साहित्य में गालियों पर जब बहस हो रही है तो हम इस सवाल पर सोचें कि आलोचना में कभी किसी बड़े आलोचक ने आलोचना में गाली का इस्तेमाल क्यों नहीं किया ॽ जबकि आलोचना भी तो इसी समाज में लिखी जा रही है और आलोचक भी इसी समाज से आता है ! वह उन मसलों पर भी गालियां नहीं लिखता जिन पर बोलते हुए आए दिन गालियां खाता है ! मैंने कम से कम ऐसे किसी आलोचक को नहीं पढ़ा जो आलोचना लिखते समय लेखक,आलोचक,पात्र या परिस्थितियों को गाली दे।हिन्दी में अ-कविता के पहले साहित्य में गालियों का चलन नहीं था।अ-कविता वालों ने चमद वर्षों बाद गाली का मार्ग छोड़ दिया ,पता करो क्यों ॽ क्यों अन्य कवियों ने उनका अनुकरण नहीं किया ॽ
भारत में रचना में कामसूत्र सैंकड़ों साल रमता रहा है। समूचा संस्कृत साहित्य श्रृंगार रस में 18सौ वर्षों तक डूबा रहा,लेकिन गालियां नहीं लिखी गयीं। शरीर,शारीरिक क्रियाएं,संभोग,वियोग,दुख,सुख सब है, लेकिन गालियां नहीं हैं।सवाल यह है क्या मध्यकाल या प्राचीनकाल में समाज में गालियां नहीं थीं ॽ क्या गालियां आधुनिकाल काल के समाज की देन हैं ॽ आखिरकार गालियां आई कहां से ॽ
भारत साहित्य परंपरा में कोई चीज अछूत नहीं थी,न स्त्री अछूत थी और न उसका सौंदर्य टेबू था,न उसका प्रेम दुर्लभ था! साहित्य अनेक किस्म के रोमांस से भरा पड़ा है,संभोग विमर्श से भी भरा पड़ा है,यहां तक कि शिव-पार्वती के संभोग का वर्णन भी है।पौराणिक कथाओं में भगवान,ऋषि,गन्धर्व आदि के कथानकों के जरिए सैंकड़ों पुराने टेबू तोड़े गए हैं और नए टेबू बनाए गए हैं लेकिन गालियां लिखने का चलन नहीं था।
फेसबुक पर कुछ लोग हिमायत कर रहे हैं कि गालियां भी साहित्य है, वह जायज है,तो उनके लिए या फिर गालियों के लेखक के लिए वह तात्कालिक तौर पर जायज हो सकता है लेकिन साहित्यबोध के विकास में साहित्य के स्तर को ऊँचा उठाने के लिहाज से गालियों का चित्रण करने वाला साहित्य कभी समाज और साहित्य पर अपनी छाप नहीं छोड़ पाया है।जिन लेखक-लेखिकाओं ने कभी गालियों का प्रयोग किया है वे जल्द ही गालियों से दामन छुड़ाकर सभ्यता की शरण में लौटे हैं।
मसलन् सवाल यह है ´तमस´ और ´झूठा सच´ जैसे उपन्यास क्लासिकल असर पैदा करते हैं या विभाजन पर लिखी वे रचनाएं जिनमें गालियां हैं ॽ गालियाँ रचना को सुंदर नहीं बनातीं।यह तर्क गलत है कि पात्र बोलते हैं इसलिए लेखक लिखने को मजबूर है।सवाल यह है लेखक चुनता क्या है ॽ लेखक यदि प्रकृतवादी नजरिए से देखेगा तो उसे जो दिखेगा उसका बिना चयन के चित्रण करेगा लेकिन यथार्थवादी नजरिए से देखेगा तो यथार्थ में से चुनेगा।कार्ल मार्क्स ने एमिल जोला और बाल्जाक की रचनाओं का जिस आधार पर मूल्यांकन किया है उससे हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। एमिल जोला ने ´नाना´उपन्यास में समाज में जो कुछ देखा उस सबका चित्रण किया ,कोई चीज उससे छूटी नहीं।संभवतःवह बेटे से मां को सेक्स करते चित्रित कर देता है। जोला का तर्क था उसने जो देखा वही लिखा,लेकिन मार्क्स ने इस बात को स्वीकार नहीं किया,लेखक के पास चयन का नजरिया होना ही चाहिए।
हमारे बीच में अनेक लेखक हैं जिनके पास चयन का नजरिया नहीं है,वे जो देखते हैं वही रच रहे हैं,उनके पात्र जिस भाषा को बोल रहे हैं, वे उसी भाषा को लिख रहे हैं।चयन के नजरिए के अभाव में लिखी रचनाएं प्रकृतवाद के दायरे में आती हैं,वे यथार्थवादी रचनाएं नहीं हैं।यथार्थवादी लेखक तो यथार्थ में से चुनता है।हमारे जो मित्र गालियों के पक्ष में लिख रहे हैं हम उनसे कहना चाहते हैं वे जरा इतिहास में जाएं और प्रकृवाद बनाम यथार्थवाद की बहस पढ़ें,मार्क्स-एंगेल्स को भी पढ़ें,आखिरकार मार्क्स ने क्यों बालजाक को यथार्थवाद का चितेरा कहा और जोला को नहीं,जबकि यथार्थ तो जोला के यहाँ भी था।
