शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

वि‍कास, भूमंडलीकरण और दृश्‍यों का मायालोक

पश्चिम बंगाल से लेकर राजस्थान तक विकास का प्रश्न केन्द्रीय प्रश्न बन गया है। अब विकास एक उद्योग है। बल्कि सबसे बड़ा उद्योग है। व्यापार है। विकास का अर्थ सामाजिक कल्याण नहीं है। देश का विकास प्रदेश के विकास से अभिन्न रूप से जुड़ा है। यह धारणा अब किसी काम की नहीं रही, नयी परिस्थितियों में विकास का सवाल क्षेत्रीय शक्ल ग्रहण कर चुका है। अब प्रतिस्पर्धा का राज्यों पर भी असर हो रहा है। किसी भी प्रदेश को किस पध्दति से और किन क्षेत्रों में विकास करना है यह फैसला अब केन्द्र का नहीं होगा बल्कि इसके लिए मुख्य प्रयास राज्य को ही करने होंगे। केन्द्र का काम नीति निर्माता का है।

पहले केन्द्र उद्योगों की स्थापना के बारे में फैसले लेता था किंतु नव्य-उदारतावाद ने राज्यों को नया अवसर प्रदान किया है। राज्यों के नेता पहले केन्द्र के रहमो-करम पर जिंदा थे आज उन्हें उद्योगों के निर्माण के लिए राज्य स्तर पर फैसले लेने पड़ते हैं। परवर्ती पूंजीवाद के कारण आज नीतियों के क्षेत्रीय विकल्पों की ओर ध्यान दिया जा रहा है। यहां तक कि कम्युनिस्ट पार्टियां भी राज्य विशेष की परिस्थितियों के लिहाज से नीतिगत भिन्नता के मार्ग पर चल रही हैं।

देश में पूंजीवादी विकास का चरित्र एक जैसा नहीं है। राजनीतिक माहौल एवं राजनीतिक चेतना एक जैसी नहीं है। राजनीतिक और सामाजिक संतुलन भी एक जैसा नहीं है। इसलिए विकास के एक नहीं अनेक परिप्रेक्ष्य और प्राथमिकताएं होंगी। सवाल यह है कि विकास का रास्ता कौन तय करेगा ? आज के दौर में विकास का रास्ता न तो केन्द्र तय कर रहा है और राज्य तय कर रहा है बल्कि विश्व व्यापार संगठन और अंतर्राष्ट्रीय वित्ताीय संस्थान तय कर रहे हैं। विश्व व्यापार संगठन की संरचना का हिस्सा बनने के बाद से हम अभिशप्त हैं उन तमाम नीतियों और सुझावों को मानने के लिए जो अंतर्राष्ट्रीय मंचों से दिए जा रहे हैं।

विकास आज सबसे ज्यादा लाभप्रद व्यापार है। अनेक संस्थान हैं जो विकास के बारे में ही सुझाते रहते हैं और मोटी कमाई कर रहे हैं। विकास का नया दौर किसानों के लिए तबाही का मंज़र लेकर आया है साथ ही निहित-स्वार्थी तत्वों के लिए राजनीतिक अवसरवाद की रोटियां सेंकने का अवसर भी लेकर आया है। आज आश्चर्यजनक ढंग से सभी राजनीतिक दलों की किसानों के प्रति सहानुभूति है। इसके बावजूद किसान की बर्बादी जारी है। 'सेज' के नाम पर किसानों की जमीन को जिस तरह औने-पौने दामों पर हासिल किया जा रहा है और उन्हें बाजार की शक्तियों के हवाले कर दिया गया है उसने नए सामाजिक और राजनीतिक संकट को जन्म दिया है। सेज के यदि सभी प्रस्तावों को लागू कर दिया जाता है तो तकरीबन 40 करोड़ किसानों के सामने विस्थापन की समस्या उठ खड़ी होगी। इन्हें कृषि शरणार्थी कहना ज्यादा समीचीन होगा। विश्व बैंक के एक अध्ययन के अनुसार सन् 2015 तक तकरीबन 40 करोड़ किसान इच्छा या अनिच्छा से विस्थापित हो सकते हैं। सन् 2020 तक तमिलनाडु के 70 फीसद, पंजाब के 65 फीसद और यू.पी. के 55 फीसद किसान विस्थापित होकर शहरों की ओर आ जाएंगे।

केन्द्र सरकार ने कृषि के संदर्भ में जिस तरह के नीतिगत प्रयास शुरू किए हैं उनके कारण किसानी का प्रचलित तरीका बदल जाएगा ,अब किसानी के क्षेत्र में इजारेदार कंपनियां दाखिल हो रही हैं। जिस तरह नौकरी के क्षेत्र में कांट्रेक्ट के आधार पर नौकरियां दी जा रही हैं, ठीक वैसे ही कांट्रेक्ट के आधार पर खेती की प्रथा का जन्म हो चुका है। किसानों को ज्यादा से ज्यादा रसायनों और खाद के इस्तेमाल के जरिए ज्यादा से ज्यादा उत्पादन के लिए प्रेरित किया जा रहा है। उम्मीद की जा रही है कि भविष्य में खेती में 20 फीसद ज्यादा खाद और रसायनों का उपयोग बढ़ जाएगा। इससे खेती तो ज्यादा होने लगेगी किंतु पानी के स्रोत तेजी से कम होने लगेंगे। जो लोग सोच रहे हैं कि कृषि के अंदर कांट्रेक्ट प्रथा के आने से किसान का भला होगा और उसकी बर्बादी रुकेगी,वे गलती पर हैं। किसान की इस प्रक्रिया में पामाली बढ़ेगी। किसानों में किसानी को छोड़ने का रूझान तेजी पकड़ेगा।

जो लोग समझते हैं कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां अथवा देशी इजारेदार कंपनियां किसानों की हमदर्द हैं उन्हें इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए कि उत्तारी अमरीका और यूरोप में किसानों का बड़ा हिस्सा इस तरह की नीतियों से प्रभावित हुआ है। अकेले अमरीका में सात लाख किसान परिवारों ने किसानी छोड़ दी है। यूरोप में बड़े पैमाने पर किसानों को सब्सीडी देने के बावजूद प्रति मिनट एक किसान किसानी छोड़ रहा है। ठीक यही नुस्खा भारत में लागू किया जा रहा है। योजना आयोग के आंकड़ों के अनुसार 73 फीसद उपजाऊ जमीन 23.6 फीसद किसानों के पास है। केन्द्र सरकार की नयी नव्य-उदारतावादी नीतियों के कारण लगातार किसान अपनी जमीन से बेदखल हो रहे हैं, यह बेदखली सेज, फूड प्रोसेसिंग क्षेत्र ,टैक्नोलॉजी पार्क, अथवा भवन निर्माण के लिए कृषि जमीन के अधिग्रहण के कारण हो रही है। इस प्रक्रिया में जमीन का साधन सम्पन्नों के हाथों केन्द्रीकरण बढ़ा है। अब मुख्यमंत्री की भूमिका प्रोपर्टी डीलर की होकर रह गयी है। आज खाद्य आत्मनिर्भरता और खाद्य सुरक्षा मूल चिंता नहीं है।

केन्द्र सरकार ने एनएसएसओ के सर्वे का नंगई के साथ प्रमाण के तौर पर सहारा लिया है। यह अध्ययन बताता है कि भारत के चालीस फीसद किसान स्वेच्छा से अपनी जमीनें बेचना चाहते हैं। किसानी छोड़ना चाहते हैं। अत: किसानों के लिए पुनर्वास नीति की आवश्यकता है। सच यह है कि भारत का विकास कृषि व्यवस्था को चौपट करके अर्जित नहीं कर सकते। व्यापक स्तर पर किसानों को विस्थापित करने से भयानक सामाजिक संकट पैदा हो जाएगा। आश्चर्य की बात यह है कि सेज नीति के तहत केन्द्र लगातार विशेष आर्थिक क्षेत्रों के निर्माण की स्वीकृति दे रहा है किंतु इस सबका सामाजिक पर्यावरण और ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर क्या असर होगा। इसके बारे में हमने अभी तक सोचा नहीं है। जबकि हमारा सामाजिक पर्यावरण और ग्रामीण अर्थव्यवस्था पहले से ही संकटग्रस्त है। पानी का संकट है,जंगलात के नष्ट होने का संकट है। नाले जाम पड़े हैं। पर्यावरण प्रदूषण का संकट है। हम पहले से ही इन तमाम संकटों में घिरे हुए हैं ,शहरों में प्रदूषण चरम पर है, शहरों में झुग्गी-झोंपडियों के लिए जगह नहीं बची है। शहरों में जितने लोग घरों में रहते हैं उससे ज्यादा सड़कों,गंदी बस्तियों में रहते हैं। ऐसे में सेज के प्रकल्प तबाही के अलावा और कुछ लेकर नहीं आएंगे।

परवर्ती पूंजीवाद का सांस्कृतिक परिणाम यह निकला है कि उसने त्रासदी के विमर्श को ,मुक्ति के विमर्श को संस्कृति के बाहर खदेड़ दिया है। अब संस्कृति के सवाल वे ही नहीं हैं जो सन् 1960 के पहले हुआ करते थे। 1960 के बाद से सारी दुनिया में परवर्ती पूंजीवाद का जो सांस्कृतिक चक्र चला है उसकी प्रमुख संवृत्तियों को हमें ज़ेहन में रखना होगा। हमारे समाज की दिक्कत यह है कि परवर्ती पूंजीवाद के औद्योगिक पहलू पर तो कभी-कभार प्रतिवाद के स्वर सुनाई भी दे जाते हैं किंतु संस्कृति के सवालों पर तो कोई प्रतिवाद दिखाई ही नहीं देता। हमने यह मान लिया है संस्कृति के क्षेत्र में सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा है। परवर्ती पूंजीवाद ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी है जिसमें सामान्यतौर पर औद्योगिक उत्पादन संभव नहीं हो पा रहा है। सामाजिक उत्पादन निरंतर समस्यामूलक और कीमती होता चला जा रहा है।

परवर्ती पूंजीवाद के अनुरूप वैकल्पिक सामाजिक संरचनाओं और सामाजिक संबंधों को हम अभी तक निर्मित नहीं कर पाए हैं। हमने औद्योगिक विकास और संस्कृति के अन्तस्संबंध को स्वीकार नहीं किया है। उस दिशा में प्रयास नहीं किए हैं। परवर्ती पूजीवाद में जो औद्योगिक संकट दिखायी दे रहा है अथवा तनाव या अन्तर्विरोध दिखाई दे रहा है उसका प्रधान कारण है संस्कृति और आर्थिक विकास के रिश्ते का टूट जाना। संस्कृति के रूपों के निर्माण के जरिए ही अनुकूल माहौल बनाया जा सकता है। हम अभी भी पुराने किस्म की सांगठनिक संरचनाओं, काम की पध्दतियों और पुराने वातावरण में जी रहे हैं। नए वातावरण के निर्माण की जरूरत महसूस ही नहीं करते। काम की नयी पध्दति,नए उपकरण,नयी सांगठनिक संरचनाएं और संस्कृति के नए रूप ही हमें विकास के नए मार्ग पर सफलता के साथ आगे ले जा सकते हैं। इस दिशा में कदम बढ़ाने से सिर्फ वे ही लोग डरते हैं जो समाज को बदलना नहीं चाहते।

जिन लोगों की समाज परिवर्तन में दिलचस्पी है। सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रतिबध्द हैं उन्हें नए से परहेज नहीं करना चाहिए, खासकर काम करने, सामाजिक विकास करने, सामाजिक संप्रेषण की गति को तेज करने, ज्यादा संवाद करने और संचार को सस्ता और जनसुलभ बनाने और तेज गति के वाहनों के चलने लायक रास्ते अथवा हाईवे बनाने के काम को सर्वोच्च वरीयता देनी चाहिए। ध्यान रहे संचार और परिवहन के नए साधनों के उदय के साथ ही आधुनिकाल आया था, रैनेसां आया था। आधुनिकता की तमाम उपलब्धियां हासिल की थीं, किंतु एक अवस्था के बाद समाज आधुनिकता की रूढ़ियों का दास बनकर रह गया। परवर्ती पूंजीवाद उन तमाम बेड़ियों,बंधनों, आदतों, संस्कार, राजनीतिक सवालों, नीतिगत धारणाओं और संचार उपकरणों को नए के जरिए अपदस्थ करता है। यह अपदस्थीकरण समाहित और अप्रासंगिक बनाने का काम एक ही साथ करता है।

परवर्ती पूंजीवाद की केन्द्रीय सांस्कृतिक समस्या है संस्थानों का उत्पादन और पुनर्रूत्पादन। इसके बीच में संपर्क,संबंध और सामूहिक अभ्यास की प्रक्रिया पैदा होती है। नए किस्म का सामूहिक कार्य संयोजन होता है। हमें देखना होगा कि परवर्ती पूंजीवाद के लिहाज से हमारे शिक्षा संस्थान सही उत्पादन और पुनर्रूत्पादन कर रहे हैं या नहीं ? ध्यान रहे संस्कृति का मूलाधार हैं शिक्षा संस्थान। शिक्षा संस्थानों की संस्थानगत उत्पादन और पुनर्रूत्पादन की भूमिका को हम जब तक परवर्ती पूंजीवाद के विकास की संगति में नहीं ले आते हैं तब तक हमारी न तो औद्योगिक दशा सुधरेगी और न सांस्कृतिक दशा में सुधार आएगा। हमें सामूहिक काम करने की पध्दति,नीति और सांगठनिक संरचनाओं को बुनियादी तौर पर बदलना होगा। श्रम विभाजन के रूपों में बदलाव लाना होगा। आदतें और संस्कार बदलने होंगे।

परवर्ती पूंजीवाद के सामयिक भारतीय वातावरण की केन्द्रीय विशेषता है ''पुन निजीकरण'' यानी निजीकरण का यह नया दौर है। सरकारी संपत्तियों का निजीकरण हो रहा है और निजी का भी नए ढ़ंग से निजीकरण हो रहा है। सारे विवाद इसी ''पुन: निजीकरण'' के कारण पैदा हो रहे हैं। कुछ लोग यह मानकर चल रहे हैं कि ''पुन निजीकरण'' सार्वजनिक संपत्तिा की लूट है। सार्वजनिक व्यक्तिवादिता का अंत है। सार्वजनिक व्यक्तिवादिता के अंत का अर्थ है पुराने किस्म की सामूहिक व्यक्तिवादिता की विदाई।

परवर्ती पूंजीवाद के चरित्र के लिहाज से पुरानी सार्वजनिक सामूहिकता किसी काम की नहीं है। परवर्ती पूंजीवाद के विकास के लिए नए किस्म की सामूहिकता की जरूरत है। परवर्ती पूंजीवाद के लिए जिस तरह का व्यक्ति चाहिए वह पुराना पूंजीवाद और उसके संस्थान पैदा नहीं कर पा रहे हैं यही वजह है कि शिक्षा में बुनियादी किस्म के परिवर्तनों की मांग पैदा हो रही है। अब तक की शिक्षा नाकाफी प्रतीत हो रही है अथवा अप्रासंगिक लग रही है। परवर्ती पूंजीवाद का नया लक्ष्य है नए व्यक्ति का निर्माण करना और नए स्वचालित उत्पादन और पुनर्रूत्पादन की संरचनाओं का निर्माण करना। नयी सामूहिकता पैदा करना।

'' पुन: निजीकरण'' का लक्ष्य प्रचलित सामूहिकता का संहार करना नहीं है। खासकर उनका भी संहार करना इसका लक्ष्य नहीं है जो इसका विरोध कर रहे हैं। परवर्ती पूंजीवाद की परिस्थितियों के विकल्प के रूप में जितने भी उत्तार आधुनिक विकल्प हमारे सामने आए हैं वे सब अनुदार या कंजरवेटिव विकल्प हैं। हमें परवर्ती पूंजीवाद के संदर्भ में कंजरवेटिव विकल्पों की नहीं पहले से भी ज्यादा उदार विकल्पों की जरूरत है। हमें ऐसे विकल्पों की जरूरत है जो सर्वसत्तावादी रूझानों को नष्ट करें। विखंडनवादी रूझानों को नष्ट करें। नंदीग्राम का विकल्प सर्वसत्तावादी विकल्प है।

