अन्ना हजारे वायदे के मुताबिक आज सुबह 10 बजे अनशन तोड़ देंगे और अपने ठीया पर चले जाएंगे। अन्ना हजारे का अनशन निश्चित रूप से एक सकारात्मक अनशन था। यह अनशन नव्य उदार राजनीति की दबाब की राजनीति का हिस्सा है। नव्य उदार राजनीति अनेक काम जनता के दबाब से करती है।सत्ता पर्दे के पीछे रहती है और आंदोलनकारी आगे रहते है। यह पॉलिटिक्स फ्रॉम विलो का खेल है। आम तौर पर जमीनी राजनीति प्रतिवादी होती है रीयलसेंस में। लेकिन नव्य उदार परिप्रेक्ष्य में काम करने वाले संगठनों के द्वारा सत्ता,संगठन और आंदोलन का दबाब की राजनीति के लिए इस्तेमाल हो रहा है। अन्ना हजारे का आमरण अनशन उसका ही हिस्सा है।
अन्ना हजारे ने जो कहा और किया है उस पर कम से कम इस आंदोलन के संदर्भ में गंभीरता के ताथ विचार करने की जरूरत है। अन्ना का मानना है लोकपाल बिल के लिए जो कमेटी बने उसका प्रधान किसी ऐसे व्यक्ति को बनाया जाए जो अ-राजनीतिक हो। आयरनी यह है कि अन्ना की तरफ से सह-अध्यक्ष के रूप में शांतिभूषण का नाम दिया गया जो आजीवन राजनीति करते रहे हैं ,देश के कानून मंत्री रहे हैं। वे वाम ऱूझान की राजनीति करते रहे हैं। अतः अन्ना की कथनी और करनी में अंतर है।
दूसरी बात यह कि एनजीओ की राजनीति करने वाले संगठनों में सूचना अधिकार रक्षा आंदोलन से जुड़े केजरीवाल भी राजनीति कर रहे हैं। यह बात दीगर है कि वे किसी दल से जुड़े नहीं हैं। जनाधिकार,मानवाधिकार आंदोलनों से जुड़े प्रशांतभूषण पेशे से वकील है लेकिन मानवाधिकार राजनीति से जुड़े हैं। हां संतोष हेगडे राजनीति से जुड़े नहीं हैं। उससे भी बडा सवाल यह है कि एनजीओ वाले जिस अ-राजनीति की राजनीति की हिमायत करते हैं उसका लक्ष्य भी राजनीति है।
भारतीय लोकतंत्र में नामांकित लोकतंत्र नहीं चलता जैसा अन्ना हजारे और उनके जैसे समाजसेवी सोच रहे हैं। वे जानते हैं कि अमेरिका में सिविल सोसायटी आंदोलन बहुत ताकतवर है लेकिन वे लोकतंत्र में चुनाव नहीं जीत पाते।सिविल सोसायटी आंदोलन का आर्थिक स्रोत है कारपोरेट घराने। अन्ना हजारे और उनके समर्थकों को राजनीति की गंदगी को साफ करना है तो उन्हें चुनाव लड़ना चाहिए। चुनाव लड़कर ईमानदार छवि के लोगों को जिताना चाहिए। वे यह भी देखें कि आम जनता कितनी उनकी सुनती है ? कितना उनके साथ है ?यह भी तय हो जाएगा कि मोमबत्ती मार्च और जनता के मार्च में कितना साम्य और बैषम्य है ? मोमबत्ती वाले युवा कितने टिकाऊ हैं ? कितने संघर्षशील है ?
