आंदोलनों का एक बेहतर परिणाम यह हुआ है कि साहित्य और संस्कृति में दलितों की भूमिका को हम अब धीरे-धीरे मानने को तैयार हो रहे हैं, लेकिन इतिहास में उनकी भूमिका को स्वीकारने में हमें अभी भी कठिनाई हो रही है। इसका मुख्य कारण है कि हमने अपने अंत:मन और ज्ञान-जगत में दलितों की एक छवि बना रखी है, जिसमें हम उन्हें निरीह, निम्न और निष्क्रिय रूप में देखते हैं। हम मानते रहे हैं कि ये सिर्फ प्रताड़ित होने वाले समुदाय हैं, इनमें प्रतिरोध की चेतना रही ही नहीं है, अगर रही भी है तो अपने मालिकों के साथ प्रतिरोध की नकल करने, उनका अनुसरण करने और उनका साथ देने के रूप में रही है। इस संदर्भ में दीपांकर गुप्ता द्वारा संपादित पुस्तक कास्ट इन क्वेस्ट में प्रकाशित जी. के. कारंत के आलेख 'रिप्लिकेशन ऑर डिसेंट' में देखा जा सकता है जिसमें उन्होंने कर्नाटक की अछूत दलित जातियों के अध्ययन के माध्यम से यह साबित करने की कोशिश की है कि किस प्रकार अनुकृति भी निम्न समुदाय के लिए प्रतिरोध का ही एक रूप है। दलित सेनानियों द्वारा अपने मालिक के उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष में शामिल होना कहीं से भी उनकी लड़ाई को सिर्फ मालिकों के लिए की जाने वाली लड़ाई के रूप में देखना उचित नहीं होगा।
इसका कारण यह है कि हम यह मानते हैं कि इतिहास की गति स्वार्थों की टकराहट से ही संचालित होती है। तभी तो 1857 के संघर्ष को हम सिर्फ सामंतों और राजाओं के व्यक्तिगत हितों के अंगरेजों से हुए टकराव के रूप में देखते हैं। यह एक डिटर्मिनेटिव एप्रोच है जिनमें हम यह भूल जाते हैं कि मानव-मन हितों और स्वार्थों से इतर भी कुछ होता है। अगर दलितों का स्वार्थ अंगरेजों से टकरा रहा था तो उन्हें कुछ नहीं करना था, ऐसा मानते हैं। हम यह भी भूल जाते हैं कि दलितों के दिल में भी भाव होता है, उच्छ्वास होता है। वे अपने से ही नहीं, अपने आसपास से भी संचालित होते हैं।
चूंकि हमने पहले ही मान लिया है कि दलित समाज निरीह रहा है तो वह संघर्ष कैसे
कर सकता है। जबकि हम भूल जाते हैं कि इतिहास के विभिन्न कालखंड दलित नायकों के संघर्ष-कालखंड रहे हैं। आठवीं शताब्दी से लगभग बारहवीं, तेरहवीं शताब्दी तक प्राचीन काल का राजत्व कमजोर हो रहा था और मध्यकाल की राजशाही वजूद में पूरी तरह आ नहीं पाई थी, यह एक संक्रमण का दौर था। इस दौर में दलित जाति के अनेक दुस्साहसिक नायक हमारी लोकगाथाओं के नायक बने। कुंवर विजयमल जो जाति का दुसाध माना जाता है, दीनाभद्री मुसहर लड़ाके थे, चुहरमल, सहलेश इत्यादि भी दलित जाति के नायक थे। इन लोकगाथाओं को पढ़ें तो जाहिर होता है कि इन जातियों में वीर और दुस्साहसी लोग थे जिन्होंने अपने राज तक कायम किए। नृतत्ववैज्ञानिक कुमार सुरेश सिंह ने लिखा है कि तेरहवीं शताब्दी में अयोध्या का राजा निम्न जाति का था, शायद डोम जाति का, मध्य उत्तर प्रदेश और अवध के पासी राजाओंडालदेव, बलदेव, बिजली पासी, सुहेलदेव इत्यादि के बारे में अंगरेज नृतत्वशास्त्रियों के लेखन और सेंसस गजेटियर्स में भी जिक्र आते हैं। कर्नल नील जिन्होंने 1857 के विद्रोह के आसपास एक दमनकारी सैन्य अधिकारी के रूप में छवि बनाई थी, ने अपने अत्यंत रोचक संस्मरण में लिखा है कि किस प्रकार उस समय अंगरेजी सेना के लिए पासी वीर एक चुनौती