बुधवार, 13 अप्रैल 2011

ममता,वाम और संस्कृतिकर्मी



ममता बनर्जी ने अपने दल की ओर से अनेक संस्कृतिकर्मियों को विधानसभा चुनाव में खड़ा किया है। कई कलाकार उसके पहले लोकसभा में भी चुनकर गए हैं। यह स्वागत योग्य फिनोमिना है। यह संस्कृतिकर्मियों की राजनीतिक भूमिका की लोकतांत्रिक स्वीकृति है। इसके विपरीत वामदलों का संस्कृतिकर्मियों के प्रति नकारात्मक रवैय्या रहा है। वे उन्हें विधानसभा, लोकसभा और राज्यसभा के लायक नहीं समझते। उनके लिए वे महज भोंपू हैं। हिन्दी में सक्रिय वामपंथी दलों द्वारा संचालित लेखक संगठनों जैसे जनवादी लेखक संघ,प्रगतिशील लेखक संघ आदि की सामयिक दशा को जाने बिना ममता बनर्जी के फैसले की महत्ता तब तक समझ में नहीं आएगी।

कडुवा सच यह है वाम संचालित सभी लेखक संगठन आज हाशिए के बाहर हैं। हाशिए पर जाना घटना है और हाशिए के बाहर चले जाना त्रासदी है। दुर्घटना है। लेखक और संस्कृति मंचों की जरूरत तब ही महसूस की जाती है तब आप शोषित महसूस करें। लेखक जब शोषित महसूस करना बंद कर देता है तो संगठन की प्रासंगिकता खत्म हो जाती है। संगठन प्रतीकात्मक रह जाते हैं। लेखक संगठनों को सत्ता से कभी शक्ति नहीं मिलती। मलाई जरूर मिलती है।

इसी तरह लेखक संगठनों को राजनीति का अंग भी नहीं समझना चाहिए। यदि ऐसा होता है तो लेखक संगठन हाशिए के बाहर जाने के लिए अभिशप्त हैं। विलक्षण आयरनी है कि लेखक संगठनों का काम करते हुए ह्रास हुआ है। सबसे ज्यादा सक्रिय लेखक संगठन आज सबसे ज्यादा निष्क्रिय हैं। कभी-कभार प्रतीकात्मक कार्यक्रम कर देते हैं,शोकसभा कर देते हैं,सम्मेलन कर लेते हैं, कभी कभार सेमीनार कर लेते हैं। लेकिन लेखकीय अधिकारों के लिए कभी संघर्ष नहीं करते। लेखक संगठन की सक्रियता प्रायोजक जैसी हो गयी है। सवाल यह है कि लेखक संगठन प्रायोजक कैसे हो गया ? प्रायोजक भाव में रहने के कारण ही उनकी प्रेरणा सीमित दायरे में सक्रिय है। जब किसी कार्यक्रम का आयोजन करता है तो प्रेरक और सक्रिय के भ्रम में रहता है। कार्यक्रम खत्म और प्रेरक का भ्रम भी खत्म। यही दशा लेखक संगठनों की है वे बगैर निवेश के लाभ लेना चाहते हैं। नाम कमाना चाहते हैं। मंच देना निवेश नहीं है। बल्कि मंच तो लाभ का स्रोत है। लेखक संगठन का निवेश आलोचनात्मक वातावरण के निर्माण पर निर्भर करता है। मंच मात्र देने से आलोचनात्मक वातावरण नहीं बनता। आलोचनात्मक वातावरण अनालोचनात्मक वातावरण को नष्ट करके बनता है। इसके लिए विचारधारात्मक और सर्जनात्मक योगदान की जरूरत होती है।मानवाधिकारों की हिमायत करने की जरूरत होती है। विचारधारात्मक-सर्जनात्मक वातावरण सीमाओं का अतिक्रमण करके ही बनता है। सीमाओं में बांधकर मंच और बहसों का आयोजन अनालोचनात्मक वातावरण को बनाए रखता है।

कल तक लेखक संगठन जिसे प्रेरणा,अपरिहार्य,अनिवार्य और स्वाभाविक मानते थे आज प्रेरणा लेने की बजाय उससे यांत्रिकतौर पर बंधे हैं। लेखक संगठन जितने बड़े उत्साह के साथ बनते हैं उतनी ही तेजी से उनका उत्साह ठंड़ा पड़ जाता है । कल तक जो लेखक संगठन की महत्ता पर निबंध लिखता था आज वही लेखक संगठन को अप्रासंगिक मानता है। कोई बात जरूर है जो लेखक संगठन को तमाम सक्रियता के बावजूद अप्रासंगिक बनाती है।

