शुक्रवार, 21 अगस्त 2009

प्रभाष जोशी: हम सम्‍मान सहि‍त अपमानि‍त हैं

प्रभाष जी, काश आपने यह सब न कहा होता, तो हिंदी प्रेस और पत्रकार जगत का बड़ा उपकार करते। आपका उपरोक्‍त वि‍वेचन पुराने कि‍स्‍म के अप्रासंगि‍क पंडि‍तों की तरह है। वि‍चार, नज़रि‍या और तथ्‍य इन तीनों दृष्‍टियों से आपने ग़लत कहा है। क्‍या इस साक्षात्‍कार को प्रभाष जोशी के असली वि‍चार मानें? अथवा तरन्‍नुम में कहे वि‍चार मानें? मज़े के लि‍ए कहे वि‍चार मानें?

प्रभाष जी आप व्‍यक्‍ि‍त की पहचान को जाति‍, धर्म, कौशल आदि‍ से क्‍यों जोड़ कर देख रहे हैं? क्‍या आपको मनुष्‍य की पहचान दि‍खाई नहीं देती? देती है तो फि‍र बोलते समय या लि‍खते समय उसे भूल क्‍यों जाते हैं? कठोरतम भाषा में कहूं तो आपके वि‍चार एकसि‍रे से प्रति‍क्रि‍यावादी ही नहीं बल्‍कि‍ मानवतावि‍रोधी भी हैं। चीज़ों, लोगों को देखने की जो पद्धति‍ आपने अपनायी वह प्रति‍गामी है। आपके साक्षात्‍कार पर मुझे एक चुटकुला याद आ रहा है। हरि‍याणा के जाट के बारे में। अब तो यह आप पर भी लागू होता है। चुटकुला कुछ इस प्रकार है – एक बार एक जाट से एक व्‍यक्‍ि‍त ने पूछा, तू पहले जाट है या आदमी है? जाट बोला जाट हूं।

प्रभाषजी वही दशा आपकी भी हुई है। आपके अंदर का बुद्धि‍जीवी मनुष्‍य अचानक ब्राह्मण में बदल जाएगा, यह तो कायाकल्‍प ही कहा जाएगा। गद्य अच्‍छा लि‍खते हैं, अच्‍छा बोलते हैं, नाम भी है, किंतु इससे कोई महान नहीं बनता, महान बनता है नज़रि‍ये के कारण। आपने जि‍स नज़रिये की वकालत की है, उसे रेनेसां के बुद्धि‍जीवी 19वीं सदी में दफन कर चुके हैं। हिंदी में प्रत्‍येक बूढ़े को अंत में अतीत ही शांति‍ देता है और वह जब अतीत में जाता है तो धुर अतीत में जाकर ही पूर्ण शांति‍ पाता है। काश, हम बूढ़े न होते!
प्रभाष जी के साक्षात्‍कार के अंश छापकर जो तीखी प्रति‍क्रि‍या आई है उसे थोड़ा और गंभीर दायरों में ले जाने की जरूरत है। प्रभाष जोशी के वि‍चार एक व्‍यक्‍ति‍ के वि‍चार के साथ समाज में अनेक लोगों में भी मि‍लते हैं, इस समस्‍या को हम एक फि‍नोमि‍ना के रूप में देखें और सती और जाति‍वाद के फि‍नोमि‍ना को थोड़ा व्‍यापक फलक पर रखकर देखें तो ज्‍यादा सार्थक इस्‍तक्षेप कर पाएंगे।
जाति‍वाद कैंसर है। कैंसर की प्रशंसा नहीं की जाती उससे मुक्‍ति‍ का मार्ग खोजा जाता है, वरना वह जीवन से मुक्‍त कर देता है। आप लोग प्रभाषजी पर व्‍यक्‍ति‍गत हमले करेंगे और उनकी नि‍जी जिंदगी की भूलों का पुलिंदा दि‍खाने की कोशि‍श करेंगे तो मामला फि‍र हाथ से नि‍कल जाएगा।