बन गए थे, यह ठीक है कि अंगरेज अधिकारी अपनी शब्दावली में नायक न कहकर अपराधी ही कहेगा, लेकिन हमें ऐसी व्याख्याओं से निकलना ही चाहिए। इस आलेख में यह भूमिका मैं इसलिए बना रहा हूं कि दलितों के बारे में बन गई रूढ़ हो चुकी छवि को तोड़ना चाहता हूं। कोल्फ इच डर्क एक डच इतिहासकार हैं जिन्होंने बताया कि उत्तर भारत में किस प्रकार मध्यकाल और प्रारंभिक उपनिवेशिक काल में सैन्य कर्म न केवल सवर्ण जातियों में बल्कि निम्न जातियों में एक प्रमुख नौकरी के रूप में उभरा था। न केवल यादव, क्षत्रिय जैसी धनी सामंती जातियां बल्कि पासी, दुसाध, डोम, मेहतर, मुसहर, कहार, नीची जातियों के लोग भी खाली समय में सैन्य अभ्यास करके, कुश्ती-पहलवानी करके तत्कालीन बिखरी हुई और केंद्रीयकृत राजसत्ताओं की सेना के लिए अपने को तैयार रखते थे जो पूरे भोजपुर और अवध में नौकरी का महत्वपूर्ण माध्यम था, ऐसा अनेक ऐतिहासिक साक्ष्यों से साबित हुआ है। अगर हम कोल्फ की बात मान लें तो हमें यह मानने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि 'नौकरनुमा निरीह जातियों' के मध्य भी एक नौकरीशुदा सैनिक वर्ग था जो 1857 के विद्रोह में शिरकत कर सकता था। एक दूसरे इतिहासकार निकोलस डर्कस ने अपनी नई पुस्तक में जातियों के बारे में लिखा है कि भारत में अंगरेजी सत्ता के मजबूत होने के पहले जातीय स्मृतियां काफी कुछ लचीली थीं। 1861 में 1857 के विद्रोह के बाद जब अंग्रेजों ने महसूस किया कि भारतीय समाज में बड़ा तबका उनके खिलाफ लड़ा है तो उनकी सूची बनाने, उनकी प्रवृत्तियों को जानने व समझने के लिए कोलोनियल डिटरमिनेशन प्रोजेक्ट शुरू किया गया जिसके अंतर्गत सेंसर और गजेटियर का निर्माण हुआ जिसके आधार पर इन जातियों को नियंत्रित करने के
लिए अनेक एक्ट बनाए गए। कोलोनियल डिटरमिनेशन प्रोजेक्ट का एक असर यह हुआ है कि
अब जातीय स्मृतियां निश्चित हो गईं, वे एक बार लिखित होकर प्रिंट में छप गईं। क्रिमिनल ट्राई पैक्ट इन्हीं प्रक्रियाओं का परिणाम था। इसके तहत 198 दलित जातियों को चिह्नित किया गया, इन्हें तीन नाम दिए गएएक्स क्रिमिनल ट्राइब्स, डीनोटिफाइड ट्राइब्स, नोमेडिक ट्राइब्स। 1860 में इसे इंडियन पैनल कोड में बदल दिया गया 1857 के संघर्ष के बाद जहां ऊंची जातियों के अनेक लोग राय साहब, राय जमींदार, महाराजा, राजा, जागीरदार की उपाधि लेने में व्यस्त थे वहीं दलितों के ऊपर क्रिमिनल ट्राइब एक्ट लगाया जा रहा था। यह एक्ट उपनिवेशिक इतिहास के विभिन्न कालखंडों में लागू किया गया जो इस प्रकार है : 1871, 1896, 1901-02, 1909, 1911, 1913-14, 1919 और 1924। यह जानना बहुत रोचक है कि 1857 के तुरंत बाद क्रिमिनल एक्ट बनाने की क्या आवश्यकता पड़ी और इन दलित जातियों को चिह्नित करने की क्या जरूरत पड़ी? वस्तुत: 1857 के विद्रोह के बाद अंगरेजी शासन ने अपनी गवर्नेंस और कंट्रोल एक्टिविटीस की कमियों को पहचाना था और भारतीय समाज में इस विद्रोह से सबक लेकर इसे नियंत्रित करने के लिए नई रणनीति बनाई और उन्हें क्रिमिनल जाति बना दिया जो उनके प्रशासन के लिए चुनौती थे। ये वे लोग थे जो औपनिवेशिक नियमों को नहीं मानते थे और उन्हें बार-बार तोड़ते थे।
