शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

'भूमंडलीकरण और ग्‍लोबल मीडि‍या' पुस्‍तक अंश,लेखक जगदीश्‍वर चतुर्वेदी,सुधा सिंह- 'मनोरंजन में अपराध '

मीडिया और मानवता के रिश्ते की खोज पर बहुत कुछ लिखा गया है।किंतु मीडिया और अमानवीयता के संबंध की अमूमन अनदेखी की जाती है। मीडिया में खासकर समाचार चैनलों की विशेषता है कि वे चाहें तो जरूरी को गैर-जरूरी और और गैर जरूरी को परमावश्यक बना सकते हैं। समाचार चैनलों में इन दिनों यह खूब हो रहा है। अपराध की खबरों के नाम पर अपराधियों का महिमा-मंडन चल रहा है और निरपराध लोगों पर चैनल अपनी तरफ से खबरों के जरिए मुकदमा चला रहे हैं। स्थिति यह है कि दैनन्दिन अदालती सुनवाई को भी चैनल कवरेज दे रहे हैं। इस तरह की खबरों में खबर की बजाय उत्पीड़न और सामाजिक कष्ट देने का भाव ज्यादा है। इससे मीडिया और व्यक्ति के अन्तस्संबंध से जुड़े अनेक सवाल उठ खड़े हुए हैं। क्या मीडिया को किसी अपराध के बारे में समानान्तर प्रचार अभियान के माध्यम से हस्तक्षेप करने का हक है ? किसी भी व्यक्ति के लिए यह संभव नहीं है कि वह मीडिया में जारी प्रचार अभियान का रोज प्रत्युत्तर दे। साथ ही यह भी देखना होगा कि अपराध खबरों की प्रस्तुति के बारे में मीडिया की क्या भूमिका होनी चाहिए।

इन दिनों विभिन्न चैनलों से अपराध खबरों का ज्यादा से ज्यादा प्रसारण हो रहा है। यह प्रवृत्ति अभी तक दैनिक अखबारों में थी। किंतु अब टेलीविजन चैनलों ने इसे अपना लिया है। सामान्य तौर पर प्रेस अपराधी तत्वों के महिमामंडन से दूर रहा है। किंतु राजनीतिक और आर्थिक अपराधियों के महिमा-मंडन में लिप्त रहा है।इसके विपरीत समाचार चैनलों की खबरों में वस्तुगत प्रस्तुति के बहाने अपराधियों और अपराध कर्म का महिमा मंडन चल रहा है। चैनलों में दो तरह की प्रवृत्तियां दिखाई दे रही हैं। पहली प्रवृत्ति है तथ्यपरक रिपोर्टिंग की। दूसरी प्रवृत्ति है अपराधकर्म को सस्पेंस और रसीला बनाकर पेश करने की। दूसरी प्रवृत्ति के तहत चैनलों में पुरानी किसी घटना का जीवंत या नाटकीय रूपायन दिखाया जाता है। इस तरह की प्रस्तुतियों में अपराध को व्यापकता प्रदान की जाती है। अमेरिकी पुलिस की सजगता,चुस्ती,मुस्तैदी पर जोर रहता है।

