शुक्रवार, 21 अगस्त 2009

ब्‍लॉग लेखन वि‍मर्श के वि‍वि‍ध आयाम

अंशुमाली रस्‍तोगी जी,
नाराज़ न हों तो कृपया गंभीरता से पढें और सोचें। मैं व्‍यक्तिगत तौर पर आपके तेवर का कायल हूं, लेकि‍न अलोकतांत्रि‍क भाव का नहीं। भाई रमेश उपाध्‍याय ने सही जगह इंजेक्‍शन लगाया है। इसके बारे में अनेक कि‍स्‍म से कहा जा सकता है। समस्‍या यह नहीं है कि‍ कौन से वि‍षय वि‍वाद के बनाए जाएं। समस्‍या यह भी नहीं है कि‍ क्‍या लि‍खें और कैसे लि‍खें। हिंदी के इंटरनेट लेखकों में एक वि‍शेष लेखकीय भाव है, जो स्‍वागतयोग्‍य है, लेकि‍न इसमें अनेक ऐसे भी लेखक हैं, जो अतार्किकता की हद पर जाकर बहस कर रहे हैं और अतार्किकता को अपना लोकतांत्रि‍क हक बता रहे हैं। ऐसी ही तल्‍ख टि‍प्‍पणी अंशुमाली रस्‍तोगी की है, उनका मानना है – अगर रमेशजी को यह सब इतना ही खराब और अनुचित लग रहा है तो सबसे पहले वो अपना ब्लॉग-लेखन बंद करें। बहस का यह स्‍तर जब होगा, तो शायद कभी भी इंटरनेट को समृद्ध नहीं कर पाएंगे। आप भी लि‍खें और वे भी लि‍खें, किंतु भद्रता और संस्‍कृति‍ के मानक बनाते हुए।

मैं अंशुमालीजी से अनुरोध करना चाहूंगा कि‍ कभी पश्‍चि‍म के ब्‍लॉगर, साहि‍त्‍यकार, अच्‍छे पत्रकार, वि‍चारक और समाजवि‍ज्ञानि‍यों से भी कुछ हमें सीख लेना चाहि‍ए। यह कैसे हो सकता है कि नेट पर तो लि‍खना चाहते हैं लेकि‍न नेट बनाने वालों की लेखन सभ्‍यता से सीखना नहीं चाहते? रमेशजी ने सही जगह हस्‍तक्षेप कि‍या है, आपको अपनी राय कहने का हक है, तीखी बहस का भी हक है, वरि‍ष्‍ठों से असहमति‍ का भी हक है किंतु बहस का तेवर शि‍रकत और असहमति‍यों को बढ़ावा देने वाला होना चाहि‍ए, ‘स्‍टारडस्‍ट’ पत्रि‍का की शैली में लेखन करेंगे तो बहस से क्‍या नि‍कालेंगे? रमेशजी पर बहस मत कीजि‍ए, उस मुद्दे पर बहस कीजि‍ए जो उन्‍होंने उठाया है। मुद्दे को व्‍यक्‍ति‍ से अलग करके बहस करने पर ही कोई सार नि‍कलेगा। नेट का नि‍र्माण गंभीर काम के लि‍ए कि‍या गया है, हम चाहें तो मि‍र्च लगाने के लि‍ए भी कर सकते हैं।

अंशुमालीजी का यह कथन काफी रोचक और सारगर्भित है, लि‍खा है, लेकिन विरोध का मज़ा तब ही है, जब उसमें तीखापन हो। बंधु, वो मिर्च ही क्या जो लगे नहीं? बंधु मि‍र्च से ज्ञान नहीं नि‍कलता, मि‍र्च ही नि‍कलेगी। लेखन का लक्ष्‍य भी होना चाहि‍ए। कुछ भी तय कर लो। रही बात दमखम की, तो नेट पर हिंदी बड़ी कमज़ोर है। सारे ज्ञान के कोश अभी नेट पर बनने बाकी हैं। दूसरी बात यह कि‍ नेट लेखन से भाषा नहीं बनती। नेट लेखन खासकर ब्‍लाग लेखन वर्चुअल लेखन है, यह ‘है भी और नहीं भी।’ इसके लेखन से भाषा न तो समृद्ध होगी और न भाषा मरेगी। नेट के वि‍चार सि‍र्फ वि‍चार हैं और वह भी बासी और मृत वि‍चार हैं। उनमें स्‍वयं चलने की शक्‍ति‍ नहीं होती, आप नेट पर महान क्रांति‍कारी कि‍ताब लि‍खकर और उसे करोड़ लोगों को पढ़ा कर दुनि‍या नहीं बदल सकते।

