शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

अठारह सौ सत्तावन का विद्रोह और तवाइफें-लता सिंह


इतिहास, मुकाबले का एक खास मैदान बनकर सामने आता है। यह उन तबकों के लिए खास तौर पर सच है जो समाज के हाशिए पर रहे हैं। इस तरह, इसकी कोशिशें की जाती रही हैं कि लंबे अर्से से अदृश्य बनाकर रख दिए गए आम लोगों की आवाज को, इतिहास में उभारकर सामने लाया जाए। शायद, महिलाओं की आवाजें सुनने के लिए तो अतीत का बाकायदा उत्खनन ही करना पड़ेगा। इस तरह का श्रम तब तो खास तौर पर जरूरी हो जाता है, जब उन नाचने-गाने वाली तवाइफों की भूमिका का सवाल आता है, जो 1857 के विद्रोह के साथ जुड़ी रही थीं।
समाज और इतिहास से निर्वासित
याद रहे कि किस्सा उन महिलाओं का है जिन्हें 'भोंडा', 'अश्लील', 'जरूरत से ज्यादा मुखर', 'नैतिक रूप से पतित', 'कामुक' आदि-आदि बताया जाता था। ये ऐसी महिलाएं थीं, जिन्हें सार्वजनिक दायरे तक कहीं ज्यादा पहुंच हासिल थी और जो अपेक्षाकृत स्वतंत्र थीं। इस तरह वे अचल सामाजिक संरचनाओं के बाहर थीं और जाति, वर्ग और लिंग की सुस्थापित संबंध व्यवस्थाओं या एक तयशुदा दायरे के साथ बंधी हुई नहीं थीं।
इसी का नतीजा था कि उन्हें 'भीतरघाती' माना जाता था और समझा जाता था कि उनसे स्थापित व्यवस्था के लिए खतरा है। सच तो यह है कि इतिहास के विषय में रूप में इन महिलाओं को देखने भर से, मध्यवर्ग की 'सम्मानित' व्यवस्था 'अस्थिर' हो जाती है। शायद इसीलिए 1857 के विद्रोह के विवरणों में तवाइफें प्राय: अदृश्य ही हो गई हैं। राष्ट्रवादी इतिहास लेखन में एक सम्मानित 'राष्ट्र' के अपने ढांचे से उन्हें पूरी तरह से बाहर ही रखकर, उनकी इस रचनात्मक भूमिका को या तो नकार ही दिया है या फिर मिटा दिया है।
आखिरकार, महिलाओं का सार्वजनिक मनोरंजनकर्ताओं और पुरुषों की लालसा के केंद्र के रूप में सामने आना, अंगरेजी में शिक्षित अभिजात वर्ग के हित में नहीं पड़ता था। उन्हें तो इन तवाइफों के प्रति-आदर्श के तौर पर, सुगृहिणी की छवि ही ज्यादा प्रिय थी। इसीलिए, तवाइफों को 'वेश्या' के रूप में कलंकित स्टीरियोटाइप किया जाता था।
इस टिप्पणी में हम कला का प्रदर्शन करने वाली महिलाओं के समुदायों में से एक, तवाइफों की भूमिका का जिक्र करेंगे। यह ऐसा समुदाय है जो नाचने-गाने के पेशे में लगा हुआ था। तवाइफ शब्द ने बेशक वक्त गुजरने के साथ जन-मानस में एक नैतिकवादी अर्थध्वनि प्राप्त कर ली है। सच तो यह है कि 'वेश्या' के साथ खड़े किए जाने की वजह से इन महिला कलाकारों को खामोश हो जाने पर मजबूर कर दिया गया। जब भी उन्होंने अपनी आवाज उठाई, उन्हें उदार मिथकों के सहारे अपना पुराविष्कार करना पड़ा, ताकि अपने स्वाभिमान को पुख्ता कर सकें, जिसे उनके 'पतित' और 'खतरनाक' औरत होने का बार-बार जिक्र