रविवार, 3 अप्रैल 2011

नामवर सिंह और ग्लोबल प्रेत


      हिन्दी में इन दिनों उत्तर आधुनिकतावाद और उत्तर औपनिवेशिकता पर खूब विमर्श हो रहे है। मजेदार बात यह है कि इस विमर्श में ज्ञानी-अज्ञानी दोनों ही भाग ले रहे हैं। वे लोग भी भाग ले रहे हैं जिनके लिए यह सिद्धान्त अमेरिकी षडयंत्र है। ऐसे ही विचारों के मानने वालों में हिन्दी की प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका 'आलोचना' (जुलाई-सितम्बर,2002 ) ने एक अंक "उत्तर आधुनिक दौर में इतिहास" शीर्षक से विशेष सामग्री के साथ निकाला था। इस अंक का जिक्र अचानक करने की इच्छा इसलिए हुई कि इसमें जितने लेख हैं वे किसी न किसी रूप में घूम-फिरकर उत्तर आधुनिकता के सवालों पर रोशनी डालते हैं। इसी अंक में नामवर सिंह का महत्वपूर्ण लेख है 'इतिहास के प्रेत', यह लेख नामवर सिंह का व्यंग्यपूर्ण बहुत ही सुंदर लेख है। समस्या सिर्फ यह है कि नामवर सिंह ने जिस भाव से उत्तर आधुनिक विमर्श में भाग लिया है वह उत्तर आधुनिक भाव नहीं है। बल्कि यह उत्तर-मार्क्सवादी भाव है।  इस लेख में नामवर सिंह ने कई मजेदार बातें कही हैं जो आलोचना की कु-व्याख्या से जुड़ी हैं। इसमें नामवर सिंह ने फ्रांसीसी विचारक और दार्शनिक ज्याक देरिदा की किताब  स्पेक्टेटर ऑफ मार्क्स के हवाले से प्रेत के रूपक पर रोशनी डाली है। इस रूपक पर नामवर सिंह को देरिदा भी प्रेत पीड़ित दिखाई पड़े। लिखा , "देरिदा ने ऐसा चमत्कारपूर्ण विखंडन किया कि मार्क्स का समस्त साहित्य यहाँ से वहाँ तक प्रेतों से ही प्रतिच्छायित प्रतीत होने लगा और देखते ही देखते देरिदा की विखंडन -विधि एक नई ' प्रेत विद्या' में बदल गई ! वैसे भी इतिहास के अंत के बाद तो इतिहास के प्रेत ही बचे रहते हैं। इसीलिए इस पुस्तक में देरिदा जोर देकर कहते हैं कि अब प्रेतों से बात करने,प्रेतों के बारे में बात करने,प्रेतों के साथ रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं। गरज कि उत्तर -आधुनिक दौर के इस अन्तिम चरण का मुख्यशास्त्र ' प्रेत विद्या' है- विखंडन विधि की फलश्रुति।"    
    असल में देरिदा ने अपनी किताब में 'पाठ पढ़ने की राजनीतिक' पद्धति अपनायी है। जिस बात से नामवर सिंह ने देरिदा पर व्यंग्य किया है वही देरीदियन पद्धति उन्होंने अपने लेख में अपनायी है। इस क्रम वे देरिदा की तरह ही किसी एक पर चीज केन्द्रित नहीं होते,वे गुजरात के दंगों से लेकर भूमंडलीकरण तक के व्यापक कैनवास में एक विषय से दूसरे विषय में उत्तर आधुनिक भाषिक खेल खेलते हैं। यह नामवर सिंह का उत्तर-मार्क्सवादी खेल है। इस लेख में नामवर सिंह का प्रत्येक निर्णय राजनीति पर आधारित है,राजनीति सही तो बाकी सब सही। लेकिन देरिदा के संदर्भ में उनके निष्कर्ष सही नहीं हैं।नामवर सिंह ने लिखा '' मार्क्स के प्रेत '(1993) पुस्तक से पता चलता है कि देरिदा को भी चारों ओर प्रेत ही प्रेत दिखाई देने लगे हैं।" 
असल में देरिदा ने इस किताब में पाठ समीक्षा की राजनीति की व्यापक चर्चा की है। देरिदा ने लिखा है इन दिनों वास्तव और अवास्तव ,व्यक्ति और अव्यक्ति,जीवन और मृत्यु, उपस्थित और अनुपस्थित आदि के बारे में सवाल नहीं किए जाते। जो कुछ भी कहा जाता है वह खास सीमा में रहकर ही कहा जाता है। इसी प्रसंग ने स्पेक्टेटर ऑफ मार्क्समें बड़े मार्के की बात कही है।