नेट लेखन सि‍र्फ संचार है और संचार से ज़्यादा इसकी कोई अन्‍य भूमि‍का भी नहीं है। संचार में आप गाली दें, बकवास करें, प्रेम करें, वि‍वाद करें, खुशी की बातें करें, यहां सब कुछ वर्चुअल है और कभी ठोस नहीं बन सकता। वर्चुअल के आधार पर आप कि‍सी लेखक, पत्रकार, वि‍चारक, नेता आदि‍ को प्रति‍ष्‍ठि‍त अथवा अपदस्‍थ नहीं कर सकते। वर्चुअल में न सम्‍मान होता है और अपमान होता है, वर्चुअल तो वास्‍तव में होता ही नहीं है, फलत: प्रभाव के परे होता है। नेट लेखन बलवानों का खेल नहीं है, यह तो महज लेखन है। वैसे ही जैसे कोई बच्‍चा लि‍खता है और भूल जाता है। अंशुमाली जी ने लि‍खा है – रमेशजी हमें हमारी गंभीरता और जिम्मेदारी के बारे में न ही बताएं, तो ही बेहतर। क्योंकि हम अब बच्चे नहीं रहे। यह प्रति‍क्रि‍या कि‍स बात का संकेत है? हम से वि‍वाद मत करो, हमसे बातें मत करो, हमें अपनी दुनि‍या में मशगूल रहने दो, और इससे भी ख़तरनाक प्रवृत्ति‍ भी व्‍यक्‍त हुई है कि‍ ‘हम ठीक हैं।’

दोस्‍त, बहस का यह गैर-लोकतांत्रि‍क तरीका है। सम्‍मान और प्‍यार के साथ बहस करने पर ही संवाद होता है। संवाद के लि‍ए कि‍सी को भगनाने, गरि‍याने और मि‍र्च लगाने की नहीं, थोड़ी मि‍सरी और बुद्धि‍ चाहि‍ए। मि‍र्च नहीं। आप नि‍श्‍चि‍त तौर पर बच्‍चे नहीं हैं। आप ज़‍ि‍म्‍मेदार नागरि‍क हैं और सचेत नागरि‍क हैं। नेट यूज़र हैं। मुश्‍कि‍ल यह है कि आप नागरि‍क के बोध को त्‍यागकर बहस करना चाहते हैं। नेट के लि‍ए ‘नागरि‍क’ और ‘यूजर’ दोनों ही भावों की ज़रूरत है। खासकर आप जैसे प्रति‍भाशाली व्‍यक्‍ि‍त के लि‍ए। अंत में रमेश जी बड़े हैं, बुजुर्ग हैं, तो इसमें उनका क्‍या दोष और आप अभी जवान हैं, तो इसमें आपकी कोई भूमि‍का नहीं है। यह तो शरीर और उम्र का स्‍वाभावि‍क धर्म है। आप कल्‍पना कीजि‍ए, रमेश जी आठ साल के बच्‍चे होते, तो क्‍या आप उनकी बात पर ग़ौर करते? नेट लेखन उम्र, हैसि‍यत, पद, दंभ, बल आदि‍ नहीं देखता। ये तो नेट में आने के बाद समाप्‍त हो जाते हैं। वहां सि‍र्फ लेखन होता है और कुछ भी नहीं। लेखक तो मर जाता है।

आप मेरी बात को हल्‍के में टाल नहीं सकते। वर्चुअल क्‍या है? इस पर हज़ारों-लाखों पन्‍नों में सामग्री बाज़ार में आ चुकी है और उसमें से कुछ नेट पर भी उपलब्‍ध है। जि‍न लोगों ने वर्चुअल को बनाया, वे भी इसके मायावी रूप पर मुग्‍ध ही हैं। आप चूंकि‍ गंभीरता के साथ हस्‍तक्षेप में शामि‍ल हुए हैं, इसलि‍ए सि‍र्फ एक ही उदाहरण रख रहा हूं। इंटरनेट का सबसे बड़ा एक्‍सपोजर भूपू अमेरि‍की राष्‍ट्रपति‍ बि‍ल क्‍लिंटन के सेक्‍स कांड का है, वह आदर्श है नेट पत्रकारि‍ता का। आज अमरीकी समाज में क्‍लिंटन साहब को कोई भी घृणि‍त नज़र से नहीं देखता। सि‍र्फ इतने से ही समझ सकते हैं कि‍ उन्‍हें इस्‍तीफा नहीं देना पड़ा था। इसके वि‍परीत वाटरगेट कांड ने तत्‍कालीन अमेरि‍की राष्‍ट्रपति‍ की हवा नि‍काल दी थी। यह बुनि‍यादी फर्क है नेट लेखन और प्रेस के लेखन में। प्रेस के ज़माने में वि‍यतनाम युद्ध के समय अमेरि‍का सारी दुनि‍या में नंगा हुआ। अमरीकी जनता में ज्‍वार पैदा हुआ और अंत में वि‍यतनाम से बि‍स्‍तर बांधकर अमेरि‍का को पराजि‍त भाव से लौटना पड़ा। भारत की सड़कों पर भी प्रति‍वाद के स्‍वर सुनाई दि‍ये थे। आज अफगानि‍स्‍तान और इराक धू धू करके जल रहे हैं, लेकि‍न कोई प्रति‍वाद नजर नहीं आता। अमेरि‍का में इराक युद्ध के खि‍लाफ सन 2003 में शांति‍ मार्च भी नि‍कले थे। आज अमरीका सोया हुआ है। लेकि‍न अफगानि‍स्‍तान युद्ध के खि‍लाफ भारत से लेकर अमरीका तक कहीं पर भी मार्च नहीं नि‍कले। अफगानि‍स्‍तान और इराक में जो तबाही मच रही है, वह वि‍यतनाम युद्ध की तबाही को भी लज्‍जि‍त करती है। जि‍तनी सूचनाएं इन दोनों देशों के बारे में नेट पर हैं, उसकी तुलना में वि‍यतनाम युद्ध के समय एक प्रति‍शत सूचनाएं तक नहीं थीं। हिंदी के लेखक उस जमाने में वि‍यतनाम के बारे में लघु पत्रि‍काओं से ही जान पाये थे और लेखकों से लेकर संस्‍कृति‍कर्मि‍यों तक कर्मचारि‍यों से लेकर छात्रों, युवाओं तक वि‍यतनाम युद्ध के खि‍लाफ व्‍यापक प्रति‍क्रि‍या दि‍खाई दी थी। आज क्‍या अफगानि‍स्‍तान और इराक को लेकर वैसी जागरूकता हिंदी लेखन और हिंदी के युवा लेखन से लेकर नेट वि‍वादों में नज़र नहीं आती है, महानगरों में तो अमेरि‍की साम्राज्‍यवाद वि‍रोधी जुलूस अब दुर्लभ हो गये हैं। जागरूक लोगों के महानगरों का आज जब यह हाल है, तो बाकी का क्‍या कहना।