यूं भी 1857 का विद्रोह मात्र सेनाओं, सैनिकों, राजाओं का विद्रोह नहीं था। रुद्रांग्शु मुखर्जी, गौतमभद्र, पिंच जैसे अनेक इतिहासकार मानते हैं कि इस विद्रोह में किसानों ने बड़े पैमाने पर शिरकत की, जिन गांवों के सैनिक जिनकी संख्या लाखों में थी, शहीद हुए थे, वे गांव इस विद्रोह से जुड़ गए। डच इतिहासकार डच कोल्फ की बात मानें तो अनेक निचली जातियों का भी साहसी सैनिकनुमा संवर्ग इस विद्रोह से जुड़ा हुआ था।
आज दलित इतिहासकार अपने नायकों की पहचान कर रहे हैं जिनका संबंध 1857 के स्वतंत्रता संघर्ष से रहा था। इस प्ररिप्रेक्ष्य में मातादीन भंगी का उल्लेख मिलता है जिन्होंने अपने मन-मस्तिष्क में उपजे सवालों से 10 मई 1857 को मेरठ छावनी में सैनिक विद्रोह का बिगुल बजाया। वस्तुत: इतिहास में चर्चित नायकों के प्रेरणास्रोत बने ये दलित नायक। राष्ट्रभक्ति और देशभक्ति की भावना के अतिरिक्त यह ऐसा आंदोलन था जिसमें जनमानस की भागीदारी रही। यह संघर्ष ऐसे समय में हुआ जब तत्कालीन नरेश अपनी सिंहासन रक्षा हेतु संघर्षरत थे। दलित सर्वहारा किसान का किसी नरेश से कोई सरोकार न था, ऐसे में मातादीन भंगी ने पानी पीने के लिए दो नंबर पल्टन के सिपाही मंगल पांडे से पीतल का लोटा मांगा, इस दुस्साहसिक कार्य हेतु मंगल पांडे की फटकार पर मातादीन भंगी ने चिढ़ाते हुए कहा कि 'बहुत जल्द ही तुम्हारी पंडिताई (ब्राह्मणपना) निकल जाएगी, जब तुम दांत से सुअर और गाय की चर्बी से बने कारतूस काटकर बंदूक में भरकर चलाओगे।' इस घटना के बारे में कैप्टन राइट ने एक पत्र मेजर बोन्टीन के नाम 22 जनवरी 1857 को लिखा था। मातादीन नए कारतूस बनाने वाली दमदम की फैक्ट्री में नौकर था इसलिए उसकी बात मान ली गई। यह बात आग की तरह फैल गई। तत्कालीन परिस्थितियों में जब एक अछूत जाति की आवाज भी भोजन करते समय एक ब्राह्मण पसंद नहीं करता था, ऐसे समय में उससे पानी पीने के लिए लोटा मांगना एक साहसिक कार्य था। इस घटना के पश्चात अंगरेज अफसर ने मातादीन भंगी को फांसी पर लटका दिया। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का सेहरा भले ही मंगल पांडेय और रानी लक्ष्मीबाई को दिया गया हो लेकिन उनके पीछे प्रेरणास्रोत बने मातादीन भंगी और झलकारी बाई।
जी.डब्ल्यू. फारेस्ट ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि सिपाहियों के स्वैच्छिक विद्रोह और झांसी पर पूर्ण विजय के बाद जब अधिकांश सेना दिल्ली की ओर चली गई तब रानी लक्ष्मीबाई सैनिकों के इस काम में स्वेच्छा से शामिल नहीं थीं। इस दौरान लक्ष्मीबाई अंगरेजों से दूरस्थ संबंध रखती थीं और अपने हक के लिए समझौते का प्रयास कर रही थीं। इस समय विद्रोही सैनिक के रूप में झलकारी बाई के पति पूरन कोरी और भाऊबक्शी कोरियों की सेना लेकर अंगरेजों का संहार कर रहे थे। संघर्ष की विशालता को देखते हुए रानी लक्ष्मीबाई अंगरेजों के संपर्क में आ रही थीं। लेकिन झलकारी बाई और उनके पति चिंतित थे कि कहीं रानी अंगरेजों की गिरफ्त में न आ जाएं। ऐसी नाजुक स्थिति में झलकारी बाई ने सूझबूझ का परिचय देते हुए अपने विश्वसनीय सैनिकों के साथ रानी लक्ष्मीबाई को असुरक्षित किले से बाहर निकालकर सुरक्षित स्थान पर भेजने में मदद की। युध्द के समय में झलकारी बाई ने बड़ी सूझबूझ का परिचय देते हुए स्वयं भंडारी गेट से उन्नाव गेट तक युध्द का संचालन किया। उनके पति पूरन कोरी और भाऊबक्शी भी युध्द में