     देरिदा ने लिखा है ऐसे विद्वान अब नहीं रहे जो वास्तव अर्थ में विद्वान हों और विद्वान की तरह ही भूत के बारे में बता सकें। परंपरागत विद्वान् भूत में विश्वास नहीं करते थे और नहीं इसे वर्चुअल स्पेस का नजारा ही कह सकते हैं। अब ऐसे विद्वान नहीं रहे जो बता सकें कि यथार्थ और अयथार्थ में अंतर क्या है,वास्तव और अवास्तव में अंतर क्या है। जीवित और मृत में अंतर क्या है। व्यक्ति और अव्यक्ति में अंतर क्या है। इसी तरह उपस्थित और अनुपस्थित में अन्तर्विरोध बताने वाले विद्वान नहीं रहे।
      देरिदा इस किताब में वास्तव और अवास्तव के अलावा कोई तीसरा आयाम भी हो सकता है इसकी खोज करते हैं। यह मूलतः हैऔर नहींके बीच में किसी तीसरे की खोज का काम है। यह औरहै। वे इसे भूत के रूपक के जरिए खोजने की कोशिश करते हैं।
   मसलन् अस्मिता की धारणा को ही लें। अस्मिता का आधार पिता है। फलां का पिता दलित था अतः बेटा भी दलित होगा। मजेदार बात यह है कि पिता मर गया है। मरे की पहचान को हम जिंदा की पहचान के रूप में देख रहे हैं। अतः जो अस्मिता जी रहे हैं वह जिंदा है लेकिन जो नाम अस्मिता को दिया गया है वह मृत है। यहां पर पिता का भूत पीछा कर रहा है। पिता रूपी भूत वास्तव बेटे से काल्पनिक दूरी बनाए रखता है।
    दिक्कत यह है कि अस्मिता भूत है और वर्तमान भी है। यह ऐसा शरीर है जो कभी था और आज भी है। यहां अन्य के संदर्भ से अस्मिता पहचान बनाती है और फिर अन्य में ही तब्दील हो जाती है। अन्य से अन्य का जन्म, अन्य के आधार पर स्व की पहचान, विषय और व्यक्ति  की पहचान, चेतना ,स्प्रिट आदि का निर्धारण करने लगते हैं। देरिदा के यहां पर जो भूतहै वह परंपरागत किस्म के सोच को चुनौती देता है। वह जीवित और मृत के बीच के विरोध में आश्वासन का काम करता है। वह स्व की पहचान, समय और स्थान की धारणा को भी चुनौती देता है।
     आमतौर पर हम यही कहते हैं कि हमने कल भूत देखा था। या उस घर में भूत है। देरिदा ने सवाल किया है भूत के साथ बीता कल कैसे जुड़ गया ? जबकि भूत तो वह है जो समय और स्थान के परे है। समय के तीन रूप है भूत,भविष्य और वर्तमान। भूत इनमें से किसी के दायरे में नहीं आता। जब हम कहते हैं कि मैंने उस घर में भूत देखा तो हम भूल ही जाते हैं कि भूत घर में नहीं रहता। ज्योंही हम भूत को खोजने जाएंगे वह नहीं मिलेगा। ज्योंही भूत को खोजेंगे कि वह कहां है और कब देखा था ,उसका वास्तव में पता नहीं चलेगा। यही वह भूत है जो हमें अन्य के विमर्श में मिलता है और अन्य का विमर्श अंततः शून्य के विमर्श में विलीन हो जाता है। भूत हमेशा कोई हैऔर कोई अन्य है।यहां इन दोनों में समानता है।
   हमारे बीच में उत्तर आधुनिकता ने  जितने भी विमर्श पेश किए हैं वे सब भूत विमर्श हैं, ऐसे विमर्श हैं जो जीवन में हैं भी और नहीं भी।  इनमें कौन सा विमर्श कब आरंभ हो जाए कहना मुश्किल है। विमर्श की अनिश्चितता ही है जो किसी भी चीज को उत्तर आधुनिक चंचल अवस्था में रखती है। उत्तर आधुनिक विमर्श कब आरंभ होता है और किस तरह आरंभ होता है, और किससे बंधा या जुड़ा हैं ?ये तीनों चीजें ध्यान देने योग्य हैं।