परवर्ती पूंजीवाद ने लेखक के सामने यह समस्या पैदा की है कि उसका पुराना लेखन सिस्टम तबाह हो गया है। नए सिस्टम को वह जानता नहीं है अथवा जानना नहीं चाहता है, इस स्थिति का अहसास आसानी से हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं को देखकर लगाया जा सकता है। लेखन की नयी तकनीक के आने के बाद किस तरह के सवाल आ रहे हैं और उन सवालों के क्या समाधान हैं इनके बारे में हिन्दी की पत्रिकाओं में एकसिरे से कुछ भी सामग्री दिखाई नहीं देगी। हमारे लेखक की दशा यह है कि उसके जीवन और लेखन में अभी तक स्वचालितीकरण नहीं आया है, वह बाकी को स्वचालित होते देख रहा है।

वह स्वचालितीकरण पर कुछ नहीं बोला, कम्प्यूटर आया कुछ नहीं बोला, टीवी आया तो थोड़ा सा बकबक की, किंतु अब तो ब्रॉडबैण्ड आ गया है। इंटरनेट आ गया है। कम्प्यूटर पर पढ़ने और लिखने का आम रिवाज चलन में आ गया है। इसके बावजूद वह चुप है। भारतीय समाज और खासकर हिन्दी समाज की चेतना का आलम यह है कि लेखक को अपने अधिकारों खासकर प्रकाशन संबंधी अधिकारों का ज्ञान ही नहीं है। प्रकाशक से लेकर लेखक तक अचेतनता का साम्राज्य है। हम अभी तक संपत्तिा के रूप में दौलत और घर को ही जानते और मानते हैं, किंतु बौध्दिक संपदा के बारे में हमारी चेतना अभी विकसित ही नहीं हुई है।

कल तक किताब मेरे घर में थी, पुस्तकालय में थी, मैं चाहूँ तो दिखाऊँ और चाहूँ तो नहीं दिखाऊँ, किंतु आज ऐसा नहीं है आज किताबें घरों और पुस्तकालय की हदों को लांघकर बाहर इंटरनेट पुस्तकालयों में आ गयी हैं। प्रापर्टी मंहगी हुई है। किंतु बौध्दिक संपत्ति का अवमूल्यन हुआ है। बौध्दिक संपदा के अवमूल्यन का सबसे खतरनाक रूप है कॉपीराइट कानून का उल्लंघन। बौध्दिक संपदा क्षेत्र में सबसे ज्यादा घोटाले हो रहे हैं। पेटेंट के नाम पर सबसे ज्यादा धोखाधड़ियां हो रही हैं। पेटेंट कानूनों को लागू करना असंभव हो गया है। खासकर डिजिटल सूचना में रूपान्तरण की प्रक्रिया तेज होने और इंटरनेट के मालिक के अदृश्य हो जाने के कारण सारा मामला और भी पेचीदा हो गया है। पेंटेट कानूनों को लागू करना मुश्किल हो गया है। संगीत से लेकर किताब तक के मामलों में यह स्थिति देखी जा सकती है। साफ्टवेयर अभिरूचि का जिस गति से विकास हुआ है उसने सबसे ज्यादा सृजन को मूल्यहीन और अरक्षित बनाया है। तकनीकी के क्षेत्र में इतनी तेजी से बदलाव आ रहे हैं कि क्या अनुमति योग्य है और क्या अनुमतियोग्य नहीं है इसका पैराडाइम बदल गया है। सूचना देने और पाने की कीमत में जबर्दस्त गिरावट आयी है। आरंभ में सूचना के लिए कुछ कीमत अदा करनी पड़ती थी किंतु आज ऐसा नहीं है। आज मुफ्त में सूचनाएं उपलब्ध हैं। मु्फ्त में फोन पर बातें कर सकते हैं।

पहले संचार की प्रत्येक तकनीक अपने साथ विधान और कानून लेकर आयी थी, सरकार का काम था अंतर्वस्तु के प्रसार के बारे में कानून बनाना। किंतु इंटरनेट के आने बाद लेखन,पठन और वितरण की समग्र स्वाधीनता का उदय हुआ है। सचमुच में आज हम अभिव्यक्ति की आजादी के दौर में आ गए हैं। आज आप सामान्य सी साक्षरता के आधार पर करोड़ों लोगों तक अपनी बात पहुँचा सकते हैं। इसके लिए आपको अत्यंत कम कीमत अदा करनी पड़ती है।

परवर्ती पूंजीवाद का युग 'मुफ्त अंतर्वस्तु' की उपलब्धता का युग है। यहां अंतर्वस्तु के वितरण में कोई पैसा खर्च नहीं होता। किंतु अंतर्वस्तु के निर्माण में खर्चा जरूर आता है। दिक्कत यह है कि बड़ी कंपनियां रचनाएं चुरा रही हैं। यह विवाद संगीत रचनाओं के इंटरनेट प्रसारण के साथ केन्द्र में आया और अब तो परवर्ती पूंजीवाद ने सृजन चोरी को आम नियम बना दिया है। सृजन चोरी वैसे ही की जा रही है जैसे कोई आपकी कार चुराकर ले जाता है। अथवा कार में से सामान चुराकर ले जाता है।

इंटरनेट कंपनियां कॉपीराइट कानूनों का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन कर रही हैं। जिस तरह अपराध के कारण हजारों लोग प्रतिवर्ष मारे जाते हैं वैसे ही रचना की पाइरेसी अथवा चोरी के कारण हजारों रचनाएं और रचनाकार तबाह हो रहे हैं। आज के दौर की बिडम्बना यह है कि सूचना मुक्त होना चाहती है किंतु संरचनाएं आदमी को भुगतान के लिए मजबूर कर रही हैं। अंतर्वस्तु निर्मित अथवा सृजित करने के लिए फंड की जरूरत है। सवाल यह है कि यह पैसा कहां से आए ? इसके चार संभावित विकल्प हैं , 1. सरकार पैसा दे। 2. छोटे स्तर पर कोई संरक्षण दे, 3. गैर मुनाफाखोर संगठन पैसा दे, 4. कारपोरेट दानदाताओं से पैसा लिया जाए। जब तक आपके पास पैसा नहीं है आप एटोम में अपनी अंतर्वस्तु निर्मित नहीं कर सकते। उसे बाइट्स में तब्दील नहीं कर सकते।

परवर्ती पूंजीवाद के बारे में एक वास्तविकता है कि इसमें इजारेदारियों का केन्द्रीकरण बढ़ा है। इजारेदारियों की संख्या जितनी तेजी से आरंभ में बढ़ी थी, उतनी ही तेजी से विगत पन्द्रह सालों में विलय और खरीद-फरोख्त के जरिए कम भी हुई है। लंबे समय तक इजारेदारियों में अमेरिकी वर्चस्व था किंतु धीरे-धीरे यह वर्चस्व घट रहा है। अन्य विकसित और विकासशील देशों की इजारेदारियां मैदान में आयी हैं। यही स्थिति संस्कृति जगत की भी है। संस्कृति जगत में अमरीकी संस्कृति के वर्चस्व को गंभीर चुनौती मिल रही है। हॉलीवुड को हांगकांग के सिनेमा बाजार ने चुनौती दी है। भारतीय सिनेमा ने नयी ऊँचाईयां हासिल की हैं। पहले सिर्फ हॉलीवुड ही कमा रहा था। किंतु अब ऐसा नहीं है। उपभोग के सबसे बड़े महानगर अमरीका में हुआ करते थे किंतु आज ऐसा नहीं है उपभोग के नए महानगरों का उदय हुआ है। पूंजी के उत्पादन और संचय की नयी आंधी चल निकली है।

परवर्ती पूंजीवाद ने अपने लिए नए संसाधनों को अपने अंदर से खोजा है। इसके कारण पूंजीवाद के खत्म होने की संभावनाएं घट गयी हैं। पहले यही लग रहा था कि पूंजीवाद संकट में है जल्दी ही खत्म हो जाएगा। किंतु पूंजीवाद ने अपने अंदर से नए संसाधनों को खोज निकाला और अपने लिए ईंधन जुटा लिया है। विकास की मौजूदा गति इस तथ्य की ओर ध्यान खींचती है कि जल्द ही पूंजीवाद के खत्म होने की संभावना नहीं है। पूंजीवाद के परवर्ती रूप ने समाज की तकनीकी क्षमताओं का जबर्दस्त विकास किया है। माक्र्स ने जिस तरह के पूंजीवादी उत्पादन को देखकर उसके विस्तार की कल्पना की थी, उसकी तुलना में परवर्ती पूंजीवाद में विस्तार और प्रसार की कई गुना ज्यादा संभावनाएं हैं।

परवर्ती पूंजीवाद के दौर में विकास के बारे में सबसे ज्यादा चर्चाएं हो रही हैं। तरह-तरह के आंकड़े पेश किए जा रहे हैं। विकासदर को विकास के मानक के रूप में पेश किया जा रहा है। यह सच है कि विकास हो रहा है, विकासदर में भी उछाल आया है। सवाल यह है कि किस तरह का विकास हो रहा है। अभी तक विकास का पैमाना अर्थव्यवस्था रही है। अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में तरक्की का अर्थ ही विकास मान लिया गया। संस्कृति के विकास को कभी विकास का मानक नहीं माना गया। सरकारी नीतियों में भी अर्थव्यवस्था के विकास के लिए सबसे ज्यादा धन खर्च किया जाता है। संस्कृति के विकास पर उसकी तुलना में बहुत कम पैसा खर्च किया जाता है।

आर्थिक विकासदर एक अंश है विकास का। यह संभव है विकासदर अच्छी हो और अन्य क्षेत्रों में गरीबी छायी हो अथवा पिछड़े हों। विकास का अर्थ रहा है उत्पादन और उपभोग में वृध्दि। राष्ट्रीय जनसंख्या की तुलना में सकल घरेलू उत्पाद में वृध्दि। सवाल यह है कि सकल घरेलू उत्पाद में वृध्दि के साथ-साथ आम जनता के कल्याणकारी प्रयासों में इजाफा हुआ है या नहीं। भारत के आंकड़े बताते हैं कि हमारी विकासदर में जिस गति से बढ़ोतरी हुई है उसकी तुलना में जनता का आर्थिक कल्याण नहीं हुआ है। सब्सीडी घटी हैं। कल्याणकारी योजनाओं पर सरकारी निवेश घटा है। शिक्षा,संस्कृति और स्वास्थ्य पर निवेश घटा है। किसानों की आत्महत्या की संख्या में उछाल आया है। औद्योगिक तबाही हुई है जिसके कारण लाखों मजदूरों को अपने काम से हाथ धोना पड़ा है। ऐसी स्थिति में यह कैसे कहा जा सकता है कि विकास का नया मार्ग सामाजिक तरक्की और खुशहाली लेकर आया है।

विकासदर में इजाफे के साथ मनोरंजन के अनेक चैनलों और माध्यमों का विकास हुआ है। किंतु क्या इससे सामाजिक आनंद में बढ़ोतरी हुई है ? आज पहले से ज्यादा फिल्में बन रही हैं, कैसेट बन रहे हैं, सीरियल बन रहे हैं, रेडियो चैनल चल रहे हैं, पहले से ज्यादा पत्र-पत्रिकाएं बाजार में हैं। एक तरह से मनोरंजन की बाढ़ आयी हुई है। इससे क्या यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि सामाजिक तौर पर आनंद , मनोरंजन और आराम में इजाफा हुआ है ? आनंद अथवा मनोरंजन के वातावरण में बढ़ोतरी का सबसे बड़ा पैमाना है अंधविश्वास और पूर्वाग्रहों का कम होना। आनंद के विकास से अंधविश्वास और पूर्वाग्रह घटते हैं। किंतु हमने विगत वर्षों में अंधविश्वास और पूर्वाग्रहों की नयी आंधी को अपने बीच देखा है। वह अभी चल रही है। मनोरंजन पूर्वाग्रहों से परे ले जाता है। किंतु परवर्ती पूंजीवादी मनोरंजन में यह क्षमता ही नहीं है कि वह पूर्वाग्रहों से दूर ले जाए। पूर्वाग्रह बढ़े हैं और कल्याणकारी योजनाओं में कमी आयी है। तनाव बढ़ा है।

आज हमारे बीच सूचनाएं बहुत हैं,सूचना के समुद्र में हम तैर रहे हैं। किंतु सूचनाओं के विश्लेषण का अभाव है। हम सूचनाएं जानते हैं ,खबरों के बारे में जानते हैं ,किंतु विश्लेषण नहीं कर पाते। सूचना को सामाजिक तौर पर सक्रिय नहीं कर पाते। सूचना के नाम पर सूचना, खबर के नाम पर सूचना का ढ़ेर अंतत: सूचना को कचरे अथवा ढ़ेर में बदल देता है। इसी अर्थ में यह सूचना का नहीं सूचना के अभाव का युग है। सूचना के कचरे का युग है। अब सूचनाएं सक्रिय नहीं करतीं, खबरें परेशान नहीं करतीं। खबरें जागरूक नहीं बनातीं बल्कि अब प्रत्येक खबर और सूचना स्वयं मनोरंजन होकर आ रही है। सूचनाएं हैं किंतु सारवान सूचनाएं नहीं हैं। खबरे हैं किंतु सारवान खबरें नहीं हैं। जिस तरह जंक फूड खाने में मजा आता है वैसे ही जंक सूचनाएं और जंक खबरें भी अच्छी लगती हैं।

विश्वस्तर पर विकास के नाम पर जितनी तबाही मची है उतनी तबाही युध्दों से नहीं मचायी है। मसलन् अकेले सोवियत संघ में द्वितीय विश्वयुध्द के दौरान भयानक बमबारी से 1941-42 में सकल घरेलू उत्पाद 22 फीसद गिर गया था। किंतु 1994-95 के वर्ष में इसकी तुलना में सोवियत संघ का औद्योगिक उत्पादन 48.8 फीसद तक गिर गया ,जो सकल घरेलू उत्पाद का 44.0 फीसदी बैठता है। ये तो सरकारी आंकड़े हैं। पूर्वी यूरोप के देशों और बाल्कान राज्यों में डीरेगूलेशन के कारण जीवनयापन मंहगा हो गया और पगारें कम हो गयीं। पगारें तकरीबन दस डालर प्रतिमाह हो गयीं। मिशेल चोसूदोवस्की ने लिखा है कि विकास के नाम जो परिवर्तन लाए गए हैं उन्हें ''सामाजिक रंगभेदी शासन'' कहना सही होगा। समाजवादी व्यवस्था का लोप हुआ है,कल्याणकारी राज्य गायब हो गया है। गरीबी बढ़ी है साथ ही अरबपतियों-करोड़पतियों की संख्या में इजाफा हुआ है। अकेले अमरीका में 1982 में 13 खरबपति थे जिनकी 1996 मेंसंख्या बढ़कर 149 हो गयी है। आम लोगों की क्रयशक्ति में गिरावट आई है।

विकासशील देशों में घरेलू बाजार के लिए उत्पादन करने वाली औद्योगिक शाखाओं का एकसिरे से सफाया हो गया है। शहरों में स्थित अनौपचारिक क्षेत्र का सफाया हो गया है। मुद्रा का मूल्य घटा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों का अभूतपूर्व विकास हुआ है। उनके व्यापार में जबर्दस्त उछाल आया है। इस उछाल ने पहले से स्थित उत्पादन तंत्र को अपदस्थ किया है। इससे बहुराष्ट्रीय निगमों के मुनाफों में वृध्दि हुई है। गरीब देशों से लेकर अमीर देशों तक कर्ज का संकट बढ़ा है। कर्ज और उसके ब्याज के भुगतान के कारण स्थिति और भी भयावह हो उठी है। इसने भुगतान का संकट पैदा कर दिया है।

परवर्ती पूंजीवाद की सबसे बड़ी तबाही है उपभोक्तावाद। यह सबसे बड़ी महामारी है। एक अनुमान के अनुसार आज सारी दुनिया में 1.7 बिलियन उपभोक्ता हैं। इनमें आधे के करीब विकासशील देशों में हैं। उपभोक्तावाद के कारण यूरोप,उत्तारी अमेरिका,जापान और अन्य एशियाई देशों के एक हिस्से में इकसार जीवनशैली और मासकल्चर ने पैर फैला दिए हैं। विश्वस्तर पर निजी उपभोग खर्च सन् 2000 में 20 ट्रिलियन डालर आंका गया, सन् 1960 की तुलना में यह चौगुना बैठता है। इसका अर्थ यह भी है इस दौरान आमदनी में भी इजाफा हुआ और उसके कारण उपभोक्ता वस्तुओं की खरीद में भी इजाफा हुआ है। सन् 2003 में 1.12 बिलियन घरों में कम से कम एक टीवी सेट था। इसी तरह 1.1 बिलियन लोगों के पास फिक्स फोन था और 1.1 बिलियन लोगों के पास मोबाइल था। आज इंटरनेट से जुड़े लोगों की संख्या साठ करोड़ से ज्यादा है। अकेले भारत और चीन में दुनिया के बीस फीसद उपभोक्ता रहते हैं। आश्चर्य की बात यह है उपभोक्ता बढ़ रहे हैं किंतु असमानता कम नहीं हो रही।

