भारत में स्त्री पर लिखने वाली लेखिकाएं स्त्री के दुर्गुणों पर कम लिखती हैं,उसके दुखों पर ज्यादा लिखती हैं।यह सच है स्त्री के अनेक दुख हैं लेकिन इस मामले में हमें यूरोप की लेखिकाओं से जरूर सीखना चाहिए,वे स्त्री के दुख और व्यक्तित्व के नकारात्मक आचरण और मूल्यों को भी साथ में रखकर विश्लेषित करती हैं।जबकि हमारे यहां इकहरापन है,सिर्फ दुख है,उत्पीड़न है।हम कभी स्त्री के व्यक्तित्व की नकारात्मक चीजों की खुलकर मित्रवत आलोचना क्यों नहीं करते ?
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पुंसवादी गुलामी के नए स्त्री मंत्र हैं-दक्षता,पहल और समर्पण।
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हमारे देश में कितनी कंपनियां हैं जिनको कंपनी सैक्रेट्री चला रही हैं,कभी आपने कंपनी सचिवों की हड़ताल के बारे में सुना है ?क्या उनके कामकाज में सब कुछ ठीक चल रहा है ?यदि नहीं तो वे कभी सड़कों पर नारे लगाती नजर क्यों नहीं आतीं !!
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भारतीय समाज में नई औरतों में एक बड़ा वर्ग ऐसा सामने आया है जो कुछ इस तरह रहता है जैसे घर में फर्नीचर रहता है,वे घरेलू फर्नीचर की तरह शालीन और जरूरी वस्तु की तरह घर में रहती हैं।स्वामिभक्ति में इस तरह की औरतें बेमिसाल हैं।वे खुश रखने की कला में पारंगत हैं।
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इन दिनों एक ट्रेड चल रहा है सुंदर दिखो लेकिन उत्तेजक नहीं,यह भाव मूलतःकंपनी की निजी सचिव महोदया का है।दूसरा भाव है- दुर्गंधनाशक का प्रयोग करो।यह नए किस्म का पुंसवाद है जो औरतों के जेहन में उतारा जा रहा है।
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भारतीय राष्ट्र जिस तरह स्त्रियों को समान काम के लिए समान वेतन नहीं दे सकता,उसी तरह वह स्त्रियों को वित्तीय सामंतवाद से मुक्त नहीं कर सकता।वित्तीय सामंतवाद से मुक्ति के विकल्प खोजे जाएं। एक सुझाव यह है कि केन्द्र सरकार पतित्यक्ताओं के लिए राष्ट्रीय बीमा योजना शुरू करे।
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आधुनिक औरतों में एक वर्ग ऐसा है जो मर्दों के सभी काम कर लेना चाहता है,मर्दाना भाव धारण कर लेना चाहता है,स्त्री को मर्दाने भाव में ढालने के इस तरह के प्रयास स्त्री को और भी बर्बर और संवेदनहीन बना सकते हैं।समस्या यह नहीं है कि औरत को मर्दाने भाव दिए जाएं।हम तो यही चाहते हैं स्त्री को स्त्री और पुरूष को पुरूष रहने दो,इनकी विशिष्टताओं को बना रहने दो सिर्फ इन दोनों में से पुंसवाद की विदाई कर दो।पुंसवाद वस्तुतःसबसे बर्बर विचारधारा है जो मनुष्य को मनुष्यता को खा रही है।मनुष्य को पशु बना रही है।
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कम्प्यूटर संचालित समाज स्त्री की आक्रामकता बढ़ा देता है,यह पुंसवाद के पीड़ादायक बंधनों को नए सिरे से परिभाषित करता है।यह संभावना है कि जो स्त्री पुंसवाद के खतरों से बेखबर होकर कम्प्यूटर संचालित समाज में दाखिल होती है वह जल्दी ही गुलामी के दूसरे विकल्पों में बंध जाय।
गुलामी का सबसे विकृत रूप है असभ्यता के बंधनों को सहज और स्वाभाविक मान लेना।सवाल उठता है संचार क्रांति ने स्त्री को किस दिशा में ठेला है ,गुलामी की ओर या मुक्ति की ओर,हमारा मानना है इस समय प्रवाह गुलामी की ओर ठेल रहा है,बहुत कम संख्या में औरतें हैं जो पुंसवाद को जानकर सक्रिय हैं,अधिकतर तो तकनीकी प्रवाह में बह रही हैं।
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जर्मेन ग्रीयर ने लिखा है- "आशावाद और रूमानी भावनाओं से ओतप्रोत होकर विवाह और मातृत्व में प्रवेश करने वाली स्त्रियाँ ही अपनी हताशा के बारे में मुखर होती हैं।खुद में अपनी माँ की व्यामोहग्रस्त रूचि से सबसे ज्यादा परेशान उन्हीं के बच्चे होते हैं।"
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दूसरी ओर भारतीय समाज में बड़ी संख्या में ऐसी औरतें भी हैं जो पुरूष की शर्तों पर जी रही हैं,पुरूष के नजरिए से सोचती हैं,पुरूष के अनुकूल आचरण करती हैं,पुंसवाद और पुंसवादी हिंसाचार में हिस्सा लेती हैं,वे पुरूष की अनुगामिनी हैं,खोखली हैं और दासभाव से भरी हैं।
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भारतीय समाज धीरे धीरे बदल रहा है,आज ऐसी औरतों की संख्या बढ़ रही है जो अपनी शर्तों पर जी रही हैं और अपने फैसले स्वयं ले रही हैं और स्वयं को केन्द्र में रखकर सोचती हैं,यह एकदम भिन्न किस्म की नई औरत है,यह भारतीय पुंस परम्परा से भिन्न स्त्री है।
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पुंसवादी गुलामी के नए स्त्री मंत्र हैं-दक्षता,पहल और समर्पण।
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हमारे देश में कितनी कंपनियां हैं जिनको कंपनी सैक्रेट्री चला रही हैं,कभी आपने कंपनी सचिवों की हड़ताल के बारे में सुना है ?क्या उनके कामकाज में सब कुछ ठीक चल रहा है ?यदि नहीं तो वे कभी सड़कों पर नारे लगाती नजर क्यों नहीं आतीं !!