व्यस्त थे। झलकारी बाई का चेहरा और व्यक्तित्व काफी कुछ रानी लक्ष्मीबाई से मिलता था। इसका फायदा उठाकर किले में वह रानी लक्ष्मीबाई बनकर युध्द करती रही ताकि वे दूर सुरक्षित स्थान पर पहुंच जाएं। उनके पति पूरन कोरी अपनी मातृभूति की रक्षा करते हुए शहीद हो गए। यह पता चलते ही झलकारी बाई और भी बहादुरी से लड़ने लगी और अंगरेजों सेना के पैर उखाड़ दिए। महारानी लक्ष्मीबाई के प्रति सच्ची मित्रता, देशप्रेम और प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के लिए अपने कर्तव्य का पालन करते हुए वह शहीद हो गई। त्याग और बलिदान के लिए एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत कर अपने को अमर कर गई।
लोचन मल्लाह की कानपुर में 1857 के संग्राम में अहम भूमिका रही। यहां अंग्रेज अफसर नाना साहब को अपनी हितैषी समझते थे। कानपुर के कलेक्टर भी नाना साहब को अपना मित्र ही मानते थे। नाना साहब अपने को भी पत्रों द्वारा अंगरेजी सेना के हितैषी ही साबित कर रहे थे। यहां तक कि माफी मांगते हुए महारानी विक्टोरिया और अंगरेज अफसरों को पत्र भी लिखा था ताकि वे उनके विश्वासपात्र बने रहें। नाना साहब 26 जून 1857 को रातभर उनके घेरे में रहे। रात में 3 बजे अंग्रेज गंगा तट पर लोचन मल्लाह की व्यवस्था देखने गए। लोचन मल्लाह ने 40 नावों की व्यवस्था की थी ताकि अंगेजों को इलाहाबाद पहुंचाया जा सके। नाना साहब की देखरेख में अनेक अफसरों और उनकी पत्नियों को गंगा तट पर लाया गया। ईवार्ट सैन्य अधिकारी पालकी में बैठकर आ रहा था
लेकिन विद्रोही सैनिकों को इसकी भनक लग गई और उन्होंने पालकी से खींचकर उसकी हत्या कर दी। विद्रोही सैनिक इस दौरान कानपुर आ चुके थे। गंगा घाट पर कानुपर क्रांति के सेनानायक टीकासिंह, अजीमुल्लाह और तात्या टोपे सभी खड़े थे। इसी दौरान नाना साहब का एक घुड़सवार आया और उसने व्हीलर को विदाई के लिए नाना साहब का संदेश दिया। इशारा पाकर लोचन मल्लाह ने अपने साथियों से नाव छोड़ देने को कहा। सभी मल्लाह गंगा में कूद गए। अंगरेजों ने उन पर गोलियां चलाईं। पुन: लोचन मल्लाह ने दूसरी नाव पर क्रांतिकारियों को लेकर अंगरेजों का पीछा किया। इस दौरान लोचन की मदद से 80 अंगरेज स्त्री, पुरुष और बच्चे कानपुर लाए गए। बच्चों और स्त्रियों को अलग कर क्रांतिकारियों ने 14 अंगरेजों को फांसी पर लटका दिया।
डी.सी. डिंकर ने अपनी पुस्तक स्वतंत्रता संग्राम में अछूतों का योगदान' में वीरांगना महाबीरी देवी का उल्लेख किया है। यह भंगी जाति की तेज-तर्रार महिला थी। महाबीरी ने अपनी जाति की महिलाओं को एकत्र कर संगठन बनाया और मुजफ्फरनगर में अंग्रेजों से मोर्चा लिया। 22 महिलाओं को टोली में बल्लम-गड़ासों से लैस होकर अंगरेजों पर हमला कर उन्हें मौत के घाट उतार दिया। अपने ऊपर अचानक अनपढ़ और निम्न जाति समाज की महिलाओं द्वारा हमला किए जाने पर अंगरेज अफसर हतप्रभ रहे, क्योंकि यह विद्रोह किसी राजा के नेतृत्व में नहीं था बल्कि यह आम जनता का विद्रोह था। ये सभी महिलाएं आंदोलन में शहीद हो गईं।
