मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

यादों के आइने में भगतसिंह और उनके साथी -समापन किश्त-यशपाल


केंद्रीय असेंबली में बम फेंकने का विचार किसी बहुत बड़ी झोंक या पिनक का परिणाम नहीं था। यह योजना एच.एस.आर.ए. की नीति और कार्यक्रम का मुंह बोलता उदाहरण था। अंग्रेज सरकार उस समय की केंद्रीय विधानसभा में दो नये दमनकारी कानून बनाने की चेष्टा कर रही थी। इनमें से एक था 'सार्वजनिक सुरक्षा कानून' और दूसरा मजदूरों की मांगें, और उनकी हड़तालों से संबंध रखने वाला 'औद्योगिक विवाद कानून' था। एच.एस.आर.ए. के साथी यह जानते थे कि विधान सभा में कांग्रेस और उदार दल के सदस्यों को मिला कर बहुमत इन कानूनों के विरुध्द में होगा। सरकार साधारण तरीके या बहुमत से इन कानूनों को पास नहीं करा सकेगी। यह भी मालूम था कि विधान सभा द्वारा अस्वीकार कर दिए जाने पर भी सरकार इन कानूनों को वाइसराय की विशेष स्वीकृति से कानून बना देगी। यह दोनों कानून जनता में बढ़ते जाते असंतोष की भावना को कुचलने के प्रयोजन से बनाये जा रहे थे।
      एच.एस.आर.ए. की केंद्रीय समिति ने निश्चय किया था कि जिस समय इन कानूनों के बहुमत द्वारा अस्वीकार कर दिए जाने पर भी इन्हें वाइसराय की आज्ञा से कानून बना दिए जाने की घोषणा विधानसभा में की जाए, एच.एस.आर.ए. की ओर से बम फेंक कर सरकार के दमनकारी व्यवहार के प्रति विरोध प्रकट किया जाये। बम फेंक कर विरोध प्रदर्शित करने के दो पहलू थे- एक पहलू में विदेशी सरकार को यह चुनौती थी कि तुम प्रजा के प्रतिनिधियों के निण्र्[1]ाय के विरुध्द शस्त्रा-शक्ति से शासन कर रहे हो तो उस का उत्तार हम भी शस्त्रा-शक्ति से देने के लिए तैयार हैं। दूसरे पहलू में वैधानिक आंदोलन द्वारा विदेशी सरकार का विरोध करने वाले राष्ट्रीय प्रतिनिधियों को चेतावनी थी कि आपका वैधानिक विरोध निष्फल है। आप के वैधानिक विरोध के बावजूद दमनकारी कानून बनाये जा सकते हैं। इस विधानसभा के पाखंड से क्या लाभ? विदेशी सरकार के दमनकारी शासन पर से वैधानिकता का नकाब हटा देना आवश्यक है। विदेशी सरकार के विरोध का वास्तविक मार्ग उससे युध्द करना है।
      इस काम की योजना को सफल बनाने के लिए एच.एस.आर.ए. का केंद्र भी अब दिल्ली में ही कायम किया गया और साथी जयदेव कपूर को विधान सभा की परिस्थितियों की जांच-पड़ताल करने के लिए नियुक्त कर दिया गया। तब भी विधानसभा में प्रवेश पासों द्वारा ही होता था। ऐसा प्रबंध कर लेना आवश्यक था कि जब चाहें दो-तीन पास सुविधा से मिल सकें। जयदेव ने विधानसभा की चौंकसी करने और पास देने वाले दफ्तर में अपना परिचय दिल्ली 'हिंदू-कालिज' में अर्थशास्त्र पढ़ने वाले विद्यार्थी के रूप में दिया था ताकि वह सुविधा से असेंबली के पुस्तकालय में आ-जा सके। दफ्तर के आदमियों पर विश्वास जमा लेने के बाद वह विधानसभा के अधिवेशन के समय दर्शकों की गैलरी में बैठ कर सभा की कार्यवाही भी देखता रहता। चौकसी दफ्तर के अधिकारी से काफी परिचय हो जाने पर जब चाहे दो या तीन पास बनवा लेने में भी जयदेव को कुछ कठिनाई न होती थी। साधारणत: पासों की आवश्यकता होने पर कांग्रेसी सदस्यों से चिट्ठी लेकर पास ले लिए जाते थे। जब-तब दूसरे साथी भी विधानसभा में आते-जाते रहते थे ताकि स्थान की परख अच्छी तरह से हो जाय।
