टेलीविजन में बड़बोलापन महंगा पड़ता है। यहां जो ज्यादा बोलता है टीवी उसी को पीटता है। विधानसभा कवरेज पर आने वाली खबरों और टॉक शो में राज्य के ठोस राजनीतिक मसलों पर बहसें हो रही हैं। टेलीविजन कवरेज ने इसबार के चुनाव को पूरी तरह अ-राजनीतिक बना दिया है। पहलीबार ऐसा हो रहा है कि समूचे प्रचार अभियान में राजनीति गायब है। ठोस राजनीतिक सवाल गायब हैं। परिवर्तन के नारे ने सारे राजनीतिक सवालों को हाशिए पर ठेल दिया है। टीवी टॉक शो में सतही और हास्यास्पद बातें खूब हो रही हैं। टीवी टॉकरों की शैली है वे एक मसले से दूसरे मसले,एक अत्याचार से दूसरे अत्याचार,एक झूठ से दूसरे झूठ,काले धन के एक आख्यान से दूसरे आख्यान की ओर रपटते रहते हैं। वे किसी मसले पर टिककर बात नहीं करते। एक से दूसरे विषय पर लुढ़कना और ओछी दलीलों के ढ़ेर लगाना यह टीवी का वामपंथी बचकानापन है। कीचड़ उछालने,छिछोरी नारेबाजी ,फतवेबाजी और वामपंथी लफ्फाजी की टीवी पर आंधी चल रही है। नेताओं के चेहरों पर आत्ममुग्धता हावी है। टॉक शो और लाइव प्रसारणों में चरित्रहनन, धमकी,ब्लैकमेल,रईसी दृष्टिकोण, चरित्रहीन उपदेशक का ढुलमुलपन खुलकर अभिव्यक्त हुआ है। पश्चिम बंगाल में शेखी बखारने वाले नेता कभी-कभार नजर आते थे लेकिन इसबार टेलीविजन कवरेज में शेखी बघारने वालों की भीड़ पैदा कर दी है। टॉक शो में वे तर्क की बजाय निरूत्तर करने की कोशिश कर रहे हैं। स्कूली डिबेटर की तरह पॉइण्ट स्कोर करने की कोशिश कर रहे हैं। राजनीति को समझने और सीखने की बजाय रटे-रटाए वाक्य बोल रहे हैं। उकसावेभरी बातें,दून की हाँकना,एक-दूसरे के प्रति घृणा और आत्मरक्षा के तर्कों का जमकर इस्तेमाल हो रहा है। सामाजिक हित के बड़े सवालों की जगह दलीय प्रौपेगैण्डा चल रहा है।
वामपंथी बचकानापन किस तरह हावी है इसका आदर्श उदाहरण है माकपा नेता गौतमदेव के लाइव कवरेज टॉक शो, प्रेस कॉन्फ्रेस आदि। आश्चर्य की बात है गौतमदेव टीवी चैनलों पर 2-2 घंटे लाइव शो दे रहे हैं और उनमें ज्यादातर समय सतही और गैर जरूरी मसलों पर खर्च कर रहे हैं। मसलन् वे नव्य़ उदार आर्थिक नीतियों,महंगाई, अमरीकी साम्राज्यवाद,या राज्य के विकास से जुड़ी किसी समस्या पर नहीं बोलते।वे ममता बनर्जी की बातों का खंडन करने में सारा समय खर्च करते हैं। सवाल यह है ममता का जबाब देने के लिए टीवी के मूल्यवान 2 घंटे कितनी बार खर्च किए जाएं ? टॉकशो या लाइव प्रेस कॉफ्रेस में भी पत्रकार कोई ठोस राजनीतिक सवाल नहीं पूछते। मसलन् ,हाल ही में अन्ना हजारे का जन लोकपाल बिल को लेकर इतना हंगामा हुआ।अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार के खिलाफ आमरण अनशन को माकपा ने भी समर्थन दिया। इसका बांग्ला चैनलों में प्रचार भी हुआ। लेकिन किसी ने माकपा नेताओं से यह सवाल नहीं किया कि वामशासित पश्चिम बंगाल,केरल और त्रिपुरा में आज तक लोकायुक्त नामक संस्था का गठन क्यों नहीं हुआ ? पश्चिम बंगाल में विभिन्न सरकारी संस्थाएं सूचना अधिकार कानून के तहत मांगने पर समय पर सूचनाएं क्यों नहीं देतीं ? हाल ही में माकपा महासचिव प्रकाश कारात ने एक जनसभा में कहा हरीपुर में परमाणु ऊर्जा उत्पादन केन्द्र नहीं लगेगा। सवाल यह है माकपा की सटीक