   उत्तर आधुनिकों ने वंचितों को केन्द्र में रखकर कोई गंभीर काम नहीं किया है। अथवा भूत ने कभी उत्पीडितों को सम्बोधित नहीं किया है। उत्तर आधुनिक सवालों पर हमेशा बहस बहुआयामी स्थितियों और अर्थों को जन्म देती है। प्रत्येक उत्तर आधुनिक साहित्य समस्या राजनीतिक अभिव्यक्ति से भरी होती है। चूंकि उत्तर आधुनिक का अर्थ अनिश्चित होता है अतः उसकी राजनीति भी अनिश्चित होती है। आलोचना जिस चीज को देखती है वह वास्तव और अवास्तव का अस्थिर रूप है। फलतः यथार्थ और अयथार्थ और जीवंत और मृत के बीच में अंतर करना मुश्किल हो जाता है। इसके कारण राजनीतिक और साहित्यिक फैसले लेना असंभव हो जाता है। यानी उत्तर आधुनिकता का स्थायी भाव है दुविधा।
   देरिदा ने स्पेक्टर्स ऑफ मार्क्समें इतिहास की भिन्न धारणा का इस्तेमाल किया है। वैसे गौर से देखें तो इतिहास की परंपरागत धारणा का इस्तेमाल करने के कारण फुकुयामा और ल्योतार इतिहास के अंतकी थ्योरी पर  एकमत हो जाते हैं। जबकि देरिदा भिन्न तरीके से देखते हैं। वैसे इन दोनों में कोई भी साझा तत्व नहीं है। ऐतिहासिक घटनाओं को देखने की परंपरागत धारणा के अनुसार इतिहास मृत है। प्रत्येक चीज एक-दूसरे के खिलाफ खड़ी है। कोई भी धड़ा अपनी समझ के बारे में,उसके परिणाम के बारे में पुनर्विचार करने को तैयार नहीं है।
    उत्तरआधुनिकतावाद के संदर्भ में साहित्य में क्या घटा है इसके बारे में देरिदा ने बेहतर रोशनी डाली है। मार्क्स और हेमलेट का मूल्यांकन करते हुए लिखा है  इस युग में साहित्य के सवाल राजनीति के सवालों को खोल रहे हैं। यही स्थिति राजनीति की भी है आप राजनीति के सवाल उठाते हैं तो उससे साहित्य के सवाल खुलते है। यानी साहित्य और राजनीति में एक-दूसरे के बरक्श सवाल उठ रहे हैं। नामवर सिंह इस देरिदियन पद्धति का अपने लेख में कौशल के साथ इस्तेमाल करते हैं।
नामवर सिंह ने लिखा है '' देरिदा के मार्क्स के प्रेत को देखकर अब तो यह कहना ही पड़ेगा कि मार्क्सवाद और जो कुछ भी हो ' प्रेत विद्या' नहीं है।देरिदा 'किसी सड़े हुए राज्य' के राजकुमार हेमलेट हों तो हों,मार्क्स कोई हैमलेट नहीं थे,शेक्सपियर को दिल से चाहने के बावजूद। नामवर सिंह ने यह भी लिखा, " मार्क्स के प्रेत तो थे, लेकिन अपने प्रेत। प्रेत और प्रेतों की छाया का प्रयोग भी उन्होंने किया है-प्रायः अलंकार और रूपक की तरह,लेकिन उन रूपकों के अन्दर भौतिक वास्तविकता की ठोस अन्तर्वस्तु भी है और महत्वपूर्ण वह अन्तर्वस्तु ही है। प्रसंग -भेद से अन्तर्वस्तु भी भिन्न-भिन्न है।"
   प्रेत की खूबी है कि वह कभी सीधे नहीं आते ,प्रेत के आने के लिए'अन्य' का होना जरूरी है। प्रेत पहले 'अन्य' को रेखांकित करता है, उसके अंदर प्रवेश करता है जिसकी काया के अंदर प्रवेश करके प्रेत ताण्डव करते हैं उसे लोग विस्मित नजरों से देखते हैं।