      भगत सिंह भी जयदेव के साथ एक-दो बार विधानसभा में हो आया था। ऐसे हीएक मौके पर गैलरी में भगत सिंह की डाक्टर किचलू से आंखें चार हो गयी थीं। उस की दाढ़ी-मूंछ सफाचट देख कर डाक्टर साहब कुछ विस्मित से रह गए। सांडर्स कांड अभी ताजा ही था। पहले तो भगत सिंह ने अपना चेहरा अखबार की आड़ में छिपाने की कोशिश की परंतु जब डाक्टर साहब ने पहिचान ही लिया तो बाहर आने पर भगत सिंह ने उनसे नि:शंक मुलाकात की। डाक्टर किचलू ने बड़े सौहार्द्र से यथासंभव सहायता देने का विश्वास दिलाया। देहली में जब-जब भगत सिंह उनसे मिलता, वे सहायता देते भी रहते।
      विधान सभा में बम फेंकने की योजना के संबंध में ब्योरे की कई बातों पर विचार होता रहा। पहला प्रश्न था कि बम फेंकने वाले साथियों को घटना के पश्चात् सभा भवन से बचा कर निकाल लाने का प्रयत्न किया जाए या नहीं। आजाद भी एक दिन विधान सभा की गैलरी में कार्यवाही देखने गए और स्थिति का निरीक्षण कर इस परिणाम पर पहुंचे कि बम फेंकने वाले साथियों को सुरक्षित निकाल लाना कठिन नहीं अलबत्ता वहां से उन्हें सुरक्षित स्थान पर पहुंचाने के लिए एक मोटर गाड़ी की जरूरत होगी।
      समय पर एक मोटर मिल सकने का भी प्रबंध कर लिया गया। यह भी निश्चय हो गया कि कौन-कौन साथी इस काम में भाग लेंगे परंतु भगत सिंह और विजय कुमार सिन्हा ने आगह किया कि विधान सभा में बम फेंक कर केवल परचे बांट देने से ही हम जनता के सम्मुख अपने उद्देश्य को पर्याप्त रूप से प्रकट नहीं कर सकेंगे। जनता एच.एस. आर.ए. को कुछ बिगड़े दिमाग खूनी नौजवानों की टोली समझ बैठेगी। आवश्यक यह है कि बम फेंकने वाले साथी बचने की कोशिश न करें। बम फेंकने के साथ वे साम्राज्यवाद विरोधी प्रदर्शन भी करें और बाद में मुकद्दमा चलने पर अदालत में अपनी नीति का स्पष्टीकरण करें। इस प्रकार हमारा कार्यक्रम और उद्देश्य जनता के सामने आ सकेंगे। साथियों ने इस मुकद्दमे की कल्पना एच.एस.आर.ए. के सैध्दांतिक मोर्चें के रूप में की थी।
      साधारणत: हम जो बातें कहना या जनता को सुनाना चाहते थे, वे राजद्रोही समझी जाती थीं। उन्हें कोई पत्र प्रकाशित करने का साहस नहीं कर सकता था, न सभा के मंच से ही वे बातें कही जा सकती थीं परंतु यह बातें अभियुक्तों के बयान के रूप में या अभियुक्तों पर लगाये गए अपराध के वर्णन के रूप में प्रकाशित हो सकती थीं। असेंबली-बमकांड और लाहौर-षडयंत्रा के मुकद्दमों से यह उद्देश्य एक सीमा तक पूरा होता रहा। बाद में सरकार भांप गयी कि क्रांतिकारी राजद्रोह के प्रचार के लिए उसकी अदालतों का ही उपयोग कर रहे हैं और एच.एस.आर.ए. के अभियुक्तों के बयानों का पत्रों में प्रकाशन भी गैरकानूनी करार दे दिया गया।
