरोधक दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।
जवाब देंहटाएंप्रेमचंद का एक अप्रसिद्ध निबंध ´गालियाँ´ के बारे में कभी पढ़ा न था ..ढूढते हैं .....
जवाब देंहटाएंसत्य कथन है प्रेमचंद जी का की प्रेमचंद ने यह भी लिखा बेगैरत और बेशर्म बना देती है गाली। स्वाभिमान और इज्जत नष्ट करती है। गाली तो बासी कढी का उबाल है। गालियां जातीय पतन की देन हैं।
बहुत सुन्दर प्रेरक प्रस्तुति हेतु धन्यवाद