सवाल यह है कि लेखक संगठन की वर्तमान दशा और दिशा की क्या 'विखंडनवादी' रीडिंग संभव है ? लेखक संगठन के द्वारा विलोम निर्माण की प्रक्रिया को कभी गैर विखंडनवादी पध्दति और नजरिए के जरिए नहीं समझा जा सकता। 'सही' और 'गलत' राजनीतिक लाइन के आधार पर नहीं समझा जा सकता। 'प्रासंगिकता' और 'अप्रासंगिकता' के आधार पर नहीं समझा जा सकता। 'श्रेष्ठ' और 'निकृष्ट' के आधार पर वर्गीकृत करके नहीं समझा जा सकता।

मसलन् यह वर्गीकरण वैध नहीं है कि ''लेखक संगठन में काम करना 'श्रेष्ठ' है और जो लेखक, संगठन का काम नहीं करते वे निकृष्ट हैं।'' उसी तरह '' जो लेखक संगठन का काम करते हैं वे निकृष्ट हैं और जो बाहर हैं वे श्रेष्ठ हैं।'' इसी तरह '' लेखक संगठन का सोच सही है, व्यक्ति के रूप में लेखक का सोच गलत है।'' अथवा 'संगठन वैध है बाकी सब अवैध है।'' ''लेखक संगठन का सत्य प्रामाणिक है ,व्यक्ति लेखक का सत्य अप्रामाणिक है'', '' साहित्यिक विधा में लिखना लेखन है और गैर साहित्यिक विधाओं जैसे मीडिया में लिखना साहित्य नहीं है।'', ''लेखक संगठन में काम करना पुण्य है और गैर सांगठनिक लेखकीय कर्म पाप है।'', ''लेखक संगठन टिकाऊ है बाकी सब नश्वर है।'' इत्यादि वर्गीकरण बोगस हैं।

'लेखक संगठन ही सर्वस्व है' का नारा देने वाले यह भूल गए कि रचना का मूल स्रोत तो जीवन है। रचना का मूल स्रोत संगठन नहीं होता। अत: नारा होना चाहिए '' जीवन ही सर्वस्व है।'' इस नारे को भूलकर हमारे लेखक संगठनों ने मूल्य, कृति,राजनीति,विचारधारा इत्यादि चीजों को सर्वस्व बना दिया।

यही वह बिंदु है जहां से लेखक संगठन अपने को हाशिए पर ले जाते हैं और अंत में सिर्फ प्रतीकात्मक उपस्थिति मात्र बनकर रह जाते हैं। लेखक संगठनों का जीवन के प्रति वाचिक लगाव है, वे जीवन की महत्ता और मर्म से पूरी तरह वाकिफ नहीं हैं। जीवन की जटिलाओं को उन्होंने विश्वदृष्टि से देखा नहीं है। उन्होंने कभी परवर्ती पूंजीवाद ,इलैक्ट्रोनिक मीडिया,सैटलाइट के संदर्भ में लेखन को खोलकर नहीं देखा। साहित्य के दार्शनिक आयाम की कभी चर्चा तक नहीं की।

जीवन के साथ लगाव के नाम पर जीवन के इस या उस पक्ष की ही प्रतिष्ठा की गई। इस या उस पक्ष की हिमायत की गई। हिन्दी रचनाकार के लिए जीवनमूल्य महान और जीवन नश्वर रहा है। वह मानता है कि वह शाश्वत सत्य रच रहा है। अपने रचे को सत्य मानना, प्रामाणिक मानना,वैध मानना और उसी के आधार पर फतवे जारी करना मूलत: कर्मफल के सिध्दान्त का साधारणीकरण है। कर्मफल के सिध्दान्त का ही परिणाम है जो सही है वह सही है जो गलत है वह गलत है।