किए जाने ने कमजोर किया था। दुर्भाग्य से इन महिलाओं के लेखन में से शायद ही कुछ बच पाया होगा, जबकि उन्हें अपने समय की सबसे शिक्षित महिलाएं माना जाता था। जाहिर है कि इनके मामले में विद्वानों और इतिहासकारों की चुप्पी ने, इन महिलाओं की चुप्पी को और गहरा किया है। इस तरह, एक पूरे के पूरे पेशे को ही ऐतिहासिक स्मृति से मिटा दिया गया है, जिसके साथ अनेक सार्वजनिक दायरे में सक्रिय महिलाएं जुड़ी हुई थीं। विडंबना यह है कि नारीवादी विद्वानों तक के लेखन में भी ये महिलाएं अदृश्य ही बनी रही हैं।
उपनिवेशविरोधी संघर्ष में भूमिका
1857 के विद्रोह में तवाइफों की भूमिका की पड़ताल करते हुए इस टिप्पणी में औपनिवेशिक इतिहास के इन 'निर्बंध' तत्वों की जगह फिर से खोजने और साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष में उनकी जगह और भूमिका को फिर से स्थापित करने की कोशिश की जा रही है। इसमें शक नहीं कि इससे विद्रोह के इतिहास लेखन में एक महत्वपूर्ण पहलू जुड़ेगा। यह इतिहास लेखन इन महिलाओं को अदृश्य बनाए जाने की कोशिशों का शिकार है। इस विद्रोह के 'साधारण विद्रोहियों' का अध्ययन, विद्रोह में पुरुषों की हिस्सेदारी पर ही केंद्रित बना रहा है। रानी लक्ष्मीबाई जैसे अपवादों को छोड़कर विद्रोह के संबंध में पूरी की पूरी चर्चा में, उसमें साधारण महिलाओं की भागीदारी पर शायद ही कोई रोशनी पड़ती होगी। इसके चलते, तवाइफों की भूमिका का अध्ययन ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण हो जाता है। ऐसा इसलिए और भी ज्यादा है कि ऐसे ऐतिहासिक साक्ष्य मौजूद हैं जो दिखाते हैं इन तवाइफों में से कुछ ने राजनीति में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी, हालांकि इतिहास लेखन की मुख्यधारा में इनकी राजनीतिक आवाज को अदृश्य ही कर दिया गया है।
इस टिप्पणी में हम 1857 के दौरान, कानपुर में ऐसी ही एक तवाइफ, अजीजुन की भूमिका की चर्चा करेंगे। कानपुर इस विद्रोही धावे के मुख्य केंद्रों में से एक था। विद्रोहियों ने कानपुर की छावनी पर धावा बोला था और आगे चलकर उस पर कब्जा कर लिया था। 27 जून 1857 को विद्रोहियों ने सतीचौरा घाट पर सार्वजनिक रूप से 300 से ऊपर अंगरेज औरतों, मर्द और बच्चों को मौत के घाट उतारा था। इसके बाद 15 जुलाई को बीबीघर में सुरक्षित औरतों और बच्चों के एक ग्रुप को मौत के घाट उतारा गया था।
कानपुर में विद्रोह की कथा की पुनर्रचना करने में एक बड़ी कठिनाई सामग्री के स्रोतों की कमी रही है। वास्तव में यहां विद्रोह के संबंध में प्राथमिक स्रोत के रूप में मुख्यत: औपनिवेशिक विवरण ही बचे हैं। इन प्राथमिक स्रोतों में विद्रोह के बीच से बच रहे अंगरेजों द्वारा लिखे गए समकालीन विवरण, अंगरेजों के वफादारों की डायरियां और सरकारी रिपोर्टों के तौर पर ब्रिटिश अधिकारियों के वक्तव्य आदि मुख्य हैं। सामान्य अपेक्षा के विपरीत, इन औपनिवेशिक विवरणों को ही हमें पढ़ना होगा।