      यहां यह बात ध्यान देने योग्य है कि उस समय एच.एस.आर.ए. ने विधान सभा में बम फेंक लेना ही अपना लक्ष्य नहीं समझा बल्कि बम फेंकने को अपनी बात कह सकने का अवसर बनाने का उपाय समझा था। यदि बम फेंकना ही लक्ष्य होता तो बम फेंकने के बाद अपने आदमियों को निकाल सकने का अवसर होते हुए भी उन्हें कुर्बान कर देने का कोई अर्थ न होता। बम फेंकने मात्र के लिए दल का कोई भी साहसी व्यक्ति पर्याप्त हो सकता था। इस काम के लिए दल के विशेष योग्य व्यक्तियों को कुर्बान करने का प्रयोजन केवल यही था कि बम फेंक कर पैदा किये गए वातावरण में अपना उद्देश्य और नीति जनता के सामने रखी जाये। एच.एस.आर.ए. के इस व्यवहार से स्पष्ट हो जाता है कि इस समय सशस्त्रा क्रांति की चेष्टा करने वाले लोग आतंक की अपेक्षा जनमत और जनशक्ति के संगठन को अधिक महत्व दे रहे थे।
      विधान सभा में बम फेंकने को अपना सैध्दांतिक मोर्चा बनाने का निश्चय कर लेने पर यह समस्या सामने आई कि इस काम के लिए ऐसे कौन साथी नियुक्त किये जाएं जो एच.एस.आर.ए. के उद्देश्य को जनता के सामने स्पष्ट रूप से रखने के योग्य हो। इसके लिए कई बार कई नामों पर विचार किया गया।
      भगत सिंह के साथ कभी जयदेव कपूर का नाम रक्खा जाता, कभी राजगुरु का। विजय कुमार और शिव वर्मा भगत सिंह को असेंबली में भेजने का विरोध कर रहे थे। उनका कहना था कि आज़ाद और भगत सिंह में से किसी को भी इस काम के लिए नहीं जाना चाहिये क्योंकि संगठन के भविष्य के लिए इन दोनों की आवश्यकता अनिवार्य है।
      एच.एस.आर.ए. की केंद्रीय समिति की जिस बैठक में विधानसभा में बम फेंकने के लिए भगत सिंह को न भेज कर दूसरे दो साथियों को भेजने का निश्चय किया गया था, उस बैठक में सुखदेव न पहुंच सका था। इस निश्चय की सूचना सुखदेव को भी तुरंत भेज दी गयी थी। सूचना मिलते ही सुखदेव सीधा दिल्ली पहुंचा। अगली बात कहने से पहले यह कह दूं कि भगत सिंह और सुखदेव में बहुत ही गहरी घनिष्ठता थी। वे एक दूसरे के लिए जान दे सकते थे। सुखदेव ने भगत सिंह को एकांत में ले जाकर बात की-
      ''विधान सभा में बम फेंकने के लिए तो तुम्हें जाना था, दूसरे आदमियों को भेजने का निश्चय कैसे हो गया?''
      सम्भवत: भगत सिंह ने उत्तार दिया कि समिति का निर्णय है कि संगठन के भविष्य के लिए उसे पीछे रखने की जरूरत है।
      सुखदेव ने अपने रूखे और कड़े ढंग से विरोध किया-''यह सब बकवास है! तुम्हारे व्यक्तिगत मित्रा की स्थिति से मैं देख रहा हूं कि तुम अपने पांव कुल्हाड़ी मार रहे हो। यह देख कर मैं चुप नहीं रह सकता। जानते हो, तुम किस रास्ते पर चल रहे हो। तुम्हारा अंहकार बहुत बढ़ गया है। तुम अपने आपको दल का एक मात्र सहारा समझने लगे हो। तुम सान्याल दादा और जयचंद्र बनते जा रहे हो। जानते हो, तुम्हारा क्या अंत होगा? तुम एक रोज भाई परमानंद बन जाओगे।
