शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

यादों के आइने में भगतसिंह और उनके साथी -5-यशपाल


     भगत सिंह के विक्षुब्ध रहने का कारण सरदार किशन सिंहजी का व्यवहार था। भगत सिंह काफी समय दिल्ली और कानपुर रह आया था। उस का यह प्रवास गुप्त ही था। पिता के बार-बार पूछने पर भी उसने उस प्रवास के रहस्य उन्हें नहीं बताये थे परंतु उसके लक्षणों से इस फरारी का कारण भांप लेना कठिन नहीं था। सरदारजी को यह आशंका बनी हुई थी कि लड़का फिर किसी समय अंतर्धान हो जा सकता है। बीच-बीच में दो-चार दिन के लिए वह उड़ भी जाता था। सी.आई.डी. उस का पीछा कर रही थी। यह देख कर सरदारजी और भी चिन्तित थे। वे सोचते ही नहीं बल्कि भगत सिंह को समझाते भी थे कि सी.आई.डी. का सन्देह दूर करने के लिए उसे अक्ल से काम लेना चाहिये!
      भगत सिंह को घर पर बांध लेने का उपाय जो सरदारजी ने सोचा सो कोई नया नहीं था; वही पुराना तरीका कि लड़के का विवाह कर दिया जाये। एक अच्छे अमीर देहाती सिख परिवार में उन्होंने लड़की भी निश्चित कर ली थी। विवाह के लिए भगत सिंह को तैयार न देख कर सरदारजी और भी क्रुध्द और चिंतित रहने लगे।
      सरदारजी ने विवाह के प्रति आपत्तिा का कारण पूछा। भगत सिंह ने उत्तार दिया कि वह जब तक आर्थिक रूप से अपने पांव पर खड़ा न हो जाए शादी करना ठीक नहीं समझता। सरदार किशन सिंह जी ने उत्तार दिया, ''तू हमें ही रास्ता बताना चाहता है? विवाह कर ले और अपने पांव पर खड़े होने की कोशिश भी कर। हम मना करते हैं? विवाह हो जाने से तुझे कौन झंझट हो जाएगा? ''
      भगत सिंह ने अपनी उम्र कम होने का भी एतराज किया। सरदारजी ने उत्तर दिया, ''और सब बातों के लिए जो बुर्जुर्ग बनता है, बस शादी के लिए ही कमसिन है? शादी हो जाने दो। बहू को घर तभी बुलाना जब जरूरत जान पडे।'' सरदारजी को इस विवाह से काफी बड़े दहेज की भी आशा थी। लड़की वाले बात पक्की कर लेना चाहते थे। इसलिए सरदारजी भगत सिंह के इनकार के कारण मानसिक ज्वर की-सी अवस्था में दिखाई देने लगे।
      बहुत दबाव पड़ता देखकर भगत सिंह ने एतराज किया कि वह शादी करेगा ही तो पढ़ी लिखी लड़की से करेगा। उसे यह मालूम हो चुका था कि सरदारजी ने जो लड़की तलाश की है, वह गांव के अच्छे  बड़े जमींदार की लड़की है। गांव में लड़कियों का स्कूल कहां थे? बहुत होगा, लड़की कुछ गुरुमुखी जानती होगी। भगत सिंह ने जिद्द की कि वह कम से कम मैट्रिक पास लड़की से शादी करेगा। इस उत्तार से सरदार जी और भी बौखला उठे।
      भगत सिंह को कभी-कभी तो दल के काम-काज से भी घर से बाहर रह जाना पड़ता था और कभी-कभी पिता के सदा बिगड़ते ही रहने के कारण भी वह घर न जाता। मेरे यहां या भगवतीचरण के यहां टिक जाता और कभी कहीं और। इस बात से सरदारजी और भी अधिक विक्षिप्त हो जाते। हम सभी सरदारजी के निरंतर क्रोध के कारण उनसे डरने लगे। कभी हम लोग आपस में मजाक ही कर रहे होते और वे अचानक आ जाते तो चुप हो जाते। बुजुर्गों के सामने सभी तरह की बातें भी तो नहीं की जा सकतीं। सरदारजी अनुमान कर लेते कि यह लोग राजनैतिक-षडयंत्रा की बातें कर रहे थे, मुझे देख कर चुप हो गए हैं। उनका क्षोभ और क्रोध और भी बढ़ आता।
      सरदारजी मच्छीहट्टा में मेरी जगह पर कभी नहीं आए थे। एक दिन पूछते-तांछते हाथ में लाठी लिए, वे मेरे यहां आ पहुंचे। उनका चेहरा देख कर ही भांप गया कि वे बहुत ही नाराज और बिगड़े हुए थे। आते ही क्रोध भरी आत्मीयता में उन्होंने मुझे सम्बोधन किया-''तू भगत सिंह को समझाता क्यों नहीं? आखिर वह शादी क्यों नहीं करता? अभी तुम लोग बड़े भारी क्रांतिकारी ब्रह्मचारी बने फिरते हो, चार दिन बाद गलियों में लहंगे सूंघते फिरोगे।'' उन्होंने कुछ ऐसे विकट शब्दों और उपमाओं का प्रयोग किया उन्हें दोहराया नहीं जा सकता।