भारत में रचना में कामसूत्र सैंकड़ों साल रमता रहा है। समूचा संस्कृत साहित्य श्रृंगार रस में 18सौ वर्षों तक डूबा रहा,लेकिन गालियां नहीं लिखी गयीं। शरीर,शारीरिक क्रियाएं,संभोग,वियोग,दुख,सुख सब है, लेकिन गालियां नहीं हैं।सवाल यह है क्या मध्यकाल या प्राचीनकाल में समाज में गालियां नहीं थीं ॽ क्या गालियां आधुनिकाल काल के समाज की देन हैं ॽ आखिरकार गालियां आई कहां से ॽ
भारत साहित्य परंपरा में कोई चीज अछूत नहीं थी,न स्त्री अछूत थी और न उसका सौंदर्य टेबू था,न उसका प्रेम दुर्लभ था! साहित्य अनेक किस्म के रोमांस से भरा पड़ा है,संभोग विमर्श से भी भरा पड़ा है,यहां तक कि शिव-पार्वती के संभोग का वर्णन भी है।पौराणिक कथाओं में भगवान,ऋषि,गन्धर्व आदि के कथानकों के जरिए सैंकड़ों पुराने टेबू तोड़े गए हैं और नए टेबू बनाए गए हैं लेकिन गालियां लिखने का चलन नहीं था।
फेसबुक पर कुछ लोग हिमायत कर रहे हैं कि गालियां भी साहित्य है, वह जायज है,तो उनके लिए या फिर गालियों के लेखक के लिए वह तात्कालिक तौर पर जायज हो सकता है लेकिन साहित्यबोध के विकास में साहित्य के स्तर को ऊँचा उठाने के लिहाज से गालियों का चित्रण करने वाला साहित्य कभी समाज और साहित्य पर अपनी छाप नहीं छोड़ पाया है।जिन लेखक-लेखिकाओं ने कभी गालियों का प्रयोग किया है वे जल्द ही गालियों से दामन छुड़ाकर सभ्यता की शरण में लौटे हैं।
मसलन् सवाल यह है ´तमस´ और ´झूठा सच´ जैसे उपन्यास क्लासिकल असर पैदा करते हैं या विभाजन पर लिखी वे रचनाएं जिनमें गालियां हैं ॽ गालियाँ रचना को सुंदर नहीं बनातीं।यह तर्क गलत है कि पात्र बोलते हैं इसलिए लेखक लिखने को मजबूर है।सवाल यह है लेखक चुनता क्या है ॽ लेखक यदि प्रकृतवादी नजरिए से देखेगा तो उसे जो दिखेगा उसका बिना चयन के चित्रण करेगा लेकिन यथार्थवादी नजरिए से देखेगा तो यथार्थ में से चुनेगा।कार्ल मार्क्स ने एमिल जोला और बाल्जाक की रचनाओं का जिस आधार पर मूल्यांकन किया है उससे हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। एमिल जोला ने ´नाना´उपन्यास में समाज में जो कुछ देखा उस सबका चित्रण किया ,कोई चीज उससे छूटी नहीं।संभवतःवह बेटे से मां को सेक्स करते चित्रित कर देता है। जोला का तर्क था उसने जो देखा वही लिखा,लेकिन मार्क्स ने इस बात को स्वीकार नहीं किया,लेखक के पास चयन का नजरिया होना ही चाहिए।
हमारे बीच में अनेक लेखक हैं जिनके पास चयन का नजरिया नहीं है,वे जो देखते हैं वही रच रहे हैं,उनके पात्र जिस भाषा को बोल रहे हैं, वे उसी भाषा को लिख रहे हैं।चयन के नजरिए के अभाव में लिखी रचनाएं प्रकृतवाद के दायरे में आती हैं,वे यथार्थवादी रचनाएं नहीं हैं।यथार्थवादी लेखक तो यथार्थ में से चुनता है।हमारे जो मित्र गालियों के पक्ष में लिख रहे हैं हम उनसे कहना चाहते हैं वे जरा इतिहास में जाएं और प्रकृवाद बनाम यथार्थवाद की बहस पढ़ें,मार्क्स-एंगेल्स को भी पढ़ें,आखिरकार मार्क्स ने क्यों बालजाक को यथार्थवाद का चितेरा कहा और जोला को नहीं,जबकि यथार्थ तो जोला के यहाँ भी था।
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