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भारतीय समाज में नई औरतों में एक बड़ा वर्ग ऐसा सामने आया है जो कुछ इस तरह रहता है जैसे घर में फर्नीचर रहता है,वे घरेलू फर्नीचर की तरह शालीन और जरूरी वस्तु की तरह घर में रहती हैं।स्वामिभक्ति में इस तरह की औरतें बेमिसाल हैं।वे खुश रखने की कला में पारंगत हैं।
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इन दिनों एक ट्रेड चल रहा है सुंदर दिखो लेकिन उत्तेजक नहीं,यह भाव मूलतःकंपनी की निजी सचिव महोदया का है।दूसरा भाव है- दुर्गंधनाशक का प्रयोग करो।यह नए किस्म का पुंसवाद है जो औरतों के जेहन में उतारा जा रहा है।
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भारतीय राष्ट्र जिस तरह स्त्रियों को समान काम के लिए समान वेतन नहीं दे सकता,उसी तरह वह स्त्रियों को वित्तीय सामंतवाद से मुक्त नहीं कर सकता।वित्तीय सामंतवाद से मुक्ति के विकल्प खोजे जाएं। एक सुझाव यह है कि केन्द्र सरकार पतित्यक्ताओं के लिए राष्ट्रीय बीमा योजना शुरू करे।
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आधुनिक औरतों में एक वर्ग ऐसा है जो मर्दों के सभी काम कर लेना चाहता है,मर्दाना भाव धारण कर लेना चाहता है,स्त्री को मर्दाने भाव में ढालने के इस तरह के प्रयास स्त्री को और भी बर्बर और संवेदनहीन बना सकते हैं।समस्या यह नहीं है कि औरत को मर्दाने भाव दिए जाएं।हम तो यही चाहते हैं स्त्री को स्त्री और पुरूष को पुरूष रहने दो,इनकी विशिष्टताओं को बना रहने दो सिर्फ इन दोनों में से पुंसवाद की विदाई कर दो।पुंसवाद वस्तुतःसबसे बर्बर विचारधारा है जो मनुष्य को मनुष्यता को खा रही है।मनुष्य को पशु बना रही है।
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कम्प्यूटर संचालित समाज स्त्री की आक्रामकता बढ़ा देता है,यह पुंसवाद के पीड़ादायक बंधनों को नए सिरे से परिभाषित करता है।यह संभावना है कि जो स्त्री पुंसवाद के खतरों से बेखबर होकर कम्प्यूटर संचालित समाज में दाखिल होती है वह जल्दी ही गुलामी के दूसरे विकल्पों में बंध जाय।
गुलामी का सबसे विकृत रूप है असभ्यता के बंधनों को सहज और स्वाभाविक मान लेना।सवाल उठता है संचार क्रांति ने स्त्री को किस दिशा में ठेला है ,गुलामी की ओर या मुक्ति की ओर,हमारा मानना है इस समय प्रवाह गुलामी की ओर ठेल रहा है,बहुत कम संख्या में औरतें हैं जो पुंसवाद को जानकर सक्रिय हैं,अधिकतर तो तकनीकी प्रवाह में बह रही हैं।
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जर्मेन ग्रीयर ने लिखा है- "आशावाद और रूमानी भावनाओं से ओतप्रोत होकर विवाह और मातृत्व में प्रवेश करने वाली स्त्रियाँ ही अपनी हताशा के बारे में मुखर होती हैं।खुद में अपनी माँ की व्यामोहग्रस्त रूचि से सबसे ज्यादा परेशान उन्हीं के बच्चे होते हैं।"
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दूसरी ओर भारतीय समाज में बड़ी संख्या में ऐसी औरतें भी हैं जो पुरूष की शर्तों पर जी रही हैं,पुरूष के नजरिए से सोचती हैं,पुरूष के अनुकूल आचरण करती हैं,पुंसवाद और पुंसवादी हिंसाचार में हिस्सा लेती हैं,वे पुरूष की अनुगामिनी हैं,खोखली हैं और दासभाव से भरी हैं।
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भारतीय समाज धीरे धीरे बदल रहा है,आज ऐसी औरतों की संख्या बढ़ रही है जो अपनी शर्तों पर जी रही हैं और अपने फैसले स्वयं ले रही हैं और स्वयं को केन्द्र में रखकर सोचती हैं,यह एकदम भिन्न किस्म की नई औरत है,यह भारतीय पुंस परम्परा से भिन्न स्त्री है।
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