इसके विपरीत अपराध की तथ्यपरक रिपोर्टिंग के नाम पर आजतक,सहारा समय,एनडीटीवी आदि चैनलों में अपराध खबरें सामाजिक प्रभाव के बारे में सोचे बगैर दिखाई जा रही हैं। इन चैनलों से अपराध खबरें इस तरह पेश की जा रही हैं जिससे यह लगे कि अपराध आम जीवन का सामान्य अंग है। खबरों में साधारण और असाधारण अपराध में फ़र्क नहीं किया जा रहा। इन्हें आम खबर के रूप में पेश किया जा रहा है। जबकि अपराध की खबरें आम खबर की कोटि में नहीं आतीं। सभी अपराध और अपराधी समान नहीं होते। ध्यान रहे किसी अपराधी का महिमा-मंडन उसकी छवि को सुधार देता है। साथ ही अपराध के प्रति आम जनता में अपराध विरोधी चेतना को कुंद कर देता है। डब्ल्यू.आई.थॉमस ने 'पीत पत्रकारिता का मनोविज्ञान' नामक पुस्तक में अपराध खबर के बारे में लिखा ये पाप और अपराध के सकारात्मक एजेण्ट हैं। नैतिकता की अवस्था,मानसिकता आदि के संदर्भ में समाज इनके अनुकरण्ा पर निर्भर करता है। जनता इनसे खूब प्रभावित होती है।अपराधी का नाम यदि किसी ग्रुप से जुड़ा हो और मीडिया उसका प्रचार कर दे तो उससे अपराधी को मदद मिलती है। इसी तरह किसी अपराधी गिरोह का सरगना मारा गया और उसकी जगह नए मुखिया की नियुक्ति की खबर से भी अपराधी को बल मिलता है। अपराध खबरों के प्रसारण या प्रकाशन के बारे में मीडिया का तर्क है कि अपराध खबरों को छापकर वह जनता और कानून को सचेत करता है। इस संदर्भ में पहली बात यह है कि शांत और नियमित माहौल में ही अपराध खबरें सचेत करती हैं। अशांत माहौल में असुरक्षा पैदा करती हैं।

आम तौर पर टेलीविजन में जो अपराध खबरें आ रही हैं उनमें अपराधी के व्यवहार को रोमांटिक रूप में पेश किया जा रहा है। इनमें अपराधी ने जो मैथड अपनाया उस पर जोर रहता है। अपराध को नियंत्रित करने वाली मशीनरी की तीखी आलोचना रहती है अथवा उसके निकम्मेपन पर जोर रहता है। मजेदार बात यह है कि अपराध के बारे में बताया जाता है,गिरफ्तारी के बारे में बताया जाता है किंतु दण्ड के बारे में नहीं बताया जाता। अपराध खबरों में जब सरकारी मशीनरी पर हमला किया जाएगा तो इससे अपराधी को बल मिलेगा।अपराधी ताकतवर नजर आएगा।अपराध के मैथड बताने से अनुकरण को बल मिलता है। अपराध खबरों के प्रसारण के पीछे यह दर्शन संप्रेषित किया जाता है कि अपराध से कोई लाभ नहीं। इस परिप्रेक्ष्य में पेश की गई खबरों में यह भाव निहित होता है कि 'यह सामान्य बात है और दण्ड मिलेगा ही।' अपराध खबरों के बारे में यह ध्यान रखें कि आनंद या भूलवश किए गए अपराध का प्रसारण नहीं किया जाना चाहिए।साथ ही 'इफेक्ट' और 'इफेक्टिवनेस' के बीच अंतर किया जाना चाहिए।

हिंसा और अपराध की खबरों के बारे में सभी एकमत हैं कि इसका तीव्रगति से असर होता है। अपराध खबरों का असर व्यक्तिगत न होकर सामाजिक होता है। इससे आक्रामकता और प्रतिस्पर्धा में वृध्दि होती है। टेलीविजन समाचारों के आने के बाद से समाचार के क्षेत्र में क्रांति आई है।जल्दी और ताजा खबरों की मांग बढ़ी है।फोटो का महत्व बढ़ा है। स्वयं को देखने,सजने,संवरने और ज्यादा से ज्यादा मुखर होने की प्रवृत्ति में इजाफा हुआ है। व्यक्तिवाद में वृध्दि हुई है।व्यक्ति की हिस्सेदारी बढ़ी है। किंतु इसके साथ-साथ खबरों को छिपाने या गलत खबर देने की प्रवृत्ति में भी वृध्दि हुई है। खासकर मानवाधिकारों के हनन की खबरों को छिपाने के मामले में टेलीविजन सबसे आगे है। टेलीविजन खबरों का जिस तरह स्वरूप उभरकर सामने आया है उससे यह बात सिध्द होती है कि टेलीविजन खबरों का प्रेस की तुलना में खबरों को छिपाने के लिए ज्यादा इस्तेमाल हो रहा है।टेलीविजन को नियंत्रित करना ज्यादा सहज और संभव है।खबरों में निरंतरता जरूरी है।प्रेस आम तौर पर निरंतरता के तत्व का ख्याल रखता है किंतु टेलीविजन ऐसा नहीं करता।बल्कि निरंतरता के तत्व का वह चुनिंदा मामलों में ही ख्याल रखता है। समाचार चैनलों में इन दिनों सनसनीखेज खबर बनाने या फिर खबर छिपाने का चक्र चल रहा है। इसके कारण सबसे ज्यादा उन्हें क्षति पहुँच रही है जो अपने अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। अपने जायज अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं।समाचार चैनलों में गैर जरूरी सवालों पर ज्यादा ध्यान देने से ऑडिएंस के अ-राजनीतिकरण की प्रक्रिया को बल मिलता है। चैनल खबरों के इतिहास में नहीं जाते और न सही खबरों का चयन करते हैं। नया दौर खबर का नहीं मनोरंजक खबरों का है।