सारी दुनिया की बारह फीसद जनसंख्या उत्तरी अमेरिका और पश्चिमी यूरोप में रहती है और यह आबादी के सकल उपभोग खर्च का साठ फीसद खर्च करती है। जबकि एक-तिहाई आबादी दक्षिण एशिया और अफ्रीकी देशों में रहती है जो विश्व उपभोग का मात्र 3.2 फीसद ही खर्च करती है। उपभोग में वृध्दि का सबसे ज्यादा असर पर्यावरण पर पड़ा है। हवा और पानी सबसे ज्यादा संकट में हैं। संसार के पर्यावरण स्वास्थ्य में सन् 1970 की तुलना में 35 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है।

उपभोक्ता संस्कृति के विकास की सामाजिक स्तर पर जो कीमत अदा करनी पड़ती है उसके बारे में हम नहीं जानते बल्कि प्रति व्यक्ति कीमत ही जानते हैं। उपभोग की सबसे बड़ी कीमत कर्ज के रूप में अदा होती है। समय और शारीरिक थकान जो होती है वह अलग से। आप जितना ज्यादा उपभोग की वस्तुओं का प्रयोग करेंगे उतना ही ज्यादा आपको उसकी कीमत अदा करनी होगी। उपभोग के तंत्र में एकबार दाखिल होते ही उसके बाहर निकलना संभव नहीं है। प्रतिदिन अपग्रेडेशन करना होता है। रख-रखाव,जीवनशैली आदि को निरंतर दुरूस्त रखना होता है। नये किस्म का उपभोग सफाई, अपग्रडेशन, रख -रखाव आदि के लिए ज्यादा समय की मांग करता है।

समग्रता में उपभोग समय,परिवार और मित्रों को अपदस्थ कर देता है। आक्रामक ढ़ंग से उपभोग का विस्तार सामाजिक स्वास्थ्य के मानकों को गिरा देता है। अनेक देशों में मोटापा, अपराध और अन्य सामाजिक व्याधियों में इजाफा हुआ है। इसके बावजूद यदि हम उपभोग पर फिदा हैं तो इसका श्रेय हाइपर रीयल को जाता है जिसने हमें बाजार के तर्क से बांधा हुआ है।

बाजार के तर्क बगावत के तर्क नहीं होते। बाजार के युग में बगावत नहीं हो सकती। बाजार को अनुयायी पसंद हैं। भरोसेमंद अनुयायी पसंद हैं। यह नए किस्म की मानसिक और आर्थिक गुलामी है जिसका हमने खुशी के साथ चुनाव किया है। हमें आज ऐसे बयानों की जरूरत है जो जिनका हम प्रचार कर सकें और वे अपनी शक्ति प्रदर्शित कर सकें। हमें ऐसे स्कॉलरों की जरूरत है जो अपनी आपत्तिायों के प्रचार के जरिए शिक्षित कर सकें। हमें ऐसी सूचनाएं चाहिए जिनके जरिए सब कुछ कहा जा सके। जिनमें सभी प्रश्नों के उत्तार हों। उसमें उन सवालों के जबाव हों जो पूछे ही नहीं गए और नि:संदेह उन सवालों को कभी उठाया भी नहीं जाएगा।

हमारे समाज में मध्यवर्ग के एक बड़े तबके में फैशन की तरह ग्लोबलाईजेशन का प्रभाव बढ़ा है,सरकार की नीतियों में ग्लोबलाइजेशन का अंधानुकरण चल रहा है,यहां तक कि अब तो वे लोग भी ग्लोबलाइजेशन के पक्ष में बोलने लगे हैं जो कल तक उसका विरोध करते थे,ऐसे विचारकों और राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं की तादाद तेजी से बढ़ रही है, वे यह कह रहे हैं कि पूंजीवाद का अब कोई विकल्प नहीं है,ग्लोबलाईजेशन के तर्कों को मानने के अलावा और कोई विकल्प नहीं हैं। यही स्थिति ग्लोबल मीडिया चैनलों की है, उनके उपभोक्ताओं में किसी भी किस्म का प्रतिवाद का स्वर दिखाई नहीं देता बल्कि उल्टे राजनीतिक हल्कों में ज्यादा से ज्यादा चैनल और अखबार समूहों को अपने राजनीतिक रुझान के पक्ष में करने की होड़ चल निकली है। ग्लोबल मीडिया और ग्लोबलाइजेशन के प्रति इस तरह के रुझान इस बात के संकेत हैं कि भारत में ग्लोबलाईजेशन अपना वैचारिक असर रंग दिखाने लगा है।

ग्लोबलाइजेशन की वैचारिक आंधी में हम भूल गए कि मीडिया विचारधारा मीडिया के बाहर अन्यत्र निर्मित होती है। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि मीडिया का आम जनता पर सुनिश्चित प्रभाव होता है। हकीकत यह है मीडिया सामाजिक यथार्थ के दायरे में काम करता है।प्रसिध्द माक्र्सवादी समाजशास्त्री पीयरे बोर्दिओ का मानना है नव्य-उदारतावाद का मूल लक्ष्य है सामुदायिक संरचनाओं का क्षय और बाजार के तर्क की प्रतिष्ठा। इस तर्क के आधार पर जो विमर्श तैयार किया जा रहा है वह वर्चस्ववादी है। विश्वबैंक ,इकोनामिक कारपोरेशन एंड डवलपमेंट और आईएमएफ जैसी संस्थाओं के द्वारा जो नीतियां थोपी जा रही हैं उनका लक्ष्य है श्रम मूल्य घटाना, सरकारी खर्च घटाना, काम को और भी लोचदार बनाना। यही मौजूदा दौर का प्रधान विमर्श है। यथार्थ में आर्थिक व्यवस्था नव्य-उदारतावाद के यूटोपिया को लागू करने का विमर्श है। इसके कारण राजनीतिक समस्याएं पैदा हो रही हैं।

नव्य-उदारतावादी विमर्श, विमर्शों में से एक विमर्श नहीं है,बल्कि यह 'ताकतवर विमर्श' है। ताकतवर विमर्श इस अर्थ में, यह कठोर है,आक्रामक है,यह अपने साथ सारी दुनिया की ताकतें एकीकृत कर लेना चाहता है। यह आर्थिक निर्णय और चयन को अपने अनुकूल ढाल रहा है। वर्चस्ववादी आर्थिक संबंधों को निर्मित कर रहा है।नए किस्म के चिन्हशास्त्र को बना रहा है। 'थ्योरी ' के नाम पर ऐसी सैध्दान्तिकी बना रहा है जो सामूहिकता की भूमिका को नष्ट कर रही है। वित्ताीय विनियमन पर इसका अर्थसंसार टिका है। इसके तहत राज्य का आधार सिकुड़ रहा है,बाजार का आधार व्यापक बन रहा है। सामूहिक हितों के सवालों को अप्रासंगिक बना रहा है। इसने व्यक्तिवादिता ,व्यक्तिगत तनख्वाह और सुविधाओं को केन्द्र में ला खड़ा किया है। तनख्वाह का व्यक्तिकरण मूलत: सामूहिक तनख्वाह की विदाई की सूचना है। नव्य -उदारतावाद मूलत: बाजार के तर्क से चलने वाला दर्शन है। इसमें बाजार ही महान है। इसके लिए परिवार,राष्ट्र,मजदूर संगठन,पार्टी, क्षेत्र आदि किसी भी चीज का महत्व नहीं है,यदि किसी चीज का महत्व है तो वह है उपभोग का। उपभोग को बाजार के तर्क ने परम पद पर प्रतिष्ठित कर दिया है।

भूमंडलीकरण ने जब सूचना तकनीकी के साथ अपने को नत्थी कर लिया तो उसने पूंजी की गति को अकल्पनीय रुप से बढ़ा दिया। इसके कारण छोटे निवेशकों के मुनाफों में तात्कालिक इजाफा हुआ,वे अपने मुनाफों के साथ स्थायी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मुनाफों की तुलना करने लगे हैं। बड़े कारपोरेशन बाजार के साथ सामंजस्य बिठाने की कोशिश कर रहे हैं।नव्य उदारीकरण के दौर में संरचनात्मक हिंसाचार में इजाफा हुआ है। असुरक्षा बढ़ी है। मुक्त व्यापार गुरूमंत्र बन गया है। आज हमारे विजन पर नव्य-उदारतावाद हावी है, यह सामयिक नव्य-उदारतावादी कंजरवेटिव क्रांति है। कंजरवेटिव क्रांति की बातें जर्मनी में 30 के दशक में हुई थीं, किंतु आज फ्रांस में भी हो रही हैं। कंजरवेटिव क्रांति बड़ी ही विलक्षण चीज है ,यह क्रांति अतीत को पुन: स्थापित कर रही है। अतीत की स्थापना करते हुए यह स्वयं को प्रगतिशील बताती है। यह प्रतिगामिता को प्रगतिशीलता में रुपान्तरित करती है। जो प्रतिगामिता का विरोध करते है वे स्वयं को प्रतिगामी महसूस करते हैं। जो आतंक का विरोध कर रहे हैं वे आतंकवादी नजर आ रहे हैं। यह ऐसा युग है जिसमें सर्वसम्मति खत्म हो चुकी है। कम्युनिस्ट सत्ता के पतन के बाद आम सहमति टूट गयी, आज पूंजीवाद यह मानकर चल रहा है कि वह जो चाहे कर सकता है।वह सभी किस्म के नियंत्रण से पलायन कर गया है। आज पूंजीपति दिशाबोध खो चुका है। नव्य -उदारतावादी व्यवस्था साम्यवाद की गलतियों को दोहरा रही है।अपने अंधभक्त पैदा कर रही है।

बोर्दिओ का मानना था भूमंडलीकरण मिथ है। यह जनता के लिए तब ही अनिवार्य है जब जनता इसे मान ले। वे पुनरावृत्ति के जरिए उसे अपनाने के लिए मजबूर कर रहे हैं।यानी जनता इकोनॉमिक्स के प्रति अपना विचार बदल ले। भूमंडलीय पूंजीवाद उत्पादन की पध्दति नहीं है। बल्कि यह तो 'डोक्सा' है। इसमें '' आर्थिक शक्तियां प्रतिरोध नहीं कर सकतीं।''

नव्य-उदारतावाद ने सारी दुनिया में अमेरिकी सभ्यता और समाज को पश्चिम के आदर्श मॉडल के रुप में पेश किया है। नव्य-उदारतावाद अथवा सामयिक ग्लोबलाइजेशन की प्रक्रिया 1971 से आरंभ होती है। अमेरिका के राष्ट्रपति निक्सन को इस प्रक्रिया को शुरू करने का श्रेय दिया जाता है। राष्ट्रपति निक्सन ने इसी वर्ष ब्रिटॉन वुड सिस्टम की समाप्ति की घोषणा की थी,इसके बाद सन् 1973 में विश्व के बड़े देशों के नेता निश्चित विनिमय दर व्यवस्था की बजाय चंचल विनिमय दर व्यवस्था के बारे में एकमत हुए थे। इसके बाद सन् 1974 में अमेरिका ने अंतर्राष्ट्रीय पूंजी गतिविधि पर सभी किस्म की पाबंदियां हटा दीं।इसके बाद सन् 1989 में सोवियत संघ में समाजवादी व्यवस्था का अंत हुआ।बर्लिन की दीवार गिराई गई,जर्मनी को एकीकृत किया गया।इसके बाद नव्य-उदारतावाद की आंधी सारी दुनिया में चल निकली। इस आंधी का पहला पड़ाव था मध्यपूर्व का युध्द ,जिसने सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था पर दूरगामी प्रभाव छोड़े।तेल की कीमतों में अंधाधुंध वृध्दि हुई। मौजूदा ग्लोबलाईजेशन वित्तीय साम्राज्यवादी संस्थानों के दिशा-निर्देशों पर चल रहा है। इसमें अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों विश्वबैंक,अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष आदि का वर्चस्व है।

पूंजी के अबाध आवागमन और सूचना तकनीक के प्रसार ने एकदम नये किस्म की दुनिया निर्मित की है,यह वह दुनिया है जिसने पुरानी औद्योगिक क्रांति के गर्भ से पैदा हुई दुनिया को बुनियादी तौर पर बदल दिया,औद्योगिक क्रांति और रैनेसां के गर्भ से पैदा हुए वैचारिक विमर्श और पैराडाइम को बदल दिया, यह सारा परिवर्तन इतनी तेज गति से हुआ है कि अभी तक हम सोच भी नहीं पाए हैं कि आखिरकार ग्लोबलाइजेशन किस तरह की दुनिया रच रहा है, मध्यवर्ग इसकी चमक में खो गया है,वहीं गरीब किसान और मजदूर अवाक् होकर देख रहे हैं।

आरंभ में नव्य-उदारतावाद को लोग समझ ही नहीं पाए किंतु धीरे-धीरे इसका जनविरोधी स्वरूप सामने आने लगा और साधारण नागरिकों में इसके प्रति प्रतिवाद के स्वर फूटने लगे। ग्लोबलाइजेशन की चमक और टीवी चैनलों की आंधी ने सोचने के सभी उपकरणों को कुंद कर दिया है, कुछ क्षण के लिए यदि कोई आलोचनात्मक विचार आता भी है तो अगले ही क्षण उसके प्रति अनास्था पैदा हो जाती है। ग्लोबलाईजेशन ने मानव मस्तिष्क को संशय और अविश्वास से भर दिया है। अब हमें किसी पर विश्वास नहीं रहा,सारे नियम और कानून बार-बार हमें यही संकेत दे रहे हैं कि अपने पड़ोसी पर नजर रखो,उस पर विश्वास मत करो। आपके पास जो बैठा है उससे दूर रहो, उससे संपर्क,संवाद, खान-पान मत करो। विश्वास और आस्था से भरी दुनिया में संशय और अविश्वास की आंधी इस कदर चल निकली है कि अब प्रत्येक देश में प्रत्येक व्यक्ति पर नजर रखी जा रही है। प्रत्येक देश की मुद्रा का मूल्य घटा है,अगर किसी मुद्रा का मूल्य नहीं घटा है तो वह है अमेरिकी डॉलर।

ग्लोबलाईजेशन के कारण बड़े पैमाने पर देशी उद्योग-धंधों के लिए खतरा पैदा हो गया है, सरकारों के ऊपर दबाव डाला जा रहा है वे कल्याणकारी योजनाओं को बंद कर दें अथवा उनके लिए आवंटित धन में कटौती करें। इसके कारण स्थानीय स्तर पर पामाली बढ़ी है। कर्ज बढ़े हैं। सामान्य आदमी की संपत्ति घटी है। काम के क्षेत्र में असुरक्षा बढ़ी है। सामाजिक सुरक्षा और सौहार्द का तानाबाना टूटा है। इस समूची प्रक्रिया में बहुराष्ट्रीय कंपनियों और इजारेदारियों के मुनाफों में बेशुमार वृध्दि हुई है। सरकारों के ऊपर अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों के कर्जों में बढ़ोतरी हुई है। बैंकों में जमा पूंजी, बचत योजनाओं, पीएफ आदि के क्षेत्र में ब्याज घटा है,जबकि बैंक कर्ज पर ब्याज बढ़ा है।