      मैंने भगत सिंह की ओर से सफाई दी कि शादी करने से तो वह इन्कार नहीं करता। उसे पढ़ने-लिखने का शौक है। वह चाहता है कि लड़की पढ़ी-लिखी हो।
      सरदार जी उबल पड़े-''पढ़ी-लिखी लड़की में कुछ और बढ़ जाता है क्या? पढ़ी-लिखी औरत से क्या पढ़े-पढ़ाये बच्चे होते हैं?''
      उनका क्रोध बढ़ता ही गया, वे साफ-साफ गालियां देने लगे...''तू और जयचंद्र दोनों बहुत कमीने हो। अपने आपको बहुत चालाक समझते हो। खुद तो तुम लोग नौकरी कर रहे हो, दूसरों को बिगाडते फिरते हो। तू उसे समझा नहीं सकता?''
      उस समय यदि मैं उनसे यह कह देता कि मैं उसे क्या समझाऊं वही मुझे समझा रहा है, तो जाने वे मुझे क्या-क्या सुना देते। इसलिए मैं यही कहता रहा कि मैं तो उसे हमेशा समझाता रहता हूँ कि घर का काम देख, ''देखिये, मैं तो नौकरी कर रही रहा हूं ''
      मेरे अज्ञान प्रकट करने पर सरदारजी बिगड़ उठे-''उसने तो मुझसे यही कहा था कि तेरे यहां रह जाता है।'' एक जिम्मेवार व्यक्ति का नाम लेकर वे बोले- ''... ने भी भगत को आज सुबह तेरे साथ देखा था, तुझे पता नहीं तो किसे पता है?''...उन्होंने एक अच्छी जोरदार गाली दे कर कहा-''मैं तेरे बाप की जगह हूं। तू मुझे चराता है बदजात!''
      कसम खाकर विश्वास दिलाया कि भगत मेरे यहां आज नहीं आया बाजार में मिला था। इस पर उन्होंने पूछा-''सुखदेव कहां रहता है?''
      यह बताना मुश्किल था क्योंकि सुखदेव उन दिनों 'कन्हैयालाल बिल्डिंग' में जयगोपाल के साथ एक कमरा लेकर अप्रकट रूप से रह रहा था। मैंने सरदारजी को टालने के लिए दो-चार जगहों के नाम बता दिए कि हो सकता है वहां कहीं हो।
      सरदारजी ने उन सभी जगहों का चक्कर लगाया। बदकिस्मती से इन्हीं में से एक  जगह भगत सिंह मिल गया।
      भगत सिंह ने आकर क्रोध में इस मुलाकात का जो हाल सुनाया तो मेरी ग्लानि का अन्त न रहा। सौ कसमें खाकर उसे यकीन दिलाया कि मुझे विश्वास था कि तुम आजकल वहां नहीं आते होगे। इसीलिए मैंने उन जगहों का नाम ले दिया था। भगत सिंह ने घुटनों, कोहनियों और कन्धों पर लाठी की मार के चिह्न दिखाये और फिर हंस-हंस कर उन मौलिक गालियों के नये-नये समास बताये जिनका आविष्कार सरदारजी ने उस पर अपना क्षोभ प्रकट करने के लिए किया था।
      1927 में लाहौर में दशहरे के अवसर पर एक बम विस्फोट हुआ था। यह किसी विकृत मस्तिष्क की करतूत थी। घनी भीड़ में बम विस्फोट होने से बहुत लोग जख्मी हो कर अस्पताल में भरती हुए  थे। मैं सेवा समिति की ओर से इन लोगों की सेवा-सुश्रुषा के लिए अस्पताल जाता रहता था। दशहरे की भीड़ में हिंदुओं की संख्या तो ज्यादा थी ही, इसीलिए हिंदू भाइयों ने कल्पना कर ली कि यह बम विस्फोट मुसलमानों की शरारत थी।
      पुलिस ने संदेह में कुछ आदमियों को गिरफ्तार कर लिया। इनमें से एक भगत सिंह था दूसरा हमारे कालिज का विद्यार्थी बाबूसिंह। पुलिस ने भगत सिंह को प्राय: दो सप्ताह हवालात में रखा। वकीलों की ओर से उसे अदालत में पेश किए जाने की मांग की जा रही थी। पुलिस कोई मामला न गढ़ पाई थी। उसे अदालत में पेश किये बिना ही जमानत पर छोड़ दिया गया। जमानत की रकम थी चालीस हजार रुपए। इस भारी जमानत पर होने के कारण, जामिनों को संकट में न डालने के लिए भगत सिंह को अपने घर में कैद हो जाना पड़ा। वह कहीं भी आता-जाता तो पुलिस के खुफिया उसके पीछे छाया की तरह लगे रहते। खुफिया पुलिस को चकमा दे देना तो मामूली बात थी किंतु  चकमा देने का अर्थ होता, उस विषय में पुलिस के सन्देह को मजबूत कर देना।