अब हम ब्रेकिंग न्यूज में ज्यादा रूचि लेने लगे हैं।इसी तरह अप्रत्याशित खबरों पर ज्यादा जोर है। ये दोनों ही प्रवृत्तियां इंटरनेट में भी हैं। वहां इन दोनों प्रवृत्तियों के अलावा खबर को निरंतर अपडेट करने की प्रवृत्ति भी देखी जा सकती है। वहां समय का कोई दबाव नहीं होता। कोई डेडलाइन नहीं है। किसी भी किस्म की अस्पष्टता नहीं है। खबरों या मीडिया में पहले भी प्रतिस्पर्धा थी। किंतु इंटरनेट के आने के बाद प्रतिस्पर्धा ने एकदम नया आयाम ग्रहण कर लिया है। खासकर हाइपर टेक्स्ट की संरचना ने प्रतिस्पर्धा को नई बुलंदियों तक पहुँचा दिया है। हाइपर टेक्स्ट के युग में पाठक के हाथ में सत्ता आ गई है। हाइपर टेक्स्ट खुला,अस्थायी और इसका डिजाइन परिवर्तनीय होता है। हाइपर टेक्स्ट नेटवर्क में होता है। वहां एकाधिक दृष्टिकोण देखने को मिलते हैं। उसमें एक कहानी के अनेक परिप्रेक्ष्य होते हैं। हाइपर टेक्स्ट प्रतिस्पर्धी वर्णन ,विवरण और ब्यौरों को सामने लाता है। यहां किसी घटना का न तो समाधान मिलेगा और न आप अस्वीकार ही कर सकते हैं बल्कि आप पाते हैं कि पाठक की समझ निरंतर गहरी हो रही है। इसके अलावा हाइपर टेक्स्ट अंतर्विरोधों का उद्धाटन करता है। चीजें वहां खण्ड रूप में आती हैं। बहुलतावाद को बनाए रखता है। उसका 'सत्य' पर जोर नहीं है। 'सत्य' की खोज करना तो प्रेस का लक्ष्य था। इसके विपरीत उसका उत्तर आधुनिकों की तरह यह मानना है कि यथार्थ का एक रूप नहीं होता बल्कि यथार्थ के एकाधिक रूप हो सकते हैं। एकाधिक व्याख्याएं हो सकती हैं। नयी मीडिया तकनीकी पाठक को शिरकत का मौका देती है। हाइपर टेक्स्ट ने पाठक के लिए इच्छा और अभिरूचियों का जनतंत्र पेश किया है। हाइपर टेक्स्ट के लिए पाठक उपभोक्ता नहीं है बल्कि सहभागी है। अब रिपोर्टिंग और लेखन से ध्यान हट जाता है। वैविध्यपूर्ण सूचनाओं के विकास और डिजायन पर जो दिया जाने लगता है।