अजीजुन की कहानी
बहरहाल, इस प्राथमिक स्रोत सामग्री से गुजरते हुए एक बात जो खास तौर पर हैरानी की लगती है, वह यह है कि मुख्यधारा के इतिहास लेखन में इस तरह की औरतों को अदृश्य करने के तमाम प्रयासों के बावजूद, विद्रोह के अधिकांश औपनिवेशिक विवरणों में अजीजुन का नाम देखने को मिलता है। यहां तक कि उसका जिक्र वीडी सावरकर के तथाकथित राष्ट्रवादी लेखन में और एस.बी. चौधुरी जैसे राष्ट्रवादी इतिहासकारों की कृतियों तक में देखने को मिलता है। इस तमाम लेखन में उसकी भूमिका के लिए और खास तौर पर 'राष्ट्र की स्वतंत्रता' के लिए उसके संघर्ष के लिए, अजीजुन को सराहा गया है।
विद्रोह के अधिकांश विवरणों में विद्रोहियों के साथ अजीजुन के लड़ने का जिक्र आता है। उसके संबंध में बताया जाता है कि वह पुरुष वेश में घोड़े पर सवार होकर और तमगों से सजकर और पिस्तौलों से लैस होकर निकलती थी। ऐसा लगता है कि कानपुर में जिस रोज नाना साहेब की शुरुआती जीत की खुशी में झंडा फहराया गया था, वह उसी दिन जुलूस में शामिल हुई थी। कानपुर में अजीजुन का नाम लोगों की स्मृति में आज भी जिंदा है। अभी पिछले ही दिनों एक अखबार की रिपोर्ट में बताया गया था कि किस प्रकार कानपुर के लोगों ने एक सड़क का नाम अजीजुन के नाम पर रखने की मांग की है।
अजीजुन कानपुर में लुरकी माहिल में, ओमारू बेगम की कोठी में रहती थी। उसकी मां एक तवाइफ थी, जो लखनऊ में रहती थी। ऐसा माना जाता है कि 1832 में जन्मी अजीजुन के सिर से मां का साया काफी कम उम्र में ही उठ गया था और लखनऊ के शतरंजी महल में एक तवाइफ के घर पर ही उसका पालन-पोषण हुआ था। ऐसा माना जाता है कि अजीजुन, उस जमाने में संस्कृति के प्रमुख केंद्र माने जाने वाले लखनऊ शहर को छोड़कर, जहां तवाइफों की कद्र करने वाले बहुत थे, कानपुर में आ बसी थी। यह स्पष्ट नहीं है कि वह लखनऊ को छोड़कर कानपुर क्यों गई थी, जो बुनियादी तौर पर बाजारों का और फौजी छावनी का शहर था।
प्राथमिक स्रोत सामग्री के अभाव में हम अन्य साहित्यिक कृतियों के सहारे कुछ अनुमान ही लगा सकते हैं। ऐसी ही एक रचना, रुसवा की कृति उमराव जान है। उमराव जान भी एक तवाइफ है, जो लखनऊ से कानपुर आने के बाद, अपने अनुभव सुनाती है। उमराव इसका जिक्र करती है कि किस तरह कानपुर में वह नाच-गाने के अपने प्रदर्शन में व्यस्त थी और अच्छा पैसा कमा रही थी। बेशक, वह इसका भी जिक्र करती है कि किस तरह उसे कानपुर के लोगों का बोलचाल का तरीका पसंद नहीं था और लखनऊ की यादें उसका पीछा नहीं छोड़ती थीं। फिर भी वह इससे खुश थी कि कानपुर में आकर वह खुद मुख्तार हो गई थी, जबकि लखनऊ में ऐसा संभव