      सुखदेव ने 1914-15 के लाहौर षडयंत्र के मुकदमे में दिया गया हाईकोर्ट के जज का निर्णय बताया। जज ने भाई परमानंद जी के लिए कहा था- 'भाई परमानंद इस क्रांतिकारी संगठन का मस्तिष्क और सूत्राधार है। परंतु व्यक्तिगत रूप से यह आदमी कायर है। यह संकट के काम में दूसरों को आगे झोंक कर अपने प्राण बचाने की चेष्टा करता रहा है।''
      सुखदेव ने कहा-''तुम सदा तो यों बच नहीं सकते। एक दिन तुम्हें भी अदालत के सामने आना ही पड़ेगा। उस दिन तुम्हारे लिए भी वैसा ही फैसला लिखा जाएगा जो भाई परमानंद के लिए लिखा गया था।''
      भगत सिंह के स्वभाव में ओज या उत्तेजना की कमी नहीं थी। वह चुपचाप सुखदेव की ओर देखता रहा। सुखदेव ने यहीं बस नहीं की। वह और आगे बढ़ा-''तुम कहना चाहते हो कि तुम संगठन के हित के लिए शहीद बनने के सम्मान को बलिदान कर रहे हो। ईमानदारी से अपने गिरेवान में झांक कर देखो! तुम इस समय मौत का सामना नहीं करना चाहते; क्योंकि तुम्हें जिंदगी इस समय बहुत लुभावनी लग रही है। तुम 'उस' औरत के स्नेह की आंच सेंकना चाहते हो और इसे दल के प्रति उत्तारदायित्व का बहाना बना रहे हो। तुम दूसरों से जो चाहे कहो, लेकिन मैं तुम से और तुम मुझ से नहीं छिप सकते। तुम फिसल रहे हो।''
      भगत सिंह बहुत देर तक कुछ बोल न सका। केवल सुखदेव की ओर घूरता रह गया जैसे पिंजरे में बंद शेर चोट करने वाले की ओर देखता रह जाए; फिर बोला-''विधानसभा में बम फेंकने मैं ही जाऊंगा। केंद्रीय समिति को मेरी बात माननी पड़ेगी। तुमने मेरा जो अपमान किया है उसका मैं उत्तर नहीं दूंगा। इसके बाद अब तुम मुझसे कभी बात न करना।''
      सुखदेव ने रूखे ही स्वर में उत्तर दिया-''प् ींअम कवदम उल कनजल जवूंतके उल तिपमदकष्ण् (मैंने अपने मित्र के प्रति अपना कर्त्तव्य ही पूरा किया है।) इस बातचीत के बाद दोनों अलग-अलग दल के केंद्रीय स्थान पर पहुंचे।
      सुखदेव जब दिल्ली से लाहौर पहुंचा उस समय भी उसकी आंखें सूजी हुई थीं। जान पड़ता था कि बहुत रोया है। वह किसी से बात न कर पाता था।
      1929 के अप्रैल की सात तारीख, दोपहर बाद सुखदेव ने भगतवती भाई को ढूंढ कर कहा-''भगत सिंह से अंतिम बार मिल लेना चाहते हो तो आज रात की गाड़ी से दिल्ली चलो!...भाभी को भी साथ ले लो।''
      सुशीलाजी उस समय छुट्टी लेकर लाहौर में भगवती भाई के यहां ही ठहरी हुई थीं।वे भी साथ गयीं। शची लाहौर से कलकत्तो तक और लौटते समय दिल्ली की यात्रा में 'लंबे चाचा जी' (भगत सिंह) से बहुत हिल गया था; इसलिए उसे भी साथ ले लिया गया। 8 अप्रैल प्रात: दिल्ली स्टेशन पर पहुंच कर सुखदेव ने भगवती भाई, दुर्गा भाभी और सुशीला जी को 'कुदसियाबाग' में जाकर प्रतीक्षा करने के लिए कहा और स्वयं दूसरी ओर चला गया।
