शनिवार, 23 अप्रैल 2011

लेनिन जन्मदिन पर विशेष- राजनीतिक कैंसर है अवसरवाद

लेनिन का पाठ बार -बार अनेक मामलों में बुर्जुआ नजरिए के प्रति वैकल्पिक दृष्टि देने का काम करता है। सोवियत संघ में एक जमाने में आलोचना की स्वतंत्रता को लेकर बहस चली है। बुर्जुआ लोकतांत्रिक नजरिए वाले लोगों के लिए आलोचना की स्वतंत्रता का जो मतलब होता है वहीं क्रांतिकारी ताकतों के लिए नहीं है। प्रत्येक बुर्जुआ देश में आलोचना की स्वतंत्रता को लेकर तरह -तरह के कानून हैं। बुर्जुआजी के लिए आलोचना की स्वतंत्रता का अर्थ सिर्फ कानूनभर बना देना है। वे कभी इन कानूनों पर अमल नहीं करते। ध्यान रहे आलोचना की स्वतंत्रता का आधार अवर्गीय ढ़ंग से देखेंगे तो गलत निष्कर्ष निकलने की संभावनाएं हैं।
     आलोचना की स्वतंत्रता वाचिक सुख नहीं है। यह थोथी अभिव्यक्ति की आजादी भी नहीं है। आलोचना का मनुष्य के सामाजिक अस्तित्व रक्षा के सवालों के साथ गहरा संबंध है। बुर्जुआ विचारधारा ने अभिव्यक्ति की आजादी को वाचिक क्षेत्र तक सीमित कर दिया है और उसे सामाजिक अस्तित्व के बुनियादी सवालों से काट दिया है।
      बुर्जुआ व्यवस्था में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का लाभ वे ही लोग उठाते है जो आर्थिक रूप में समर्थ और सक्षम हैं। गरीब,पीडित और अक्षम लोगों के लिए अभिव्यक्ति की आजादी दिवा-स्वप्न है। अभिव्यक्ति की आजादी या आलोचना की स्वतंत्रता पर विचार करते हुए हमें समाजवाद और वंचितों के प्रति इसके रूख की परीक्षा करनी चाहिए। अभिव्यक्ति की आजादी पर विचार करते हुए बुनियादी सामाजिक-आर्थिक अंतर्विरोधों पर भी ध्यान देने की जरूरत है।
     आमतौर पर लेनिन की धारणाओं को लेकर विश्वभर में आदर और सम्मान का भाव रहा है। आलोचना की स्वतंत्रता या अभिव्यक्ति की आजादी के सवाल पर लेनिन के विचार साफ और सुलझे हुए हैं। लेनिन ने अभिव्यक्ति की आजादी को अवसरवाद कहा है। लेनिन ने लिखा है- "यह नई 'आलोचनात्मक' प्रवृत्ति एक नए किस्म के अवसरवाद से ज्यादा या कम और कुछ नहीं है।" 
     आए दिन हम 'स्वतंत्रता' की बातें सुनते हैं और करते हैं। लेकिन इस स्वतंत्रता का असली भोक्ता तो उद्योगपति है जो आम जनता को थोथी बातों में उलझा देता है और अपने लिए स्वतंत्रता के नाम पर अबाधित लूट का रास्ता खोल लेता है। लेनिन ने लिखा है - "'स्वतंत्रता' एक महान शब्द है। लेकिन उद्योग की स्वतंत्रता के बैनर तले सर्वाधिक लुटेरे किस्म के युध्द हुए हैं। श्रम की स्वतंत्रता के बैनर तले श्रमिक लूटे गए हैं। 