नहीं था और उसे किसी खानम के नीचे पेशा करना पड़ता, जो तवाइफों के श्रेणी विभाजन में उससे ऊपर होती। इससे ऐसा लगता है कि अजीजुन के कानपुर आने का एक संभावित कारण यह रहा हो सकता है कि उसके मन में स्वतंत्रता की जबरदस्त इच्छा थी। ऐसा लगता है कि वह किसी के संरक्षण में नहीं रहना चाहती थी, जिसका पता उसके व्यक्तित्व से चलता था, जिसकी अभिव्यक्ति 1857 के विद्रोह में उसकी भूमिका में हुई थी।
लड़ाइयों में सिपाहियों के साथ
अजीजुन का सैकेंड कैवेलरी के सिपाहियों से बहुत नजदीकी रिश्ता था, जो अकसर उसके घर आया-जाया करते थे। सैकेंड कैवेलरी के सिपाही शम्सुद्दीन खान के साथ खास तौर पर उसके घनिष्ठ संबंध थे, जिसने विद्रोह में एक सक्रिय भूमिका अदा की थी। विद्रोहियों की बैठकें उसके घर पर हुआ करती थीं। शम्सुद्दीन अकसर अजीजुन के घर आया-जाया करता था। कानपुर में विद्रोह से संबंधित ज्यादातर विवरणों में इसका जिक्र आता है कि वहां विद्रोह शुरू होने से दो दिन पहले, शम्सुद्दीन खुद अजीजुन के घर गया था और उसने अजीजुन को बताया था कि एक-दो दिन में नाना साहब शासन संभाल लेंगे और उसके बाद उसका घर सोने की मोहरों से भर जाएगा। अजीजुन का घर सिपाहियों का मिलन स्थान भी था। अजीजुन ने औरतों का एक दल भी बनाया था जो हिम्मत के साथ हथियारबंद सिपाहियों को बढ़ावा देता हुआ घूमता था, उनके घावों की मरहम-पट्टी करता था और उनके बीच हथियार और गोला-बारूद बांटता था। अजीजुन ने एक तोपखाने को अपने दल का मुख्यालय बनाया था। यह तोपखाना, व्हीलर जिस जगह जमा हुआ था उसके उत्तर की ओर, रैकट कोर्ट और चैपल ऑफ ईंज के बीच में स्थित था। घेरे के पहले दिन से ही इस तोपखाने की तरफ से व्हीलर के फौजी जमावड़े पर गोलियां और गोले दागे जाते रहे थे। व्हीलर की फौजों के घेरे के करीब-करीब पूरे दौर में अजीजुन सिपाहियों के बीच ही बनी रही थी। एक प्रत्यक्षदर्शी द्वारा दिए गए विवरण के अनुसार वह भारी गोलाबारी के बावजूद, पिस्तौलों से लैस बराबर अपने संगियों के साथ बनी रही थी। सैकेंड रेजीमेंट के कैवेलरी के सिपाही ही उसके संगी थी।
ऐसा लगता है नाना साहब और अजीमुल्ला खान, दोनों ही अजीजुन को पहचानते थे। ऐन मुमकिन है कि उसे विद्रोह की योजना की जानकारी रही हो और वह कानपुर में विद्रोह के प्रमुख षडयंत्रकारियों में से रही हो। इस तरह की भी अटकलें लगाई जाती रही हैं कि बीबीघर में ब्रिटिश औरतों और बच्चों को मौत के घाट उतारने के 'षडयंत्र' में भी उसकी भूमिका रही थी। लेकिन, विद्रोह के अधिकांश विवरणों में बीबीघर की घटना के सिलसिले में हुसैनी नाम की एक और तवाइफ का नाम ज्यादा प्रमुखता से आता है। हुसैनी पर ही इसका संदेह किया जाता रहा है कि उसी ने बीबीघर में औरतों और बच्चों की हत्या किए जाने के आदेश दिए थे।