      इन लोगों के कुछ समय प्रतीक्षा करने के बाद सुखदेव भगत सिंह के साथ वहां आया। क्या होने जा रहा है, इस विषय में कोई चर्चा नहीं हुई। भगत सिंह को रसगुल्ले और संतरे बहुत पसंद थे। भाभी और सुशीलाजी ये चीजें काफी मात्रा में साथ लेती आर्इं थीं। भगत सिंह को दोनों ने लाड़ से खूब खिलाया। साढे दस बजे के लगभग भगत सिंह विदा लेकर चला गया। भाभी और सुशीलाजी इतना तो जानती थीं कि भगत सिंह को अंतिम विदाई दे रही हैं। परंतु उन्हें यह मालूम न था कि क्या होने जा रहा है। यह दल का अनुशासन था। दोनों ने भगत सिंह को रोली और अक्षत से टीके लगा दिये।
      8 अप्रैल, 1929 के दिन विधान सभा में हिंदुस्तानी जनमत के विरोध के बावजूद 'सार्वजनिक सुरक्षा' और 'औद्योगिक विवाद' बिलों को वाइसराय की विशेष स्वीकृति से कानून बना देने की घोषणा की जाने वाली थी। विधान सभा की कार्यवाई आरंभ होने पर पहले प्रश्न और उत्तार होते हैं तब भी यही क्रम था। भगत सिंह और दत्ता जयदेव कपूर के साथ असेंबली में ऐसी जगह जाकर बैठ गए जहां से नीचे फर्श पर सरकार के सदस्यों की जगह बिलकुल सामने पड़ती थी।
      इस बात पर भी काफी विचार किया जा चुका था कि बम नीचे बैठी हुई विधान सभा के किस भाग में फेंके जायेंगे। अंग्रेज सरकार के गृह-सदस्य और उस समय के सरकारी दल के नेता सर जान शुस्टर और  विरोधी दल के नेता पंडित मोतीलाल नेहरू और इन के साथी आमने-सामने बहुत समीप ही बैठते थे। बम ठीक जान शुस्टर पर फेंकने से सरकारी सदस्यों के साथ ही कांग्रेस के सदस्यों के भी काफी चोट खा जाने और विधान सभा के प्रधान की कुर्सी पर बैठे विठ्ठलभाई पटेल के भी बहुत चोट खा जाने की आशंका थी इसलिए यह निश्चय किया गया था कि बम सर जान शुस्टर के कोच की काठ की दीवार के पीछे फेंका जाए ताकि उसकी चोट कांग्रेसी सदस्यों की बेंचों की ओर न जा सके।
      बम ऐसी जगह फेंकने से उसकी अधिकांश शक्ति जरूर ही काठ के भारी फर्नीचर से दब गयी और सरकारी सदस्यों को भी कम चोट आने की सम्भावना रही परंतु इससे कांग्रेस प्रतिनिधियों के लिए आशंका का कोई अवसर नहीं रहा। यह भी सोचा गया था कि कांग्रेस-सदस्यों को उस दिन विधान सभा में न जाने की चेतावनी दे दी जाए परंतुऐसा करने पर संदेह हो जाने से बात समय से पूर्व फूट जाने की आशंका थी इसलिए ऐसा नहीं किया गया।
      ज्यों ही सर जान शुस्टर उपरोक्त बिलों पर वाइसराय की विशेष स्वीकृति की घोषणा करने के लिए खड़े हुए, विधान सभा में उपस्थित एच.एस.आर.ए. के दूसरे साथी सभा भवन से बाहर निकल गए। भगत सिंह और दत्त के सभा भवन में जाने के 'पास' इन लोगों ने पहले ही उनसे ले लिए थे। यह सावधानी आवश्यक थी क्योंकि भगत सिंह और दत्ता के गिरफ्तार हो जाने के बाद उनकी तलाशी ली जाने पर उनकी जेब में मिले पासाें से यह न मालूम हो जाए कि उन्होंने किस सदस्य की मार्फत ये पास लिए थे। उस सदस्य से अभियुक्तों का संबंध मान लिया जाता और पुलिस उसे परेशान करती।