कुछ देर के लि‍ए अमरीका पर ही नजर डाल लें। वह नेट यूज़रों का सबसे बड़ा देश है और वहां धड़ाधड़ बैंक दि‍वालि‍या हो रहे हैं। कारखाने दि‍वालि‍या हो रहे हैं। किंतु प्रति‍वाद में अमरीका की सड़कों से जनता ग़ायब है। नेट पर आर्थि‍क मंदी की बेशुमार सूचनाएं हैं। तबाही के हजारों पन्‍नों में आंकडे हैं। लेकि‍न प्रति‍वाद करती जनता अमरीका में कहीं नज़र नहीं आती। यही जनता नेट के पहले आसानी से प्रति‍वाद करती नज़र आती थी। इसी अर्थ में मैंने यह कहा था वर्चुअल लेखन ‘है भी और नहीं भी’, वह प्रभावहीन होता है।

यह सच है कि‍ नयी संचार तकनीक ने बहुत लोगों को काम दि‍लाया है, बहुत सारे हाशि‍ये के लोगों को अभि‍व्‍यक्‍ति‍ दी है, लेकि‍न कड़वी सच्‍चाई है कि नेट सामाजि‍क सरोकार के प्रति‍ जागरूक नहीं बनाता। खासकर युवाओं को नयी संचार तकनीक ने सामाजि‍क सरोकारों के प्रति‍ सचेत कम और अचेत ज़्यादा कि‍या है, यह बात मैं समग्रता में रख रहा हूं। मेरी बात पर वि‍श्‍वास न हो तो इंटरनेट के ईमेल से होने वाले संवाद के विषयों के बारे में वि‍भि‍न्‍न सर्वेक्षणों को ग़ौर से पढें तो शायद चीजें ज़्यादा बेहतर ढंग से समझ पाएंगे।

समस्‍या व्‍यक्‍ि‍तगत नहीं है। बहस को व्‍यक्‍ि‍तगत बनाने से ज़्यादा बेहतर है यह जानना कि‍ वर्चुअल तो नकल की नकल है। आपने मेरी कि‍ताबें देखी हैं तो कृपा करके पढ़कर भी देखें। फि‍र बताएं। मैं नि‍जी तौर पर हिंदी में इंटरनेट के जनप्रि‍य होने और इंटरनेट पर ज़्यादातर सामग्री आने के पहले से ही कम्‍प्‍यूटर, सूचना जगत वगैरह पर लि‍ख चुका हूं। यह मेरी हिंदी के प्रति‍ नैति‍क ज़‍ि‍म्‍मदारी है कि‍ हिंदी में वह सभी गंभीर चीज़ें पाठक पढ़ें, जि‍न्‍हें वे नहीं जानते अथवा जो उनके भवि‍ष्‍य में काम आ सकती है। आप वर्चुअल की बहस को व्‍यक्‍ि‍तगत न बनाएं। वर्चुअल में झगड़ा नहीं करते। टोपी भी नहीं उछालते। वर्चुअल तो आनंद की जगह है। सामंजस्‍य की जगह है। संवाद की जगह है। कृपया हिंदी साहि‍त्‍य की तू-तू मैं-मैं को नेट पर मत लाइए। चीज़ों को चाहे जि‍तनी तल्‍खी से उठाएं किंतु व्‍यक्‍ि‍तगत न बनाएं। आप अच्‍छे लोग हैं और अच्‍छे लोग अच्‍छे ही रहते हैं। संवाद करते हैं।