परमाणु नीति के रहते हुए मुख्यमंत्री और राज्य की केबीनेट ने हरीपुर परमाणु ऊर्जा उत्पादन केन्द्र के निर्माण की अनुमति क्यों दी ? असल में विगत 35 सालों में पश्चिम बंगाल में मार्क्सवाद के नाम पर जो माहौल बना है वह संतोषशास्त्र की विचारधारा से बना है। वाममोर्चे के प्रतिगामी नजरिए के कारण राज्य की संरचनाओं का नव्य उदारीकरण के अनुकूल पर्याप्त विकास नहीं हो पाया। राज्य कर्मचारियों को पर्याप्त सुविधाओं और संसाधनों के अभाव में रखा गया। अभी भी राज्य सरकार ने कर्मचारियों का 16 प्रतिशत मंहगाई भत्ता रोका हुआ है। समय रहते महंगाई भत्ते की किश्त क्यों जारी नहीं हुई ? माकपा के नारे हैं 'संतोष रखो, समर्थन करो ', 'राज्य सरकार बंधु सरकार ,असंतोष व्यक्त मत करो ', 'संतोष रखो आंदोलन मत करो','संतोष रखो पदोन्नति लो' , 'माकपा का समर्थन करो आगे बढ़ो।' गांवों में 'कम मजदूरी ' और 'फसल की सरकारी खरीद के अभाव' को पार्टी तंत्र और दलालों के जरिए नियमित किया गया। 'संतोष' और 'दलाल' ये दो तत्व शहरों से लेकर गांवों तक घुस आए हैं। संतोषशास्त्र के नाम पर नयी उपभोक्ता संस्कृति की गति को धीमा किया गया। माकपा का नारा है 'उत्पादन गिराओ,गैर उत्पादकता बढ़ाओ।' 'निकम्मेपन को बढ़ावा दो', 'श्रमसंस्कृति की जगह पार्टीसंस्कृति प्रतिष्ठित करो।' मंत्री से लेकर साधारण क्लर्क तक सभी का,एक ही लक्ष्य है 'पार्टी काम ही महान है', 'दफ्तर में जनता की सेवा करना मूर्खता है','पेशेवर जिम्मेदारी निभाना गद्दारी है।'पार्टी के साथ रहो सुरक्षा पाओ'। मंत्रियों से लेकर विधायकों तक सब में प्रशासन के काम के प्रति मुस्तैदी कम और पार्टी कामों के प्रति ज्यादा मुस्तैदी ज्यादा है।पश्चिम बंगाल में दूसरा खतरनाक फिनोमिना में 'अधिनायकवादी लोकतंत्र' का । इस फिनोमिना के लक्षण हैं, सोचो मत,बोलो मत,पार्टी की हां में हां मिलाओ,शांति से रहो। जो देखते हो उसकी अनदेखी करो। स्वतंत्र प्रतिवाद मत करो। जो कुछ करो पार्टी के जरिए करो। आम लोगों में वाम के सामाजिक नियंत्रण की नीति और दलीय व्यवहार को लेकर जबर्दस्त आक्रोश है और यही आक्रोश परिवर्तन के नारे को जनप्रिय बना रहा है। इस समूची प्रक्रिया में राज्य में भयतंत्र टूटेगा और भविष्य में शांति लौटेगी। लोकतांत्रिक उदारतावाद को नए सिरे से फलने फूलने का मौका मिलेगा। यह मिथ्या भय है कि विधानसभा चुनाव के बाद भय,हिंसा और उत्पीड़न होगा। सरकार किसी की भी बने कम से कम पुराने ढ़र्रे से भविष्य में राज्य प्रशासन काम नहीं कर पाएगा। परिवर्तन के नारे और ममता बनर्जी के प्रौपेगैण्डा का दबाव है कि आज मुख्यमंत्री देर से नहीं तुरंत बोलते हैं। यदि उनके दल के किसी नेता ने गलती की है तो तुरंत माफी मांग लेते हैं । पूर्व सांसद रूपचंद पाल और अनिल बसु के बयानों पर बुद्धदेव की सक्रियता भविष्य के बारे में शुभसंकेत है। अशुभ संकेत हैं चुनावों में परिवारवाद और अफसरशाही की खुली शिरकत। नव्य-उदारतावाद विरोधी एजेण्डे का लोप और राजनीतिक अवसरवाद का महिमामंडन।
पूर्वोत्तर के चुनावों में बंग्लादेशी अल्प घुसपैठियों के ऊपर एक पोस्ट लिखने का आग्रह करता हूं.. निष्पक्ष दृष्टि से....
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