कर्मफल का सिद्धान्त स्त्री और दलित की अनुभूति और सामाजिक अस्मिता को स्वीकार नहीं करता। यही वजह है कि लंबे समय से लेखक संगठनों की कार्यप्रणाली में पितृसत्तात्मक विचारधारा हावी है। जो बड़ा है वह बड़ा है,जो छोटा है वह छोटा है। सांगठनिक हायरार्की का सब समय ख्याल रखा जाता है। ऊपर की शाखा की बातें निचली शाखा को मानना अनिवार्य है। सांगठनिक हायरार्की में चूंकि जनवादी लेखक संघ और प्रगतिशील लेखक संघ में कम्युनिस्ट दलों की (क्रमश: माकपा और भाकपा) केन्द्रीय भूमिका है अत: पार्टी का आदेश अंतिम आदेश होता है और लेखक संगठनों के मुख्य पदाधिकारियों को तदनुरूप ही काम करना पड़ता है। आप कितने भी अच्छे संगठनकर्त्ता हों, कितने ही बड़े लेखक हों, यदि कम्युनिस्ट पार्टी के प्रति अनुकरणात्मक भावना आपके अंदर नहीं है तो आपको संगठन में जिम्मेदारी नहीं दी जा सकती। कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ से लेखक संगठन को देखने वाला नेता अमूमन चुगद किस्म का व्यक्ति होता है जिसे किसी भी भाषा के साहित्य की समझ नहीं होती ऐसी स्थिति में वह सिर्फ अपने अनुयायी और विश्वस्त के हाथों ही संगठन का नेतृत्व सौंपना पसंद करता है। चाहे वह व्यक्ति कितना ही निकम्मा क्यों न हो।

सन् 1984-85 के बाद से समाजवाद के पराभव की जो प्रक्रिया शुरू हुई उसने महानगरीय सांस्कृतिकबोध और महानगरीय नजरिए पर ज्यादा जोर दिया है। भूमंडलीकरण के सवाल केन्द्र में आ गए हैं। समाजवाद फीका पड़ा है। वफादारी का भाव प्रबल हुआ है। संकट में आलोचकों की नहीं वफादारों की जरूरत महसूस होती है। लेखक संगठन जब वफादारों से घिरे हों तो समझना चाहिए संकट की गिरफ्त में हैं।

लेखक संगठन आधुनिक बनें इसके लिए जरूरी है कि वे सत्ता को अपना एजेण्डा न बनाएं, राजनीति को अपना प्रधान एजेण्डा न बनाएं। यदि वह ऐसा करते हैं तो सत्ता विमर्श का अंग बन जाएंगे। साम्प्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता, आतंकवाद आदि सत्ता विमर्श हैं। जनता के विमर्श नहीं हैं। लेखक संगठनों को विकल्प के विमर्शों को सामने लाना चाहिए।

इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो हिन्दी और बांग्ला के वाम लेखक संगठनों की गतिविधियों की बड़ी फीकी तस्वीर उभरकर सामने आती है। उनके यहां वैकल्पिक विमर्श एकसिरे से गायब हैं। वे जिन विषयों पर बहस कर रहे हैं ,सेमीनार कर रहे हैं उनमें से अधिकांश सत्ता विमर्श का हिस्सा हैं। मसलन साम्प्रदायिकता,भूमंडलीकरण आदि सत्ता विमर्श के विषय हैं।

कायदे से सत्ता की राजनीति से भिन्न जनता और सत्ता के विकल्पों के विषयों पर काम करना लेखक संगठनों का लक्ष्य होना चाहिए। मजेदार बात यह है कि हमारे लेखक संगठनों ने कभी विकल्पों की खोज नहीं की। लेखक संगठनों में जितनी भी विचारधारात्मक बहसें चली हैं ये वे बहस हैं जो सत्ता और राजनीतिक दलों ने थोपी हैं। इनमें लेखक संगठन प्रतिक्रिया के रूप में दाखिल हुए हैं। लेखक संगठनों का एकमात्र काम प्रतिक्रिया व्यक्त करना, प्रेस विज्ञप्ति जारी करना, सत्ताधारी वर्गों के द्वारा थोपे गए मसलों पर राय देना रहा है। उन्होंने सालों-साल इसी काम में अपनी अजस्र ऊर्जा खर्च की है। यह वैसे ही है जैसे कोई ऊर्जावान व्यक्ति अपनी ऊर्जा सही कार्यों में खर्च न कर पाए और सुबह जॉगिंग में जाकर खर्च करे। जॉगिंग में खर्च की गयी ऊर्जा बेकार में व्यय की गयी ऊर्जा है। यह ऐसे व्यक्ति की ऊर्जा है जो संतुष्ट है और अपने शरीर से दुखी है। अपने ही शरीर के बोझ को संभालने में असमर्थ है। यही वजह है कि दसियों वर्ष लेखक संगठन का काम करने वाले लेखकबंधु अंत में हताश, आलस्य के मारे अथवा लेखक संगठन की क्रमश: निष्क्रियता के आख्यानों को सुना-सुनाकर अपने मन को संतोष देते रहते हैं वे एक तरह से यह भी बता रहे होते हैं कि उन्होंने कितनी बड़ी ऊर्जा निरर्थक कार्यों में खर्च की और देखो अब कोई लेखक हमारी नहीं सुन रहा।

