शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

फेसबुक और मीडिया का सांस्कृतिक परिवेश-1-


     फेसबुक संचार की दुनिया में लंबी छलांग है। यह एक ऐसा सामाजिक मंच है जिस पर आप व्यापार,संवाद,संचार,विचार-विमर्श,राजनैतिक प्रचार,सामाजिक गोलबंदी आदि कर सकते हैं। यह ऐसा मंच है जो व्यक्तिगत और सामाजिक एक ही साथ है। यह ऐसा मंच भी है जो संचार के साथ -साथ आपके ऊपर नजरदारी भी करता है। यह सूचनाओं का साझा सामाजिक मंच है।
   फेसबुक के यूजरों की संख्या 60 करोड़ से ऊपर है। आज फेसबुक पर गतिविधियां ज्यादा चल रही हैं। इसने गूगल की गतिविधियों को काफी पीछे छोड़ दिया है। इंटरनेट पर इस समय 40 हजार से ज्यादा सर्वर हैं जो सोशल नेटवर्क का इस्तेमाल कर रहे हैं। फेसबुक पर प्रतिमाह 4 बिलियन से सूचनाएं यूजरों के द्वारा साझा इस्तेमाल की जाती हैं। 850 मिलियन से ज्यादा फोटोग्राफ हैं और 8 बिलियन वीडियो हैं। ये सब गूगल के पास नहीं हैं।
    कुछ अर्सा पहले तक यह माना जा रहा था कि गूगल सारे विश्व का सूचना कुबेर है लेकिन फेसबुक के आने और तेजी से विस्तार करने के साथ ही गूगल की जगह सूचना कुबेर का पद फेसबुक ने हथिया लिया है। आज फेसबुक सारी दुनिया में सूचनाओं का सबसे बड़ा खजाना है। गूगल से ज्यादा फेसबुक पर हलचल हो रही है।  
    क्लारा शिन ने "दि फेसबुक एराः टेपिंग ऑनलाइन सोशल नेटवर्क्स टु बिल्ड बेटर प्रोडक्टस,रीच न्यू ऑडिएंशेज,एंड सेल मोर स्टफनामक किताब में लिखा है ऑनलाइन सोशल नेटवर्क के तेजी से विस्तार ने हमारी जीवनशैली,काम और संपर्क की प्रकृति को बुनियादी तौर पर बदल दिया है। इसने व्यापार के विस्तार की अनंत संभावनाओं को जन्म दिया है।
   फेसबुक विस्तार के तीन प्रधान कारण हैं। पहला, विश्वसनीय पहचान। दूसरा,विशिष्टता और तीसरा है समाचार प्रवाह। फेसबुक द्वारा डाटा और सूचनाओं के सार्वजनिक कर देने के बाद से इंटरनेट पर्दादारी का अंत हो गया है। सूचना की निजता की विदाई हुई है और वर्चुअल सामाजिकता और पारदर्शिता का उदय हुआ है। डाटा के सार्वजनिक होने से यूजर आसानी से पहचान सकता है कि वह किसके साथ संवाद और संपर्क कर रहा है।
ब्लॉगिंग के साथ निजी सूचनाओं के सार्वजनिक करने की परंपरा आरंभ हुई थी जिसे फेसबुक ने नयी बुलंदियों पर पहुँचा दिया है। इसका यह अर्थ नहीं है कि सामाजिक जीवन से निजता का अंत हो गया है। इसका अर्थ सिर्फ इतना है कि इंटरनेट पहले की तुलना में और भी ज्यादा पारदर्शी बना है। साथ ही सामान्य लोगों में निजी बातों को सार्वजनिक करने की आदत बढ़ी है। निजी और सार्वजनिक बातों के वर्गीकरण के सभी पुराने मानक दरक गए हैं।
     फेसबुक ने प्राइवेसी का अर्थ भी बदला है पहले प्राइवेसी का अर्थ था छिपाना। लेकिन इंटरनेट युग में अब कुछ भी छिपाना संभव नहीं है। आज प्राइवेसी का अर्थ है संचार के संदर्भ का सम्मान करना। लोगों को संचार के संदर्भ के बाहर ठेलना इसका मकसद नहीं है। अनेक लोग सोचते हैं कि फेसबुक उनकी प्राइवेसी का हनन कर रहा है। ऐसा सोचना सही नहीं है। फेसबुक में एक विकल्प है ' सिर्फ मित्र के लिए' यानी आप अपनी सूचना मित्र को ही शेयर करना चाहते हैं।लेकिन यह भी नहीं चाहते तो उसका भी विकल्प है।
   फेसबुक के बारे में यह कहा जा रहा है कि यह संचार का सर्वोत्तम रूप है और इसकी सफलताओं को परवर्ती पूंजीवाद की सफलताओं के रूप में देखा जा रहा है। इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का परम रूप तक कहा जा रहा है। सच इसके एकदम उलट है। फेसबुक या अन्य ग्लोबल मीडिया के हमारे घरों तक चले आने का अर्थ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का विस्तार नहीं है बल्कि यह नियंत्रण का विस्तार है। यह स्वतंत्र का विस्तार और नियंत्रण दोनों है। इससे सूचना दरिद्र और सूचना समृद्ध की खाई और भी चौड़ी हुई है।