'आलोचना की स्वतंत्रता' शब्दपद के इस आधुनिक इस्तेमाल में भी ऐसा ही फरेब अंतर्निहित है। जो लोग इस बात में यकीन रखते हैं कि उन्होंने सचमुच विज्ञान में तरक्की हासिल की है, वे इस स्वतंत्रता की मांग नहीं करेंगे कि पुराने के साथ-साथ नए विचार चलें बल्कि वे यह चाहेंगे कि नए विचार पुराने विचारों की जगह ले लें। 'आलोचना की स्वतंत्रता जीवित रहे' का मौजूदा आर्त्तनाद खाली कनस्तर से गूंजती आवाज सा प्रतीत होता है।" उल्लेखनीय है सोवियत संघ में समाजवादी व्यवस्था के निर्माण के आरंभिक सालों में अनेक बुद्धिजीवियों ने यह मांग की थी समाजवाद की जगह उदारतावाद की स्थापना की जाए और आलोचना की स्वतंत्रता दी जाए,लेनिन ने अपने उपरोक्त विचार उसी संदर्भ में व्यक्त किए हैं।
      इसी प्रसंग में बर्नस्टीन और दूसरे बुद्धिजीवियों की आलोचना करते हुए लेनिन ने कहा था "हम एक ठोस समूह में एक दूसरे का हाथ थामे तेज रफ्तार से एक दुर्गम रास्ते पर चल रहे हैं। हम चारों ओर से दुश्मनों से घिरे हुए हैं और हमें उनके फायर (गोलीबारी) के साए में लगातार आगे बढ़ना है। हम मुक्त भाव से लिए गए फैसले के तहत और इस उद्देश्य के लिए इकट्ठा हुए हैं कि हमें दुश्मनों से लड़ना है न कि पास में मौजूद दलदल में फंस जाना है। हमें पता है कि इस दलदल के निवासी हमें पहले ही धिक्कार चुके हैं, क्योंकि हम एक अनन्य समूह हैं। ऐसा समूह जिसने 'सुलह' के बजाय 'संघर्ष' का रास्ता चुना है। अब हममें से कुछ लोग यह कहने लगे हैं कि हमें दलदल में जाने दो। जब हम उन्हें इस बात के लिए शर्मसार करते हैं तो हमें जबाव मिलता है कि तुम लोग कितने पिछड़े हुए हो! हमें कहा जाता है कि तुम्हें क्या उलटा इस बात के लिए शर्मसार नहीं होना चाहिए कि तुम मुक्ति के बेहतर रास्ते पर आमंत्रण (हमारे) को ठुकरा रहे हो? हां महानुभावो! आप लोग हमें न केवल आमंत्रित करने के लिए आजाद हैं, बल्कि जहां चाहें वहां जाने के लिए भी मुक्त हैं। दलदल में जाने तक के लिए भी हैं। दरअसल हमें लगता है कि दलदल ही आपके लिए सही जगह है और हम आपको आपकी सही जगह तक पहुंचाने के लिए भी यथासंभव सहयोग कर देंगे। बस आप हमारा हाथ छोड़ दें। स्वतंत्रता जैसे महान शब्द को कलंकित न करें। इसलिए हम लोग भी अपनी राह चलने को स्वतंत्र हैं। हम भी इस दलदल के खिलाफ संघर्ष करने को मुक्त हैं। हम लोग उनके खिलाफ भी संघर्ष करने को स्वतंत्र हैं जो दलदल की ओर कदम बढ़ा रहे हैं!"