जि‍न दोस्‍तों ने मेरी प्रति‍क्रि‍या पर अपनी राय जाहि‍र की है वे सभी प्रि‍य हैं, उनकी बहस और भाषा का तेवर देखकर ही बातें करने का मन हुआ है । यह लय बनी रहेगी। इस प्रसंग में उपदेश देना मकसद नहीं है,मकसद यह भी नहीं है कि‍ हिंदी का रोना रोया जाए,हिंदी जैसी है उसी गति‍ से अपना वि‍कास करेगी।
पंचरवाला ने लि‍खा है ” और विएतनाम युद्ध, क्या वह इसलिए जीता गया कि ‘प्रेस’ था? ‘प्रिंट’ की ताकत थी? ऐसी ‘समझ’, ऐसे ग्यान और ऐसी ‘प्रिंट की ताकत’ को लाल सलाम…लाल सलाम ।” दोस्‍त लालसलाम करके फंदा छुड़ाने से मामला खत्‍म होने वाला नहीं है। गंभीरता से सोचो इराक और अफगानि‍स्‍तान युद्ध पर सारा प्रेस और इलैक्‍ट्रोनि‍क मीडि‍या अमेरि‍का में बंधुआ पड़ा है,यदि‍ यह मीडि‍या बंधुआ न होता तो मामला कुछ और ही होता। छपे हुए शब्‍द आज भी सबसे ज्‍यादा ताकत रखते हैं,छपे हुए का ही प्रभाव था कि‍ बोफोर्स पर हमारे देश की कांग्रेस सरकार हि‍ल गयी थी। तहलका वालों ने इलैक्‍ट्रोनि‍क मीडि‍या का उपयोग कि‍या था उसका तात्‍कालि‍क असर हुआ। इसके अलावा दूसरी चीज जो ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण है,वह यह कि‍ जब भी कोई संदेश मीडि‍या में आता है तो उसे नीचे जनता में ले जाने वाली राजनीति‍क संरचनाएं जब तक नहीं होंगी तब तक कोई भी एक्‍सपोजर प्रभावहीन होगा,प्रेसयुग में राजनीति‍क संरचनाएं ज्‍यादा सक्रि‍य थीं,फलत: प्रभाव भी ज्‍यादा होता था, आज एक्‍सपोजर तो हैं किंतु राजनीति‍क लामबंदी गायब है। ‘नेट ‘ क्‍या कर रहा है ,उसके सकारात्‍मक पक्ष क्‍या हैं,इनके बारे में उपरोक्‍त दोस्‍तों से सहमत हूं। मैं सि‍र्फ एक गंभीर नकारात्‍मक पक्ष की ओर ध्‍यान दि‍ला रहा हूं, ‘नेट’ ने युवाओं को सामाजि‍क सरोकारों से वि‍मुख कि‍या है। उन्‍हें वि‍चारधारा के आधार पर गोलबंद होने की बजाय जीवनशैली पर गोलबंद कि‍या है और इससे बाजार चंगा हुआ है, गति‍वि‍धि‍यां बढ़ी हैं , किंतु सामाजि‍क-राजनीति‍क जि‍म्‍मेदारी का भाव कमजोर हुआ है,यह हम सबकी चि‍न्‍ता का वि‍षय है।
लोग ‘नेट’ पर ज्‍यादा लि‍खें,खुलकर लि‍खें, गल्‍ती को भूलकर लि‍खें,हमारा लक्ष्‍य गलति‍यों की खोज करना नहीं है,हमारा लक्ष्‍य है शि‍रकत को बढाना,अभि‍व्‍यक्‍ति‍ को मजबूर करना, और आलोचनात्‍मक वि‍वेक पैदा करना है,अब ‘नेट’ पर यह काम कैसे,कि‍न वि‍षयों ,कि‍स शैली और कि‍स नारे या मुहावरे के तहत होता है,यह सब लेखक पर नि‍र्भर करता है,महत्त्वपूर्ण है ‘नेट’ लेखन, इसका असर होगा कि‍ नहीं यह भी अंति‍म तौर नहीं कह सकता,हो सकता है स्‍थि‍ति‍यां बदल जाएं,हम स्‍थि‍ति‍यों के बदलने की उम्‍मीद लगाए बैठे हैं।
‘नेट’ के हिंदी में लेखक युवा ही होंगे,प्रौढ और बूढ़े इसके लेखक नहीं होंगे,क्‍योंकि‍ वे तो अभी कलम के युग के आगे सरक ही नहीं पाए हैं,वे एसएमएस तक खोलना नहीं जानते, ‘नेट’ युवाओं का माध्‍यम है,बूढ़े, अघाए, थके हुए हुए लेखकों का नहीं।