  उल्लेखनीय है इंटरनेट आने के बाद दरिद्रता और असमानता के खिलाफ राजनीतिक जंग कमजोर हुई है। वर्चस्वशाली ताकतों को बल मिला है। सामाजिक और राजनीतिक निष्क्रियता बढ़ी है। शाब्दिक गतिविधियां बढ़ी हैं,कायिक शिरकत  घटी है। अब हम वर्चुअल में मिलते हैं और वर्चुअल में ही गायब हो जाते हैं। वर्चुअल की तथाकथित स्वतंत्रता का मजा लेते हैं।
     माध्यम की भाषा में वर्चुअल का अर्थ है यथार्थ का विलोम। वर्चुअल के संचार ने समाज में वर्चस्वशाली ताकतों को और भी ज्यादा ताकतवर बनाया है और सामान्यजन को अधिकारहीननियंत्रित और पेसिव बनाया है।
     आज लोकतांत्रिक विमर्श,बहस,विवाद, संघर्ष की जगह समाज में नहीं टीवी स्क्रीन और इंटरनेट में है। लोकतंत्र का मंच समाज नहीं टीवी चैनल हो गए हैं। पक्षधर कहते हैं टीवी चैनल मुक्तसमाज का दर्पण हैं। मानवाधिकारों के सरोकारों का मंच हैं। टीवी पर आई खबर स्वतःप्रमाण है।
     असल में टीवी में जो है वही हमारा कॉमनसेंस भी है। जीवन और मन पर हमने टीवी के बताए मार्ग,लालच,झूठ और सच,विचार आदि को धारण कर लिया है। टीवी हमारे जीवन का माई-बाप हो गया है। इसके कारण हम कम से कम तथ्यों में जीने लगे हैं। अब हमें ज्यादा तथ्यों की नहीं कम तथ्यों में जीने की आदत पड़ गयी है। टीवी के तथ्य ऐसे हैं जिनके लिए किसी सामाजिक एक्शन की दरकार नहीं है।
     टीवी पर बढ़ती निर्भरता ने व्यक्ति के मेनीपुलेशन की अनंत संभावनाओं को जन्म दिया है। आज सामान्यजन की आस्था और विश्वास की दुनिया पूरी तरह टीवी पर टिकी है अतः अपनी नियत धारणाओं के परे जाकर तथ्यों को खोजना दूभर हो गया है।
      टीवी जिन्हें विशेषज्ञ के रूप में पेश करता है उन्हें ही हम संबंधित विषय का विशेषज्ञ मानते हैं। हम सीमित तथ्यों में बंधे रहते हैं और उनके आधार पर ही सोचते हैं,टीवी जैसा समझा रहा है हम वैसी ही जीवनशैली अपनाते चले जा रहे हैं।वह जैसा मनोरंजन देता है वैसे ही मनोरंजन के आदी हो गए हैं। हमारे चारों ओर नकली चीजों ने नाकेबंदी कर ली है। हमें कोई नहीं बताता कि नकली दुनिया के बाहर कैसे निकलें।  साहित्य से लेकर संस्कृति तक कॉमनसेंस की सत्ता को प्रतिष्ठित करने की मुहिम चल रही है। कॉमनसेंस की बातों के आधार पर सत्य को परखने की कोशिश की जा रही है। टीवी के माध्यम से बृहत्तर समाज को सुझाव दिए जा रहे हैं। इन सुझावों के आधार पर ही आम सहमति बनाने की कोशिशें हो रही हैं। आज  वातावरण ऐसा बना दिया गया है कि जो बात तत्काल समझ में नहीं आती उसे तुरंत ही बकबास कहकर खारिज कर देते हैं। जो अप्रिय सत्य है उसे हम देखने और सुनने को तैयार नहीं होते।जो तर्क हमारे कॉमनसेंस के खिलाफ होते हैं उन्हें हंसी-मजाक में उड़ा देते हैं। जो जगत हमारी तयशुदा समझ के परे होता है उसे एकसिरे से खारिज कर देते हैं। अथवा जो बात हमारे हितों के खिलाफ होती है उसे खारिज कर देते हैं।
    परवर्ती पूंजीवादी समाज के मनुष्य की विशेषता है विवेक और दृढ़ता का अभाव। यह ऐसा मनुष्य है जो सवाल नहीं करता। इसके पास सामाजिक हितों का बोध नहीं है।
    मीडिया हमारे मन में यह विश्वास भी पैदा करता है कि हम चीजों को नियंत्रित नहीं करते। चूंकि हम नियंत्रित नहीं करते फलतः हमें बार बार यही बोध होता है कि जो कुछ गलत हो रहा है उसके लिए हम निजी तौर पर जिम्मेदार हैं। मीडिया ने ऐसा वातावरण बनाया है जिसके कारण अधिकांश लोग अब अपनी राय व्यक्त ही नहीं करते। मीडिया लोगों को मुँह खोलने की बजाय मुँह बंद रखने की आदत पैदा कर रहा है। संशय,अर्द्धसत्य ,भ्रम,और नाटकीयता ये चार तत्व हैं जिन्हें मीडिया पैदा कर रहा है।