विद्रोह में अजीजुन जैसी औरतों की भूमिका की सैकड़ों कहानियां मिलेंगी। लेकिन, इनमें से ज्यादातर कहानियां दर्ज हुए बिना ही रह गई हैं। मिसाल के तौर पर लखनऊ में विद्रोह के 'गुप्त' और 'उदार आर्थिक मददगारों' के रूप में उनकी भूमिका दर्ज की गई थी। ब्रिटिश अधिकारियों को मालूम था कि उसके कोठे विद्रोहियों के मिलन-स्थल बने हुए थे, जहां विद्रोह के मंसूबे बनाए जाते थे। इसी का नतीजा था कि कोठों को राजनीतिक षडयंत्र के ठिकानों के तौर पर संदेह की नजरों से देखा जाने लगा था। वास्तव में 1857 के विद्रोह में तवाइफों की भूमिका का अंदाजा, इनमें से कुछ महिलाओं के खिलाफ ब्रिटिश अधिकारियों की दंडात्मक कार्रवाई की भीषणता से लगाया जा सकता है। इन कार्रवाइयों में बड़े पैमाने पर उनकी संपत्तियों की जब्ती भी शामिल थी। लखनऊ में, जो कि तवाइफों का एक प्रमुख केंद्र था, 1857 के विद्रोह में प्रमाणित हिस्सेदारी के लिए, जिन लोगों की संपत्तियां जब्त की जा रही थीं, उनकी सूचियों में अनेक तवाइफों के नाम भी शामिल थे। रुस्वा की कथा उमराव जान में भी इसका जिक्र है कि किस तरह विद्रोह के बाद उमराव को लखनऊ छोड़कर जाना पड़ा था और किस तरह उसकी कोठी को लुटवाया गया था।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
अठारह सौ सत्तावन के विद्रोह में तवाइफों की भूमिका को हम किस तरह समझ सकते हैं? इसमें एक महत्वपूर्ण कारक नवाबों के साथ उनका घनिष्ठ रूप से जुड़ा होना हो सकता है। नवाब ही तवाइफों के सबसे बड़े संरक्षक हुआ करते थे। नवाब अकसर अंगरेजों के
खिलाफ थे, क्योंकि औपनिवेशिक शासन ने उनकी सत्ता को कमजोर कर दिया था। फिर भी, विद्रोह में तवाइफों की हिस्सेदारी को सिर्फ नवाबों के साथ उनके घनिष्ठ रिश्तों के आधार पर व्याख्यायित नहीं किया जा सकता है। कहने की जरूरत नहीं है कि इस तरह का तर्क इन औरतों की किसी भी प्रकार की स्वतंत्र भूमिका या राजनीतिक आवाज को ही वंचित करने वाला तर्क है। यह समझना मुश्किल नहीं है कि चाहे नवाबों के संरक्षण में ही क्यों न रही हों, तवाइफों के लिए विद्रोह में हिस्सा लेने की कोई मजबूरी नहीं थी। मिसाल के तौर पर अजीजुन चाहती तो विद्रोह से दूर ही बनी रह सकती थी, क्योंकि विद्रोह में हिस्सेदारी वैसे भी काफी जोखिम भरी कार्रवाई थी। इतना ही नहीं, विद्रोह में हिस्सेदारी के लिए उसे किसी तरह से मजबूर किए जाने या उस पर किसी तरह का दबाव होने के, कोई लक्षण तो नहीं नजर आते हैं। वास्तव में अजीजुन तो उस दौर में किसी के भी संरक्षण में थी ही नहीं। वह तो कानपुर में रहती थी और स्वतंत्र रूप से अपना कोठा चलाती थी। इसलिए, 1857 के विद्रोह में तवाइफों की हिस्सेदारी के कारण समझने के लिए, हमें उसके ऐतिहासिक संदर्भ की पड़ताल करनी होगी।