नन्हीबाई का योगदान भी स्वतंत्रता आंदोलन में स्मरणीय है, क्योंकि वह जिस समाज से थी उस समाज से हम स्वतंत्रता आंदोलन में संघर्ष के लिए सोच भी नहीं सकते थे। भक्तन जाति के लोग वैष्णव संप्रदाय को मानने वाले थे। पर उनकी कन्याओं की शादी नहीं होती थी। उनकी शादी किसी साधु के साथ करकर उन्हें वेश्यावृत्ति में उतार दिया जाता था। यह समाज भी ब्राह्मणी व्यवस्था का शिकार था। नन्हीबाई ने भी इसी भगतन परिवार में एक वेश्या की कोख से जन्म लिया। महर्षि दयानंद सरस्वती ने भी नन्हीबाई को जोधपुर के राजा के साथ देखकर यह टिप्पणी की कि 'सिहों के सिंहासन पर इन कुतियों से कुत्ते ही पैदा होंगे' सुनकर अपमान और क्रोध का घूंट पीकर रह गई। कालांतर में नन्हीबाई ने समाज-सेवा का व्रत लिया और अपनी अपार धन-संपदा को देश की सेवा में लगा दिया। हालांकि नन्हीबाई पर दयांनद सरस्वती को मारने का आरोप लगा था। नन्हीबाई ने लेडी हार्डिंग मेडिकल कालेज के साथ-साथ अनेक संस्थानों को अपनी संपत्ति बेचकर दान दिया, अंगरेजों से उनकी बहस होती ही रहती थी। वे क्रांतिकारियों को मदद करना अपना धर्म समझती थीं क्योंकि एक वेश्या होने के नाते स्वतंत्रता के मायने बखूबी जानती थीं। यहां उत्तर प्रदेश के जौनपुर जनपद के मछली शहर में रहने वाले बांके चमार का उल्लेख करना भी नितांत आवश्यक है। इन्होंने प्रमुख बागी नेता हरिपाल सिंह के साथ रहकर स्वतंत्रता आंदोलन में अनेक अफसरों को मौत के घाट उतारकर दलित समाज में वीरता और बहादुरी और दलित क्रांतिकारी होने का सबूत पेश किया। इन पर अंगरेजों ने पांच हजार रुपए का पुरस्कार घोषित किया था। अंततोगत्वा इन्हें भी फांसी पर लटकाया गया।
इतिहास की खोज, इतिहास रचना और इतिहास का निर्माण एक सतत विकासमान प्रक्रिया है। अंबेडकर के समय अर्थात 1920 से 1956 तक राष्ट्र की मुक्ति के संग्राम में दलितों की मुक्ति की बात होती थी, यह वहीं तक सीमित नहीं थी। नए शोधों, अभिलेखीय दस्तावेजों के नए पाठ, औपनिवेशक दस्तावेजों के उच्छेदवादी पुनर्पाठ से इतिहास में दलितों का प्रवेश कर दरवाजा चौड़ा ही हुआ है। अंबेडकर के समय सन् 1857 के बाद का जो दलितवादी मूल्यांकन रहा था वह आज काफी कुछ बदल चुका है। अगर अंबेडकर आज जीवित होते तो इतिहास में दलितों की भूमिका पर वैसा ही पाठ करते जैसा कि डी.सी. डिंकर, एम.आर. विद्रोही, एस. संजीवन नाथ, के. नाथ जैसे दलित लेखक कर रहे हैं। न व्यवस्थाएं रुकती हैं न समाज रुका रहता है और न इतिहास। अत: आज जो लोग अंबेडकरवादी आग्रहों से दलितों की भूमिका का मूल्यांकन करना चाह रहे हैं, उन्हें इन नए पाठों को भी देखना चाहिए। और सन 1857 के उस संग्राम में जिसमें उत्तर भारत में अनेक गांव शामिल थे, जिसकी तरफ इशारा अत्यंत पुरानी इतिहास पुस्तक में सुंदरलाल ने किया है और बताया है कि किस प्रकार फूल और चपाती गांव-गांव में घुमाकर यह साबित किया जाता था कि यह गांव स्वतंत्रता संग्राम में शामिल है। उन लोगों में रहने वाले शोषित दलितों के उन स्वतंत्र क्षणों को समझा जाए जहां उन्होंने अनेक बार अपने खुद की पहल पर स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया। ऐसा नहीं था कि राजा विद्रोह करे तभी प्रजा करे, प्रजा विद्रोह में राजा से आगे चली जाती है। इतिहास यूं ही कार्यकारण संबंधों के डिटर्मिनिस्टिक आग्रहों से नहीं चलता। इसमें अनेक स्वर होते हैं, अनेक गतिविधियां, अनेक अनुगूंजें, सिर्फ उन्हें देखने, सुनने, समझने की संवेदनशीलता होनी चाहिए।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें