इन दिनों हमारे राजनेता और उनके भोंपू और टीवी चैनल आए दिन यह प्रचार कर रहे हैं कि पीएम नरेन्द्र मोदीजी देश का नया इतिहास बना रहे हैं! उनके पहले कांग्रेस के नेतागण यह कहते रहे हैं नेहरू ने इतिहास रचा !सवाल यह है क्या इतिहास का निर्माण नेता करते हैं ॽ क्या इतिहास की सृष्टि किसी विचारधारा विशेष के जरिए होती है ॽइस तरह के तर्क बुर्जुआनेता और विचारक लंबे समय से देते रहे हैं।
इस तरह के तर्कों का उत्तर देते हुए कार्ल मार्क्स ने ´लूई बोनापार्ट की अठारहवीं ब्रूमेर´ में लिखा ´मानव-जन अपना इतिहास स्वयं बनाते हैं,पर अपने मनचाहे ढ़ंग से नहीं।वे उसे अपन मनचाही परिस्थितियों में नहीं,अपितु ऐसी परिस्थितियों में बनाते हैं जो उन्हें अतीत से प्राप्त और अतीत द्वारा सम्प्रेषित होती हैं और जिनका उन्हें सीधे-सीधे सामना करना पड़ता है।सभी मृत पीढ़ियों की परम्परा जीवित मानव के मस्तिष्क पर एक दुःस्वप्न के समान सवार रहती है।और ठीक ऐसे समय,जब ऐसा लगता है कि वे अपने को तथा अपने इर्द-गिर्द की सभी चाजों को क्रान्तिकारी रूप से बदल रहे हैं,और ऐसी किसी ऐसीवस्तु का सृजनकर रहे हैं जिसका आज अस्तित्व न था,क्रांतिकारी संकट के ठीक ऐसे अवसरों पर वे अतीत के प्रेतों को अपनी सेवा के लिए उत्कण्ठापूर्वक बुलावा दे बैठते हैं और उनसे अतीत के नाम,अतीत के रणनाद और अतीत के परिधान मांगते हैं ताकि विश्व इतिहास की नवीन रंगभूमि को इस चिरप्रतिष्ठापित वेश में और इस मंगनी की भाषा में सजाकर पेश करें।´
मार्क्स का यह कथन इस अर्थ में मूल्यवान है कि हमेशा संकट की अवस्था में हमने समाज में अतीत को ताण्डव करते हुए देखा है। खासकर बुर्जुआवर्ग ,जिसमें मध्यवर्ग भी शामिल है, उसकी यह सामान्य विशेषता है कि वह संकट की घड़ी में हमेशा ´अतीत के प्रेतों को अपनी सेवा के लिए उत्कण्ठापूर्वक बुलावा´ दे बैठता है। संकट की निर्णायक घड़ी में ही अतीत के नाम,अतीत के रणनाद,और अतीत के परिधान सामने आते हैं। हमें कोशिश करनी चाहिए कि संकट की घड़ी में अतीत के प्रेतों की शरण में न जाएं।अतीत के प्रेतों की वापसी का अर्थ है वर्तमान के संकटों से ध्यान हटाना असफलताओं से ध्यान हटाना। समाज में जब भी संकट की घड़ी आई है या कोई निर्णायक फैसले की घड़ी आती है तो हठात् बुर्जुआजी और मध्यवर्ग अतीत के प्रेत याद आने लगते हैं।हम सब जानते हैं पूंजीवादी व्यवस्था में संकट कभी पीछा नहीं छोड़ते,फलतःबुर्जुआजी अतीत के प्रेतों का भी कभी साथ नहीं छोड़ता,अतीत के प्रेत वस्तुतःउसके लिए वैचारिक रक्षा कवच का काम करते हैं।
कार्ल मार्क्स ने लिखा है ´पूंजीवादी समाज यद्यपि वीरत्व शून्य है´,यह कथन बेहद मारक है,यह उस प्रचार की पोल खोल देता है जिसके जरिए आए दिन बुर्जुआ नेताओं और नायकों की वीरता गुणगान किया जाता है।मार्क्स ने लिखा ´पूंजीवादी समाज यद्यपि वीरत्व शून्य है,फिर भी उसे अस्तित्व में लाने के लिए वीरत्व,त्याग,आतंक,गृहयुद्ध और जनसंघर्षों की आवश्यकता पड़ी थी।´