एकबार गंभीरता से सोचकर तो देखें कि‍ आप क्‍या कह रहे हैं ? ‘नेट’ ने ब्‍लागर लेखकों अथवा ‘नेट’ ने सारी दुनि‍या के लि‍ए कोई बड़ा लेखक अभी तक क्‍यों नहीं दि‍या ? आज भी दुनि‍या के जि‍तने बड़े लेखक हैं वे ‘नेट क्रांति‍’ से नहीं आते ,बल्‍कि‍ ‘प्रेस क्रांति‍’ से आते हैं। हो सकता है कुछ अर्से बाद ‘नेट’ हमें बड़े लेखक दे, लेकि‍न अभी तक का अनुभव यही है कि‍ लेखन के लि‍ए ‘नेट’ ठीक जगह है,’लेखक’ बनने के लि‍ए,खासकर बड़ा लेखक बनने के लि‍ए अभी भी प्रेस की शरण में ही जाना होता है,’नेट’ का ‘प्रेस’ से कोई शत्रु संबंध नहीं है,बल्‍कि‍ मि‍त्र संबंध है। यही स्‍थि‍ति‍ ‘नेट ‘ के हिंदी लेखक और परंपरागत लेखक के संबंध की भी है,हिंदी के लेखक आज ‘नेट’ पर लि‍खना नहीं जानते लेकि‍न क्‍या भवि‍ष्‍य में यही स्‍थि‍ति‍ रहेगी कहना मुश्‍कि‍ल है। झा जी ‘हि‍न्‍दी के ठेकेदार’ लेखक ‘नेट’ पर नहीं जाते, उन्‍हें वहां जाने की जरूरत भी नहीं है क्‍योंकि‍ हि‍न्‍दी का संसार परंपरागत तरीकों और कूपमंडूकताओं से स्‍वाभावि‍क गति‍ से चल रहा है,वहां कोई असुवि‍धा नहीं है।’नेट’ से परंपरागत लेखक एकदम परेशान नहीं है,बल्‍कि‍ वह अप्रभावि‍त है। मैं स्‍वयं हि‍न्‍दी का लेखक कम से कम नहीं हूं। हि‍न्‍दी पढाता जरूर हूं,किंतु जि‍स अर्थ में आप कह रहे हैं उस अर्थ में तो एकदम नहीं। झाजी ब्‍लागर संघर्षशील रहें और संघर्षशील जनता के लि‍ए लि‍खें यही तो मैं भी चाहता हूं, हिंदी के लेखकों को दो कौड़ी का कलमकार कहें अथवा वे आपको कुछ नाम दें,इससे कुछ भी आता जाता नहीं है, जैसे आप लेखक हैं,वे भी लेखक हैं। गुणवत्‍ता,भाषा,हेय,श्रेष्‍ठ,मान,अपमान,छोटे,वरि‍ष्‍ठ ,शि‍क्षक,छात्र आदि‍ भेदों के आधार पर ‘नेट’ लेखक कम से कम नहीं सोचते,आप भी नहीं सोचें।’नेट’ तो लेखकीय भेदभाव के खि‍लाफ जंग के लि‍ए ही बनाया गया है और इस कार्य में मैं आपके साथ हूं। आप लोग पराया क्‍यों समझ रहे हैं ? मैं आसानी से आपका साथ छोड़ने वाला नहीं हूं,मुश्‍कि‍ल से कुछ अच्‍छे लेखक नजर आ रहे हैं।