अन्ना हजारे जानते हैं तथाकथित सिविल सोसायटी के नेतागण सिर्फ मीडियावीर हैं। जनता में बहुमत का समर्थन पाना उनके बूते के बाहर है। लोकतंत्र को हम सिविल सोसायटी के नाम पर ऐसे लोगों के रहमोकरम पर नहीं छोड़ सकते जिनकी कोई राजनीतिक जिम्मेदारी नहीं है।भ्रष्टाचार के खिलाफ बाबू जयप्रकाश नारायण का जनता पार्टी का प्रयोग पूरी तरह फेल हुआ है। केन्द्र में सत्ता मिलने के बाबजूद जनता पार्टी की सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल बिल पास नहीं करवा पायी। उस सरकार में स्वयं शांतिभूषण भी थे। आज वही शांतिभूषण कह रहे हैं कि हम 1978 का लोकपाल बिल पास कराना चाहते हैं। अजब बात है जब स्वयं सत्ता में थे तो कर नहीं पाए और अब दूसरों के कंधे पर बंदूक रखकर चलाना चाहते हैं।
अन्ना हजारे जानते हैं राजनीतिक दलों में वामपंथियों ने लंबे समय से लोकपाल बिल के दायरे में प्रधानमंत्री को भी शामिल करने की मांग की थी,उस समय इसका सभी ने विरोध किया। यहां तक बाबू जयप्रकाश नारायण भी पीछे हट गए।भाजपा और कांग्रेस ने भी विरोध किया था। खैर अब देखना होगा कि वामदलों की लोकपाल बिल के बारे में एक जमाने में सुझायी सिफारिशों के अलावा कौन सी नई चीज है जिसे नयी कमेटी सामने लाती है।
अन्ना हजारे का टेलीविजन चैनलों से जिस तरह धारावाहिक कवरेज हुआ है वह अपने आप में खुशी की बात है लेकिन इस कवरेज में एक बात साफ निकलकर आयी है लोग भ्रष्टाचार से दुखी हैं। वे इससे मुक्ति की आशा में ही आए थे,लेकिन लोकपाल बिल का आम जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार से कोई संबंध नहीं है। इसका संबंध जन प्रतिनिधि के भ्रष्टाचार से है। सरकारी अफसरों के खिलाफ भ्रष्टाचार विरोधी ढ़ेर सारे कानून आज भी हैं और सबसे ज्यादा भ्रष्ट कौन हैं ? हमारे आईएएस-आईपीएस अफसरान ।
विगत 60 सालों में भ्रष्ट अफसरों की एक पूरी पीढ़ी पैदा हुई है। यह पीढ़ी भ्रष्टाचार विरोधी कानूनों के होते हुए पैदा हुई है। इनसे भी ज्यादा करप्ट हैं देशी-विदेशी कारपोरेट घराने जो येन-केन प्रकारेण काम निकालने के लिए खुलेआम भ्रष्ट तरीकों का इस्तेमाल करते हैं। कारपोरेट भ्रष्टाचार पर अन्ना हजारे ने कोई मांग क्यों नहीं उठायी ? अन्ना जानते हैं कि सरकारी बैंकों का 80 हजार करोड़ रूपया बिना वसूली के डूबा पड़ा है और उसमें बड़ी रकम कारपोरेट घरानों के पास फंसी पड़ी है। क्या कोई समाधान है जन लोकपाल बिल में ?कारपोरेट करप्शन के 2 जी स्पेक्ट्रम मामले में हाल के बरसों में टाटा-अम्बानी आदि का नाम आया है। क्या राय है अन्ना हजारे की ? किसने हल्ला मचाया करपोरेट लूट के खिलाफ ? राजनीतिक दलों ने।
देश के एनजीओ आंदोलन की धुरी है देशी-विदेशी कारपोरेट घरानों का डोनेशन। इसके जरिए विभिन्न स्रोतों से 5 हजार करोड़ रूपये से ज्यादा पैसा विदेशों से एनजीओ संगठनों को आ रहा है । क्या गांधी के अनुयायियों को यह पैसा लेना शोभा देता है ? गांधी ने भारत में आंदोलन के लिए विदेशी धन नहीं लिया था। लेकिन एनजीओ आंदोलन,सिविल सोसायटी आंदोलन , तथाकथित गांधीवादी,मानवाधिकारवादी,पर्यावरणपंथी संगठन विदेशी फंडिंग से चल रहे हैं।
सवाल यह है कि वे देश की जनता की सेवा के लिए यहां की जनता से चंदा लें,विदेशी ट्रस्टों,थिंकटैंकों,कारपोरेट धर्मादा दानदाता संस्थाओं से चंदा क्यों लेते हैं ? क्या यह गांधीवादी राजनीति के साथ राजनीतिक भ्रष्टाचार नहीं है ?यदि है तो अन्ना हजारे सबसे पहले एनजीओ संगठनों को विदेशी धन लेकर संघर्ष करने से रोकें। ध्यान रहे एनजीओ को विदेशी धन ही नहीं आ रहा , राजनीति करने के विदेशी विचार भी सप्लाई किए जा रहे हैं। वे विदेशी राजनीति की भारतीय चौकी के रूप में काम कर रहे हैं। काश अन्ना उसे रोक पाते !
