शनिवार, 30 अप्रैल 2011

रघुवीर सहाय की 12 कविताएं







उसका रहना

रोज़ सुबह उठकर पाते हो उसको तुम घर में

इससे यह मत मान लो वह हरदम मौजूद रहेगी/"



  बेटे से
 
टूट रहा है यह घर जो तेरे वास्ते बनाया था
जहाँ कहीं हो आ जाओ... 
नहीं यह मत लिखो लिखो जहाँ हो वहीं अपने को टूटने से बचाओ
हम एक दिन इस घर से दूर दुनिया के कोने में कहीं
बाहें फैलाकर मिल जाएँगे।


भ्रम निवारण

तुम क्या समझते हो कि
हर लड़की जो मुझे देखकर 
मुस्कुराती है मेरी पहचानी है
नहीं,वह तो सिर्फ 
अपनी दुनिया में मस्त रहती है।


ग़रीबी

 हम गरीबी हटाने चले
और उस समाज में जहाँ आज भी दरिद्र होना दीनता नहीं
भारतीयता की पहचान है,दासता विरोध है दमन का प्रतिकार है
हम ग़रीबी हटाने चले
हम यानी ग़रीबों से नफ़रत हिकारत परहेज़ करनेवाले
 हम गरीबी हटाते हैं तो ग़रीब का आत्म सम्मान लिया करते हैं
इसलिए मैं तो इस तरह ग़रीबी हटाने की नीति के विरूद्ध हूं
क्योंकि वही तो कभी-कभी अपने सम्मान की अकेली 
रचना रह जाती है।


ख़तरा

 एक चिटका हुआ पुल है
एक रिसता हुआ बाँध है
ज़मीन के नीचे बढ़ता हुआ पानी है
ख़तरे में राम ख़तरे में राजधानी है
पहले खुदा के यहाँ देर थी अँधेर न था
अब खुदा के यहाँ अंधेर है और उसमें देर नहीं।



 नहीं छापते 
अपना लिखा बार बार पढ़ मुझे बल बहुत मिलता है
और यह अफ़सोस बिल्कुल नहीं होता कि लिखना बेकार था
मेरे लिखे को कभी कुछ लोग दुबारा छाप भी देते हैं
उद्धृत कर देते हैं उनमें से वे अंश जो आज के समाज में
सत्ता केशीर्ष के नज़दीक निरापत्ति दिखते हैं
किंतु उन निष्कर्षों को नहीं छापते जो मेरे तर्क से 
निःसृत थे ।

हिन्दी 

 पुरस्कारों के नाम हिंदी में हैं
हथियारों के अंग्रेज़ी में 
युद्ध की भाषा अंग्रेजी है 
विजय की हिन्दी



 बिखरना

 कुछ भी रचो सबके विरूद्ध होता है
इस दुनिया में जहाँ सब सहमत हैं
क्या होते हैं मित्र कौन होते हैं मित्र
जो यह ज़रा सी बात नहीं जानते
अकेले लोगों की टोली/देर तक टोली नहीं रहती
वह बिखर जाती है रक्षा की खोज में
रक्षा की खोज में पाता है हर एक
अपनी अपनी मौत


मेरे अनुभव
 - कितने अनुभवों की स्मृतियाँ
ये किशोर मुँह जोहते हैं सुनने को
पर मैं याद कर पाता हूँ तो बताते हुए डरता हूँ
कि कहीं उन्हें पथ से भटका न दूँ
 मुझे बताना चाहिए वह सब
जो मैंने जीवन में देखा समझा
परन्तु बहुत होशियारी के साथ
मैं उन्हें अपने जैसा बनने से बचाना चाहता हूँ।


निंदा
 तुम निंदा के जितने वाक्य निंदा में कहते हो
वे निंदा नहीं रह गए हैं और केवल तुम्हारी
घबराहट बताते हैं।


 अकेला

 लाला दादू दयाल दलेला थे
जेब में उनकी जितनी धेला थे
उनके लिए सब माटी के ढ़ेला थे
ज़िन्दगी में वे बिल्कुल अकेला थे।



डर

 'बढ़िया -अँग्रेज़ी वह आदमी बोलने लगा
जो अभी तक मेरी बोली बोल रहा था
 मैं डर गया ।

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