मध्यवर्ग और उच्चवर्ग में इजारेदार पूंजीपति के अलावा एक बड़ा नव-धनाढय तबका पैदा हुआ है। ये वे लोग हैं जिनकी तनख्वाह हठात बढ़ गयी हैं, अथवा जिन्हें व्यक्तिगत तौर पर बेहतर पगार मिल रही है अथवा जिन्होंने जमीन-जायदाद के धंधे से पूंजी कमाई है,अथवा समस्त कानूनों को धता बताते हुए केन्द्र और राज्य सरकारों की विकास योजनाओं में भ्रष्टाचार के जरिए अकूत संपत्ति अर्जित की है अथवा सट्टा बाजार के खेल में व्यापक तौर पर छोटे निवेशक तबाह हो रहे थे तो इस वर्ग के कुछ लोगों ने बेशुमार पूंजी बटोरी, अथवा इसमें एक बड़ा अंश ऐसे लोगों का भी है जो विभिन्न किस्म के बैंक घोटालों, वित्तीय घोटालों, सार्वजनिक संपत्ति की बिक्री अथवा उसके डीरेगूलेशन का हिस्सा थे,इत्यादि क्षेत्रों से आनेवाले लोगों के पास ग्लोबलाइजेशन की संपत्ति की लूट का एक अंश पहुँचा है,यही वह तबका है जो आए दिन मीडिया से लेकर व्यावसायिक मंचों तक ग्लोबलाईजेशन के पक्ष में बोलता रहता है। ये ग्लोबलाईजेशन के लोकल एजेण्ट हैं।

ग्लोबलाईजेशन ने अबाधित ढंग़ से संपत्ति की लूट का माहौल बनाया है ,इसमें जो लुटेरा है वह सही है,वैध है।सामाजिक संपदा की जितनी बड़ी लूट ग्लोबलाईजेशन के दौरान हुई है उसके आगे मानव सभ्यता के सभी युध्द और लूट-घसोट बौने हैं। जितने बड़े पैमाने पर मानवीय तबाही हुई है उसके सामने पहले दोनों विश्वयुध्द महत्व नहीं रखते। संपत्ति की अवैध लूट को वैध बनाने की नीतियां अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों के जरिए लागू की गईं। पुराने पूंजीपति ने स्वयं सामने न आकर वित्तीय संस्थानों को सामने किया, आज सारी दुनिया में पूंजीपतिवर्ग को गालियां अथवा आलोचना का सामना नहीं करना पड़ रहा,बल्कि विश्वबैंक,आईएमएफ आदि संस्थानों को निशाना बनाया जा रहा है, जबकि सच यह है नव्य-उदारतावाद की नीतियों के कारण समग्रता में पूंजीपतिवर्ग को ही लाभ पहुँचा है। किंतु संघर्ष के निशाने पर वह नहीं है। आज सारी दुनिया में जितना तनाव और अंतर्विरोध हैं वैसा मानव सभ्यता में कभी नहीं देखा गया। आज मानव सभ्यता के सामने ग्लोबल विकास का नहीं ग्लोबल विनाश का संकट पैदा हो गया है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तबाही के आंकड़े हमें विचलित नहीं करते, हमारी सबसे बेहतरीन संवेदनाओं को उसने छीन लिया है, पहले हम दूसरे के दुख में दुखी होते थे, दुख बांटने की कोशिश करते थे, सहानुभूति दिखाते थे, सामाजिक तौर पर शिरकत करते थे,किंतु अब ये बातें परीकथा जैसी लगती हैं। हमारी संवेदनाओं के तार हमारे हाथ से निकलकर बहुराष्ट्रीय निगमों के हाथ में चले गए हैं ।

ग्लोबलाईजेशन के आदर्श मॉडल के रुप में अमेरिका को पेश किया जा रहा है, हमारे देश में भी ऐसे लोग हैं जो आए दिन अमरीकी समाज के गुन गाते रहते हैं। हमारे युवाओं में अमरीकी समाज का सपना परोसते रहते हैं। डेविड जी.मेयर्स ने अमरीकी समाज की बिडम्बना पर अनुसंधान करते हुए लिखा है कि '' अब हम अपनी दुगुनी आमदनी कर लेंगे, पैसे से दुगुनी चीजें खरीद पाएंगे। हमारे यहां एसप्रेसो कॉफी होगी,वर्ल्ड वाइड वेब होगा, खेलों के वाहन होंगे,कॉलर आई डी होगा, और हमारे पास कम से कम खुशियां होंगी, ज्यादा अवसाद होगा, ज्यादा से ज्यादा बिखरते सामाजिक संबंध होंगे। कम से कम सामुदायिक प्रतिबध्दता होगी। व्यावहारिक तौर पर कम से कम सामाजिक सुरक्षा होगी। ज्यादा अपराध होंगे। ज्यादा से ज्यादा अनैतिक बच्चे होंगे।'' एक तरफ संपदा का अंबार होगा। किंतु इससे समाज के सभी समुदायों को समान रुप से कोई लाभ नहीं मिलेगा। दूसरी ओर समाज को बांधे रखने वाले सेतु का लोप हो जाएगा। मेयर्स के शब्दों में यह '' सामाजिक मंदी'' का दौर है ,यह मौजूदा नव्य-उदारतावादी '' आर्थिक विकास'' के साथ बनी रहेगी। हमें ज्यादा तनख्वाहें मिलेंगी, बेहतर शिक्षा मिलेगी, पहले की तुलना में हम स्वस्थ होंगे। तेज संचार होगा, सुविधाजनक परिवहन होगा,हमारी आमदनी दुगुनी हो जाएगी, किंतु हमारी इससे भी इच्छा शांत नहीं होंगी।

अमरीका में 50 के दशक की तुलना में लोगों के पास कई गुना संपत्ति बढ़ी है। प्रति व्यक्ति कार में इजाफा हुआ है। लोगों की उम्र बढ़ी है। किंतु इसके बावजूद अमरीकी समाज गंभीर ''सामाजिक मंदी'' के चक्र में फंस चुका है। यह ऐसी अवस्था है जो किसी भी तरह आर्थिक मंदी से कम नहीं है। बल्कि अनेक अर्थों में उससे ज्यादा खतरनाक है। मसलन् अमरीका में तलाक की दर दुगुना हो गयी है। अवयस्क बच्चों की आत्महत्या में तीन गुना इजाफा हुआ है। पुलिस थानों में दर्ज अपराधों की तादाद में चौगुना वृध्दि हुई है। जेलों में बंद कैदियों की संख्या निश्चित जगह की तुलना में अनेक गुना ज्यादा है,जेलों में अपराधियों की तादाद अतिवृध्दि की हद तक पहुँच चुकी है। तलाक की बजाय एक साथ रहने की मांग करने वालों की संख्या सात गुना बढ़ गयी है। अवसाद चरम पर है। द्वितीय विश्व युध्द पूर्व की तुलना में आज अमेरिका में अवसाद दस गुना ज्यादा है। अमेरिकी समाज की अवस्था यह है कि दस में से एक बच्चा अपने दोनों अभिभावकों (माता-पिता) के पास नहीं रहता। बच्चों की उपेक्षा बढ़ी है। एकल परिवार तेजी से बिखर रहे हैं। इससे सबसे बड़ा खतरा मानसिक स्वास्थ्य को हुआ है। एक शब्द में कहें तो अमरीकीकरण की हवा ने ' सामाजिक संपदा'' (सोशल कैपीटल) के लिए खतरा पैदा कर दिया है।

रॉबर्ट पुटनाम ने '' बॉवलिंग एलोन: दि कॉलेप्स एंड रिवाइवल ऑफ अमेरिकन कम्युनिटी'' में लिखा है अमेरिकी लोगों में सामाजिक बंधन खत्म होते जा रहे हैं। इसका अर्थ क्या है ? हम क्या करें ? यह सच है कि कोई व्यक्ति अकेले इस स्थिति में नहीं है। बल्कि समूचा समाज भोग रहा है। इस उबलते हुए समाज में जो भी कूद पड़ा है वह अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के साथ उबल रहा है। अब लोगों को सगे-संबंधी नहीं मिल रहे हैं, इस अभाव को लोग स्वयंसेवी संस्थाओं की सदस्यता लेकर भरने की कोशिश कर रहे हैं। रॉबर्ट पुटनाम ने रेखांकित किया है कि प्रत्येक स्तर पर सामाजिक शिरकत में गिरावट आई है। बिखरते सामाजिक तानेबाने ने बड़ी भारी कीमत लगा दी है। इसके कारण अवसाद, हताशा आदि स्वास्थ्य समस्याओं ने घेर लिया है। हम ज्यादा से ज्यादा इस बात पर जोर देने लगे हैं कि हमें अपने पड़ोसी पर विश्वास नहीं करना चाहिए। नागरिक मसलों पर शिरकत घटी है,मतदान के प्रतिशत में गिरावट आई है,राष्ट्रपति चुनाव से लेकर स्थानीय चुनावों तक सभी स्तर पर मतदान में गिरावट का फिनोमिना देखा गया है। जिन देशों ने अमरीकीपथ का अनुसरण किया है वहां पर भी ये प्रवृत्तिायां साफतौर पर देखी जा सकती हैं,सिर्फ उन देशों को छोड़कर जहां पर वोट देना कानूनन अनिवार्य है।जैसे बेलजियम,डेनमार्क आदि।

इसी तरह सार्वजनिक सभाओं में जाने वालों की तादाद में भी गिरावट दर्ज की गई है।इसके अलावा नगर या स्कूल की समस्याओं को लेकर होने वाली सभाओं में जाने वालों की संख्या में गिरावट आई है। सर्वे के परिणाम बताते हैं कि ज्यादातर लोग 'कभी-कभार ही ''वाशिंगटन प्रशासन'' पर भरोसा करते हैं। बल्कि पूरी तरह अविश्वास करने वालों की संख्या में तेजी से वृध्दि हो रही है। सन् 1966 में अमरीकी सरकार पर भरोसा करने वालों की संख्या 75 फीसद थी जो 1992 में 30 फीसद ही रह गयी। राजनीति और सरकार के कामों में लोगों की शिरकत में तेजी से गिरावट आई है। जबकि व्यक्तिगत तौर पर शिक्षा का स्तर सुधरा है किंतु राजनीतिक शिरकत में गिरावट आई है। इसी तरह चर्च की गतिविधियों में अमेरिकनों की हिस्सेदारी में सन् 1966 की तुलना में छह गुना गिरावट आई है। इसी तरह मजदूर संगठन एक किस्म का हिस्सेदारी का अवसर देते थे,मंच थे। किंतु यूनियनों की सदस्यता में चौगुना गिरावट दर्ज की गई है। नागरिकों की हिस्सेदारी के मंच के रुप में अभिभावक संघ बड़ा मंच था। किंतु अभिभावक-शिक्षक मंचों में हिस्सेदारी घटी है। मसलन् 1964 में इस तरह के मंचों में 12 मिलियन लोगों ने शिरकत की थी, किंतु 1982 तक आते-आते यह संख्या घटकर मात्र पांच मिलियन रह गयी। इसी तरह अमरीकी समाज में सक्रिय विभिन्ना किस्म के संगठनों की सदस्यता को भी देख सकते हैं, उनमें हिस्सेदारी में ह्रास के लक्षण देखे गए हैं।

बोर्दिओ के शब्दों में सामाजिक बंधनों को बिखरने से बचाने के लिए जरुरी है कि हम बिखराव के कारणों का गंभीरता से मूल्य-व्यवस्था के रुप में विश्लेषण करें। हमें सामाजिक स्तर पर लगाव और बंधन के भाव को पुख्ता बनाना होगा। व्यक्तिवादिता और इंडिफरेंस को खत्म करना होगा। अन्य के प्रति समर्थन और सहयोग की भावना पैदा करनी होगी।

हमारे बीच ऐसे लोग हैं जो व्यक्तिवादी ढ़ंग से काम करते हैं, इनका नारा है '' अपने काम स्वयं करो।'' '' अपनी खुशियां स्वयं पैदा करो।'' '' अधिकारियों को चुनौती दो।'' '' यदि अच्छा लगे तो करो।'' ''वैधता को धता बताओ।'' '' दूसरों पर अपने मूल्य मत थोपो।'' '' अपने व्यक्तिगत अधिकारों के लिए लड़ो।'' ,'' अपनी प्राइवेसी की रक्षा करो।'' '' टैक्स में कटौती करो और कार्यकारी अधिकारी की तनख्वाह बढ़ाओ।'', '' व्यक्तिगत आमदनी को साझा वस्तु की तुलना में वरीयता दो।'' , ''अपने हृदय की आवाज सुनो।'' ,'' सामुदायिक धर्म की तुलना में एकाकी आध्यात्मिकता और धर्म का अनुसरण करो।'', '' स्वयं को आत्मनिर्भर बनाओ।'' ,'' दूसरों से उम्मीद करो और स्वयं पर विश्वास करो। स्वयं का निर्माण करो।''

ये नारे परवर्ती व्यक्तिवादिता के गर्भ से पैदा हुए हैं और जिन्हें परवर्ती पूंजीवाद ने किसी न किसी रुप में हवा दी है। इन्हीं नारों के इर्दगिर्द मध्यवर्ग-उच्चवर्ग का अधिकांश सामाजिक विमर्श भी निर्मित होता रहा है। यही वे नारे हैं जिन्हें अमरीकीकरण के मंत्र के रुप में सारी दुनिया में प्रक्षेपित किया जा रहा है। लोगों को कहा जा रहा है कि वे इन नारों का पालन करेंगे तो समुदाय के बिना खुशहाल जिन्दगी बसर कर सकेंगे। इस तरह के सोच के शिकार लोग अपने को समुदाय का सदस्य मानने की बजाय समुदाय से ऊपर मानने लगते हैं। ये वे लोग हैं जो खुशहाल जिन्दगी जीना चाहते हैं बगैर अन्य को खुशहाल किए बिना। अन्य के संपर्क में आए बिना। इस तरह के लोगों के लिए ही बाबा रामदेव, श्रीरविशंकर,ओशो आदि जैसे कारपोरेट संतों के उपदेश आए दिन टीवी पर सुनने को मिलते हैं। सामाजिक विकास का यह व्यक्तिवादी रास्ता समाज को आगे की बजाय पीछे की ओर ले जाता है। यह ऐसा व्यक्तिवाद है जिसके लिए हम बाबा रामदेव,रविशंकर आदि को पैसा भी दे रहे हैं। इसी तरह परंपरागत संतों से लेकर कथावाचकों की भी भीड़ इसी रास्ते पर चल पड़ी है।

परवर्ती पूंजीवाद ने विगत पचास सालों में जिस तरह की व्यक्तिवादिता को जन्म दिया है वह स्वभावत: पुंसवादी है। इसने पुंसवादी नैतिकता को वरीयता दी है। उसे सामाजिक एजेण्डा बनाया है। इसके ही आधार पर हम कामुक आनंद, अनियंत्रित कामुकता,अबाधित कामुकता आदि को महिमामंडित कर रहे हैं,साथ ही कामुक परवर्जन को भी वरीयता दी है। इसके प्रभावस्वरुप व्यक्तिगत आकर्षण और युवा हमारे समाज में केन्द्रीय मूल्य बनकर सामने आए हैं। ज्यादा से ज्यादा वस्तुओं का उपभोग आनंद का स्रोत हो गया है। आज का नया संचार आंदोलन व्यक्ति के इन्हीं अधिकारों और जिम्मेदारियों का महिमामंडन कर रहा है।

अमरीकीकरण का एक अन्य प्रमुख तत्व है उपभोक्तावाद । यह पश्चिमीकरण की धुरी है। उपभोक्तावाद के बारे में अमूमन काफी कुछ कहा गया है। यह मूलत: अन्य पर वर्चस्व स्थापित करने की व्यवस्था है। अन्य को उपभोग के बहाने वर्चस्व के स्वामित्व में लेना,वर्चस्व स्थापित करना, वंचित करना इसका प्रधान लक्ष्य है। भौतिक वस्तुओं को अपने स्वामित्व में रखना मनुष्य का पुराना गुण है। यह सामाजिक हैसियत,सम्मान और अवस्था का मूल स्रोत है। इसे विज्ञापन और मार्केटिंग के प्रचार अभियान ने बढ़ावा दिया है। कभी-कभी यह प्रचार काफी गंभीर होता है।

लोग अपने कारोबार से विमुख होकर आध्यात्मिक शांति की तलाश में पश्चिमी देशों से हमारे देश में आ रहे हैं। मजेदार बात यह है कि पश्चिमी देशों के धर्मप्राण लोगों का सबसे बड़ा संगठन इस्कॉन है जिसकी मूल फंडिंग अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनियां करती हैं। इनमें फोर्ड का नाम सबसे ऊपर है। वस्तुओं के अत्यधिक अधिकार में रखने की प्रतिक्रिया के रुप में पश्चिम में इसके खिलाफ जो प्रतिक्रिया हो रही है उसका सबसे आदर्श रुप है भारतीय आध्यात्मिकता। पश्चिम में यह वस्तुओं से अलग होने के रुप में व्यक्त हो रही है। वस्तुओं पर अबाध अधिकार की उपभोक्तावादी भावना ने विकल्प के तौर पर आध्यात्मिक चेतना के उपायों की ओर मोड़ा है। इसे पश्चिमी देशों के बालों की कटिंग,संगीत की प्रवृत्तियों,रेस्टोरैंटों की पूर्वी देशों की सजावट, वस्त्र आदि में फैशन के रुप में देखा जा सकता है। अब पश्चिमी देशों में पुरबिया संस्कृति की बयार वह रही है जो मूलत: उपभोक्तावाद के अंग के रुप में ही आ रही है।