      अमेरिका नियंत्रित माध्यमों में वर्चस्वशाली ताकतों के खिलाफ प्रतिवाद के लिए कोई जगह नहीं होती। धीरे धीरे भारत का कारपोरेट मीडिया भी उसी दिशा में जा रहा है। यहां पर प्रतिवाद के लिए स्थान कम होता जा रहा है।
    यह उपभोक्ता समाज है। इसमें व्यक्ति की निजी अनुभूति का हिस्सा है यथार्थ । यथार्थ के नए रूपों ने पुराने रूपों को अपदस्थ कर दिया है। आज यथार्थ संकेतों और 'फीलिंग' में व्यक्त होता है। वस्तु की अनुभूति में व्यक्त होता है। एक अवस्था के बाद यह अनुभूति गायब हो जाती है और यही वह अवस्था है जब हम 'हाइपर रियलिटी' से दो चार होते हैं। दो सौ साल पहले जिस यथार्थ का उदय हुआ था उसे अब हम खो चुके हैं। वह अपना परा-भौतिक मर्म खो चुका है। अब सामयिक समाज वर्चुअल रियलिटी में दाखिल हो चुका है। यथार्थ को अब तक अवधारणा के रूप में देखते रहे हैं। सामान्यत: यह वस्तु की अमूर्त मानसिक धारणा है। यह ऐसी धारणा है जिसे सामुदायिक चेतना के रूप में प्राप्त करते हैं। आज यह अपनी चारित्रिक विशेषताएं खो चुकी है। अथवा व्यक्तिगत अनुभूति के रूप में संकुचित होकर रह गयी है।सामूहिक प्रस्तुति के युग से निकलकर व्यक्तिगत अनुभूति के युग में दाखिल  हो गई है। परिणामत: यथार्थ सामूहिक नियमन से निकलकरव्यक्तिगत नियमन की अवस्था में दाखिल होगया है इससे यथार्थ विकृत हुआ है। देखने पर लगेगा कि समाज अपने को आधुनिक मानता है।  लेकिन जिसे हम आधुनिक समाज कहते हैं वह आधुनिक समाज नहीं है बल्कि 'अनुकरण समाज' है। इस समाज को अनुकरणमूलक परिवेश मिला है। यह ऐसा समाज है जिसमें हर चीज वस्तु है। यह ऐसा जगत है जो हमारे बारे में सोच रहा है हम उसके बारे में सोच रहे हैं।  आज किताब आपको पढ़ रही है, टीवी आपको देख रहा है। वस्तुएं हमारे बारे में सोच रही हैं। लेंस हमें देख रहे हैं। इनका भाव हमें प्रभावित कर रहा है। भाषा हमसे बोल रही है। समय हमारे पास खाली पड़ा है। पैसा हमें कमा रहा है। मौत हमारा इंतजार कर रही है।
       आज हम घर बैठे टीवी देखते हैं,जिसमें 5सौ से ज्यादा चैनल उपलब्ध हैं, चैनलों में जो दिखाया जा रहा है क्या वह हमारा यथार्थ है ?क्या उस यथार्थ के साथ वास्तव यथार्थ की तुलना कर सकते हैं ? क्या यह यथार्थ है ? यह टीवी इमेज है ? यदि टीवी इमेज है तो यथार्थ और इमेज के बीच क्या संबंध है ? क्या इमेज को यथार्थ मान लें ? क्या टीवी इमेजों को अ-यथार्थ मानकर खारिज किया जा सकता है ? हम टीवी में जो देख रहे हैं यदि वह यथार्थ नहीं है और प्रस्तुतिभर है तो आखिरकार उसे कैसे देखें ? अथवा समाज में मौजूद यथार्थ के अनेक रूपों को कैसे देखें ? यथार्थ की अनेक इमेजों को जब हम देखते हैं तो क्या खोखली इमेजों को देखते हैं ? आखिरकार इस तरह की इमेजों को किस तरह की सैध्दान्तिकी के आधार पर पढें ? क्या इस तरह के मामलों में इमेज को अस्वीकार करके पढ़ा जा सकता है ? इत्यादि सवालों पर विस्तार से विचार किया जाना चाहिए।
    





2 टिप्‍पणियां:

  1. नवीन मीडिया पर शोध हिंदी में नगण्य है पुस्तक भी कोई प्रमाणिक नहीं है क्या आप नही लगता कि इन नये विषय पर हिंदी में शोध होनी चाहिए ताकि हिंदी और समृध भाषा बन सके

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  2. जैसे स्कूल के बच्चे मास्साब की ग़ैरहाज़िरी में ब्लैकबोर्ड पर कुछ-कुछ लिख देते हैं ...वही हाल है फ़ेसबुक का तो.

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