हि‍न्‍दी में कहावत है ‘चोर को न मारो चोर की अम्‍मा को मारो’, हमें प्रभाषजी के वि‍चारों की अम्‍मा को मारना होगा जहां से ऐसे वि‍चार अभी भी आ रहे हैं, हमें उन वैचारि‍क, दार्शनि‍क,सामाजि‍क और आर्थिक स्रोतों,उन वि‍चारधारात्‍मक आधारों को खोलना होगा जहां से सती,जाति‍प्रथा आदि‍ के समर्थन की बात कही जा रही है।
इटली के प्रसि‍द्ध मार्क्‍सवादी अन्‍तोनि‍यो ग्राम्‍शी का कहना था युद्ध के मैदान में शत्रु के कमजोर ठि‍काने पर हमला करो और वि‍चारधारात्‍मक युद्ध में शत्रु के मजबूत कि‍ले पर हमला करो। प्रभाष जोशी का मजबूत वि‍चारधारात्‍मक कि‍ला है है ‘आब्‍शेसन’।
हमें रहस्‍य खोलना चाहि‍ए कि‍ आखि‍रकार जाति‍प्रथा,सती प्रथा,स्‍त्री वि‍रोधी रूझान आते कहां से हैं ? वे कि‍स तरह के वातावरण में फलते फूलते हैं ? प्रभाषजी से भी अपील है वे इस बहस में उठे सवालों पर कि‍नाराकशी न करें। मीडि‍या का लेखक जबावदेही और सामाजि‍क जि‍म्‍मेदारी से अपना पल्‍ला नहीं झाड़ सकता।
प्रभाष जोशी का सती प्रथा का महि‍मामंडन और उसे परंपरा कहना मूलत: इन दि‍नों व्‍यापक स्‍तर पर पनप रही स्‍त्री वि‍रोधी मानसि‍कता और स्‍त्री को एक बेजान इंसान समझने वाली वि‍चारधारा की देन है। देखि‍ए यह संभव नहीं है आप सचि‍न का समर्थन करें,क्रि‍केट का समर्थन करें और वि‍ज्ञापन संस्‍कृति‍ पर कुछ न बोलें। अपना सचि‍न महान है,लाजबाव है,लेकि‍न अंतत: है तो वि‍ज्ञापन संस्‍कृति‍ का खि‍लौना,सचि‍न के लि‍ए खेल ही सब कुछ है बाजार के लि‍ए सचि‍न का ब्रॉण्‍ड ही सब कुछ है,सचि‍न को ब्रॉण्‍ड बनाने में कई फायदे हैं,क्रि‍केट चंगा,वर्चस्‍वशाली जाति‍यां और वि‍चारधारा भी खुश। साथ ही प्रभाष जोशी जैसे दि‍ग्‍गज भी मस्‍त।
अब हम क्रि‍केट नहीं देखते,बल्‍कि‍ उसका उपभोग करते हैं, क्रि‍केट देखते तो मैदान में जाते टि‍कट खरीदते, मुहल्‍ले में मैदान बनाने के लि‍ए संघर्ष करते,स्‍कूल,कॉलेजों में टीम बनवाने के लि‍ए प्रयास करते,खेल का मैदान बनाने की जद्दोजहद करते लकि‍न यह सब करते नहीं हैं। सि‍र्फ टीवी पर क्रि‍केट देखते हैं। यही हमारा खेल ‘प्रेम’ है।
इसी तरह प्रभाष जोशी जैसे पत्रकार की सारी चि‍न्‍ताएं मायावती,लालूयादव,मुलायमसिंह, दि‍ग्‍वि‍जय सिंह आदि‍ के इर्दगि‍र्द घूमती हैं ,थोडा जोर लगाया तो साम्‍प्रदायि‍कता,धर्मनि‍रपेक्षता,आतंकवाद आदि‍ पर जमकर बरस पड़े। दोस्‍तो ये सारे एजेण्‍डा जनता के नहीं वर्चस्‍वशाली ताकतों के हैं, हमें लेखक के नाते अंतर करना होगा हमारी जनता का एजेण्‍डा क्‍या है ? सवाल कि‍या जाना चाहि‍ए प्रभाष जोशी ने जनता के एजेण्‍डे पर कि‍तना लि‍खा और सरकारी एजेण्‍डे पर कि‍तना लि‍खा ?
