बुधवार, 20 अप्रैल 2011

टेलीविजन युग में बुद्ध ब्राँण्ड का पराभव



पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों के बारे में बांग्ला चैनलों से लेकर राष्ट्रीय चैनलों तक विभिन्न सर्वेक्षणों में अनुमान व्यक्त किया गया है कि तृणमूल कांग्रेस-कांग्रेस के मोर्चे को 182 सीट से लेकर 231 तक सीटें मिल सकती हैं। जबकि वाम मोर्चे को 102 से 125 सीट मिलने का अनुमान व्यक्त किया गया है। वहीं दूसरी ओर माकपा नेताओं का दावा है कि उन्हें 160 सीटें मिलेंगी। लेकिन पश्चिम बंगाल का इसबार का विधानसभा चुनाव वाम के प्रति असंतोष के और गहरा होने की ओर संकेत कर रहा है। उल्लेखनीय है रेलमंत्री ममता बनर्जी का आज जितना विशाल कद नजर आ रहा है उसमें बांग्ला टेलीविजन चैनलों की महत्वपूर्ण भूमिका है। ममता की राजनीति को सकारात्मक और प्रभावी बनाने में इस माध्यम ने जो जमीनी असर पैदा किया है वह काबिलेगौर है। मजेदार बात यह है कि 2006 में बांग्ला चैनलों ने बुद्ध ब्राँण्ड की जमकर मार्केटिंग की और वाम मोर्चा तीन-चौथाई सीटें जीत गया। उस समय ममता बनर्जी टीवी के खेल में पिछड़ गयी थीं,लेकिन कुछ समय बाद ममता ने सही रणनीति अपनायी और राजनीतिक एक्शन और टेलीविजन का ऐसा सुंदर गठजोड़ तैयार किया कि ब्राँण्ड बुद्ध को अप्रासंगिक बना दिया। वाममोर्चा भूल गया कि आज के युग का सबसे बड़ा प्रचारक है टेलीविजन । पार्टी संगठन नहीं। टेलीविजन ने प्रचार के सभी पुराने तंत्रों और रूपों को अपने अंदर समेट लिया है अथवा अपनी संगति में विकसित करने पर जोर दिया है जो माध्यम ऐसा नहीं कर पाता उसे टेलीविजन निगल जाता है।टेलीविजन आधुनिकयुग का डायनासोर है। यह सबको खा सकता है इसे कोई नहीं खा सकता। पुरानी भाषा में कहें तो टेलीविजन अजर,अमर और अबध्य है। इस पर कोई सवारी नहीं कर सकता बल्कि यही सबके ऊपर सवारी करता है। टेलीविजन परवर्ती पूंजीवाद की चालकशक्ति है। सभी किस्म के प्रचार अभियान और विचारधारा विमर्श का मूल स्रोत है। चैनल खोलकर,चैनलों का स्वामित्व अपने पास रखकर टेलीविजन को माकपा वाले इसे अपने पक्ष में नचा नहीं सकते। टेलीविजन का मालिक कोई भी हो इसे मालिक नहीं नचाता बल्कि टेलीविजन सबको नचाता है। टेलीविजन में अंतर्वस्तु का महत्व नहीं है 'फ्लो' और 'प्रक्रिया' का महत्व है। ये दोनों तत्व टेलीविजन को सर्वोपरि स्थान दिलाते हैं।


टेलीविजन माध्यमों में से एक माध्यम नहीं है, यह विभिन्न माध्यमों के साथ सामंजस्य नहीं बिठाता बल्कि माध्यमों के बीच में जो सामंजस्य है उसे अस्वीकार करता है और अपना वर्चस्व स्थापित करता है। टेलीविजन के आने के बाद अन्य माध्यम उसके साथ संगति बिठाने को मजबूर होते हैं और टेलीविजन से ग्रहण करते हैं। जो माध्यम टेलीविजन से सीखने को तैयार नहीं होते वे हाशिए पर पहुँच जाते हैं। यही वह बिंदु है जहां पर माकपा की सारी मशीनरी और प्रौपेगैण्डा हार रहा है।परंपरागत संचार अथवा संगठन का संप्रेषण तब ही प्रभावी होता है जब जनता और संगठन के बीच में संवाद हो। विगत कई सालों से ग्रामीण जनता के साथ माकपा का संवाद टूट चुका है। पश्चिम बंगाल में तकरीबन पचास फीसद मतदाता हैं जो माकपा के साथ किसी भी किस्म का संवाद नहीं करते और वे निरंतर माकपा और वाममोर्चे के खिलाफ वोट देते रहे हैं। यह अंतराल विगत पांच सालों में और भी बढ़ा है।