नई मीडिया तकनीकी ने कई अभूतपूर्व कार्य किए हैं।इसने सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के देशों में समाजवाद को ध्वस्त करने में अग्रणी भूमिका अदा की है।ईरान में राजशाही के खात्मे और खोमैनी के आगमन, चीन में जनतंत्र की मांग और सारी दुनिया में आतंकवाद के उभार में नई मीडिया तकनीकी की सक्रिय भूमिका रही है। इसी तरह इण्डोनेशिया में सुहार्तो के शासन के खात्मे ,पूर्वी तीमूर की मुक्ति,अनेक देशों में जनसंहारों के उद्धाटन में सक्रिय भूमिका रही है। कहने का अर्थ यह है कि नई मीडिया तकनीकी अंतर्विरोधी है। इसका मूल झुकाव जनतंत्र और समानता की ओर है। इसे वर्चस्व और अन्याय से नफरत है। इसने नागरिक को नए सिरे से शक्ति संपन्न बनाया है। सतह पर देखें तो समाज में सूचनाओ की बाढ़ आई हुई है। साथ यह भी सच है कि पाठक जागरूक हुआ है ,वह तथ्यपूर्ण सूचना और निरर्थक सूचना या ध्यान हटाने वाली सूचना में फर्क करना सीख गया है। सारे परिवर्तनों के बावजूद ज्यादातर लोग आज भी सत्य के पक्ष में खड़े हैं। इन दिनों तथ्य की बजाए एपीयरेंस या दिखने पर जोर दिया जा रहा है। किसी भी व्यक्ति की प्रभावशीलता का पैमाना यह है कि वह मीडिया में कितना नजर आता है। अब मीडिया में दिखना मुख्य है तथ्य मुख्य नहीं है। इसके कारण जनतंत्र की अंतर्वस्तु का क्षय हुआ है। जनतंत्र का विकास दिखने से नहीं होता। सूचना के स्रोत हमारे नागरिक के चेहरे को ज्यादा विकसित नहीं करते। संयुक्त प्रयासों को कम से कम जगह दी जा रही है। इन दिनों व्यक्तिगत प्रयासों का बोलवाला है। टीवी, रेडियो, और इंटरनेट ने सरलता और उपलब्धता इन दो तत्वों का जिस तरह विकास किया है उसने जनतंत्र के लिए गंभीर संकट पैदा कर दिया है। सरलता और उपलब्धता के कारण घृणा और सामाजिक विखंडन के प्रचारकों और पोर्नोग्राफी की मीडिया में चांदी हो गई है। उन्हें सबसे ज्यादा कवरेज मिल रहा है। यह भी कह सकते हैं कि घृणा के बयानों और पोर्नोग्राफी का लोकतांत्रिकीकरण हुआ है। घटिया अंतर्वस्तु मुखर हो उठी है। उसे वैधता मिल रही है। एक जमाना था कि घटिया सामग्री छापने से पत्र-पत्रिकाएं परहेज करती थीं किंतु इन दिनों मामला ही कुछ और है। अब इसे सहज ही परोसा जा रहा है। संगीत के गीत,फिल्म,वीडियोगेम, हिंसा और पोर्नोग्राफी का महिमामंडन चल रहा है। इनके सबसे ज्यादा यूजर हैं। ये सहज उपलब्ध हैं।इनमें परोसी जाने वाली सामग्री में स्त्रियों और बच्चों पर होने वाले कामुक हमलों,परपीडक और नस्ली हिंसा या घृणा पैदा करने वाली कॉमेडी ,सरकार के खिलाफ हिंसा, अल्पसंख्यकों और यहूदियों के प्रति घृणाभाव कॉमन चीजें हैं। आज ये सब चीजें नए और पुराने मीडिया रूपों में सहज रूप में उपलब्ध हैं। अनेक देशों में खासकर रवाण्डा और बोसनिया में इस तरह की सामग्री को जनसंहारों के लिए इस्तेमाल किया गया है। तथ्यों का मीडिया में सुचिंतित तरीके से विकृतिकरण्ा हो रहा है। खबरों या मुद्दों का चयन ,खासकर राजनीतिक खबरों और मुद्दों का चयन इस आधार पर हो रहा है कि आखिरकार इससे किस राजनीतिक दल को लाभ या हानि होगी। खबरों या मुद्दों के चयन का यह सबसे घटिया मानदण्ड है।इससे यह भी पता चलता है कि जब हमें ज्यादा से ज्यादा वैविध्यपूर्ण सूचनाओं की जरूरत होती है तो पत्रकार अपनी जिम्मेदारी भूल जाते हैं। इन दिनों समाचार चैनलों की खबरों को देखकर लगता है इन चैनलों ने समाचार देने का दायित्व त्याग दिया है। वे छद्म जिम्मेदारी के भाव का प्रदर्शन कर रहे हैं। वे खबरों से ज्यादा मनोरंजक ,नाटकीय खबर में रूचि ले रहे हैं या अफवाह को खबर बना रहे हैं। अब खबरों में स्कैण्डल की खबरें ज्यादा आ रही हैं। गैर स्कैण्डल खबरें कम हो गई हैं। नेटवर्क चल रहे हैं किन्तु खबरें गायब हो गई हैं। पाठकवर्ग की चेतना पर इसका बुरा असर पड़ा है। जनतंत्र और पत्रकारिता के विकास के लिए वास्तव मुद्दों पर खोजी रपटों का महत्व है। उनकी जगह अर्थहीन, गप्पबाजी, स्कैण्डल, अप्रामाणिक खबरें आने लगी हैं। इसका दो रूपों में बुरा असर हो रहा है पहला, इस तरह की खबरों के जरिए ऑडिएंस के समय और ध्यान को नष्ट किया जाता है। साथ ही नीति-निर्धारकों के अनुकूल माहौल बन रहा है। नीति निर्धारकों के कामों को जनता जान नहीं पाती है। फलत: उनके बारे में जनता की कोई राय ही नहीं बन पाती। नीतियों के लिए चैनलों पर समय ही नहीं दिया जाता। जनता का वास्तव मुद्दों से ध्यान हट जाता है। दूसरा दुष्प्रभाव यह होता है कि स्कैण्डलों का व्यापक कवरेज सरकार की जनता के प्रति जिम्मेदारी को कम कर देता है। साथ ही जनता की नजर सरकार की जिम्मेदारी की तरफ नहीं जाती। चर्चित व्यक्तित्वों और स्कैण्डलों को दिखाने का यह अर्थ नहीं है कि मीडिया जनता की सेवा कर रहा है।