      मैंने डाक्टर गोपीचंद भार्गव की मार्फत पंजाब असेंबली में भगत सिंह को बिना कारण बताये जमानत पर रखकर परेशान करने के संबंध में प्रश्न का नोटिस दिला दिया। डाक्टर साहब को मुझ पर पूरा विश्वास था ही। उनके प्रश्न वगैरह मैं ही बना दिया करता था। चिकित्सा और कांग्रेस के दूसरे कामों से उन्हें रात के एक-एक बजे तक फुरसत न मिल पाती थी। असेंबली में प्रश्न का नोटिस देने पर भगत सिंह की जमानत वापस कर दी गई। कुछ दिन तो भगत सिंह साधु बना घर पर टिका रहा परंतु फिर ऐसा अन्तर्धान हुआ कि 1929 मार्च में केंद्रीय असेंबली में बम फेंकने और परचा बांटने के बाद ही गिरफ्तार हो कर प्रकट हुआ।
      भगत सिंह भी अपनी कल्पना में एक दुबली-पतली, पीली-पीली सी लड़की को जो उन दिनों एक कालिज में पढ़ रही थी, अपने मन में 'मेवाड़पतन' की 'मानसी' बनाये बैठा था। मुझे अब 'मेवाड़पतन' की कहानी तो याद नहीं पर भगत सिंह की 'मानसी' याद है। इस 'मानसी' ने भगत सिंह से कोई प्रतिज्ञा भी नहीं की थी। यह केवल भगत सिंह के मन का पढ़ी-लिखी, सुसंस्कृत दिखाई देने वाली लड़की के प्रति स्वत: आकर्षण मात्र था। अस्तु, जब 'मानसी' ने देश के प्रति उत्सर्ग को अपने मतलब की बात न समझ कर एक समृध्द नौजवान के शिष्ट वेश और व्यवहार के प्रति आकर्षित होकर उससे सगाई कर ली तो भगत सिंह की कल्पना के आदर्शों की मीनार भी ठसक गई। वह भी दो-चार दिन लंबी-लंबी सांसें लेकर अपने घर के इक्के में, घोड़ों के बीमार हो जाने के कारण ऊंट के दूध के कलसे शहर में पहुंचाता हुआ क्रांति की बात सोचने लगा।(क्रमशः)





1 टिप्पणी:

  1. शुभागमन...!
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