अन्ना हजारे ने जो कहा और किया है उस पर कम से कम इस आंदोलन के संदर्भ में गंभीरता के ताथ विचार करने की जरूरत है। अन्ना का मानना है लोकपाल बिल के लिए जो कमेटी बने उसका प्रधान किसी ऐसे व्यक्ति को बनाया जाए जो अ-राजनीतिक हो। आयरनी यह है कि अन्ना की तरफ से सह-अध्यक्ष के रूप में शांतिभूषण का नाम दिया गया जो आजीवन राजनीति करते रहे हैं ,देश के कानून मंत्री रहे हैं। वे वाम ऱूझान की राजनीति करते रहे हैं। अतः अन्ना की कथनी और करनी में अंतर है।
दूसरी बात यह कि एनजीओ की राजनीति करने वाले संगठनों में सूचना अधिकार रक्षा आंदोलन से जुड़े केजरीवाल भी राजनीति कर रहे हैं। यह बात दीगर है कि वे किसी दल से जुड़े नहीं हैं। जनाधिकार,मानवाधिकार आंदोलनों से जुड़े प्रशांतभूषण पेशे से वकील है लेकिन मानवाधिकार राजनीति से जुड़े हैं। हां संतोष हेगडे राजनीति से जुड़े नहीं हैं। उससे भी बडा सवाल यह है कि एनजीओ वाले जिस अ-राजनीति की राजनीति की हिमायत करते हैं उसका लक्ष्य भी राजनीति है।
भारतीय लोकतंत्र में नामांकित लोकतंत्र नहीं चलता जैसा अन्ना हजारे और उनके जैसे समाजसेवी सोच रहे हैं। वे जानते हैं कि अमेरिका में सिविल सोसायटी आंदोलन बहुत ताकतवर है लेकिन वे लोकतंत्र में चुनाव नहीं जीत पाते।सिविल सोसायटी आंदोलन का आर्थिक स्रोत है कारपोरेट घराने। अन्ना हजारे और उनके समर्थकों को राजनीति की गंदगी को साफ करना है तो उन्हें चुनाव लड़ना चाहिए। चुनाव लड़कर ईमानदार छवि के लोगों को जिताना चाहिए। वे यह भी देखें कि आम जनता कितनी उनकी सुनती है ? कितना उनके साथ है ?यह भी तय हो जाएगा कि मोमबत्ती मार्च और जनता के मार्च में कितना साम्य और बैषम्य है ? मोमबत्ती वाले युवा कितने टिकाऊ हैं ? कितने संघर्षशील है ?
अन्ना हजारे जानते हैं तथाकथित सिविल सोसायटी के नेतागण सिर्फ मीडियावीर हैं। जनता में बहुमत का समर्थन पाना उनके बूते के बाहर है। लोकतंत्र को हम सिविल सोसायटी के नाम पर ऐसे लोगों के रहमोकरम पर नहीं छोड़ सकते जिनकी कोई राजनीतिक जिम्मेदारी नहीं है।भ्रष्टाचार के खिलाफ बाबू जयप्रकाश नारायण का जनता पार्टी का प्रयोग पूरी तरह फेल हुआ है। केन्द्र में सत्ता मिलने के बाबजूद जनता पार्टी की सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल बिल पास नहीं करवा पायी। उस सरकार में स्वयं शांतिभूषण भी थे। आज वही शांतिभूषण कह रहे हैं कि हम 1978 का लोकपाल बिल पास कराना चाहते हैं। अजब बात है जब स्वयं सत्ता में थे तो कर नहीं पाए और अब दूसरों के कंधे पर बंदूक रखकर चलाना चाहते हैं।
अन्ना हजारे जानते हैं राजनीतिक दलों में वामपंथियों ने लंबे समय से लोकपाल बिल के दायरे में प्रधानमंत्री को भी शामिल करने की मांग की थी,उस समय इसका सभी ने विरोध किया। यहां तक बाबू जयप्रकाश नारायण भी पीछे हट गए।भाजपा और कांग्रेस ने भी विरोध किया था। खैर अब देखना होगा कि वामदलों की लोकपाल बिल के बारे में एक जमाने में सुझायी सिफारिशों के अलावा कौन सी नई चीज है जिसे नयी कमेटी सामने लाती है।