प्रभाष जोशी के लेखन की वि‍शेषता है ‘आब्‍शेसन’, ‘आब्‍शेसन’ शासकीय वि‍चारधारा का ईंधन है। प्रभाष जोशी कुछ वि‍षयों के प्रति‍ अपने ‘आब्‍शेसन’ को छि‍पाते ही नहीं बल्‍कि‍ महि‍मामंडि‍त करते हैं, उनके लेखन के ‘आब्‍शेसन’ हैं क्रि‍केट,साम्‍प्रदायि‍कता,धर्मनि‍रपेक्षता,कांग्रेस ,आरएसएस आदि‍।
लेखन में ‘आब्‍शेसन’ वर्चस्‍वशाली ताकतों का कलमघि‍स्‍सु बनाता है,रूढि‍वादी बनाता है। लकीर का फकीर बनाता है। ‘आबशेसन’ में आकर जब लेखन कि‍या जाएगा तो वह छदम गति‍वि‍धि‍ कहलाता है।इसे परि‍वर्तनकामी लेखन अथवा परि‍वर्तनकामी पत्रकारि‍ता समझने की भूल नहीं करनी चाहि‍ए।
लेखन में सत्‍य गति‍वि‍धि‍ का जन्‍म तब होता है जब आप शासकवर्गों के एजेण्‍डे के बाहर आकर वैकल्‍पि‍क एजेण्‍डा बनाते हैं,वैकल्‍पि‍क एजेण्‍डे पर लि‍खते हैं।
भूमंडलीकरण, समलैंगि‍कता ,अपराधीकरण,साम्‍प्रदायि‍कता, भ्रष्‍टाचार,ओबीसी आरक्षण,अयोध्‍या में राममंदि‍र आदि‍ शासकवर्ग का एजेण्‍डा हैं, इन्‍हें जनता का एजेण्‍डा समझने की भूल नहीं करनी चाहि‍ए, हमारे प्रभाषजी की कलम की सारी स्‍याही इसी शासकीय एजेण्‍डे पर खर्च हुई है। उन्‍होंने वि‍कल्‍प के एजेण्‍डे पर न्‍यूनतम लि‍खा है।
‘आब्‍शेसन’ में लि‍खे को पढने में मजा आता है और वह चटपटा भी होता है,उसकी भाषा हमेशा पैनी होती है, और ये सभी तत्‍व संयोग से प्रभाष जोशी के यहां भी हैं,’आब्‍शेसन’ में लि‍खा लेख अपील करता है और आपका तर्क छीन लेता है,आलोचनात्‍मक बुद्धि‍ छीन लेता है।
‘आबशेसन’ में लि‍खे को जब एकबार पढना शुरू करते हैं तो धीरे धीरे लत लग जाती है और यही ‘लत’ प्रभाष जोशी के पाठकों को भी लगी हुई है,वे हमेशा मुग्‍धभाव से उन्‍हें पढते हैं और जरूर पढते हैं, वे नहीं जानते कि‍ आब्‍शेसन में लि‍खे वि‍चार इल्‍लत होते हैं।
‘आब्‍शेसन’ में लि‍खे को पढकर आप सोचना और बोलना बंद करके अनुकरण करने लगते हैं, हॉं में हॉ मि‍लाना शुरू कर देते हैं,वाह वाह करने लगते हैं, बुद्धि‍ खर्च करना बंद कर देते हैं,इस तरह आप दरबारी भी बना लेते हैं, आज की भाषा में कहें तो प्रशंसक भी बना लेते हैं।
‘आबशेसन’ में लि‍खने के कारण अपना लि‍खा सत्‍य नजर आने लगता है, आपकी बातें ‘वास्‍तवि‍क’ एजेण्‍डा नजर आने लगती हैं, हकीकत में ऐसा होता नहीं है, हकीकत में ‘आब्‍शेसन’ में लि‍खने के कारण प्रभाष जोशी कोल्‍हू के बैल की तरह एक ही वि‍चार और भाव के इर्दगि‍र्द चक्‍कर लगाते रहे हैं, यही ‘आब्‍शेसन’ का दार्शनि‍क खेल है। इस परि‍पेक्ष्‍य में देखें तो प्रभाष जोशी का सती प्रेम ‘आब्‍शेसन’ है,नकली वैचारि‍क गति‍वि‍धि‍ है, इस गति‍वि‍धि‍ का हि‍न्‍दी भाषी यथार्थ और हि‍न्‍दुस्‍तान के यथार्थ से कोई लेना देना नहीं है।
सुनंदा सिंह जी,