इस तरह के तर्कों का उत्तर देते हुए कार्ल मार्क्स ने ´लूई बोनापार्ट की अठारहवीं ब्रूमेर´ में लिखा ´मानव-जन अपना इतिहास स्वयं बनाते हैं,पर अपने मनचाहे ढ़ंग से नहीं।वे उसे अपन मनचाही परिस्थितियों में नहीं,अपितु ऐसी परिस्थितियों में बनाते हैं जो उन्हें अतीत से प्राप्त और अतीत द्वारा सम्प्रेषित होती हैं और जिनका उन्हें सीधे-सीधे सामना करना पड़ता है।सभी मृत पीढ़ियों की परम्परा जीवित मानव के मस्तिष्क पर एक दुःस्वप्न के समान सवार रहती है।और ठीक ऐसे समय,जब ऐसा लगता है कि वे अपने को तथा अपने इर्द-गिर्द की सभी चाजों को क्रान्तिकारी रूप से बदल रहे हैं,और ऐसी किसी ऐसीवस्तु का सृजनकर रहे हैं जिसका आज अस्तित्व न था,क्रांतिकारी संकट के ठीक ऐसे अवसरों पर वे अतीत के प्रेतों को अपनी सेवा के लिए उत्कण्ठापूर्वक बुलावा दे बैठते हैं और उनसे अतीत के नाम,अतीत के रणनाद और अतीत के परिधान मांगते हैं ताकि विश्व इतिहास की नवीन रंगभूमि को इस चिरप्रतिष्ठापित वेश में और इस मंगनी की भाषा में सजाकर पेश करें।´
मार्क्स का यह कथन इस अर्थ में मूल्यवान है कि हमेशा संकट की अवस्था में हमने समाज में अतीत को ताण्डव करते हुए देखा है। खासकर बुर्जुआवर्ग ,जिसमें मध्यवर्ग भी शामिल है, उसकी यह सामान्य विशेषता है कि वह संकट की घड़ी में हमेशा ´अतीत के प्रेतों को अपनी सेवा के लिए उत्कण्ठापूर्वक बुलावा´ दे बैठता है। संकट की निर्णायक घड़ी में ही अतीत के नाम,अतीत के रणनाद,और अतीत के परिधान सामने आते हैं। हमें कोशिश करनी चाहिए कि संकट की घड़ी में अतीत के प्रेतों की शरण में न जाएं।अतीत के प्रेतों की वापसी का अर्थ है वर्तमान के संकटों से ध्यान हटाना असफलताओं से ध्यान हटाना। समाज में जब भी संकट की घड़ी आई है या कोई निर्णायक फैसले की घड़ी आती है तो हठात् बुर्जुआजी और मध्यवर्ग अतीत के प्रेत याद आने लगते हैं।हम सब जानते हैं पूंजीवादी व्यवस्था में संकट कभी पीछा नहीं छोड़ते,फलतःबुर्जुआजी अतीत के प्रेतों का भी कभी साथ नहीं छोड़ता,अतीत के प्रेत वस्तुतःउसके लिए वैचारिक रक्षा कवच का काम करते हैं।
कार्ल मार्क्स ने लिखा है ´पूंजीवादी समाज यद्यपि वीरत्व शून्य है´,यह कथन बेहद मारक है,यह उस प्रचार की पोल खोल देता है जिसके जरिए आए दिन बुर्जुआ नेताओं और नायकों की वीरता गुणगान किया जाता है।मार्क्स ने लिखा ´पूंजीवादी समाज यद्यपि वीरत्व शून्य है,फिर भी उसे अस्तित्व में लाने के लिए वीरत्व,त्याग,आतंक,गृहयुद्ध और जनसंघर्षों की आवश्यकता पड़ी थी।´
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