लेखक संगठनों की वफादारी की त्रासदी यह है कि वे जिस राजनीति के लिए अपनी सारी ऊर्जा होम कर देते हैं उस राजनीतिक दल के अंदर भी उनके लिए कोई महत्वपूर्ण जगह नहीं होती। मसलन् मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी अथवा अन्य राजनीतिक दलों में उनके लेखक संगठनों की पार्टीगत तौर पर क्या हैसियत है ?बुद्धिजीवियों की क्या हैसियत है इसे बड़ी आसानी से पोलिटब्यूरो और केन्द्रीय समिति के सदस्यों को देखकर समझा जा सकता है। कभी भी इन दलों की प्रधान कमेटियों में बुद्धिजीवी होने के नाते अथवा लेखक संघ के पदाधिकारियों को चुना नहीं जाता। आप बहुत बड़े कम्युनिस्ट लेखक हो सकते हैं किंतु कम्युनिस्ट पार्टी की फैसलेकुन कमेटियों में उनका कोई स्थान नहीं होगा। जबकि सोवियत संघ,चीन आदि में ऐसा नहीं है।भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों का बुद्धिजीवियों को प्रचारक के रूप में इस्तेमाल करना वस्तुत मध्यकालीन दरबारीपन का अपभ्रंश रूप है। जाने-अनजाने बुध्दिजीवी वर्ग के प्रति इससे बेगानेपन का भाव ही संप्रेषित होता है। यह भी संप्रेषित होता है कि लेखक की सत्ता को कम्युनिस्ट पार्टियां किसी भी रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। कम्युनिस्ट पार्टियों में लेखकों के कामकाज की देखभाल और दिशानिर्देश का जिम्मा लेखक के पास नहीं बल्कि किसी राजनीतिज्ञ के पास होता है जिसे साहित्य-कला की कोई समझ नहीं होती। जब कम्युनिस्ट पार्टियां अपने यहां लेखक और बुद्धिजीवी को प्रधान दर्जा नहीं देती हैं तो बुर्जुआ दलों से यह कैसे उम्मीद की जाए कि वे लेखक को बड़ा दर्जा देंगी।

एक तथ्य गौर करने लायक है कि लेखक के नाते कांग्रेस ने कम से कम श्रीकांत वर्मा को अपने दल का महासचिव बनाया, कवि बाल कवि बैरागी को सांसद बनाया। राज्यसभा के लिए नामजद लोगों की सूची निकाली जाए तो कई लेखकों को सांसद के तौर पर नामांकित कराया। जबकि कम्युनिस्ट पार्टियों ने लंबे समय से किसी भी हिन्दी,बांग्ला,मलयालम आदि भाषा के लेखक को राज्यसभा में नामजद तक नहीं किया। किंतु किसी हिन्दी लेखक अथवा बुद्धिजीवी को कम्युनिस्ट पार्टियों ने टिकट नहीं दिया। कम से कम ममता बनर्जी के नेतृत्व वाले दल ने लेखक-बुद्धिजीवियों-कलाकारों से भरे पश्चिम बंगाल में इन लोगों को संसद-विधानसभा में खड़ा करके उनकी लोकतांत्रिक संसदीय हिस्सेदारी का रास्ता प्रशस्त किया है और यह स्वागतयोग्य बात है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

विशिष्ट पोस्ट

मेरा बचपन- माँ के दुख और हम

         माँ के सुख से ज्यादा मूल्यवान हैं माँ के दुख।मैंने अपनी आँखों से उन दुखों को देखा है,दुखों में उसे तिल-तिलकर गलते हुए देखा है।वे क...