आपने सही सवाल उठाया है कम से कम प्रभाष जोशी ने जो लि‍खा है,उस पर बातें करो,मैं कहना चाहता हूं कि‍ ब्‍लाग लि‍खने वाले पढ़ लेते हैं और पढकर ही लि‍खते हैं। आप यह क्‍यों मानकर चल रही हैं कि‍ बगैर पढे लि‍खा जा रहा है। वेब के पाठकों पर हमें भरोसा रखना होगा,रही बात प्रभाष जी के लि‍खे की तो वह इतना बुरा है कि‍ पढकर और उनके मर्दवादी कुतर्क देखकर शर्म आती है । गंभीरता से सोच रहा हूं कि‍ इतना बड़ा पत्रकार इतनी बड़ी मूर्खतापूर्ण बातें क्‍यों लि‍ख रहा है ? यदि‍ प्रभाषजी अमेरि‍की पत्रकार होते और इसी भाव से वहां पर ब्‍लाग या प्रेस में लि‍खते तो कोई उन्‍हें छापता तक नहीं। उनके ज्ञान की कुछ झलकि‍यां देखें तो शायद मन ‘गदगद’ हो जाए,
प्रभाष जोशी ने लि‍खा है ”जैसे सिलिकॉन वैली अमेरिका में नहीं होता, अगर दक्षिण भारत में आरक्षण नहीं लगा होता। दक्षिण के आरक्षण के कारण जितने भी ब्राह्मण लोग थे, ऊंची जातियों के, वो अमरीका गये और आज सिलिकॉन वेली की हर आईटी कंपनी का या तो प्रेसिडेंट इंडियन है या चेयरमेन इंडियन है या वाइस चेयरमेन इंडियन है या सेक्रेटरी इंडियन है। क्यों ? क्योंकि ब्राह्मण अपनी ट्रेनिंग से अवव्यक्त चीजों को हैंडल करना बेहतर जानता है। क्योंकि वह ब्रह्म से संवाद कर रहा है। तो जो वायवीय चीजें होती हैं, जो स्थूल, सामने शारिरिक रूप में नहीं खड़ी है, जो अमूर्तन में काम करते हैं, जो आकाश में काम करते हैं। यानी चीजों को इमेजीन करके काम करते हैं। सामने जो उपस्थित है, वो नहीं करते। ब्राह्मणों की बचपन से ट्रेनिंग वही है, इसलिए वो अव्यक्त चीजों को, अभौतिक चीजों को, अयथार्थ चीजों को यथार्थ करने की कूव्वत रखते है, कौशल रखते हैं। इसलिए आईटी वहां इतना सफल हुआ। आईटी में वो इतने सफल हुए।”
अब गंभीरता से इस मूर्खता पर वि‍चार कीजि‍ए कि‍ दक्षि‍ण भारत में सि‍लीकॉन वैली इसलि‍ए नहीं बना क्‍योंकि‍ दक्षि‍ण भारत में आरक्षण था। गोया आरक्षण न होता तो कम्‍प्‍यूटर की दुनि‍या में हमने छलांग लगा दी होती, प्रभाषजी जानते ही नहीं हैं कि‍ भारत सरकार की तरफ से वि‍ज्ञान और खासकर सूचना तकनीकी से संबंधि‍त बुनि‍यादी शोध पर आज भी एक फूटी कौड़ी खर्च नहीं की जाती।
सूचना तकनीक के कि‍सी भी बुनि‍यादी अनुसंधान के क्षेत्र में भारत से लेकर अमेरि‍का तक कि‍सी भी ब्राह्मण का कोई पेटेंट नहीं है। आज तक कि‍सी भी भारतीय को सूचना तकनीक के कि‍सी भी बुनि‍यादी अनुसंधान का मुखि‍या पद अमेरि‍की की सि‍लीकॉन बैली में नहीं दि‍या गया है, सि‍लीकॉन बैली में बुनि‍यादी अनुसंधान में आज भी गोरों और अमेरि‍की मूल के गोरों का पेटेण्‍ट है। आज इस संबंध में सारे आंकड़े आसानी से वेब पर उपलब्‍ध हैं, प्रभाष जी को चुनौती है कि‍ वे ऐसे पांच ब्राह्मणों के नाम बताएं जि‍न्‍होने सूचना तकनीक के क्षेत्र में बुनि‍यादी अनुसंधान का काम कि‍या हो, वे पता करें कि‍ भारत के आईआईटी में कहां सूचना तंत्र से जुड़ी समस्‍याओं पर बुनि‍यादी अनुसंधान हो रहा है ?