मीडिया में सुनियोजित ढ़ंग से मनोरंजकमूलक खबरें पेश की जा रही हैं।हिंसा और स्कैण्डल खबरों की तलाश हो रही है। इस तरह की खबरें सारवान राजनीतिक खबरों की कीमत पर पेश की जा रही हैं।सारवान् राजनीतिक विमर्श एकसिरे से नदारत है। चैनलों की जनतंत्र की खबरों में कम और चर्चित व्यक्तित्व और अपराध और सेक्स की खबरों में ज्यादा दिलचस्पी हो गई है। इस प्रक्रिया में जनहित की खबरें घट गई हैं।हम नहीं जानते कि हमारी सरकार क्या कर रही है ? जो कर रही है उसके राजनीतिक निहितार्थों के बारे में समाचार चैनलों ने विमर्श बंद कर दिए हैं। वे सिर्फ एक ही नजरिए को पेश कर रहे हैं। कभी दृष्टिकोणगत भिन्नता को पेश नहीं करते। अब सिर्फ आधी-अधूरी राजनीतिक खबरें या चटखारेवाली या उन्माद पैदा करने वाली खबरें होती हैं। इसके कारण साधारण जनता में अ-राजनीतिकरण बढ़ा है। आम आदमी सोचने लगा है कि राजनीतिक व्यवस्था का उससे नहीं किसी अन्य से संबंध है। राजनीतिक व्यवस्था उनकी वास्तविक जरूरतों का हिस्सा नहीं है। कायदे से अपराध और हिसा की खबरें तब ही पेश की जाएं जब वे जनता के हित में हों। किंतु निजी त्रासदी, आत्महत्या, व्यक्तिगत मुकदमे, परिवार के झगड़े या हिंसा आदि की खबरें तुरंत पेश कर दी जाती हैं।