अन्ना हजारे का टेलीविजन चैनलों से जिस तरह धारावाहिक कवरेज हुआ है वह अपने आप में खुशी की बात है लेकिन इस कवरेज में एक बात साफ निकलकर आयी है लोग भ्रष्टाचार से दुखी हैं। वे इससे मुक्ति की आशा में ही आए थे,लेकिन लोकपाल बिल का आम जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार से कोई संबंध नहीं है। इसका संबंध जन प्रतिनिधि के भ्रष्टाचार से है। सरकारी अफसरों के खिलाफ भ्रष्टाचार विरोधी ढ़ेर सारे कानून आज भी हैं और सबसे ज्यादा भ्रष्ट कौन हैं ? हमारे आईएएस-आईपीएस अफसरान ।
विगत 60 सालों में भ्रष्ट अफसरों की एक पूरी पीढ़ी पैदा हुई है। यह पीढ़ी भ्रष्टाचार विरोधी कानूनों के होते हुए पैदा हुई है। इनसे भी ज्यादा करप्ट हैं देशी-विदेशी कारपोरेट घराने जो येन-केन प्रकारेण काम निकालने के लिए खुलेआम भ्रष्ट तरीकों का इस्तेमाल करते हैं। कारपोरेट भ्रष्टाचार पर अन्ना हजारे ने कोई मांग क्यों नहीं उठायी ? अन्ना जानते हैं कि सरकारी बैंकों का 80 हजार करोड़ रूपया बिना वसूली के डूबा पड़ा है और उसमें बड़ी रकम कारपोरेट घरानों के पास फंसी पड़ी है। क्या कोई समाधान है जन लोकपाल बिल में ?कारपोरेट करप्शन के 2 जी स्पेक्ट्रम मामले में हाल के बरसों में टाटा-अम्बानी आदि का नाम आया है। क्या राय है अन्ना हजारे की ? किसने हल्ला मचाया करपोरेट लूट के खिलाफ ? राजनीतिक दलों ने।
देश के एनजीओ आंदोलन की धुरी है देशी-विदेशी कारपोरेट घरानों का डोनेशन। इसके जरिए विभिन्न स्रोतों से 5 हजार करोड़ रूपये से ज्यादा पैसा विदेशों से एनजीओ संगठनों को आ रहा है । क्या गांधी के अनुयायियों को यह पैसा लेना शोभा देता है ? गांधी ने भारत में आंदोलन के लिए विदेशी धन नहीं लिया था। लेकिन एनजीओ आंदोलन,सिविल सोसायटी आंदोलन , तथाकथित गांधीवादी,मानवाधिकारवादी,पर्यावरणपंथी संगठन विदेशी फंडिंग से चल रहे हैं।
सवाल यह है कि वे देश की जनता की सेवा के लिए यहां की जनता से चंदा लें,विदेशी ट्रस्टों,थिंकटैंकों,कारपोरेट धर्मादा दानदाता संस्थाओं से चंदा क्यों लेते हैं ? क्या यह गांधीवादी राजनीति के साथ राजनीतिक भ्रष्टाचार नहीं है ?यदि है तो अन्ना हजारे सबसे पहले एनजीओ संगठनों को विदेशी धन लेकर संघर्ष करने से रोकें। ध्यान रहे एनजीओ को विदेशी धन ही नहीं आ रहा , राजनीति करने के विदेशी विचार भी सप्लाई किए जा रहे हैं। वे विदेशी राजनीति की भारतीय चौकी के रूप में काम कर रहे हैं। काश अन्ना उसे रोक पाते !
जयप्रकाश नारायण द्वारा संचालित आन्दोलन में भी बहुत सारे युवा
जवाब देंहटाएंनेता थे,उस आन्दोलन का क्या हश्र हुआ सर्व विदित है और तत्कालीन
अधिकाँश युवा नेता आज भ्रष्टाचार के आरोपी हैं और बेशर्मी से दनदना
रहे हैं.जीवित जयप्रकाश तभी मृत घोषित कर दी गए थे.भगवान् करे
अन्ना हजारे आन्दोलन का वह हश्र न हो.