पैट्रिक हुनोट के अनुसार ग्लोबल स्तर पर तीन किस्म के फिनोमिना दिखाई दे रहे हैं।ये हैं, पहला, आर्थिक नव्य उदारतावाद, दूसरा,जिसके कारण आर्थिक अराजकता ,विस्थापन, व्यक्तिवादिता और बेगानापन बढ़ा है।तीसरा, इसी के गर्भ से सेलुलर और स्वचालित समाज पैदा हुआ है। इन तीनों ही प्रवृत्तियों ने सामाजिक बंधनों को नष्ट करने की प्रक्रिया को तेज किया है। अब नए किस्म की नैतिकता की मांग की जा रही है। ऐसे व्यक्तिवाद की मांग की जा रही है जो पूरी तरह स्वायत्ता है। यह ''प्रोएक्टिव इंडीविजुअल'' है। जो व्यवहार में आर्थिक और तकनीकीपरक परिवर्तनों को तुरंत और सहज ही स्वीकार कर लेता है। आत्मसात कर लेता है। जिसकी शालीन अभिरुचि (टेस्ट) को 'व्यक्तिगत पहचान' के मानक के रुप में पेश किया जा रहा है। कुछ दुकानों को इस संदर्भ में रचनात्मक रुप में प्रस्तुत किया जा रहा है। किंतु ज्यादातर ये दुकानें बेकार के मालों की होती हैं। इस तरह का व्यक्तिवाद हमारे समाज के सामुदायिक तानेबाने को नष्ट करता है। यह आर्थिक असमानता में इजाफा करता है, स्वचालित व्यक्तिवाद समाज में तब ही फलता-फूलता है जब वह सामुदायिक प्रकल्पों को नष्ट कर देता है। स्वचालित व्यक्तिवाद ऐसे आत्म पर जोर देता है जो सामाजिक और पारिवारिक बाधाओं से पूरी तरह मुक्त है। यह नए किस्म की गुलामी का प्रच्छन्ना प्रयास भी है।

नव्य-उदारतावाद हमारे लिए लाभप्रद नहीं है। इसकी पुष्टि के लिए ग्लोबल अनुभवों को देखा जाना चाहिए। विकसित मुल्कों का अनुभव बताता है कि नव्य-उदारतावादी नीतियों को लागू करने के बाद आत्महत्या ,अवसाद,नशीले पदार्थों का सेवन, एकाकीपन, पीढ़ियों का संकट, लिंग की जटिल समस्याएं, नागरिकता का ह्रास, सांस्कृतिक पहचान का क्षय,पराए किस्म के धर्मों का उदय इत्यादि क्षेत्रों में तेजी से इजाफा हुआ है।

नव्य-उदातावादी नीतियों का अनुकरण करने के कारण अमरीका में सामाजिक विध्वंस के जो रुप सामने आए हैं,उनसे सबक लेने की जरूरत है। मसलन् विश्वस्तर पर आत्महत्या दर में विगत पैंतालीस सालों में साठ फीसदी वृध्दि हुई है। खासकर 15-24 साल के युवाओं में आत्महत्या दर में इजाफा हुआ है। आत्महत्या के साथ ही साथ अवसाद में भोगने वालों की संख्या में वृध्दि हुई है। मानसिक असंतुलन की दर बढ़ी है। इसके प्रमुख कारणों में स्कूल की समस्याएं, नौकरी का खोना, वैवाहिक जीवन से असंतोष, अकेलापन, आशाहीनता आदि प्रमुख हैं। यह भी तथ्य आए हैं कि विश्वस्तर पर अवसाद की समस्या सबसे बड़ी समस्या के रुप में सन् 2020 तक उभरकर सामने आएगी। आज सारी दुनिया जिस तरह की आर्थिक नीतियों का अनुसरण कर रही है उसमें व्यक्तिवाद बढ़ेगा और सामाजिक एकीकरण कमजोर होगा। इन दोनों कारणों से ही आत्महत्या का खतरा बढ़ रहा है। उल्लेखनीय है कि व्यक्तिवादी के पास छोटा सा समर्थक नैटवर्क होता है। फलत: वह आशाविहीन महसूस करता है। जिसके कारण आत्महत्या के बारे में ज्यादा सोचता है।

बोर्दिओ ने ''अगेंस्ट डिपॉलिटिसाइज पॉलिटिक्स''(11 अप्रैल,2001) निबंध में लिखा 'ग्लोबलाईजेशन' का अर्थ अपरिहार्य आर्थिक विकास का रास्ता नहीं है। बल्कि यह सोची-समझी सचेत नीति है जो इसके विध्वंसकारी परिणामों के प्रति सचेत नहीं है। यह नीति शर्मनाक ढ़ंग से स्वतंत्रता,उदारीकरण,उदारतावाद और विनियमन की भाषा का इस्तेमाल कर रही है। यथार्थत: यह अ-राजनीतिकरण की नीति है। यह बिडम्बना ही है कि इसका लक्ष्य है सभी किस्म की आर्थिक बाधाओं से मुक्त करना। यह साधारण जनता को सरकारी नीतियों और विनियमित अर्थव्यवस्था के सामने निहत्था मरने के लिए छोड़ देती है। सभी बड़े अंतर्राष्ट्रीय संगठनों जैसे विश्व व्यापार संगठन अथवा यूरोपीय आर्थिक समुदाय के द्वारा सभी बहुराष्ट्रीय निगमों के नेटवर्क के हित में नीतियां बनायी जा रही हैं। ये सारी नीतियां भिन्न-भिन्न तरीके से स्वीकृति पा रही हैं। पहले इन नीतियों को कानूनी तौर पर मान्यता दिलायी जाती है। उदार और सामाजिक जनवादियों की सरकारों के द्वारा विकसित देशों में एक ही साथ स्वीकृति दिलायी गयी है। इसके कारण सरकारों ने अर्थव्यवस्था पर अपना प्रभुत्व धीरे-धीरे खत्म किया है।

नव्य-उदारतावाद के प्रचार अभियान में बार-बार समृध्द समाज के निर्माण की बात कही जा रही है। यह कहा जा रहा है कि हमें भारत को समृध्द बनाना है। समृध्दि की मांग पागलपन की हदें पार गई है। सवाल किया जाना चाहिए आखिरकार समृध्द भारत की मांग कौन लोग कर रहे हैं ? वे ऐसी मांग क्यों कर रहे हैं ? अथवा यों कहें कि समृध्द समाज की मांग किसके लिए की जा रही है , इससे किसका भला होगा ? असल में समृध्द समाज की मांग उन लोगों ने उठायी है जो अपने मालों की बिक्री करना चाहते हैं। वे ऐसे मालों को बेचना चाहते हैं जो हमारी आवश्यकता का हिस्सा नहीं हैं। वे ऐसे उपभोक्ता का आधार तैयार करना चाहते हैं जिसके पास उपभोग की वस्तुएं खरीदने के लिए बेशुमार पैसा हो। जिससे वह इन मालों को खरीद सके। भारत जैसे गरीब देश में उपभोक्ता वस्तुओं को जब गरीब आदमी टीवी में हसरतभरी निगाहों से देखता है तो उसके अंदर भी इन्हें पाने इच्छा पैदा होती है, इन्हें पाकर वह ज्यादा से ज्यादा खुशियां पाने का सपना देखता है। ऐसा सोचने वाले गलत सोच रहे हैं। वस्तुओं से खुशी नहीं मिलती। ज्यादा से ज्यादा उपभोक्ता वस्तुओं का अम्बार खुशियां नहीं देता,खुशी तो असल में तुलनात्मक तौर पर अपने पड़ोसी की संपत्ति देखकर ही आती है, पड़ोसी की संपत्ति से जब ज्यादा संपत्ति होती है तब ही मन खुश होता है। यदि सभी की संपदा का स्तर एक जैसा कर दिया जाएगा तो खुशी पैदा नहीं होगी।

अमरीका के मार्ग को अपनाने वालों को यह ध्यान रखना होगा कि वहां चंद लोगों की दादागिरी चलती है। ये वे लोग हैं जो शासकवर्ग कहलाते हैं। जिनके अनुसार नीतियां बनती हैं और बदलती हैं। यहां तक शासकवर्गों के बीच में भी सत्ता का हिसाब-किताब बनता-बदलता रहता है। शासकवर्ग में एक जमाने में मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र का वर्चस्व हुआ करता था,आज यह क्षेत्र ढलान पर है। आज अमेरिका में अंतर्राष्ट्रीय -राष्ट्रीय इजारेदार वित्तीय संस्थानों का वर्चस्व है,आर्थिक उदरीकरण के दौर में इन्हीं संस्थानों ने नीतियों की बागडोर थामी हुई है। दूसरी ओर मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र में अपने देश में अमेरिका संरक्षणवाद का सहारा ले रहा है और गैर- अमेरिकी मुल्कों पर संरक्षण हटाने के लिए दबाव डाल रहा है।

अमेरिका की नीति है '' विदेश में उदारीकरण देश में संरक्षणवाद।'' अमेरिका में कौन शासकवर्ग है इसका जबाव बेहद जटिल है। इसका प्रधान कारण है कि अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में औद्योगिक प्राथमिकताएं बदलती रहती हैं। मसलन् इन दिनों मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र ढलान पर है और वित्तीय संस्थान बढत पर हैं अत: शासकवर्गों में वित्तीय संस्थानों का बोलवाला है। अनेक पुराने औद्योगिक घराने पुराने धंधों में बने रहने की बजाय वित्तीय क्षेत्र में आ रहे हैं,हमारे देश में भी यह फिनोमिना आ गया है। नव्य-उदारतावाद के दौर में वित्ताीय संस्थानों और वित्ताीय पूंजी का ही सारा खेल है। वे ही ग्लोबलाइजेशन के असल मुखिया हैं,बाकी अन्य शासकवर्गों को उनके सहयोगी की भूमिका अदा करनी होगी। वित्तीय पूंजी बहुराष्ट्रीय इजारेदारियों की रखैल है, वह उनकी संपदा का स्रोत है। आज सबसे ज्यादा किसी सेक्टर में प्रधान कर्त्ताओं को तनख्वाह और सुविधाएं दी जा रही हैं तो वह है वित्तीय पूंजी क्षेत्र। वित्तीय पूंजी का सारा खेल शेयर मार्केट के ऊपर निर्भर है,इसके अलावा विभिन्न कंपनियों के विलय और बिक्री से भी नव्य-उदारतावाद लाभांवित हुआ है। विलय-बिक्री की फीस के बहाने वित्तीय संस्थानों ने बेशुमार धन कमाया है। मसलन् 2006 में 3,900 विलियन डालर के इस क्षेत्र में सौदे हुए,इनके जरिए निवेशक बैंकों ने फीस के रुप में 18.8 विलियन डालर कमाए।

आंकड़े बताते हैं कि दो फीसदी घराने अस्सी फीसदी विश्व संपदा के मालिक हैं। इसमें वित्तीय पूंजी से जुड़े अभिजन के पास बहुत छोटा अंश ही है। ये वे वित्तीय कंपनियां हैं जो सट्टा बाजार में पैसा लगाती हैं,उधार पैसा देती है और बड़ा मुनाफा बटोर रही हैं। अमेरिकी समाज आर्थिक तौर पर सबसे ज्यादा संकटग्रस्त है खासकर मध्यवर्ग और मजदूरवर्ग के सामने गंभीर संकट पैदा हो गया है। उसकी सामाजिक सुरक्षा की सुविधाएं कम हुई हैं, पगार में गिरावट आई है।बेकारी बढ़ी है। मसलन् सन् 2000-2005 के बीच में अमरीकी अर्थव्यवस्था 12 फीसदी बढ़ी, उत्पादकता 17 फीसदी बढ़ी किंतु पगार मात्र तीन फीसदी बढ़ी। जबकि इसी अवधि के दौरान परिवार की असल आमदनी में गिरावट दर्ज की गई। एक सर्वे में नवम्बर 2006 में तीन-चौथाई अमेरिकियों ने कहा कि वे दुर्दशापूर्ण जीवन जी रहे हैं,अथवा यों भी कह सकते हैं कि छह साल पहले जो दशा थी उसमें कोई सुधार नहीं आया है। फेडरल रिजर्व बैंक के मुखिया ने सीनेट कमेटी के सामने स्वीकार किया है कि ''अमेरिका में बढ़ती हुई असमानता चिन्ता की चीज है। इकहरे ढ़ंग से आमदनी और संपदा में इजाफा हो रहा है।यह अच्छा लक्षण नहीं है।'' सरकार की सकल घरेलू आय का 43 फीसदी हिस्सा पगारजीवी लोगों से आता है। आज अमेरिकी दलों में वित्तीय पूंजी से जुड़े शासकवर्गों को चुनौती देने की किसी में क्षमता नहीं है। उनसे सब डरते ही नहीं हैं बल्कि वे तो सभी के माई-बाप हैं।

ग्लोबलाइजेशन का ''राष्ट्र-राज्य'' परम शत्रु है। यह नयी विश्व व्यवस्था है। इसकी धुरी हैं 500 बहुराष्ट्रीय कंपनियां जिनका सारी अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण है। इन कंपनियों का सारी दुनिया पर वर्चस्व है। अमेरिका की अस्सी फीसदी अर्थव्यवस्था के ये मालिक हैं। दूसरी ओर ग्लोबलाईजेशन का अनुकरण करने के कारण सारी दुनिया में बेकारी में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। ताजा आंकड़े बताते हैं कि ग्लोबल बेकारी में सन् 2006 में 6.3 फीसदी का इजाफा हुआ है। जबकि रजिस्टर में दर्ज बेकारों की संख्या में 0.1 फीसदी की गिरावट आई है। यह अवस्था तब है जब अब तक सारी मानव जाति के जितने लोग काम कर रहे हैं उतनी बड़ी तादाद में पहले कभी काम नहीं कर रहे थे। आज सारी दुनिया में 195.2 मिलियन लोग बेकार हैं। ये आंकड़े दि हिन्दू ने 25 जनवरी 2007 को विश्व श्रम संगठन की रिपोर्ट के आधार पर प्रकाशित किए हैं।

ग्लोबलाईजेशन के रुप में नव्य-उदारतावाद वस्तुत: मनोरंजन सूचना तकनीक की आंधी लेकर आया है। मनोरंजन के खेल में हम मनोरंजन और सूचना तकनीक के पीछे सक्रिय राजनीतिक विचारधारा को भूल गए,इसके विपरीत अभिजन ने पूंजीपतिवर्ग और पूंजीवादी लूट-खसोट के साथ सामंजस्य बिठा लिया है, मनोरंजन का समूचा प्रपंच टीवी चैनलों और सैटेलाइट चैनलों के गर्भ से पैदा हुआ,इसका वर्चस्वशाली चरित्र है।इसमें खास किस्म का वैचारिक पूर्वाग्रह काम कर रहा है। प्रचार माध्यमों के जरिए यह बात सरकार और लोगों के दिल में बिठा दी गयी है कि बाजार की शक्तियों के मामले में यदि किसी ने हस्तक्षेप किया तो उसे कहीं का नहीं छोड़ा जाएगा। यदि बाजार की शक्तियों के रास्ते में सरकारें बाधा बनेंगी तो उन्हें लाभ होने की बजाय हानि ज्यादा होगी। इसके कारण वे सरकारें भी एक्शन लेने में कतराती हैं जो बाजार की शक्तियों की अबाध लूट-खसोट को रोकना चाहती हैं। वित्ताीय संस्थानों के इशारों पर काम करने से बैंकरों को तो लाभ हुआ है किंतु सामाजिक तौर पर हानि हुई है।