एक और दि‍लचस्‍प बात बताऊं, हम जि‍स यूनीकोड मंगल हि‍न्‍दी फाण्‍ट में काम कर रहे हैं, उसका नि‍र्माण भी कि‍सी ब्राह्मण ने नहीं माइक्रोसॉफ्ट कंपनी के गोरे वैज्ञानि‍कों ने कि‍या है,इसके लि‍ए भारत सरकार ने उन्‍हें 11 हजार करोड़ रूपये दि‍ए,काश यह काम कोई ब्राह्मण भारत में कर देता, आईआईटी वाले कर देते ? प्रभाष जी जानते ही नहीं हैं कि‍ दुनि‍या ‘धारण’ करने वाले ब्राह्मण नहीं गोरे जाति‍ के लोग हैं,दूसरी बात यह कि‍ कि‍तने ब्राह्मण हैं जो सि‍लि‍कॉन बैली में हैं ?
प्रभाष जी कहीं से जल्‍दी से आंकड़ा दें और उसका स्रोत बताएं वरना जाकर देखें कि‍ हैदराबाद और बैंगलौर में सूचना कंपनि‍यों में काम करने वाले ब्राह्मण क्‍या काम कर रहे हैं, सबसे बड़ा ब्राह्मण तो सत्‍यम कंपनी का मालि‍क था ,कहने की जरूरत नहीं है कि‍तना ईमानदार और देशभक्‍त था ?
भारत की सूचना कंपनि‍यां क्‍या काम कर रही हैं ,कम से कम वे सूचना के क्षेत्र में बुनि‍यादी शोध का काम तो नहीं कर रही हैं। हमें शर्म भी नहीं आती कि‍ अरबों डालर कमाने वाला भारत का सूचनाउद्योग सूचना के क्षेत्र में बुनि‍यादी शोध पर फूटी कौड़ी खर्च नहीं कर रहा,वे आउटसोर्सिंग कर रहे हैं,बुनि‍यादी रि‍सर्च नहीं।जबकि‍ यह सच है भारत के सूचना उद्योग में सवर्णों की संख्‍या ज्‍यादा है।

प्रभाष जोशी ने लि‍खा है ” मान लीजिए कि सचिन तेंदुलकर और विनोद कांबली खेल रहे हैं। अगर सचिन आउट हो जाये तो कोई यह नहीं मानेगा कि कांबली मैच को ले जायेगा। क्योकि कांबली का खेल, कांबली का चरित्र, कांबली का एटीट्यूड चीजों को बनाकर रखने और लेकर जाने का नहीं है। वो कुछ करके दिखा देने का है। जिताने के लिए आप को ऐसा आदमी चाहिए, जो लंगर डालकर खड़ा हो जाये और आखिर तक उसको ले जा सके यानी धारण शक्ति वाला।”
प्रभाषजी से सवाल कि‍या जाना चाहि‍ए कि‍ उनकी ब्राह्मण मंत्रमाला इतनी छोटी क्‍यों है जि‍समें 11 ब्राह्मण खि‍लाड़ि‍यों की वि‍श्‍व टीम तक नहीं बन पा रही है, हम एक प्रस्‍ताव देते हैं कि‍ प्रत्‍येक राज्‍यऔर भारत के लि‍ए कम से कम 11-11 ब्राह्मण खि‍लाड़ि‍यों के नाम क्रि‍केट टीम के रूप में प्रभाषजी घोषि‍त करें,इसके बाद महि‍ला टीम के लि‍ए भी इतनी ही महि‍ला ब्राह्मणि‍यों के नाम सुझाएं, ज्‍यादा नहीं ऐसी टीमें वे फुटबाल और हॉकी के लि‍ए कम से कम सुझाएं और यह भी बताएं कि‍ आखि‍रकार कि‍तने ब्राह्मण खि‍लाडी अब तक अर्जुन पुरस्‍कार ले चुके हैं, खेल रत्‍न ले चुके है, ओलम्‍पि‍क और एशि‍याई खेलों में कि‍तने ब्राह्मण बटुक पदक प्राप्‍त कर चुके हैं। थोड़ा दूर जाएं तो मामला एकदम गडबडा जाएगा प्रभाषजी का। वेस्‍ट इंडीज,दक्षि‍ण अफ्रीका का क्‍या करें वहां कोई ब्राह्मण नहीं इसके बावजूद लंबे समय से वेस्‍टइंडीज की टीम शानदार खेलती रही है, काश वेस्‍टइंडीज वाले ब्राह्मण होते और वहां भी जाति‍प्रथा होती तो कि‍तना अच्‍छा होता। प्रभाषजी को ब्राह्मणों का जयगान करने में सहूलि‍यत होती।