इन दिनों जिस प्रेत का हमारे समाज पर सबसे ज्यादा प्रभाव है वह है भूमंडलीकरण का प्रेत। यह अकेला नहीं हैयह व्यक्ति नहीं है बल्कि फिनोमिना है, यह दल नहीं है यह तो सिर्फ प्रेत है। प्रेत के लोकल और ग्लोबल हित होते है। प्रेत कभी भी परमार्थी नहीं होता बल्कि सबसे बड़ा स्वार्थी होता है प्रेत हमेशा अदृश्य रहता है उसके सिर्फ एक्शन दिखाई देते हैं,परिणाम दिखाई देते हैं, प्रेत कभी दिखाई नहीं देता। हमारे देश में ग्लोबल प्रेत जो कर रहे हैं उनकी हमने पश्चिम बंगाल में नकल शुरू कर दी है, नकल हमेशा असल से भी सुंदर लगती है। बल्कि यह कहें कि असल फीकी और नकल चमकदार और आकर्षक लग रही है।प्रेत अदृश्य होता है उसे आप पकड़ नहीं सकते। महाशक्तिशाली होता है उसे पछाड़ नहीं सकते। प्रेत को आप पकड़ने की कोशिश करेंगे तो स्वयं क्षतिग्रस्त होंगे। प्रेत हमें अच्छे लगते हैं,हम प्रेतों से प्यार करने लगे हैं और स्वयं प्रेत बनते जा रहे हैं। यही प्रेतों की सबसे बड़ी सफलता है। प्रेत का हमारी काया में प्रवेश इच्छाओं के माध्यम से होता है और अंतत: हम प्रेत बनकर रह जाते हैं। हमारे पास इच्छाएं होती हैं,बर्बरता होती है और प्रेतभावना होती है।
21वीं सदी की सबसे बड़ी ताकत हैं ग्लोबल प्रेत । वे अदृश्य तरीकों से विभिन्न दलों में घुस आए हैं। इनमें वे दल भी हैं जो क्रांतिकारी हैं,सामाजिक परिवर्तन के लिए आए दिन जयघोष करते हैं। ऐसे दलों का ग्लोबल प्रेतों के स्वरों में बोलना मानवीय राजनीति की सबसे बड़ी पराजय है। जो आदमी एक बार मनुष्यता अर्जित कर लेता है वह पलटकर पीछे नहीं लौट सकता।क्योंकि मनुष्यता अर्जित करना बेहद मुश्किल काम है और मनुष्य बन जाने के बाद प्रेत बन जाना सबसे बड़ी दुर्घटना है। ऐतिहासिक दुर्घटना है। मिथकीय दुर्घटना है। अमानवीयता का चरम है।
हमारे बीच में ग्लोबल प्रेत शांति, मुक्ति,लोकतंत्र, संत्रास से मुक्ति,विकास, उपभोग, नव्य- उदारवाद ,नई-नई उपभोगवादी संस्कृति के विभिन्न रूपों के बहाने प्रवेश कर रहे हैं। ग्लोबल प्रेत इतने आकर्षक होते हैं कि सबको अपनी ओर खींचते हैं। सब उनसे प्यार करने लगे हैं। इस प्यार का आलम ही है कि हमारे यहां ग्लोबलपंथी राजनीति का वर्चस्व बढ़ा है। यही वजह है कि ग्लोबल प्रेत जिसके अंदर प्रवेश करते हैं उसे बेचैन करते हैं,तनाव में रखते हैं,बर्बर बनाते हैं।
      'हम' और 'तुम' का खेल ग्लोबल प्रेतों का खेल है,उनके प्रतिरूपों का ताण्डव है,यह हम सबके लिए खुशी का समय नहीं है बल्कि त्रासद समय है। प्रेतों का ताण्डव आनंद की नहीं त्रासदी की अनुभूति देता है। प्रेतों के कंधे पर सवार होकर आयी शांति अथवा इलाका दखल अंतत: नरक और बर्बरता के लोक में ले जा सकते हैं। प्रेतों का रास्ता लोकतंत्र की ओर कम से कम नहीं जाता। ग्लोबल प्रेतों और उनके अनुगामी लोकल प्रेतों ने जहां पर भी कदम रखा है वहां सिर्फ चीखें ही सुनाई दी हैं,चीखों को शांति की आवाज नहीं कहते! वेदमंत्र नहीं कहा जा सकता। मनुष्यों की चीखों से सिर्फ प्रेत खुश होते हैं। प्रेतात्माओं के जरिए अर्जित की गई शांति कभी टिकाऊ नहीं होती।









1 टिप्पणी:

  1. क्या आपने नामवर जी को रोते हुए देखा है, यदि नहीं तो ऋषभ उवाच ब्लाग पर जाइये :)

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