      ज्यों ही शुस्टर ने यह घोषणा की कि 'सार्वजनिक सुरक्षा' और 'औद्योगिक विवाद' बिल विधान सभा में बहुमत से अस्वीकार कर दिए जाने पर भी वाइसराय की विशेष स्वीकृति से कानून बना दिए गए हैं, भगत सिंह और दत्ता अपनी जगह पर उठ खड़े हुए। पहले से निश्चित स्थान पर भगत सिंह ने एक बम शुस्टर के काउच की दीवार के पीछे फेंक दिया। विस्फोट के भयंकर शब्द से सभा भवन में बैठे लोग बहरे से हो कर      स्तब्ध रह गए। इस के बाद दूसरा बम दत्त ने लगभग उसी स्थान पर फेंका। सभा भवन में भगदड़ मच गयी। हाल नीले धुंये से भर गया। सब सदस्य और दर्शक आतंक में भागने लगे। भवन में उस समय केवल तीन या चार व्यक्तियों के होश-हवास दुरूस्त जान पड़े। बिठ्ठल भाई पटेल, पंडित मोतीलाल नेहरू और जिन्ना अपनी कुर्सियों पर जैसे बैठे थे बैठे रहे। सर जान शुस्टर घोषणा करते समय खड़ा था वह वैसे ही खड़ा रह गया। भगत सिंह ने सर जान शुस्टर पर दो गोलियां चलायीं। यह गोलियां शुस्टर के शरीर पर न लग कर उस के डेस्क पर लगीं। शुस्टर अपने पर वार होता समझ कर आत्मरक्षा के लिए अपनी डेस्क के नीचे हो गया। शुस्टर के दुबक जाने के बाद भगत सिंह के पिस्तौल में छह गोलियां और जेब में आठ गोलियां शेष थीं परंतु उसने किसी दूसरे व्यक्ति पर गोली नहीं चलायी।
      भगत सिंह और दत्त ने बहुत ऊंचे स्वर में नारे लगाये- इंकलाब जिंदाबाद! साम्राज्यवाद का नाश हो! दुनिया के मजदूरो एक हो! -नारे लगाते हुए उन दोनों के एच.एस.आर.ए. के लाल रंग के घोषणापत्र हाल में फेंक दिए ।
      बम के धड़ाके से विधान सभा के सभी लोग और चौकसी के लिए तैनात सभा भवन की पुलिस भी इतना घबरा गयी थी कि दर्शकों की गैलरी पूरी खाली हो जाने के बाद भी कुछ देर तक किसी ने भी भगत सिंह और दत्ता के समीप आने का साहस नहीं किया। भगत सिंह और दत्ता अव्बल तो दर्शकों की भीड़ के साथ ही बाहर निकल जा सकते थे और उस के बाद भी निकल जाने का काफी समय था। पिस्तौल और बारह कारतूस तब भी इन लोगों के पास मौजूद थे। इन पर चलाये गए मुकद्दमे में पुलिस केगवाहों के बयान के आधार पर जज ने अपने फैसले में भी यह कहा था कि यदि अभियुक्त चाहते तो उन के बच कर भाग आने के लिए काफी अवसर था।
      यह भी तो निश्चित था कि उन्हें भागकर बचना नहीं था बल्कि अपनी बात कह सकने का अवसर बनाना था। यह बात भी अप्रासंगिक नहीं होगी कि 'साम्राज्यवाद का नाश हो' (क्वूद ूपजी प्उचतपंसपेउ) का नारा लगाया और संसार के मजदूरों के एके की पुकार की। यह दोनों नारे एच.एस.आर.ए. के तत्कालीन राजनैतिक दृष्टिकाण को स्पष्ट करने के लिए महत्वपूर्ण हैं।
      भगत सिंह और दत्त के काफी देर तक गैलरी में निश्चल खडे रहने पर सार्जेंट टेरी ने आकर उन से प्रश्न किया ''क्या यह तुम्हीं ने किया था?''   
