सोमवार, 15 अगस्त 2016

कलकत्ते के वे दिन

      मैं 1989 में जब कलकत्ता आया तो आने के कुछ ही दिन बाद रोज ´स्वाधीनता´अखबार के दफ्तर जाता था वहां अयोध्या सिंह,महादेव साहा,इजरायल, अरूण माहेश्वरी,सरला माहेश्वरी के साथ घंटों बैठना होता। तरह –तरह की बातें होतीं।हमलोगों का रोज शाम को चार बजे लेकर 8बजे तक का समय बहुत ही मस्ती और आनंद में कटता, इस दौरान देश-दुनिया की तमाम खबरों के साथ –साथ कम्युनिस्ट आंदोलन की समस्याओं,कम्युनिस्ट नेताओं के आचरण और उनमें आ रहे परिवर्तनों पर भी लंबी बातचीत होती थी।लंबे समय तक यही मेरी दिनचर्या थी , मैं कलकत्ता विश्वविद्यालय से कक्षाएं करके ´स्वाधीनता´चला आता,वहां 3-4घंटे रहता और अंत में लौटते समय अरूण माहेश्वरी अपनी गाड़ी से उलटा डांगा छोड़ देते और वहां से बस लेकर मैं अपने घर चला आता,अरूण जब ´स्वाधीनता´नहीं आता तब मैं जोडागिरजा से बस लेकर अकेले घर लौटता।इसी क्रम में धीरे –धीरे ´स्वाधीनता´ अखबार में कई साल मैंने जमकर लिखा। क्या लिखा और किस तरह की समस्याओं का सामना किया इस पर बाद में फिर कभी लिखूँगा। महादेव साहा चलते-फिरते इनसाइक्लोपीडिया थे। वहीं दूसरी ओर अयोध्या सिंह की इतिहास और कम्युनिस्ट आंदोलन को लेकर बहुत गहरी समझ थी।इनके बीच में शाम गुजारने के कई लाभ थे,पार्टी भी उनसे लाभान्वित होती थी,हमसब भी।

हम सबकी शाम का मुख्य नाश्ता मूडी(मुरमुरा),चना,मूंगफली,कभी -कभी पकौड़े या चॉप या समौसा हुआ करता,साथ में ब्लैक टी।हालत यह थी कि हम सब शाम को मिलने के आदी हो गए थे।रोज शाम मिलने के लिए बुरी तरह झटपटाते थे,किसी को देर भी हो जाए तब भी मिलने जरूर आते थे।इस मेल-मुलाकात में कॉमरेडशिप तो थी साथ ही बात करने का सुख था जिसके कारण हम सब एक-दूसरे के आने का बेसब्री से इंतजार करते रहते।इजरायल साहब का हाल यह था उनकी अरूण-सरला के साथ बातें रोज रात साढ़े दस बजे के पहले खत्म नहीं होती थीं।इजरायल,अरूण,सरला और मैं एक साथ अरूण की गाड़ी से निकलते,मैं बीच में उलटाडांगा उतर जाता ,वे तीनों अरूण के घर चले जाते।

इस दैनंदिन मेल-मुलाकात के कारण अनेक काम हुए,जमकर बेशुमार लिखना हुआ।सरला जब सांसद बनकर दिल्ली चली गयी तो अरूण भी साथ चला गया,लेकिन वो हर सप्ताह शनिवार को जरूर कोलकाता आ जाती और हम लोग फिर मिलकर बातें करते। बीच-बीच में महादेव साहा भी दिल्ली चले जाते लेकिन कुछ दिन वहां रहकर लौट आते।



मैं जेएनयू से जब कोलकाता आया तो बेहद परेशान था ,कोलकाता में शाम की संगत ,सुंदर बातचीत आदि के लिए सही साथी नहीं दीखे,हिन्दी के शिक्षकों की सीमाओं और सीमित दुनिया से मैं वाकिफ था इसलिए उसमें समय गुजारना बहुत मुश्किल था,हिन्दी शिक्षकों से विचारयुक्त मित्रता कोलकाता में संभव नहीं दिखी,ऐसी स्थिति में ´स्वाधीनता´में उपरोक्त कॉमरेडों का साथ बहुत सुखकारी साबित हुआ।

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