पंचरवाला, की टि‍प्‍पणी नि‍श्‍चि‍त रूप से बेहतरीन है,
मैं सहमत हूं चि‍रकुट तो चि‍रकुट रहता है। काश हमारे आधुनि‍क लेखक पंचरवाला को पढ पाते,काश प्रेमचंद और टैगोर यह ज्ञान पाते कि‍ पढने से क्‍या होता है ? काश पंचरवाला की राय और सलाह भरत ,सुश्रुत, पाणि‍नी,पतंजलि‍, कालि‍दास, मम्‍मट आदि‍ ने सीखी होती,जान जाते तो वे बगैर पढे ही पंडि‍त हो गए होते तो, उनका साहस कम नहीं है कि‍ बगैर कि‍सी प्रधानमंत्री और राष्‍ट्रपति‍ के साथ चाय पीए वे महान लेखक हो गए ।
काश,कोई तकनीक पैदा ही नहीं होती तो कि‍तना अच्‍छा होता, लेखक तो बगैर तकनीक के पैदा हुआ होता, पंचरवाला नाराज न हों भाषा तकनीक नहीं है,मैकलुहान कुछ भी कहें और काशीनाथ राजवडे कुछ भी बोलें,आप उनकी बात पर एकदम ध्‍यान मत दीजि‍ए आप सही कह रहे हैं। तकनीक के ज्ञान के बि‍ना ही लेखक लि‍खता है ,कलम तकनीक नहीं है वह तो महज सरकंडा है,अरे मैकलुहान तुम कब्र से बाहर आओ, काशीनाथ वि‍श्‍वनाथ राजवाडे स्‍वर्ग से नीचे आओ तुम्‍हारे नए वारि‍स पंचरवाला तुम्‍हें पुकारकर बता रहे हैं कि‍ कलम तकनीक नहीं सरकंडा है ।अरे ,पाणि‍नी देखो पंचरवाला बता रहे हैं बगैर अक्षरज्ञान के कवि‍ता लि‍खी जाती है, भक्‍ति‍ आंदोलन के लेखक अशि‍क्षि‍त थे, काश यह बात हमें भी पता होती तो क्‍यों पढते और बेचारा पंचरवाला इतना पढने लि‍खने का कष्‍ट ही क्‍यों उठाता।
बगैर तकनीक के कैसे लेखन होता यह तो पंचरवाला ही जाने, क्‍या यह संभव है बगैर भाषा जाने लि‍ख लें ? बगैर अक्षर ज्ञान के सि‍र्फ घुन ही लि‍खती है वह काठ खाती रहती है और अज्ञानतावश अक्षर लि‍ख देती है, उसने कभी अक्षर नहीं पढे,कभी भाषा नहीं पढी,उसे कि‍सी ने कुछ भी न तो सि‍खाया और न पढाया इसके बावजूद वह लि‍ख लेती है तो इसमें उसके ज्ञान की दाद देनी ही होगी,काश हमारे मध्‍यकालीन लेखकों ने घुन से सीखा होता।
पंचरवाला के अनुसार मध्‍यकाल का महान लेखक ‘इलि‍टि‍रेट’ था, जि‍सने बगैर अक्षरज्ञान के कबीर, तुलसी के रूप में कवि‍ताएं लि‍ख डालीं , पंचरवाला बता रहे हैं प्रेस के पहले लेखक अशि‍क्षि‍त था , काश वो इनके मोहल्‍ले में आया होता तो बेचारा लि‍ख भी न पाता ।
कि‍तना अच्‍छा होता कोई शास्‍त्र न होता, कोई पंडि‍त न होता, कोई बोलने वाला न होता,कोई टोकने वाला न होता, कोई मास्‍टर न होता,कोई छात्र न होता, कोई लेखक न होता, हम होते और हमारा नेट होता, अपना ब्‍लाग होता,अलमस्‍त लेखकों की टोली होती,जि‍से चाहते छापते,जि‍से चाहते पीटते और तब तक पीटते जब तक वो भाग न जाता, बुरा हो उस नेट बनाने वाले का जि‍सने यह माध्‍यम बनाया ,कमबख्‍त इस पर बार बार आना पड़ता है, गरि‍याना पड़ता है ,काश हम अनपढ होते तो यह सब करना नहीं पड़ता।
हम अपनी दुनि‍या में मस्‍त रहते,खाते,पीते,न पढते न लि‍खते और महान लेखक के पद को प्राप्‍त कर लेते, हमारे पूर्वज पढते नहीं तो दुनि‍या में न प्रेस आता,न ऑफसैट मशीन आती, न सि‍नेमा आता, न प्रेस आता ,और न कम्‍बख्‍त नेट ही आता,जि‍स पर बैठकर लि‍खना भी न पढता ,काश हम अनपढ होते तो भक्‍ि‍त आंदोलन के कवि‍ तो बन गए होते और जो कवि‍ नहीं बन पाए वे चि‍रकुट बन गए होते।
अपना मुहल्‍ला होता, जो मन में आता वह करते ,सब देखते कोई नहीं बोलता, जो बोलता उसे कि‍सी अन्‍यत्र वि‍षय पर ले जाकर घेरते और दोस्‍त कहते वाह दोस्‍त वाह क्‍या बात है ।वाह होती और हम होते। नेट पर हम होते और सि‍र्फ हमारे दोस्‍त होते और कि‍सी भी पराए मुहल्‍ले के बंदे को अपने यहां बोलने नहीं देते।हम बोलते और हम ही सुनते। कि‍तना सुंदर संसार होता हम और सि‍र्फ हम।
जब वाचि‍क युग में ही आनंद है और वहां ही रहने में सहूलि‍यत है तो फि‍र लेखन से क्‍या लेना देना ? साहि‍त्‍य से क्‍या लेना देना ? अरून्‍धती राय और आलोक मेहता से भी क्‍या लेना देना ?,दुनि‍यादारी से आदि‍म लेखक का संबंध नहीं था, काश हम भी आदि‍म लेखक की तरह होते ।
चि‍रकुट हर युग ,देश,प्रांत और भाषा में पैदा होते हैं। वैसे ही जैसे जंगल में घास भी पैदा होती है और फल,फूल भी पैदा होते हैं। जंगल में शेर भी होता है और चींटी भी रहती है,इसी तरह समाज में मनुष्‍य भी रहता है और जानवर भी रहते हैं,जानवर अनेक मामलों में मनुष्‍य से ज्‍यादा वफादार होता है, काश मनुष्‍य ने जानवर के रास्‍ते का परि‍त्‍याग न कि‍या होता, हम बंदर ही बने रहते, उछलते, कूदते,कि‍लकारि‍यां मारते,एक छत से दूसरी छत,एक डाल से दूसरी डाल, और जिंदगी चैन से कट जाती ,पता नहीं बंदर से मनुष्‍य बनने की बात बंदर के दि‍माग में क्‍यों आयी ? उस समय क्‍या उसके पास कोई तकनीक थी ? यदि‍ थी पंचरवाला बताएं,बंदर से मनुष्‍य बने तो क्‍या कोई तकनीक थी ?
इंटरनेट हो या अन्‍य संचार रूप हो,सबके साथ प्रासंगि‍क और अप्रासंगि‍क ,टि‍काऊ और सद्य मर जाने वाला दोनों ही कि‍स्‍म का लेखक पैदा होता है, हम शोध करें और जानें कि‍ ‘नेट’ में कौन टि‍काऊ है और कौन चि‍रकुट है ? नेट के पंडि‍तों का इसके बारे में क्‍या कहना है पंचरवाला थोड़ा ज्ञान दें जि‍ससे अज्ञानि‍यों को अपने अज्ञान से मुक्‍त होने में मदद मि‍ले।