सरकारी नियमों में आमूल-चूल परिवर्तन ही भ्रष्टाचार का अंत सुनिश्चित कर
सकता है वर्ना वर्तमान नियम-कानून तमाम नागरिकों को भ्रष्ट व्यवस्था की
भठ्ठी में आहूत कर देता है.और तमाम आई.ऐ.एस व् अन्य सरकारी अधिकारी-
कर्मचारी इन नियमों का नाजायज़ लाभ उठाते हैं और व्यवस्था को ही नहीं आम
नागरिकों को भी भ्रष्ट आचरण के लिए विवश करते हैं.
जयप्रकाश नारायण द्वारा संचालित आन्दोलन में भी बहुत सारे युवा
जवाब देंहटाएंनेता थे,उस आन्दोलन का क्या हश्र हुआ सर्व विदित है और तत्कालीन
अधिकाँश युवा नेता आज भ्रष्टाचार के आरोपी हैं और बेशर्मी से दनदना
रहे हैं.जीवित जयप्रकाश तभी मृत घोषित कर दी गए थे.भगवान् करे
अन्ना हजारे आन्दोलन का वह हश्र न हो.
सरकारी नियमों में आमूल-चूल परिवर्तन ही भ्रष्टाचार का अंत सुनिश्चित कर
सकता है वर्ना वर्तमान नियम-कानून तमाम नागरिकों को भ्रष्ट व्यवस्था की
भठ्ठी में आहूत कर देता है.और तमाम आई.ऐ.एस व् अन्य सरकारी अधिकारी-
कर्मचारी इन नियमों का नाजायज़ लाभ उठाते हैं और व्यवस्था को ही नहीं आम
नागरिकों को भी भ्रष्ट आचरण के लिए विवश करते हैं.
तुम्हारी पालिटिक्स क्या है, दोस्त :)
जवाब देंहटाएंhttp://shrimukhsansar.blogspot.com/2011/04/blog-post.html
जवाब देंहटाएंवास्तव में इस पूरे आंदोलन को जिस तरह मीडिया और समाजसेवी संस्थाओं ने कैश किया वह कबीले गौर है । बस 15 मी की बातचीत और पूरे देश में बहाने वाली आंदोलन की धारा का प्रवाह रुक गया । मीडिया के लिए यह विश्व कप और आईपीएल के बीच का ब्रेक था जो अब खत्म हो गया है। लेकिन इससे जुड़े करोड़ो लोग अपने को ठगा सा महसूस कर रहे हैं जिंहे लगता था यह हवा मिश्र से आई है और अब कुछ होगा कुछ ऐसा जिससे बहुत बड़ा बदलाव आएगा। मुझे लगता है एक बार हमें और छला गया ।
जवाब देंहटाएंYou are perfectly right. Anna should first educate and build a mass opinion against corruption. Instead of straight away going on hunger strike he should have taken a pad yatra to moblize people and make this issue as a mass movement in true sense.Support of Few netizens and sms senders and candle holders will not serve the purpose in long term. Anna thinks that corruption can only be tackled if corruption at higher places is cleansed first but In my opinion it is the mentality of people which has to be changed first.If the people are not disciplined and honest, we can not expect our system to be corruption free. Even in developed country politician are corrupt but common people are fairly honest and law abiding. Even Japan politicians are too corrupt but see how the people behave in social life and their honesty in daily life. Though, I am happy that finally government has accepted the demand of Anna Hazare and honestly hope that something positive would come out of it in due course of time, but at the same time I am also very sad the way it was achieved is not ethical and correct. The government was almost coarsed and forced to kneel down. If some day Arundhati Roy or say Mr Guha or some Hurriat leader from Kashmir also take this extreme step of hunger strike and few TV Channals funded by some external agencies is somehow happen to be successful in mobilizing a handful of disgruntled elements in the society and demand secession from India, then you may imagine what would happen to our society. One should not feel very happy that they have forced government to kneel down, after all it is the people of India who has created this system.
जवाब देंहटाएंVery well articulated.
जवाब देंहटाएंThey don't stand for elections - because that takes real work and they can't win them.
जवाब देंहटाएं"आम जनता कितनी उनकी सुनती है ? कितना उनके साथ है ?यह भी तय हो जाएगा कि मोमबत्ती मार्च और जनता के मार्च में कितना साम्य और बैषम्य है ? मोमबत्ती वाले युवा कितने टिकाऊ हैं ? कितने संघर्षशील है ?"
जवाब देंहटाएंअसली लिटमस टेस्ट तो यही है !