हमारे देश का अभिजन नव्य-उदारतावाद को वैचारिक समर्थन ही नहीं दे रहा बल्कि उसका धर्म की तरह पालन कर रहा है। ग्लोबलाईजेशन ने हमारे देश में वैचारिक स्वीकृति हासिल कर ली है। ग्लोबलाईजेशन सिर्फ अभिजन की वैचारिक स्वीकृति तक ही सीमित नहीं है बल्कि उसे संरचनात्मक और आर्थिक क्षेत्र में भी पर्याप्त स्थान और स्वीकृति चाहिए,इसके लिए हमारी सरकारों ने आंखें बंद करके संरचनात्मक सुधारों को लागू किया है। फलत: ग्लोबलाईजेशन ने असमानता को चरम पर पहुँचा दिया है। ग्लोबलाईजेशन में अतिवाद अथवा चरम का महत्व है। इसमें कोई भी चीज अपने चरम पर दिखाई देती है,चरम पर जाने के बाद ही हम थोड़ा विचलित होते हैं। जब तक कोई समस्या चरम पर नहीं पहुँचती है तब तक हमारी आंखें नहीं खुलती हैं,पहले हम थोड़ी सी परेशानी से व्याकुल हो जाया करते थे,अब बड़ी से बड़ी परेशानी भी व्याकुल नहीं करती, वह तब ही व्याकुल करती है जब चरम पर पहुँच जाए अथवा हमारे निजी स्वार्थ के लिए खतरा बन जाए। सबसे त्रासद पक्ष यह है कि समाज में जो शिक्षित हैं,जिनके पास समस्याओं को समझने और समझाने की बुध्दि है,अभिव्यक्ति की क्षमता है, अभिव्यक्ति के साधन हैं, संघर्ष करने की क्षमता है,वे ही लोग आज ग्लोबलाईजेशन के पक्ष में खड़े हैं,उन्हें परायी पीर परेशान नहीं कर रही। परायी पीर के प्रति बेगानापन ग्लोबलाईजेशन के खिलाफ संघर्ष को और भी जटिल बनाए दे रहा है।

ग्लोबलाईजेशन का सबसे बड़ा गड़बड़झाला यह है कि इसका वैचारिक आधार और समर्थन कॉमनसेंस के आधार पर विकास कर रहा है। ग्लोबलाइजेशन के पक्षधरों ने अपने तर्कों के पक्ष में कभी ठोस आंकड़े अथवा सामाजिक वास्तविकता के तथ्यों को पेश नहीं किया। सिएटल में प्रतिवाद के जिस साझामंच का गठन किया गया था उसमें विभिन्ना विचारधारा के लोग थे, ये एक स्वर से ग्लोबलाईजेशन के खिलाफ थे। इन सबकी राय थी कि विश्व व्यापार संगठन आम आदमी का शत्रु है। मुक्त व्यापार और पूंजीवाद का हिमायती है।इससे सारी दुनिया तबाही के कगार पर पहुँच गयी है,साधारण आदमी का स्वास्थ्य खराब हो रहा है, बेकारी पैदा हो रही है,काम के घंटे लोचदार बना दिए गए हैं,कल्याणकारी राज्य का निजीकरण्ा कर दिया गया है।यही वे परिस्थितियां थीं जिसमें सारी दुनिया के वैविध्यपूर्ण विचारधारा और विभिन्ना क्षेत्रों में काम करने वाले एक ही मंच पर आए और एकजुट हुए। यह सच है कि ग्लोबलाईजेशन ने खतरा पैदा किया है,उसके पास शक्तिशाली राजनीतिक रणनीति भी है। किंतु हमें यथार्थ के खतरों को अनालोचनात्मक ढ़ंग से रेखांकित नहीं करना चाहिए। ग्लोबलाईजेशन के प्रति तर्कविहीन अंधविरोध का भी खतरा है जिससे सावधान रहने की जरुरत है इसके कारण राष्ट्रवाद अथवा साम्प्रदायिक अथवा कट्टरतावादी ताकतें लाभ उठा सकती हैं।

नव्य -उदारतावाद के खिलाफ प्रतिवाद की संस्कृति का निर्माण करना सबसे जरुरी कार्यभार है। नव्य-उदारतावाद सभी किस्म के प्रतिवादी रुपों को अप्रांसगिक बनाता है,उपहास का विषय बनाता है। प्रतिवाद के प्रति हताशा पैदा करता है,निरर्थकताबोध पैदा करता है। नयी प्रतिवादी संस्कृति बौध्दिक-राजनीतिक स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति है। इसके प्रतिवाद की सीमाएं और संभावनाएं हैं। हमें उस समय असुविधा होगी यदि हम इसकी सीमा और संभावनाओं से वाकिफ नहीं होंगे। आज हम मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था में सक्रिय जनतंत्र में शिरकत कर रहे हैं,प्रतिवाद की संस्कृति का पहला दायित्व है कि लोगों की हिस्सेदारी बढ़ाने पर ध्यान दिया जाय। मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था की प्रतिवाद के साथ रंजिश है। साथ ही अपने ही जनतांत्रिक संस्थानों के प्रति शत्रुभाव है। मसलन् मुक्तबाजार अर्थव्यवस्था अभिव्यक्ति की आजादी और संवैधानिक तौर पर प्राप्त स्वतंत्रताओं और अधिकारों का जमकर विरोध करती है। हम आए दिन किसानों के हितों की रक्षा के लिए चल रहे संघर्षों और मजदूर आंदोलनों के प्रति शत्रुतापूर्ण रुख में यह तथ्य देख सकते हैं। मुक्त बाजार जहां एक ओर मनोरंजन उद्योग को बढ़त देता है,वहीं दूसरी ओर तनाव और हिंसा के सत्ता केन्द्रों को सक्रिय रखता है। विकास की बजाय सैन्य सामग्री और सैन्य बलों के विस्तार पर खर्चा बढ़ा देता है। सामाजिक जीवन में सत्ताा का हिंसाचार अथवा दमन इस कदर बढ़ जाता है कि सत्ताा से शांति बनाए रखने,सहिष्णुता दिखाने की मांग बढ़ती चली जाती है।

मसलन् प्रतिवाद से मुक्त बाजार को कोई बुनियादी खतरा पैदा नहीं होता। अत्याचार बगैर प्रतिवाद के वैधता हासिल नहीं करता।मसलन् कोई राज्याध्यक्ष विदेश में प्रतिवाद का प्रशंसक हो और अपने ही देश में राजनीतिक अधिकारों का हनन करता हो। प्रतिवाद का एक असर होता है कि वे सहिष्णुता पैदा करते हैं। पश्चिमी देशों में नव्य-उदारतावाद के माननेवाले देशों के प्रतिवाद को नव्य-उदारतावाद के वैचारिक पैराडाइम का हिस्सा बना लिया है। प्रतिवाद को आत्मसात करने,हाशिए पर डालने का काम वे बार-बार करते रहते हैं। जिससे मुक्त बाजार की ताकत का एहसास करा सकें। प्रतिवाद को बार-बार अस्वीकार करने का नव्य-उदारतावादियों का सबसे बढ़िया मंत्र है असमानता का निरंतर विस्तार करते चले जाना। नव्य-उदारतावादी वैचारिक सांचे में प्रतिवाद उन लोगों का हथियार है जो हाशिए पर हैं,जो गायब हो रहे हैं। प्रतिवाद उनका हथियार नहीं है जो खो नहीं रहे हैं। प्रतिवाद करने वाले वे लोग हैं जो बहुराष्ट्रीयनिगमों के शोषण,विस्तार और केन्द्रीकरण का विरोध करते हैं। मुक्त विश्व बाजार का सबसे ज्यादा लाभ उठाने वाला तबका मध्यवर्ग का है। वही विजेता है।

नव्य-उदारतावाद के दौर में भेदभाव के बड़े सवालों की जगह हठात् छोटे और व्यक्तिगत सवाल केन्द्र में आ गए हैं। साथ ही प्रतिवाद को भी मुक्तबाजार ने एक माल बना दिया है। जिस तरह बाजार में उपभोक्ता के पास अनेक विकल्प होते हैं उसी तरह प्रतिवाद के भी विकल्प होते हैं। यह उपभोक्ता के लिए मौजूदा जनतंत्र में असंतोष व्यक्त करने का एक जरिया है। मुक्त बाजार की अर्थव्यवस्था विभिन्ना किस्म के मूल्यों को बनाए रखती है और उन्हीं के माध्यम से स्थिरता हासिल करती है। इस काम में मीडिया सबसे ज्यादा मदद करता है,वह मुफ्त में संचार का अवसर प्रदान करता है जिससे जनता अपनी राय व्यक्त कर सके। फिर उसी मीडिया को वैचारिक वर्चस्व स्थापित करने के लिए इस्तेमाल किया जा सके। मीडिया बार-बार प्रतिवाद के स्वरों को सामने लाता है,इस तरह वह मुक्त बाजार के दबावों के प्रति नार्मलाइजेशन की प्रक्रिया पूरा करता है।

नार्मलाइजेशन अमेरिकी पूंजीवाद की विशेषता है। हमें मीडिया में प्रतिवाद के गर्जन-तर्जन को देखकर भ्रमित नहीं होना चाहिए,यह मुक्त बाजार का वैचारिक खेल है। नव्य-उदारतावाद के युग में राज्य स्वयं प्रतिवाद के लिए उकसाता है। प्रतिवाद पैदा होते हैं तो इस बात की पुष्टि होती है कि हमारे देश में लोकतांत्रिक मूल्य हैं,कानून है। मीडिया इन्हें बार-बार याद दिलाता है साथ ही बताता है कि प्रतिवाद हाशिए पर चला गया है। सांस्कृतिक वर्चस्व की विचारधारा इस बात की पुष्टि करती है कि राज्य की सत्ताा है और उसके पास अधिकार है। उसी की चल रही है।

नव्य-उदारतावाद के दौर में प्रतिवाद स्वयं में नैतिक तौर पर सत्ताा के सामने अन्तर्विरोधी हो जाता है। नव्य-उदारतावाद में नागरिक अधिकारों की लड़ाई स्वयं को ही ठीक करने वाली जंग बन जाती है। इसके खिलाफ मुक्त बाजार की ताकतें दमन के अस्त्र का इस्तेमाल करती हैं। मार्कूज की थ्योरी की रोशनी में यह एक तरह की दमनात्मक सहिष्णुता है। इसमें राज्य असमर्थ होता है वह हल्का सा सुधार करता है। नव्य -उदारतावाद में इसी दमनात्मक सहिष्णुता का बोलवाला रहता है। यही नयी विश्व व्यवस्था भी है। हमारे अधिकार क्या हैं ? यह संवाद पर निर्भर करता है। आप संवाद और व्यवहार के बाद ही तय कर पाएंगे कि आपके अधिकार क्या हैं। अधिकार कहीं लिखे नहीं हैं। प्रतिवाद और प्रतिरोध ये दोनों ही शक्तियों के आपसी संवाद पर ही निर्भर हैं। यही स्थिति मानवाधिकारों की है। राज्य के साथ संवाद ,संघर्ष के बाद ही तय कर सकते हैं कि मानवाधिकार क्या हैं ? मानवाधिकार इकतरफा ढ़ंग से इस्तेमाल नहीं किए जा सकते ,जब राज्य इस्तेमाल करने देता है तब ही मानवाधिकार अस्तित्व में आते हैं। स्वत: ही उनका कोई अस्तित्व नहीं होता। नव्य-उदारतावाद के दौर में सामूहिक की बजाय व्यक्तिगत अभिव्यक्ति की आजादी के सवाल ज्यादा उठे हैं। प्रतिवाद के ऊपर हमले बढ़े हैं। खासकर सरकारी मशीनरी का दमन तेजी से बढ़ा है।

नव्य-उदारतावाद में टैक्नोक्रेसी के खिलाफ डेमोक्रेसी की जंग जारी है।हमें आईएमएफ और विश्वबैंक के विशेषज्ञों के द्वारा थोपी गयी सलाहों और नीतियों को ठुकरा देना चाहिए। वे वित्तीय बाजार की

शर्त्तों को थोपना चाहते हैं, वे संवाद नहीं करना चाहते बल्कि सिर्फ बताना चाहते हैं। ग्लोबलाईजेशन का आर्थिक जगत वैसे ही है जैसे शुध्द और परफेक्ट भाषण हो जो सभी तर्कों को ढ़हा दे। इसके तर्क ऐसे हैं जिन्हें आप जबर्दस्ती थोप सकते हैं। इसके परिणाम अकल्पनीय हैं। इसकी धुरी है कम लागत वाला श्रम, सार्वजनिक खर्चों में कटौती, काम में लोच,साथ ही एक काल्पनिक संसार की कल्पना। ग्लोबलाईजेशन वास्तव में यह दावा भी करता है कि उसके पास यथार्थ का वैज्ञानिक विवरण है।

ग्लोबलाईजेशन की रेशनेलिटी व्यक्तिगत रेशनेलिटी के साथ अपने को जोड़ती है। वह आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियों को हाशिए पर रखती है। यह हमारी शिक्षा व्यवस्था की कमजोरी रही है कि हमें इस परिस्थिति का कभी इलहाम तक नहीं हुआ। ग्लोबलाईजेशन का एक अन्य असर यह हुआ है कि थ्योरी को हमने गैर-सामाजिक और गैर-ऐतिहासिक बनाया है। हम शुध्द आर्थिक तर्कों के आधार पर सोचने लगे हैं। जिसमें प्रतिस्पर्धा और प्रभावशालिता को मद्देनजर रखा जाता है। हमारी अभी तक की समस्त असफलताओं को आर्थिक असफलता करार दे दिया गया है। विपक्ष है किंतु नाममात्र का। ग्लोबलाईजेशन को प्रतिवाद और विपक्ष की शक्ल पसंद नहीं है, किंतु वह मजबूर है अत: नमूने का प्रतिवाद,प्रतीकात्मक प्रतिवाद, नाममात्र का विपक्ष जिंदा है। ग्लोबलाईजेशन के दौर में खूब भाषण होते हैं, किंतु इन भाषणों की स्थिति पागल के बयान जैसी होकर रह गयी है। इनका कोई प्रभाव नहीं होता,इसका प्रधान कारण है ग्लोबलाईजेशन संवाद नहीं करता,बल्कि आरोपित करता है। वह चारों ओर प्रतीकात्मक संरचनाओं का इतना विशाल ताना-बाना बुन देता है कि लोगों को आश्चर्य होता है कि आखिर वे क्या करें ? सभी किस्म के राजनीतिक पैमानों को नष्ट कर देता है। सभी किस्म की सामूहिक संरचनाओं के प्रति सवाल खड़े कर देता है। सामूहिक संरचनाओं के तर्क बाजार के तर्क के सामने बौने या बेकार लगने लगते हैं,पगार को सामूहिक की बजाय व्यक्तिगत बना देता है।

नव्य उदारतावाद का कार्यक्रम मूलत: वित्ताीय संस्थाओं के हितों का प्रतिनिधित्व कर रहा है। इसमें शेयरधारक,वित्तीय ऑपरेटर, औद्योगिक ,वित्‍तीय क्षेत्र के बड़े अधिकारियों के हितों का खास तौर पर ख्याल रखा जाता है।इसमें नीतियों को थोपने और उनके उपदेश देने की प्रवृत्ति है। पूंजी बाजार के सार्वभौमीकरण ने सूचना तकनीकी की तरक्की ,निवेशक को छोटी अवधि में जल्दी लाभ,बड़ी कंपनियों के मुनाफों में स्थायित्व,जहां असफलता की संभावना है वहां पर संरक्षण,साथ ही धीरे-धीरे बाजार के साथ सामंजस्य बिठाने पर जोर दिया जाता है। स्थायी नौकरियों की बजाय कॉण्टे्रक्ट पर नौकरियां तय होने लगती हैं। संरचनात्मक हिंसाचार बढ़ जाता है,इसकी शुरुआत कॉण्ट्रेक्ट पर नौकरी के साथ ही होती है। नव्य-उदारतावाद के लिए संवेदनहीन ढ़ंग से जगह बनायी जा रही है। यही वजह है कि हम उसे देख ही नहीं पाते। यह महाद्वीपीय विभाजन है। इसके प्रभाव को दूरबीन से देखना मुश्किल होता है। यह दीर्घावधि में बड़ा दुखदायी होता है। इसके प्रतिवाद की शक्तियां नयी विश्व व्यवस्था का सपना लेकर सामने आती हैं। इन्हें प्रतिगामी ठहराने की कोशिश की जाती है। यही वे शक्तियां हैं जिनके पास कुछ आशा बची रह गयी है।

