आत्मसम्मोहित
स्त्री यह मानने को तैयार नहीं होती कि औरों की रूचि उसमें नहीं है।वह प्यार न किए
जाने को घृणा समझने लगती है।वह सब कुछ को ईर्ष्या या घृणा समझकर आलोचना करती है।
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आत्ममुग्धा का
प्रदर्शनप्रियता प्रधान गुण है।वह प्रदर्शन सहजरूप में नहीं बल्कि कृत्रिम रूप में
करती है,वह अपने जीवन को एक ऐसा
दर्शनीय दृश्य बनाना चाहती है जिसे देखकर लोग लगातार तालियाँ बजायें।
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आत्ममुग्धा के
जीवन का विरोधाभास यह है कि वह उस विश्व से महत्व प्राप्त करना चाहती है जिसे उसे
मूल्यहीन समझना चाहिए,क्योंकि उसके
विचारानुसार तो वह केवल अपने को ही महत्व देती है।दूसरों से मान्यता प्राप्त करना
तो सनक है,अमानवीयता है।
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आत्ममुग्धा
स्त्री की विशेषता है कि वह व्यक्ति विशेष के अत्याचार से बचने के लिए वह आम जनता
के अत्याचार को स्वीकार करती है।जिस बंधन से वह दूसरों के साथ बंधती है,उसमें पारस्परिकता नहीं होती।
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आत्ममुग्धा
स्त्री की आकृति मांस से निर्मित है और शीघ्र ही विकृत हो जाती है।
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आत्ममुग्ध स्त्री
कुछ नहीं करती,वह अपने को कुछ
नहीं बना सकती।वह तो किसी अस्तित्वहीन के सामने मानो "अगरबत्ती " जलाकर
सुगंध बिखेरना चाहती है।
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