पंचायत से लेकर शहरी अंचलों तक, शहरी दफ्तरों से लेकर गली-मुहल्लों तक माकपा का आम जनता से संवाद टूटा है। माकपा के खिलाफ आम जनता का अलगाव बढ़ा है। इसमें टीवी संस्कृति की बड़ी भूमिका है। मसलन् ,सन् 2006 के विधानसभा चुनावों में तकरीबन 136 विधानसभा सीटों पर कांग्रेस-तृणमूल कांग्रेस के प्रत्याशियों को वाममोर्चे की तुलना में ज्यादा वोट प्राप्त हुए थे। इन दोनों दलों में मत विभाजन था और उस विभाजन के कारण वाममोर्चे को अपनी तथाकथित दो-तिहाई जीत को हासिल करने का मौका मिल गया। यदि इन दोनों दलों में समझौता रहा होता तो सन् 2006 में ही वाममोर्चे की पोल खुल जाती।


पन्द्रहवीं लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के बीच सीट समझौता था उसके कारण वोटों का विभाजन नहीं हो पाया और वामविरोधी विधानसभा सीटों की संख्या 196 के ऊपर पहुँच गयी। यानी सन् 2006 से 2009 के बीच में तकरीबन साठ से ज्यादा सीटों पर वामपंथी दल अपने विरोधियों से पिछड़ गए। इस बीच पंचायतों के चुनाव हुए और उनमें वाममोर्चे को बुरी तरह पराजय का सामना करना पड़ा। आधे के करीब पंचायत सीटों पर वामविरोधी प्रत्याशियों की जीत हुई और यह आंकड़ा स्वयं में इस बात का संकेत था कि वाममोर्चे का ग्रामीण जनता और शहरी जनता के बीच संपर्क,संवाद और संबंध टूट चुका है। सन् 2006 के विधानसभा चुनाव में वाममोर्चे को जितने वोट मिले थे उनमें पंचायत चुनावों के समय पांच फीसद तक की गिरावट दर्ज की गयी और सन् 2009 के लोकसभा चुनाव में वाम मतों में गिरावट का प्रतिशत पांच प्रतिशत से बढ़कर आठ प्रतिशत के पार चला गया।
इस प्रसंग में पहली बात यह कि पश्चिम बंगाल को वाम का पर्याय नहीं समझना चाहिए। वामपंथ की सबसे बड़ी भूल यह थी कि उसने राज्य मशीनरी की स्वायत्तता खत्म करके उसे पार्टी तंत्र के मातहत बना दिया। अब यह तानाबाना असहनीय हो चुका है और जनता में जागरूकता और साहस का संचार हुआ है । इसके बावजूद पार्टीतंत्र का तानाबाना वर्चस्व बनाए हुए है। यह वर्चस्व धीरे-धीरे ही खत्म होगा। मार्क्सवाद की प्रासंगिकता और प्रतिवाद की राजनीति की प्रासंगिकता माकपा के पराभव के बाद भी बनी रहेगी। माकपा यदि अपने को दुरूस्त करती है तो निश्चित रूप से आम जनता में पुन: अपना खोया विश्वास प्राप्त कर सकती है। लेकिन इसके लिए जरूरी है पार्टी की ओट में बनाए गए असंवैधानिक तंत्र को पूरी तरह नष्ट किया जाए। इस तंत्र को नष्ट किए बिना माकपा को पहले जैसी जनप्रियता शायद कभी न मिले। पश्चिम बंगाल में विगत पैंतीस सालों के शासनकाल में माकपा अथवा वाममोर्चे ने अपना एक भी नया कार्यक्रम प्रशासन के जरिए लागू नहीं किया है। वाममोर्चे ने जितने भी कार्यक्रम लागू किए हैं वे किसी न किसी समय अन्य दल के बनाए थे। कांग्रेस के बनाए बुर्जुआ कार्यक्रम थे। इन्हीं कार्यक्रमों में भूमि सुधार और वितरण, साक्षरता ,पंचायत व्यवस्था, पंचवर्षीय योजना ,राष्ट्रीयकरण, सार्वजनिक क्षेत्र, ग्रामीण विकास रोजगार योजना, वीपीएल कार्ड योजना, प्रधानमंत्री सड़क निर्माण योजना ,नरेगा आदि आते हैं। सवाल यह है कि जब बुर्जुआजी के कार्यक्रमों को ही लागू करना है तो क्रांति का पाखंड क्यों ? क्यों नहीं बुर्जुआ व्यवस्था की संगति में आज तक माकपा अपना राजनीतिक कार्यक्रम बना पायी ? क्या बुर्जुआ कार्यक्रम लागू करके क्रांतिकारी इमेज बनाना संभव है ? ब्राँण्ड बुद्ध की अप्रासंगिकता की यही जड़ है।


























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