अंगरेजों ने जब भारतीय उप-महाद्वीप में स्थानीय शासकों को हटाकर उनकी जगह लेनी शुरू की, उससे पहले तक यहां मौजूद हिंदू और मुसलिम, दोनों ही तरह के शासकों के दरबारों में तवाइफों की प्रभावशाली (महिला) अभिजन के रूप में पहुंच थी। उन्हें 'उन्नत' दरबारी संस्कृति के संरक्षकों और उसकी अदायगी करने वालों के रूप में देखा जाता था, जिनकी हिंदुस्तानी संगीत और कत्थक नृत्य शैली के विकास में सक्रिय भूमिका थी। उन्हें कवियों, विद्वानों, धर्मज्ञों और सबसे बढ़कर प्रतिभाशाली संगीतकारों और नर्तकियों के संरक्षकों के रूप में देखा जाता था। उन्हें दरबार में और समाज में भी, भारी सम्मान हासिल था और उनके साथ जुड़ाव से उन लोगों की प्रतिष्ठा ही बढ़ती थी, जिन्हें उनके सांस्कृतिक प्रदर्शनों में आमंत्रित किया जाता था।
बहरहाल, ब्रिटिश सत्ता के आने के साथ, तवाइफों की सांस्कृतिक सत्ता घट गई थी। अंगरेजी राज का नतीजा यह हुआ था कि उन्हें शाही दरबारों से हासिल संरक्षण में भारी कमी आ गई थी, जबकि यही उनकी सत्ता का मुख्य आधार था। ब्रिटिश शासन उनके कलात्मक और रचनात्मक पहलू की अनदेखी करता था और उसने तवाइफों के कोठों और चकलाघरों को एक करके देखना शुरू कर दिया था। इतना ही नहीं, औपनिवेशिक दौर में तवाइफों की सांस्कृतिक पहचान पर प्रतिकूल असर पड़ रहा था। यूरोपीय सैनिक जिन यौन रोगों से पीड़ित थे, उनके फैलाव पर नियंत्रण हासिल करने के लिए ब्रिटेन ने 1864 में संचारी रोग कानून जैसे जो चिकित्सकीय कानून बनाए थे, उनमें तवाइफों को वेश्याओं के खाने में ही डाल दिया गया था। इसका अर्थ यह था कि वेश्याओं के लिए जो नियमन, नियंत्रण और जांच की व्यवस्थाएं कायम की गई थीं, तवाइफों को भी उनके दायरे में घसीट लिया गया।
असंतोष और राजनीतिक भूमिका
दरबारी संरक्षण छिन जाने, इस तरह के नियमनों और आगे चलकर 1857 के विद्रोह में भूमिका के लिए उनसे वसूल किए गए जुर्मानों आदि से, तवाइफों की हैसियत को भारी धक्का लगा था। यह एक भव्य सांस्कृतिक संस्था के धीरे-धीरे पतित होने का संकेतक बन गया और यह संस्था एक साधारण वेश्यावृत्ति में घटकर रह गई। औपनिवेशिक सरकार ने तवाइफों को नवाबों द्वारा दी गई ज्यादातर जागीरों को अपने हाथों में ले लिया। इतना ही नहीं, उसने तवाइफों से जोड़कर, परंपरागत रईसों को 'दुराचारी' और 'अनैतिक' के रूप में प्रचारित करने की कोशिश की थी। यह दूसरी बात है कि जब इन्हीं औरतों को यूरोपीय छावनियों में वेश्याओं के रूप में इस्तेमाल करने का सवाल आया या उनसे आयकर बटोरने का सवाल आया, तो पूरी तरह से व्यवहारवादी बनकर अंगरेजों ने सारे नैतिक आवरण उतारकर रख दिए और इन स्वार्थों को पूरा करने के लिए जरूरी कानून बनाने में कोई कोताही नहीं की। वास्तव में यह तो एक तरह से सरकारी नीति का हिस्सा ही बन गया था कि कोठे की औरतों में से