      लेनिन ने बार बार स्वतंत्रता को मजदूरवर्ग के हितों के साथ जोड़कर देखा और वंचितों के सामाजिक अस्तित्व रक्षा के संदर्भ में व्याख्यायित करते हुए स्वतंत्रता को भाववाद से मुक्त करते हुए भौतिकवाद से जोड़ा।
     बुर्जुआ मीडिया और विचारक अमूमन स्वतंत्रता ,अभिव्यक्ति की आजादी और आलोचना की स्वतंत्रता के नाम पर भाववादी नजरिए का प्रचार करते हैं। स्वतंत्रता का भाववादी नजरिया स्वतंत्रता को वाचिक सुख की वस्तु बना देता है। जबकि किसी मार्क्सवादी के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ वाचिक और भौतिक सुख से जुड़ा है। खासकर उन वर्गों के लिए जो वंचित ,असहाय,दरिद्र और सर्वहारा हैं। इन वर्गों के लिए स्वतंत्रता कोई किताबी ख्याल नहीं है । न्यायिक या कानूनी समस्या नहीं है। स्वतंत्रता का अर्थ है जीने की स्वतंत्रता। जीने के लिए अनुकूल भौतिक परिवेश की मौजूदगी।  बुर्जुआजी बड़ी ही चालाकी के साथ अभिव्यक्ति और जीने के अनुकूल परिवेश के बीच में अंतराल पैदा कर देता है। और इस समूचे सवाल को मात्र अभिव्यक्ति का सवाल बना देता है। वाचिक सवाल बना देता है।  
   लेनिन ने लिखा है कि हमें कार्ल मार्क्स की महान शिक्षा को इस प्रसंग में सब समय ध्यान में रखना चाहिए। मार्क्स ने लिखा है- " अगर आपको एक होना ही है तो आंदोलन के व्यावहारिक उद्देश्य को संतुष्ट करने के लिए समझौते कीजिए। लेकिन सिध्दांतों के सवाल पर मोल-तोल मत करिए। सैध्दांतिक 'छूट' या 'रियायतें' कभी मत दीजिए।"     
     मुश्किल यह है कि इन दिनों मार्क्सवादी विचारकों का एक बड़ा हिस्सा बुनियादी सिद्धांतों में हेरफेर करके और फिर उनकी असफलता को मार्क्सवाद की असफलता कहकर प्रचारित कर रहा है। कम्युनिस्ट आंदोलन के व्यावहारिक उद्देश्यों को हासिल करने के लिए समझौते किए जा सकते हैं । लेकिन मार्क्सवाद के बुनियादी सिद्धांतों को लेकर समझौतापरस्ती मार्क्सवाद के साथ गद्दारी है। कम्युनिस्ट आंदोलन के विकास में अवसरवाद सबसे बड़ी बाधा है। दुनिया के अनेक देशों में कम्युनिस्ट पार्टियों ने जब भी अवसरवाद से काम लिया है उन्हें करारी पराजय का सामना करना पड़ा है। कम्युनिस्ट आंदोलन के लिए अवसरवाद कैंसर की तरह है। अवसरवाद के रूप हैं राजनीतिक अर्थवाद ,जिसमें मजदूर संघ फंसे रहते हैं,राष्ट्रीयता,राष्ट्रवाद,अंध राष्ट्रवाद आदि।
  लेनिन ने एंगेल्स के जरिए इस दौर में त्रिस्तरीय संघर्षों की ओर ध्यान खींचा था और वे हैं ," एंगेल्स ने 1874 में सामाजिक लोकतंत्रवादी आंदोलन के सिलसिले में कहा है। हमारे बीच अभी दो संघर्ष चल रहे हैं सामाजिक और आर्थिक। लेकिन एंगेल्स सामाजिक लोकतंत्र के इन दो महान संघर्षों के बजाय तीन संघर्षों को मान्यता देते हैं। यह तीसरा संघर्ष है सैध्दांतिक संघर्ष जो अन्य दो संघर्षों के समकक्ष है। कहीं से भी उनसे कम महत्वपूर्ण नहीं है।"
     हमारे देश में इस उक्ति की बहुत ज्यादा प्रासंगिकता है। भारत के कम्युनिस्टों ने जहां उनका संगठन है वहां पर सामाजिक और आर्थिक संघर्षों पर ध्यान दिया लेकिन सैद्धान्तिक संघर्ष को तिलांजलि दे दी। अर्थवाद और राजनीतिक अवसरवार को ही मार्क्सवाद के नाम से प्रचारित किया। भारत में मार्क्सवादी सिद्धांतों पर कोई गंभीर काम नहीं हुआ। खासकर पश्चिम,केरल और त्रिपुरा में मार्क्सवादी सिद्धान्तों के निर्माण के संघर्ष को तिलांजलि दे दी गयी। आश्चर्य की बात है इन तीनों राज्यों में एक भी  मार्क्सवादी सिद्धांतकार पैदा  नहीं हुआ।  
  


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