प्रभाष जी ने लि‍खा है “अब धारण शक्ति उन लोगों में होती है, जो शुरू से जो धारण करने की प्रवृत्ति के कारण आगे बढ़ते है। अब आप देखो अपने समाज में, अपनी राजनीति में। अपने यहां सबसे अच्छे राजनेता कौन हैं? आप देखोगे जवाहरलाल नेहरू ब्राह्मण, इंदिरा गांधी ब्राह्मण, अटल बिहारी वाजपेयी ब्राह्मण, नरसिंह राव ब्राह्मण, राजीव गांधी ब्राह्मण। क्यों ? क्योंकि सब चीजों को संभालकर चलाना है इसलिए ये समझौता वो समझौता वो सब कर सकते है। बेचारे अटल बिहारी बाजपेयी ने तो इतने समझौते किये कि उनके घुटनों को ऑपरेशन हुआ तो मैंने लिखा कि इतनी बार झुके है कि उनके घुटने खत्म हो गये, इसलिए ऑपेरशन करना पड़ा।”
प्रभाषजी राजनीति‍ की इतनी घटि‍या तुलनाएं हि‍न्‍दी पत्रकारि‍ता में खूब बि‍कती हैं, राजनीति‍ और राजनीति‍ वि‍ज्ञान में नहीं। यह पत्रकारि‍ता नहीं सस्‍ती चाटुकारि‍ता है। राजनीति‍ की वि‍कृत प्रस्‍तुति‍ है।प्रेस या मीडि‍या की भाषा में ‘डि‍स -इनफॉरर्मेशन’ है। दूसरी बात यह कि‍ राजनीति‍ का इतना सतही और वि‍कृत तुलनात्‍मक रूप सि‍र्फ हि‍न्‍दी का ही कोई चुका हुआ पत्रकार दे सकता है।
प्रभाषजी ने अपनी तुलनात्‍मक प्रस्‍तुति‍ में प्रकारान्‍तर से जनता के वि‍वेक का भी अपमान कि‍या है। जनता ने उनके बताए नेताओं को ब्राह्मण होने के कारण वोट नहीं दि‍ए,देश की जनता ने समग्रता में जाति‍ के नाम पर कभी भी वोट नहीं दि‍या है,वोट राजनीति‍ के आधार पर पड़ते रहे हैं,नेता लोग अपनी राजनीति‍ का प्रति‍नि‍धि‍त्‍व करते थे,जाति‍ का नहीं। प्रभाषजी ने जि‍न नेताओं के नाम गि‍नाए हैं कम से कम उनमें से कि‍सी भी नेता ने कभी चुनाव में अपने लि‍ए और अपनी पार्टी के लि‍ए जाति‍ के नाम पर सार्वजनि‍क तौर पर वोट नहीं मांगा। यह बात कहने का अर्थ यह नहीं है कि‍ राजनीति‍ में जाति‍वाद नहीं चलता,चलता है ,किंतु नि‍र्णायक भूमि‍का जाति‍ की नहीं राजनीति‍ की है। हाल के लोकसभा चुनाव परि‍णाम इसके साक्षी हैं।
प्रभाषजी ने लि‍खा है ”जिन लोगों को सदियों से जिस प्रकार के काम को करने की ट्रेनिंग मिली है, वे उस काम को अच्छा करते हैं।”
सवाल यह है हमारे समाज में सदि‍यों कि‍से काम करने की ट्रेनिंग मि‍ली है ? ब्राह्मण कब से कारगरी का काम करने लगे ? कारीगरी और मेहनती हुनर वाले कि‍सी भी काम को ब्राह्मणों ने अतीत में सीखने से इंकार कि‍या।