पंचरवाला, की टि‍प्‍पणी नि‍श्‍चि‍त रूप से बेहतरीन है,
मैं सहमत हूं चि‍रकुट तो चि‍रकुट रहता है। काश हमारे आधुनि‍क लेखक पंचरवाला को पढ पाते,काश प्रेमचंद और टैगोर यह ज्ञान पाते कि‍ पढने से क्‍या होता है ? काश पंचरवाला की राय और सलाह भरत ,सुश्रुत, पाणि‍नी,पतंजलि‍, कालि‍दास, मम्‍मट आदि‍ ने सीखी होती,जान जाते तो वे बगैर पढे ही पंडि‍त हो गए होते तो, उनका साहस कम नहीं है कि‍ बगैर कि‍सी प्रधानमंत्री और राष्‍ट्रपति‍ के साथ चाय पीए वे महान लेखक हो गए ।
काश,कोई तकनीक पैदा ही नहीं होती तो कि‍तना अच्‍छा होता, लेखक तो बगैर तकनीक के पैदा हुआ होता, पंचरवाला नाराज न हों भाषा तकनीक नहीं है,मैकलुहान कुछ भी कहें और काशीनाथ राजवडे कुछ भी बोलें,आप उनकी बात पर एकदम ध्‍यान मत दीजि‍ए आप सही कह रहे हैं। तकनीक के ज्ञान के बि‍ना ही लेखक लि‍खता है ,कलम तकनीक नहीं है वह तो महज सरकंडा है,अरे मैकलुहान तुम कब्र से बाहर आओ, काशीनाथ वि‍श्‍वनाथ राजवाडे स्‍वर्ग से नीचे आओ तुम्‍हारे नए वारि‍स पंचरवाला तुम्‍हें पुकारकर बता रहे हैं कि‍ कलम तकनीक नहीं सरकंडा है ।अरे ,पाणि‍नी देखो पंचरवाला बता रहे हैं बगैर अक्षरज्ञान के कवि‍ता लि‍खी जाती है, भक्‍ति‍ आंदोलन के लेखक अशि‍क्षि‍त थे, काश यह बात हमें भी पता होती तो क्‍यों पढते और बेचारा पंचरवाला इतना पढने लि‍खने का कष्‍ट ही क्‍यों उठाता।
बगैर तकनीक के कैसे लेखन होता यह तो पंचरवाला ही जाने, क्‍या यह संभव है बगैर भाषा जाने लि‍ख लें ? बगैर अक्षर ज्ञान के सि‍र्फ घुन ही लि‍खती है वह काठ खाती रहती है और अज्ञानतावश अक्षर लि‍ख देती है, उसने कभी अक्षर नहीं पढे,कभी भाषा नहीं पढी,उसे कि‍सी ने कुछ भी न तो सि‍खाया और न पढाया इसके बावजूद वह लि‍ख लेती है तो इसमें उसके ज्ञान की दाद देनी ही होगी,काश हमारे मध्‍यकालीन लेखकों ने घुन से सीखा होता।
पंचरवाला के अनुसार मध्‍यकाल का महान लेखक ‘इलि‍टि‍रेट’ था, जि‍सने बगैर अक्षरज्ञान के कबीर, तुलसी के रूप में कवि‍ताएं लि‍ख डालीं , पंचरवाला बता रहे हैं प्रेस के पहले लेखक अशि‍क्षि‍त था , काश वो इनके मोहल्‍ले में आया होता तो बेचारा लि‍ख भी न पाता ।
कि‍तना अच्‍छा होता कोई शास्‍त्र न होता, कोई पंडि‍त न होता, कोई बोलने वाला न होता,कोई टोकने वाला न होता, कोई मास्‍टर न होता,कोई छात्र न होता, कोई लेखक न होता, हम होते और हमारा नेट होता, अपना ब्‍लाग होता,अलमस्‍त लेखकों की टोली होती,जि‍से चाहते छापते,जि‍से चाहते पीटते और तब तक पीटते जब तक वो भाग न जाता, बुरा हो उस नेट बनाने वाले का जि‍सने यह माध्‍यम बनाया ,कमबख्‍त इस पर बार बार आना पड़ता है, गरि‍याना पड़ता है ,काश हम अनपढ होते तो यह सब करना नहीं पड़ता।