जो 'स्वस्थ' और 'सुंदर' हों, उन्हें छांटकर अलग किया जाए और मनमर्जी से, यूरोपीय सैनिकों की सहूलियत के हिसाब से, छावनियों में उन्हें लाया जाए। इसने उनके पेशे को अमानुषिक बनाया और उनकी सांस्कृतिक भूमिका उनसे छीन ली। इससे भी बढ़कर उन्हें पुरुषों को सहज उपलब्ध बना दिया और इन औरतों के लिए सिपाहियों से संचारी यौन रोग लगने का खतरा और बढ़ गया। सारे विशेषाधिकारों से वंचित कर दी गई तवाइफें अपने शरीर पर, अपनी संपत्ति पर और अपनी 'नैतिकता' पर हमले के खिलाफ लड़ रही थीं। दूसरे शब्दों में, तब से लेकर आज तक अपनी वैधता के लिए और एक पेशेवर समूह के रूप में कुछ ठोस लाभ हासिल करने के लिए, उनकी लड़ाई चल ही रही है।
फिर भी, 1857 के विद्रोह में तवाइफों की भूमिका की व्याख्या करते हुए, ब्रिटिश शासन के प्रति उनके आक्रोश को बहुत ज्यादा बढ़ा-चढ़ा कर भी नहीं देखा जाना चाहिए, क्योंकि ऐसा करना उनकी राजनीतिक भूमिका को ही अनदेखा करना होगा। इसकी जगह पर, रेखांकित करने वाली बात यह है कि अंगरेजी हुकूमत के प्रति तवाइफों के वही मनोभाव थे, जो मनोभाव 1857 के विद्रोह में शामिल हुए दूसरे बहुत से लोगों के थे। वास्तव में, उस समय के समाज में प्रतिभाशाली और शिक्षित महिलाओं की अपनी-अपनी हैसियत के चलते तवाइफें समसामयिक राजनीति, कानून आदि से भली भांति परिचित थीं और स्थानीय सत्ताधारी अभिजन के साथ उनके संपर्क थे। इसके अलावा, वे जहां रहती थीं उन शहरी ठिकानों के इतिहास का भी उन्हें अच्छा ज्ञान था। इसने तवाइफों को राजनीतिक रूप से जागरूक बनाया था। मिसाला के तौर पर तवाइफें अच्छी तरह यह समझती थीं कि ब्रिटिश हुकूमत ने जानबूझ कर उनके कोठों की सचाइयों को तोड़ा-मरोड़ा था ताकि

नवाबी संस्कृति को बदनाम किया जा सके, और इसके पीछे मंशा यह थी कि 1856 में अवध के हड़पे जाने को सही ठहराया जाए।
इस टिप्पणी में हमने तवाइफ की सार्वजनिकराजनीतिक भूमिका की पड़ताल करने की कोशिश की है। इसके लिए हमने तवाइफ के व्यक्तित्व को, केंद्रीय रूप से राजनीतिक मंच पर रखकर देखने का प्रयास किया है, जिससे उसे अब तक वंचित करके रखा जाता रहा है। 'सम्माननीय' की अपनी तलाश में राष्ट्रवादी लेखन उसे आंखों से ओझल करके चलता आया है। वास्तव में अजीजुन जैसी औरतों की जिंदगी, जो राष्ट्रवादी इतिहासकारों के लिए सारभूत प्रेरणादायी दो नारी छवियों'सम्मानित मां' और 'सम्मानित पत्नी'में किसी भी खाने में फिट नहीं बैठती है, 1857 के विद्रोह पर प्रभुत्वशाली पूंजीवादी राष्ट्रवादी रुख को ही संकट में डालने पर आमादा नजर आती है। अजीजुन का यह बागी किस्सा 'भारत माता' के उस रूपक को छिन्न-भिन्न कर देता है, जो उपनिवेशविरोधी (मध्यवर्गीय) राष्ट्रवादी सोच पर हावी रहा है।


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