हमारे देश के बहुत सारे बुध्दिजीवी,नीति निर्धारक और साहित्यकार आए दिन अमरीका और उसकी अर्थव्यवस्था के बारे में लुभावनी और असत्य बातों का प्रचार करते रहते हैं। ऐसे लोगों को चोम्स्की के लेखन का कायदे से अध्ययन करना चाहिए। चोम्स्की ने ''प्रोसपरस फ्यू एंड दि रेस्टलेस मेनी' (1993,ओडोनियन प्रेस) में संकलित एक साक्षात्कार में आरंभ में ही साक्षात्कार लेने वाले डेविड बरसामयां ने लिखा है कि कैम्ब्रिज के रास्तों पर रात के समय ऐसे लोग मिल जाएंगे जो पैसा मांगते रहते हैं, रात में बिल्डिगों के दरवाजों पर सोए रहते हैं,यही स्थिति हार्वर्ड स्क्वेयर के सबवे में भी देख सकते हैं। मध्यवर्ग और उच्च मध्यवर्ग के इलाकों में गरीबी अब आसानी से नजर आती है। आज इन इलाकों में आप गरीबी से आंखें नहीं चुरा सकते। जबकि कुछ समय पहले ऐसा नहीं था। पहले गरीबी कुछ टाउनों में ही दिखाई देती थी, आज यह अन्य शहरों में फैल गयी है। यह एक तरह से अमरीका का तीसरीदुनियाकरण है।

चोम्स्की ने इसके उत्तार में कहा कि इसके लिए अनेक कारण जिम्मेदार हैं। आज से बीस साल पहले विश्व व्यवस्था में बड़ा परिवर्तन आया । खासकर निक्सन के जमाने में युध्दोत्तार दौर को राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के विध्वंस को प्रतीकात्मक तौर पर देख सकते हैं। निक्सन ने रेखांकित किया विश्व में अमरीका का वर्चस्व घट रहा है। त्रिकेन्द्रित विश्वव्यवस्था ( जिसमें जापान और जर्मन आधारित यूरोप बड़ी भूमिका अदा कर रहा था) में अमरीका की विश्व बैंकर के रूप में प्रभावशाली भूमिका नहीं रह गयी है। अमरीकी कारपोरेट जगत के मुनाफों पर दबाव बढ़ा है, सामाजिक कल्याण की योजनाओं में कटौतियां की गई हैं। अनेक कल्याणकारी योजनाएं साधारण लोगों से छीन ली गयीं। अब जो भी कुछ था वह समृध्दों के हवाले कर दिया गया। साथ ही अनरेगूलेटेड पूंजी का विश्वस्तर पर बड़े पैमाने पर प्रसार हुआ। सन् 1971 में निक्सन ने बिटॉन बु्रड सिस्टम का ध्वंस कर दिया। इसके कारण उसे मुद्रा अवमूल्यन करने में मदद मिली। बड़े पैमाने पर विश्वस्तर पर अनरेगूलेटेड पूंजी का प्रसार किया गया इसी को आज भूमंडलीकरण कहते हैं। अथवा अर्थव्यवस्था का अंतर्राष्ट्रीयकरण कहते हैं।

पूंजी के मुक्त प्रवाह और विकसित दूरसंचार के बिना भूमंडलीकरण संभव नहीं था। भूमंडलीकरण के दो प्रभाव देखे जा सकते हैं। पहला, तीसरी दुनिया के मॉडल को औद्योगिक देशों की ओर विस्तार दिया गया। जबकि तीसरी दुनिया के देशों में दो तरह का समाज दिखाई देता है एक तरफ बेशुमार दौलत और सुविधाएं है और दूसरी ओर भयानक गरीबी और अभाव है। यह विभाजन पश्चिम की नीतियों के कारण और भी गहरा हुआ है। इसे नव्य-उदारतावादी ''मुक्त बाजार'' के नाम पर थोपा गया है। मुक्त बाजार व्यवस्था के नाम पर समृध्दों और विदेशी निवेशकों को सीधे संसाधन मुहैयया कराए गए हैं। इस उम्मीद के साथ यह हो रहा है कि किसी दिन कोई चमत्कार होगा और भगवान आएंगे और सबका उध्दार कर देंगे। तीन देशों में तीसरी दुनिया के रास्ते को अपना लिया गया है। रीगन के नेतृत्व में अमरीका ने,थैचर के नेतृत्व में ब्रिटेन में और लेबर सरकार के नेतृत्व में आस्ट्रेलिया में तीसरी दुनिया का रास्ता अपना लिया है। वे तीसरी दुनिया की नीतियों के खेल को पूरी तरह कभी भी नहीं खेलेंगे क्योंकि यह सब समृध्दों के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है। किंतु उनका इन नीतियों के साथ इश्क चल रहा है। मसलन् दक्षिणी सैण्ट्रल लॉस एंजिल्स को ही लें, एक जमाना था वहां फैक्ट्रियां थीं, अब ये फैक्ट्रियां पूर्वी यूरोप,मैक्सिको, इण्डोचाइना में स्थानान्तरित कर दी गई हैं। इन क्षेत्रों में गरीब औरतें अपनी जमीन से बेदखल हो रही हैं जबकि समृध्द आनंद में हैं। वे वैसे ही आनंद में हैं जैसा तीसरी दुनिया में आनंद में हैं।

भूमंडलीकरण का दूसरा गंभीर प्रभाव प्रशासनिक संरचनाओं पर पड़ा है। इतिहास गवाह है आधुनिक युग में सरकार का रूप मूलत: राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की शक्ति के अनुरूप ही तैयार हुआ है। आपके यहां राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था है तो आपके यहां राष्ट्रीय राज्य हैं। अब हम अंतराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की ओर प्रयाण कर रहे हैं इसका अर्थ है अंतर्राष्ट्रीय राज्य। अंत में इसका अर्थ है अंतराष्ट्रीय प्रशासक। व्यापारिक प्रेस के शब्दों में हम ''नए साम्राज्य के युग'' को पैदा कर रहे हैं। इसके अपने संस्थान होंगे , जैसे आईएमएफ,विश्वबैंक,नाफटा,गेट,विश्व व्यापार संगठन आदि। प्रशासकीय मीटिंग के तौर पर जी - 7 और यूरोपीय समुदाय की नौकरशाही।

ऐसी फैसलेकुन संरचनाएं उभरकर सामने आई हैं जो बुनियादी तौर पर बहुराष्ट्रीयनिगमों और बहुराष्ट्रीय बैंकों आदि के प्रति जबावदेह हैं। इससे जनतंत्र के लिए गंभीर खतरा पैदा हुआ है। चोम्स्की ने इसे '' जनतांत्रिक घाटे'' की संज्ञा दी है। इन नीतियों के कारण राष्ट्रीय नीतियों पर संसद और जनता का कम से कम प्रभाव होता है। आम जनता जानती ही नहीं है कि क्या हो रहा है। वह यह भी नहीं जानती कि उसे क्या पता नहीं है। इसका एक परिणाम निकला है कि संस्थानों से जनता का अलगाव पैदा हो गया है। आम लोग महसूस करते हैं कि उनके लिए संस्थानों में कोई काम नहीं है। वह यह भी नहीं जानते कि फैसला लेने वाले गुपचुप ढ़ंग से क्या फैसले लेते रहते हैं। इस सबका लोकतंत्र की संरचनाओं पर दीर्घकालिक असर होगा। इस आख्यान की असली सफलता है औपचारिक लोकतंत्र को उसके सार से वंचित करना।

चोम्स्की ने सावधान किया है अमरीका का शासकवर्ग जिस भाषा का इस्तेमाल करता है उसे सतर्कता के साथ पढ़ा जाना चाहिए। हमें इस पर विचार करना चाहिए कि ''अमरीका'' से उनका तात्पर्य क्या है ? वे किस अमरीका की बातें कर रहे हैं ? क्या अमरीका की भौगोलिक संरचना की बात की जा रही है? यदि इसका अमरीका के घरेलू स्वरूप को लेकर है तो वे अमरीकी प्रशासन ठीक कह रहा है। अमरीकी नीतियों को घरेलू परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। क्योंकि उनका घरेलू स्तर पर ही असर होगा। चोम्स्की ने लिखा है अमरीका का निरंतर पतन हो रहा है और आगे भी पतन होगा क्योंकि अमरीका ने तीसरी दुनिया के समाज के अनेक गुणों को आत्मसात् कर लिया है। यदि हम कारपोरेशनों के संदर्भ में यदि बातें कर रहे हैं तो हमें घरेलू परिप्रेक्ष्य की बजाय अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में बातें करनी होंगी।

मसलन् अमरीका में मैन्यूफैक्चरिंग उत्पादन के क्षेत्र में गिरावट दर्ज की गई है। इसका स्वाभाविक परिणाम है उत्पादक शक्तियों को अन्यत्र स्थानान्तरित किया जाए। अखबार की खबरें बताती हैं कि जनरल मोटर्स उत्तारी अमरीका में अपनी 24 फैक्ट्रियों को बंद करने जा रहा है। किंतु छोटी या संक्षिप्त खबरों में देख सकते हैं कि यही कंपनी पूर्वी जर्मनी में उच्च तकनीकी सम्पन्ना 700 मिलियन डालर की लागत से एक नयी फैक्ट्री लगाने जा रही है। यही वह क्षेत्र है जहां ज्यादा से ज्यादा बेकारी पैदा हो रही है। इस क्षेत्र में उस कंपनी को मात्र 40 फीसद पगार देनी पड़ रही है। चोम्स्की ने लिखा है जनरल मोटर्स को चिन्ता करने की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि पश्चिमी यूरोप के मजदूर पालतू रहे हैं। वे सबसे ज्यादा शोषित मजदूर रहे हैं। अब वे पूर्वी जर्मनी के मजदूरों को परंपरागत तीसरी दुनिया के देश के स्तर पर ले जा रहे हैं। यानी पूर्वी जर्मनी को मैक्सिको और थाईलैण्ड आदि देशों के स्तर पर ले जाया जा रहा है।

मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था का नियम है कि सब कुछ बाजार के हवाले कर दो, सब कुछ बाजार की शक्तियों पर निर्भर है। चोम्स्की ने कहा हमें मुक्तबाजार को सही रूप में देखना होगा। इस संदर्भ में विश्वबैंक के अर्थशास्त्रियों हरमैन डाली और रॉबर्ट गुडलैंड के अध्ययन की मदद लेनी चाहिए। इन दोनों अर्थशास्त्रियों ने लिखा है मुक्त बाजार में निजी कंपनियां एक छोटा द्वीप हैं। मुक्त बाजार छोटी-छोटी फर्मों का द्वीप है। इस द्वीप में आंतरिक तौर पर कोई भी चीज मुक्त नहीं है। बल्कि ये निश्चित रूप से प्रबंधकीय तौर पर बंधे हुए ढांचे में काम करते हैं। अर्थशास्त्रीद्वय ने लिखा है अब ये द्वीप धीरे-धीरे समुद्र में विलीन होते जा रहे हैं। अब ज्यादा से ज्यादा परा-राष्ट्रीय विनिमय एक ही फर्म के जरिए किया जा रहा है। इसे वास्तव अर्थों में व्यापार नहीं कहते। इसमें केन्द्रीयस्तर पर विनिमय का प्रबंधन किया जाता है। इसमें बड़े कारपोरेशनों का हाथ होता है। वे ही इस निदेशित करते हैं। हम असल में बाजार पर निर्भर नहीं हैं,बल्कि हमारी वास्तव अर्थनीति में संरक्षणवाद ,हस्तक्षेपकारी,मुक्त बाजार और लिबरल उपायों का मिला-जुला रूप देखने को मिलता है। इस तरह की नीति का लक्ष्य है ऐसी सामाजिक नीतियों को लागू करना जो समृध्द और शक्तिशाली लोगों के लिए बनायी गयी हैं।

नव्य-उदारतावाद का समाज दृश्यों का समाज है ,टीवी के दृश्यों का समाज है। हमें दृश्यों के बारे में गंभीरता के साथ विचार करना होगा। इस संदर्भ प्रसिध्द माक्र्सवादी गुय देवोर्द के मूल्यांकन से हमें काफी मदद मिल सकती है। देवोर्द ने लिखा दृश्यों में सिर्फ इमेजों का ही संकलन नहीं है बल्कि यह लोगों के बीच का सामाजिक संबंध भी है जिसमें इमेजों ने सेतु का काम किया है। नजारे को आप मात्र मासमीडिया तकनीक द्वारा निर्मित दृश्य छल के जरिए नहीं समझ सकते। यह विश्वदृष्टिकोण है जिसे वास्तव में लागू किया जा रहा है। यह जगत का नजरिया है जो अब ऑब्जेक्टिव है। इसे समग्रता में समझने के लिए जरूरी है। यह वर्चस्वशाली उत्पादन संबंधों के लक्ष्य का परिणाम है।

विभाजन इस जगत की एकता का हिस्सा है। ग्लोबल सामाजिक अभ्यास यथार्थ और इमेज में विभाजित हो चुका है। सामाजिक अभ्यासों का स्वायत्ता दृश्यों से मुकाबला हो रहा है। टकराव हो रहा है। साथ ही वास्तव समग्रता से भी मुठभेड़ हो रही है। दृश्यों की भाषा उत्पादन के वर्चस्वशाली संकेतों में आ रही है। साइन या संकेत इस व्यवस्था के अंतिम उत्पाद हैं। दृश्य सिर्फ इमेजों का संकलन नहीं है बल्कि लोगों के बीच का सामाजिक संबंध हैं। जिनमें इमेज सेतु का काम कर रही हैं। दृश्यों को विश्व विजन के दुरूपयोग के रूप में नहीं समझा जा सकता। यह तो जनप्रसार और जनोत्पादन की तकनीकी इमेजों का उत्पाद है। यह विश्व विजन है जो अब वस्तुगत हो गया है।

दृश्यों को समग्रता में मौजूदा उत्पादन के साधनों के परिणाम के रूप में देखा जाना चाहिए। ये यथार्थ जगत के पूरक नहीं हैं। ये अतिरिक्त तौर पर शोभा की चीज हैं। यह यथार्थ समाज का 'अ-यथार्थवाद' है। यह अपने सभी विशिष्ट रूपों ,जैसे सूचना, प्रौपेगैण्डा, विज्ञापन अथवा प्रत्यक्ष मनोरंजन उपभोग के मामले में, दृश्य सामाजिक की वर्चस्वशाली जिंदगी का आदर्श मॉडल है। इसकी अंतर्वस्तु मौजूदा व्यवस्था को वैध बनाने का काम करती है, उसी पर निर्भर है। उसी पर इसका ज्यादातर समय खर्च होता है। देवोर्द ने लिखा पृथक्करण विश्व की एकता का हिस्सा है। सामाजिक अभ्यास यथार्थ और इमेज में विभाजित हो गए हैं। सामाजिक अभ्यास हमारे दृश्य स्वायत्ता से अलग हैं और समग्र यथार्थ से टकरा रहे हैं। आज दृश्य को अमूर्त में देखना संभव नहीं है। बल्कि दृश्य तो वास्तव सामाजिक गतिविधि है। स्वयं में विभाजित है। दृश्य यथार्थ में पिरोया हुआ दिखता है जबकि सच यह है कि उसे प्रस्तुत किया गया है।

जीवंत यथार्थ पर भौतिक दृश्यों के जरिए हमला कर दिया गया है। वह दर्शक को भी हजम कर रहा है। दर्शकीय व्यवस्था को भी हजम कर रहा है। इसकी सुसंगतता के कारण हम देख सकते हैं कि वस्तुगत यथार्थ दोनों ओर है। प्रत्येक समझ को इस आधार पर तय कर दिया गया है। अब आपके पास विलोम के मार्ग पर जाने के अलावा और कोई मार्ग नहीं है। यथार्थ का हमारे दृश्यों में उभार आ गया है। अब दृश्य यथार्थ लगने लगे हैं। एक-दूसरे से विलगाव ही मौजूदा समाज के मर्म का समर्थन करता है। यह संसार उल्टा-पुलटा है। यह छद्म क्षण है। देवोर्द कहता है दृश्य क्या है ? यह सामाजिक- आर्थिक निर्माण के अभ्यासों का समग्र बोध है। यह समय का उपयोग है। हम ऐतिहासिक क्षण की गिरफ्त में है।