हम अपनी दुनि‍या में मस्‍त रहते,खाते,पीते,न पढते न लि‍खते और महान लेखक के पद को प्राप्‍त कर लेते, हमारे पूर्वज पढते नहीं तो दुनि‍या में न प्रेस आता,न ऑफसैट मशीन आती, न सि‍नेमा आता, न प्रेस आता ,और न कम्‍बख्‍त नेट ही आता,जि‍स पर बैठकर लि‍खना भी न पढता ,काश हम अनपढ होते तो भक्‍ि‍त आंदोलन के कवि‍ तो बन गए होते और जो कवि‍ नहीं बन पाए वे चि‍रकुट बन गए होते।
अपना मुहल्‍ला होता, जो मन में आता वह करते ,सब देखते कोई नहीं बोलता, जो बोलता उसे कि‍सी अन्‍यत्र वि‍षय पर ले जाकर घेरते और दोस्‍त कहते वाह दोस्‍त वाह क्‍या बात है ।वाह होती और हम होते। नेट पर हम होते और सि‍र्फ हमारे दोस्‍त होते और कि‍सी भी पराए मुहल्‍ले के बंदे को अपने यहां बोलने नहीं देते।हम बोलते और हम ही सुनते। कि‍तना सुंदर संसार होता हम और सि‍र्फ हम।
जब वाचि‍क युग में ही आनंद है और वहां ही रहने में सहूलि‍यत है तो फि‍र लेखन से क्‍या लेना देना ? साहि‍त्‍य से क्‍या लेना देना ? अरून्‍धती राय और आलोक मेहता से भी क्‍या लेना देना ?,दुनि‍यादारी से आदि‍म लेखक का संबंध नहीं था, काश हम भी आदि‍म लेखक की तरह होते ।
चि‍रकुट हर युग ,देश,प्रांत और भाषा में पैदा होते हैं। वैसे ही जैसे जंगल में घास भी पैदा होती है और फल,फूल भी पैदा होते हैं। जंगल में शेर भी होता है और चींटी भी रहती है,इसी तरह समाज में मनुष्‍य भी रहता है और जानवर भी रहते हैं,जानवर अनेक मामलों में मनुष्‍य से ज्‍यादा वफादार होता है, काश मनुष्‍य ने जानवर के रास्‍ते का परि‍त्‍याग न कि‍या होता, हम बंदर ही बने रहते, उछलते, कूदते,कि‍लकारि‍यां मारते,एक छत से दूसरी छत,एक डाल से दूसरी डाल, और जिंदगी चैन से कट जाती ,पता नहीं बंदर से मनुष्‍य बनने की बात बंदर के दि‍माग में क्‍यों आयी ? उस समय क्‍या उसके पास कोई तकनीक थी ? यदि‍ थी पंचरवाला बताएं,बंदर से मनुष्‍य बने तो क्‍या कोई तकनीक थी ?
इंटरनेट हो या अन्‍य संचार रूप हो,सबके साथ प्रासंगि‍क और अप्रासंगि‍क ,टि‍काऊ और सद्य मर जाने वाला दोनों ही कि‍स्‍म का लेखक पैदा होता है, हम शोध करें और जानें कि‍ ‘नेट’ में कौन टि‍काऊ है और कौन चि‍रकुट है ? नेट के पंडि‍तों का इसके बारे में क्‍या कहना है पंचरवाला थोड़ा ज्ञान दें जि‍ससे अज्ञानि‍यों को अपने अज्ञान से मुक्‍त होने में मदद मि‍ले।

( रमेश उपाध्‍याय के लेख पर ' mohalla Live' 'वर्चुअल राइटिंग मि‍र्च है और मिर्च से ज्ञान नहीं नि‍कलता'वि‍स्‍तार से पढने के लि‍ए देखें )

1 टिप्पणी:

  1. अध्यवसाय सहित मननीय व विचारणीय।
    पारदर्शिता, सत्य व लोकमंगल से इतर उद्देश्य होने पर मन्तव्य भला एकीकृत कैसे हो जाएँगे?

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