ग्लोबलाइजेषन का टेलीविजन के बिना प्रसार संभव नहीं है। चैनलों के आंतरिक स्वरूप की खूबी है विखंडन का आनंद। कहीं समाचार प्रसारित हो रहे है। कहीं सीरियल,कहीं फिल्म,कहीं खेल,कहीं महिला कार्यक्रम,कहीं बच्चों के कार्यक्रम,कहीं राष्ट्रीय खबरें,कहीं अंतर्राष्ट्रीय खबरें,यानी चैनलों में कार्यक्रमों की विविधता सामान्य लक्षण है। यह विविधता किसी एक चैनल के स्वरूप में भी हो सकती है। गंभीरता से देखें तो एक कार्यक्रम दूसरे कार्यक्रम से एकदम असंबध्द और भिन्न परिप्रेक्ष्य को व्यक्त करता हुआ। कार्यक्रमों में असंबध्दता के कारण बोरियत का अहसास नहीं होता। आनंद की सृष्टि होती है। देखने का आकर्षण और उत्सुकता बनी रहती है। दूसरी विशेषता यह है कि समाचार चैनलों को संकट और तनाव पसंद है। जहां तनाव और संकट है वहां की खबरें सबसे पहले आती हैं। इस तरह की खबरें ज्यादा से ज्यादा ऑडिएंस देती हैं। विज्ञापन दिलाती हैं। यदि सामान्य तौर पर तनाव और संकट की खबरें नहीं आतीं तो चैनल उनका निर्माण करते हैं। इन दोनों ही अवस्थाओं में घटना या खबर का महत्वपूर्ण पक्ष गायब रहता है।

समाचार चैनलों की बुनियादी विशेषता है ग्लोबलाइजेषन का समर्थन करो। खबरों और समस्याओं से यदि ग्लोबलाइजेशन का संबंध है तो उसे छिपाओ। टेलीविजन स्थानीय भाषा में कार्यक्रम देते हैं। किंतु उनका दृष्टिकोण हमेशा ग्लोबल होता है। ग्लोबल नजरिए के बिना न तो खबरें होती हैं और नहीं मनोरंजन कार्यक्रम होते हैं। वोट की राजनीति नाटकीयता और गैर जरूरी मुद्दों पर चल रही है। ग्लोबलाइजेशन जहां भी गया है उसने नागरिक की पहचान खत्म की है। यहां भी चैनल यही कर रहे हैं। चुनाव में जब भी भ्रष्टाचार का मुद्दा वोट या विमर्श का आधार बनेगा आम जनता को इससे कुछ नहीं मिलेगा। बल्कि अ-राजनीतिकरण की प्रक्रिया तेज होगी। अ-राजनीतिकरण से फासीवादी राजनीति को सबसे ज्यादा लाभ होता है। भ्रष्टाचार, आरक्षण, स्थानीयतावाद स्वभाव से अ-राजनीति की राजनीति की देन हैं। ग्लोबल संस्कृति में अल्पसंख्यक गायब रहते हैं। वास्तव मसले गायब रहते हैं। अस्मिता के पुराने रूप हावी रहते हैं। ग्लोबल संस्कृति गैर- महत्वपूर्ण को महत्वपूर्ण और महत्वपूर्ण को महत्वहीन बनाती है।

संदर्भहीनता टेलीविजन खबरों का प्रधान लक्षण है।संदर्भों से काटकर राजनीति, कानूनी, सांस्कृतिक,सामाजिक सवालों और खबरों को पेश करना टेलीविजन खबर का प्रमुख फिनोमिना है।टेलीविजन खबरों को जो लोग स्वयं प्रमाण मानकर चल रहे हैं वे भूल जाते हैं कि संदर्भहीन खबरों की प्रस्तुति से फासीवादी मानसिकता तैयार होती है। फासीवाद को संदर्भ और खासकर ऐतिहासिक संदर्भ में चीजों,वस्तुओं,घटनाओं और विचारों को देखने से सख्त नफरत है। टेलीविजन अपनी खबरों में संदर्भहीनता के तत्व का सबसे ज्यादा प्रयोग करता है।

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