प्रभाष जोशी ने लि‍खा है ”मैं यह मानता हूं कि सती प्रथा के प्रति जो कानूनी रवैया है, वो अंग्रेजों का चलाया हुआ है। अपने यहां सती पति की चिता पर जल के मरने को कभी नहीं माना गया। सबसे बड़ी सती कौन है आपके यहां? सीता। सीता आदमी के लिए मरी नहीं। दूसरी सबसे बड़ी कौन है आपके यहां? पार्वती। वो खुद जल गई लेकिन पति का जो गौरव है, सम्मान है वो बनाने के लिए। उसके लिए। सावित्री। सावित्री सबसे बड़ी सती मानी जाती है। सावित्री वो है, जिसने अपने पति को जिंदा किया, मृत पति को जिंदा किया। सती अपनी परंपरा में सत्व से जुड़ी हुई चीज है। मेरा सत्व, मेरा निजत्व जो है, उसका मैं एसर्ट करूं। अब वो अगर पतित होकर… बंगाल में जवान लड़कियों की क्योंकि आदमी कम होते थे, लड़कियां ज्यादा होती थीं, इसलिए ब्याह देने की परंपरा हुई। इसलिए कि वो रहेगी तो बंटवारा होगा संपत्ति में। इसलिए वह घर में रहे। जाट लोग तो चादर डाल देते हैं, घर से जाने नहीं देते। अपने यहां कुछ जगहों पर उसको सती कर देते हैं। आप अपने देश की एक प्रथा को, अपने देश की पंरपरा में देखेंगे या अंग्रेजों की नजर से देखेंगे, मेरा झगड़ा यह है। मेरा मूल झगड़ा ये है।”
प्रभाषजी ने सही फरमाया है हमें अपनी परंपरा को अंग्रेजों की नजर से नहीं भारतीय नजर से देखना चाहि‍ए,समस्‍या यह है कि‍ क्‍या हमारी कोई भारतीय नजर भी है ? कि‍स भारतीय नजर की बात कर रहे हैं प्रभाषजी ,हम सि‍र्फ इतना ही कहना चाहेंगे कि‍ सतीप्रथा पर पुरातनपंथि‍यों और राममोहनराय के समर्थकों के बीच में जो बहस चली उसके अलावा भी सतीप्रथा को देखने का क्‍या कोई स्‍त्रीवादी भारतीय नजरि‍या भी हो सकता है या नहीं ? कि‍सने कहा है कि‍ स्‍त्री समस्‍या को मर्द की ही आंखों से ही देखो, सती समस्‍या स्‍त्री समस्‍या है और इसके बारे में सबसे उपयुक्‍त भारतीय नजरि‍या स्‍त्रीवादी नजरि‍या ही हो सकता है,प्रभाषजी जि‍स नजरि‍ए से सती प्रथा को देख रहे हैं,वैसे न तो ईश्‍वरचन्‍द्र वि‍द्यासागर ने देखा था और नहीं आज के स्‍त्रीवादी ही रैनेसां के नजरि‍ए से देखते हैं । ऐसे भारतीय नजरि‍या क्‍या होगा,यह वि‍वाद की चीज है और प्रभाषजी का नजरि‍या मूलत: स्‍त्रीवि‍रोधी है,क्‍योंकि‍ वे सतीप्रथा को ही नहीं स्‍त्री को भी मर्दवादी नजरि‍ए से देख रहे हैं। प्रभाषजी का मूल झगड़ा क्‍या है ? मूल लक्ष्‍य क्‍या रहा है ? मर्दवाद की प्रति‍ष्‍ठा करना और स्‍त्री को वायवीय बनाना,प्रभाषजी स्‍त्री ठोस हाड़मांस का मानवीय सार है, वह ‘सत्‍व’ नहीं है सार है,वह स्‍त्री है। आपके मुंह से एक पत्रकार नहीं एक मर्दवादी बोल रहा है जि‍सका हमारे समाज में ,मीडि‍या में आज भी स्‍वाभावि‍क स्‍वराज्‍ा है,आपकी भाषा स्‍वाभावि‍क मर्दवादी भाषा है और मर्दवाद प्रेस में ही नहीं मीडि‍या में सबसे बि‍काऊ माल है । आप महान हैं और आपके वि‍चार महान हैं, दुख के साथ कहना पड़ रहा है, हम सम्‍मान सहि‍त अपमानि‍त हैं।
( प्रभाष जी के साक्षात्‍कार चली बहस को वि‍स्‍तार के साथ देखने के लि‍ए ' mohalla Live' पर पढ़ें )

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