      भगत सिंह ने हामी भरी। गोली भरा पिस्तौल अब भी उस के हाथ में था। वह चाहता तो उस गोरे सार्जेन्ट को वहीं ठंडा कर देता परंतु एच.एस.आर.ए. की युध्द घोषणा अंग्रेज व्यक्तियों के विरुध्द नहीं बल्कि अंग्रेज साम्राज्यशाही व्यवस्था के विरुध्द थी। भगत सिंह उस समय के लिए निश्चित अपना काम कर चुका था। अलबत्ता सर जान शुस्टर पर गोली चलाने का कारण यह था कि वह विधान सभा में ब्रिटिश शासन व्यवस्था  के मुख्य प्रतिनिधि के रूप में था। उस समय भगत सिंह और दत्ता खाकी निकर और कमीज पहने हुए  थे। दोनों के शरीर पर ऊनी कोट भी थे। भगत सिंह हाथ में फेल्ट हैट भी लिए था।
      भगत सिंह और दत्त के आत्मसमर्पण कर देने पर सशस्त्र पुलिस ने उन्हें बड़े साज-बाज से गिरफ्तार कर लिया और खूब चौकसी से घेर उन्हें अलग-अलग मोटरों में बैठा कर 'नई दिल्ली' के थाने की ओर ले गयी।
      भगत सिंह और दत्त को लिए मोटरें सड़क पर एक टांगे के पास से गुजरीं। इस टांगे में भगवतीचरण, भाभी और सुशीला जी मौजूद थे। सुखेदव टांगे का सहारा लिए साइकिल पर साथ-साथ चल रहा था। टांगे के पास से पुलिस से भरी मोटरें गुजरने पर इन लोगों ने एक दूसरे को पहचाना परंतु व्यवहार न पहचानने का ही किया। यह मन का कितना बड़ा संयम था। भगत सिंह को उस समय मृत्यु के हाथों से लौटा लेने के लिए अपने प्राण दे देना इनके लिए अधिक आसान होता। संयम और अनुशासन का ऐसा उदाहरण विकृत मस्तिक या कायर के लिए संभव नहीं हो सकता। वयस्क और समझदार लोग तो वैसे ही चुप जैसे 'पन्ना दाई ' कर्तव्य रक्षा में अपनी संतान को टुकड़े-टुकड़े होते देख कर चुप रह गई थी परंतु भाभी की गोद में बैठा शची भगत सिंह को समीप से गुजरती मोटर की तरफ बांह उठा कर जोर से चिल्ला उठा-''लंबे चाचा जी!''
      भाभी ने तुरंत शची का मुंह गोद में दबा कर चुप करा दिया। यह क्या पीड़ा से उठती रूलाई निकलने न देने के लिए अपना गला घोंट लेने से कम था ?   विधान सभा में बम विस्फोट की घटना के समाचार ने देश भर को हिला दिया। अंग्रेजी सरकार की पुलिस घबरा गयी थी। दिल्ली से तुरंत कलकत्ते की 'विशेष क्रांतिकारी पुलिस' (ैचमबपंस ज्मततवतपेज च्वसपबम) को पुकारा गया। दिल्ली से सभी दूसरे प्रांतों की राजधानियों तक टेलीफोन और दूसरे तार सरकारी संदेशों के लिए रिजर्व कर लिए गए। उन दिनों दिल्ली में 'स्टेट्समैन' के संवाददाता लाला दुर्गादास थे। उन्होंने उसी समय विधान सभा बमकांड का समाचार टेलीफोन या तार द्वारा कलकत्ते भेजना चाहा परंतु समाचार भेजने के सभी साधन सरकारी काम के लिए रिजर्व थे। लाला दुर्गादास ने इस समय पत्राकार की विशेष सूझ दिखाई। उन्होंने यह समाचार 'स्टेटसमैन' के लन्दन दफ्तर को भेज दिया और लन्दन से यह समाचार वायरलेस से कलकत्ते भेज दिया गया। जिस समय 'एसोशियेटेड प्रेस आफ इंडिया' द्वारा इस घटना का समाचार कलकत्ते के दूसरे पत्रों को मिला, 'स्टेटसमैन' का बम घटना का समाचार लिए 'विशेषांक' बाजार में भी पहुंच चुका था।
      पुलिस ने इस कांड के पीछे षडयंत्र का पता लगाने की सिर तोड़ कोशिशें कीं परंतु कहीं कोई सूत्रा न मिल सका। इस समय तक सांडर्स कांड का भी कोई सूराग न मिल सका। लाहौर-षड़यंत्र और सांडर्सवध से इस घटना के संबंध का पता लाहौर बम फैक्टरी में गिरफ्तार किये गए मुखबिर जयगोपाल के बयान से ही मिला था।
      अदालत के मंच से अपनी बात कह सकने के लिए एच.एस.आर.ए. ने भगत सिंह और दत्ता को विधानसभा भवन में बलिदान किया था। अदालत में अपने-अपने सिध्दांत की बात किस प्रकार कह सकते थे! उन पर असेंबली में बम फेंक कर पर हत्या करने की चेष्टा का अभियोग लगाया गया था। और सेशन जज ने भारत दंड विधान की धारा 307 और विस्फोटक पदार्थ रखने के अपराध में उन्हें उम्र कैद का दंड दिया था।






कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

विशिष्ट पोस्ट

मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...