देवोर्द कहता है दृश्य स्वयं को ज्यादा से ज्यादा सकारात्मक,निर्विवाद और जद के बाहर के रूप में पेश करता है। वह कहता कुछ भी नहीं है। वह सिर्फ अच्छे के रूप में अपने को पेश करता है। वह निष्क्रिय स्वीकृति के एटीट्यूट की मांग करता है। सच यह है कि उसे जिस तरह पेश किया जाता है उसमें इसे तो पहले से ही हासिल कर लिया गया होता है। प्रस्तुति की इजारेदारी के कारण प्रत्युत्तार संभव नहीं होता। दृश्य के पुनरावृत्तिामूलक चरित्र के कारण दृश्य बाढ़ के जरिए उसके अर्थ का अंत भी हो जाता है। जैसे सूर्य आधुनिक निष्क्रियता (पेसिविटी) के साम्राज्य को कभी नहीं ढंकता बल्कि विश्व की पूरी सतह को ढ़ंकता है और उसकी महिमा में अनंत काल तक खोया रहता है।

हम जिस आधुनिक समाज में रह रहे हैं वह अचानक हमें सतही तौर पर चमकीला नजर नहीं आ रहा है अपितु दृश्य में सत्तााधारी अर्थव्यवस्था की इमेजों के कारण चमकीला नजर आ रहा है। इसका लक्ष्य कुछ भी नहीं है। प्रत्येक का विकास करना ही लक्ष्य है। दृश्य का लक्ष्य स्वयं के अलावा और कोई नहीं है। दृश्य के द्वारा वैसे भी बंदी बनाया जाता है, पराधीन बनाया जाता है जैसे अर्थव्यवस्था पराधीन बनाती है। आर्थिक विकास के अलावा यह और कुछ नहीं है। यह वस्तुओं के उत्पादन की सत्यतापूर्ण व्यंजना है। साथ ही उत्पादक का छद्म वस्तुकरण है। दृश्य में पश्चिमी दार्शनिक परंपरा की सभी कमजोरियां हैं। खासकर गतिविधियों को समझने के बारे में जिन कमजोरियों का जिक्र आता है, वे सारी कमजोरियां दृश्य में भी हैं। इसका तकनीकी तार्किता अथवा रेशनेलिटी के तर्कों के आधार पर विकास किया गया है। यह तर्क वे ही लोग देते हैं ,दृश्य की केटेगरियों का तेजी से विकास हो रहा है। इस विकास को इस विचार के तहत प्रसारित किया जा रहा है कि दृश्य में दर्शन को आत्मसात नहीं कर सकते, बल्कि वह यथार्थ का दार्शनिकीकरण करता है। प्रत्येक व्यक्ति की ठोस जिंदगी को अनुमानाधारित जगत के पतन तक ले जाया गया है।

पृथक् विचार की शक्ति और पावर को पृथक् करने का विचार,ये स्वयं कभी थियोलॉजी से अलग नहीं हुए। दृश्य तो धार्मिक भ्रमों की भौतिक पुनर्निर्मिति है। भव्य तकनीकी धार्मिक धुंध भी बादलों को छांट नहीं पायी है। खासकर तब जब मनुष्य ने अपनी शक्ति को स्वयं से पृथक् कर लिया। दृश्य तो तकनीकी का आत्मसातकरण है यह मानवीय शक्तियों को उससे परे ले जा रही है।

नए युग में सामाजिक सपने अनिवार्यता हैं। सपने जब अनिवार्य हो जाते हैं तो आधुनिक समाज के लिए दृश्य दुस्वप्न की तरह लगते हैं। उनमें सोने से ज्यादा अन्य किसी इच्छा की अभिव्यक्ति नहीं होती। दृश्य तो संरक्षक हैं नींद के। सच यह है कि आधुनिक समाज में व्यावहारिक शक्ति स्वयं से पृथक कर लेती है और दृश्य का स्वतंत्र साम्राज्य खड़ा कर लेती है। इस शक्ति में संहति का अभाव है और यह स्वयं अन्तर्विरोधग्रस्त है। दृश्य मौजूदा व्यवस्था का स्वयंभू अबाधित विमर्श है। यह उच्चस्वरीय एकालापी है। यह पावर या शक्ति का स्व-चित्रित युग है इसमें अस्तित्व का सर्वसत्ताावादी प्रबंधन किया गया है। इस दौर में जड़पूजावादी या देवत्वपूर्ण अथवा शुध्द वस्तुगत दृश्यों की प्रस्तुतियों की ओट में आदमी और वर्गों के बीच के संबंध को छिपाया जा रहा है। दूसरी प्रकृति में विघातक कानून हमारे वातावरण में प्रभुत्व बनाए हुए है।

दृश्य जरूरी नहीं है कि तकनीकी विकास की ही देन हों,जैसा कि उनका स्वाभाविक विकास दरशाता है। दृश्यों का समाज इसके विपरीत अपनी तकनीकी अंतर्वस्तु का चयन करता है। यदि दृश्य को 'मासमीडिया' के सीमित अर्थ में लें तो यह तो दृश्यमान सतही अभिव्यक्ति है। यह तो समाज पर सिर्फ उपकरण के रूप में हमला है। ये उपकरण किसी भी रूप में तटस्थ नहीं हैं बल्कि ये तो समग्र स्व- आन्दोलन है। यदि युग की सामाजिक जरूरत के कारण तकनीक का विकास किया गया है तो वह सिर्फ सेतु (मेडीएशन)का काम करके संतोष पाती है। मौजूदा समाज का नियमन और लोगों के बीच के सभी किस्म के संबंध स्वत:संचालित संचार की शक्ति की मध्यस्थता के बिना संभव ही नहीं हैं। क्योंकि 'संचार ' बुनियादी तौर पर स्व-सक्रिय है। 'संचार' का केन्द्रीकरण मूलत: संचय है, इसका खास किस्म का प्रशासन इस्तेमाल करता है। सामान्यत: दृश्य की दरारों को आधुनिक राज्य से अलग करना मुश्किल है। खासकर सामाजिक दरारों से अलग करना मुश्किल है। यह सामाजिक श्रम-विभाजन और वर्ग वर्चस्व का हिस्सा है।

आधुनिक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था अलगाव पर आधारित है। यह अलगाव घूम-फिरकर अलगाव का उत्पादन करता है। तकनीकी अलगाव पर आधारित है और इसकी तकनीकी प्रक्रिया घूम-फिरकर अलगाव ही पैदा किया। ऑटोमोबाइल से लेकर टेलीविजन तक ,दृश्य व्यवस्था तक चुने गए सभी माल अलगाव को निरंतर आरोपित करते हैं ,यह 'अकेले की भीड़' है।

दृश्य निरंतर अपने अनुमानों को ठोस रूप में पुन:अर्जित करते हैं। दृश्य का उदय इसलिए होता है कि जगत के साथ जो एकता है उसका लोप हो गया है। देवोर्द ने लिखा दृश्य की साझा भाषा अलगाव से ज्यादा और कुछ नहीं है। दर्शक की अंधता अलगाव के प्रति अपरिवर्तनीय संबंध बनाती है। दृश्य जोड़ते हैं और अलगाव पैदा करते है ,किंतु फिर जोड़ते और अलग करते हैं। दर्शक का अलगाव आरोपित वस्तु का मुनाफा है। वह जितना ही आरोपित करता है उतना ही कम वह जीता है। जितना ही वह स्वयं को वर्चस्वशाली इमेजों में पहचानने की कोशिश करता है उतनी ही उसकी जरूरत पड़ती है। वह जितना ही अपने अस्तित्व और इच्छाओं को कम से कम समझता है। बाहरी सक्रिय आदमी के जितने भी हाव-भाव हम देखते हैं वे उसके नहीं होते। बल्कि उनके होते हैं जो उसका प्रतिनिधित्व कर रहे होते हैं। यही वजह है कि दर्शक अपना घर कहीं पर भी महसूस नहीं करता ,क्योंकि दृश्य तो चारों ओर है। नजारा तो चारों ओर है।

अब तो माल ही दृश्य है और दृश्य ही माल है। माल का ही समूचे सामाजिक जीवन पर वर्चस्व स्थापित हो जाता है। संबंधों में माल दिखाई देता है। इसके कारण हम संसार को देख नहीं पाते। आधुनिक आर्थिक उत्पादन अपने अधिनायकत्व का सघन और व्यापक तौर पर विस्तार करता है। यह दृश्यों का स्थायी अफीम युध्द है। इसका लक्ष्य है लोग वस्तुओं के साथ अपनी पहचान बनाएं, वस्तुकरण करें और उससे ही संतोष हासिल करें, उसका जीवन और विस्तार अपने नियमों पर टिका है। किंतु उपभोग की वस्तुओं की खपत हमेशा बढ़ जाती है। वह अभाव को बांधे रखता है। जिंदा रखने से ज्यादा उसकी कोई भूमिका नहीं है। यदि उसके जिंदा रहने की संभावना नहीं है तो वह अपना विकास रोक देता है। इसका कारण यह नहीं है कि वह अभाव के परे है, बल्कि वह अभाव को बढ़ाता है।

गुय देवोर्द ने लिखा आधुनिक समाज का सबसे विकसित क्षेत्र है ऑटोमोबाइल। उसने मालों की दुनिया को निम्न अंतर्विरोधों की ओर ठेल दिया है। तकनीकी उपकरण वस्तुगत तौर पर श्रम को खत्म कर देते हैं। श्रम को माल की तरह संरक्षित करके रखना होता है। क्योंकि वह माल का एकमात्र स्रोत है। यदि सामाजिक श्रम यानी टाइम अथवा समय समाज में व्यस्त है तो इसका यह कारण नहीं है कि ऑटोमेशन के कारण वह खत्म हो गया है। बल्कि नए रोजगार पैदा करने होंगे। सेवा यानी टेरीटरी क्षेत्र वितरण की सेना है जो वर्तमान मालों की ऊर्जा है।

अतिरिक्त सेना को संगठित किया जाता है जिससे खारिज श्रम को,बेकार के श्रम को मालों की आधिकारिक जरूरतों की पूर्ति के काम में लगाया जा सके। विनिमय मूल्य का उपयोग मूल्य के एजेंट के रूप में उदय होता है। यह स्वायत्ता वर्चस्व की परिस्थितियों के द्वारा निर्मित औजार है। वह सभी मनुष्यों को लामबंद करता है,उनका इस्तेमाल करता है और उन्हें संतोष प्रदान करके उन पर अपनी इजारेदारी कायम करता है। विनिमय मूल्य अंत में उपयोग का निर्देश देता है। विनिमय की प्रक्रिया में सभी संभावित उपयोग के ऊपर जोर रहता है और उसे विनिमय की दया पर छोड़ दिया जाता है। विनिमय मूल्य इस तरह उपयोग मूल्य के अन्तर्विरोधी के रूप में सामने आता है ,वह स्वयं के खिलाफ ही युध्द की घोषण्ाा कर देता है। उपयोग मूल्य में निरंतर गिरावट देखी जाती है, इसके कारण पूंजीवादी अर्थव्यवस्था नए किस्म के अभावों को पैदा करती है जिससे कि वह जिंदा रह सके। नए किस्म के अभाव पुराने अभाव को खत्म नहीं करते क्योंकि पगार मजदूरों को निरंतर उनके कामों में लगाए रखना होता है , इसका लक्ष्य है समर्पण करो या मर जाओ। यही आधुनिक मालों के उपयोग के भ्रमों की वास्तविकता है ,उपयोग इसका आधार है।

उपयोग के रूप में अब दो ही चीजें बच जाती हैं खाना और निवास। जिंदा रहने के लिए इन्हीं दो की जरूरत होती है। किंतु संपदा के भ्रम बढ़ते चले जाते हैं। ऐसी अवस्था में वास्तव उपभोक्ता भ्रमों का उपभोक्ता होकर रह जाता है। माल वास्तव में यथार्थ भ्रम है, दृश्य उसकी सामान्य अभिव्यंजना है।

स्वचालित अर्थव्यवस्था की विजय साथ ही साथ उसकी पराजय भी है। वे शक्तियां जो आर्थिक जरूरतों की अनिवार्यता को जन्म देती हैं वे ही आर्थिक जरूरतें नष्ट कर देती हैं। यह काम वे पुराने समाज के आधार पर करती हैं। जब आर्थिक जरूरतें बंधनहीन आर्थिक विकास को अपदस्थ करती हैं तो प्राथमिक तौर पर मनुष्य के संतोष की जरूरतों को भी अपदस्थ कर देती हैं। यह काम कृत्रिम जरूरतों को पैदा करके किया जाता है। जिससे अर्थव्यवस्था की स्वायत्ताता को बनाए रखा जा सके। अर्थव्यवस्था बुनियादी तौर पर बुनियादी जरूरतों से अपना संबंध तोड़ लेती है और इस क्रम में वह सामाजिक अवचेतन को अपने ऊपर निर्भर बना लेती है। ऐसे में अवचेतन को बदलना मुश्किल हो जाता है। किंतु ज्योंही वह मुक्त होता है तो पलटकर बर्बाद हो जाता है। इस समूची प्रक्रिया में इच्छा की सचेतनता और सचेतनता की इच्छा पर्याय बनकर सामने आती है। नकारात्मक तौर पर वर्गों को नष्ट करने की कोशिश की जाती है। उनकी प्रत्येक गतिविधि पर कब्जा जमा लिया जाता है। यह दृश्य समाज की धारणा के विपरीत है। यहां माल अपने द्वारा सर्जित जगत का विरोध करता है। दृश्यों का समाज एकीकृत और विभाजित एक ही साथ नजर आता है। यह वैसे ही है जैसे हमारा समाज है। अन्तर्विरोध तब पैदा होते हैं जब दृश्य अपने ही अर्थ का विरोध करने लगता है। उसका विलोम तैयार करता है। यह एकता के विभाजित रूप का प्रदर्शन है।

बौद्रिलार्द ने माक्र्स की विनिमय-मूल्य और उपयोग मूल्य की धारणा से आगे जाकर प्रतीक-मूल्य (साइन -वेल्यू) की धारणा का प्रतिपादन किया। उसका मानना था माल के उपयोग के लिए उसके प्रतीक-मूल्य का होना जरूरी है। उपभोक्ता समाज में प्रत्येक व्यक्ति उपभोक्ता होता है , प्रत्येक व्यक्ति को संगठित करना होता है। इसके लिए जरूरी है कि मालों के साथ प्रतिष्ठा को जोड़ दिया जाए। मालों के उपयोग से ही व्यक्ति की प्रतिष्ठा का पता चलता है। मालों के उपयोग से ही व्यक्ति प्रतिष्ठा हासिल करता है। इसी अर्थ में साइन वेल्यू अथवा प्रतीक -मूल्य की महत्ताा है।

प्रतीक -मूल्य प्रत्येक व्यवस्था और सामाजिक हैसियत के अनुसार अलग-अलग होता है। वस्तुओं की व्यवस्था का जरूरतों की व्यवस्था के साथ संबंध बना दिया जाता है। यहां कृत्रिम जरूरतें पैदा की जाती हैं और उन्हें जिंदगी का अनिवार्य हिस्सा बना दिया जाता है। उपभोक्ता समाज उन वस्तुओं पर टिका नहीं है जो जरूरत की हैं बल्कि उन वस्तुओं पर टिका है जो जरूरत की नहीं हैं। गैर-जरूरी को जरूरत का हिस्सा बनाना ही इसका प्रधान लक्ष्य है। समूची प्रक्रिया में वास्तव और नकली जरूरत के बीच का अंतर खत्म हो जाता है। यह सारा काम किया जाता है मार्केटिंग और विज्ञापन के जरिए। असली और नकली जरूरत की परीक्षा मनोरंजन अथवा आनंद के आधार पर की जाती है।

उपभोक्तावादी समाज सामाजिक भिन्नाता पर टिका है। प्रत्येक व्यक्ति भिन्ना दिखने के लिए वस्तुओं का इस्तेमाल करता है। भिन्ना सामाजिक हैसियत दरशाने के लिए ऐसा करता है। उपभोक्ता समाज में बहुस्तरीय रूपों में अस्वीकार भावना को सहज ही देखा जा सकता है। जिसके कारण क्रांतिकारी बदलाव आते हैं। जिसके कारण उम्मीदें अचानक बढ़ जाती हैं। इच्छा के नष्ट होने के प्रति हिंसक प्रतिक्रिया व्यक्त होती है। यही वह अवस्था है जिसमें अलगाव चरमोत्कर्ष पर दिखाई देता है। यह अलगाव कभी भी बाजार अर्थव्यवस्था का अतिक्रमण नहीं कर पाता। बौद्रिलार्द यह भी मानता है अब क्रांति नहीं होगी, बल्कि उपभोक्ता समाज के खिलाफ बगावत होगी। प्रतिवाद होगा। ये ऐसे प्रतिवाद हो सकते हैं जिनका हमने अनुमान तक न किया हो।

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